प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बच्चों को आध्यात्मिक शिक्षा कैसे दें? अभी जैसे अध्यात्म बेस (आधार) पर चल रहा है कि बुनियाद होनी चाहिए। अब मेरा बुनियाद तो नहीं है अध्यात्म और बच्चे पैदा हो गए ऐसे ही। तो उनका भी बेस (बुनियाद) नहीं हो पाएगा। जब मैं ही कोई बात नहीं समझी हूँ तो बच्चों की लाइफ (जीवन) में वो लाना मतलब नेक्स्ट टू इम्पॉसिबल (लगभग असम्भव) है। ये समझिए कि वो चीज़ नहीं आ पाई है क्योंकि मैं ही नहीं समझी, मैं भी अभी तो सुन ही रही हूँ अभी आज भी। फिर भी हम जैसे पेरेंट्स (अभिभावक) बनते हैं, हम ये जन्मसिद्ध अधिकार समझ लेते हैं कि हम बच्चों को गाइड (मार्गदर्शन) करेंगे। जब खुद ही नहीं समझे हैं अभी तक तो क्या हमें ये राइट (अधिकार) है कि बच्चों को हम गाइड (मार्गदर्शन) करें या कर पाएँगे? मतलब कैसे रोज़ हम सोचते हैं कि बच्चों को हम गाइड (मार्गदर्शन) करेंगे।
आचार्य प्रशांत: तो और किसलिए होते थे गुरुकुल? माँ-बाप में इतनी विनम्रता होती थी कि स्वीकार करते थे कि जबतक बच्चा शरीर मात्र था तबतक उसकी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हमारे साथ ही हो सकती थी, हमनें करदी। माँ का दूध पीता था, गंदा करता था, घुटनों के बल चलता था, बहुत छोटा था, उसे भाषा भी नहीं आती थी तो तबतक आवश्यक था कि वो माँ के साथ रहे। तबतक उसकी सारी आवश्यकताएँ मात्र शारीरिक थीं और शारीरिक आवश्यकताएँ तो माँ ही पूरी करेगी। तो माँ ने पूरी करदीं। पर जैसे ही बच्चा एक उम्र का पहुँचा, सात का हो गया, दस का हो गया, बारह का हो गया, माँ-बाप खुद उसे लेकर के जाते थे और अपने से दूर कर देते थे, गुरु के सुपुर्द कर देते थे। और फिर ये नहीं होता था कि बीच-बीच में आ जाना, अब सीधे पंद्रह साल बाद मिलना। ये माँ-बाप सच्चे प्रेमी थे अपने बच्चों के। ये असली माँ-बाप थे। इन्होनें प्रेम को मोह से ऊपर रखा। इन्होनें ये नहीं कहा — मेरा बेटा है, मैं रोज़ उसकी शक्ल देखूँ। इन्होनें कहा — अब मैं बच्चे को वहाँ छोड़ करके आऊँगी जहाँ वास्तव में उसका हित है।
तो अब आपका अगला सवाल आएगा — आज कहाँ छोड़ कर आएँ? आज कहीं छोड़ करके मत आइए। आज उसे अपने ही पास रखिए और जो ऊँची-से-ऊँची चीज़ है वो उसतक ले करके आइए। तब एक मजबूरी थी कि गुरु गुरुकुल में ही मिलते थे। आज वो आवश्यक नहीं है। संचार के, टेक्नोलॉजी (तकनीक) के तमाम साधन उपलब्ध हैं। तब तो छपी हुई किताबें भी नहीं थीं, अब तो जितनी किताबें चाहिए उतनी मिलेंगी। तो जो ऊँचे-से-ऊँचा साहित्य हो सकता है वो उसको उपलब्ध कराएँ।
समझिए कहने का आशय क्या है। एक बात हो सकती है कि माँ-बाप अभिमान में आ करके कहें कि, "हम ही गुरु हैं बच्चे के। हम ही जानते हैं कि क्या सही है और हम ही उसको सिखा-पढ़ा भी लेंगे। हमारी ही सीख पर चलेगा पप्पू।"
और दूसरी बात ये है कि, "देखो, हमारी सीख पर चलेगा तो हमारे ही जैसा हो जाएगा और हम अपनी ज़िंदगी से कोई बहुत तृप्त तो हैं नहीं, तो हम इसे अपनी सीख नहीं देंगे। हम इसे ऊँची-से-ऊँची सीख देंगे। जो दुनिया में उच्चतम बातें बोली गई हैं वो हम अपने बच्चे तक लेकर आएँगे।" ये प्रेम है। "और हम ख़ासतौर पर इस बात का ध्यान रखेंगे कि बच्चे पर हमारा प्रभाव ना पड़े, हमारी छाया ना पड़े।" ये बात ही बड़ी अजीब है क्योंकि हम तो चाहते हैं बच्चा हमारा बिलकुल हमारे ही जैसा हो जाए।
जो असली माँ-बाप होंगे, जिन्हें प्रेम होगा बच्चों से, वो कहेंगे, “कुछ भी हो, हमारा बच्चा हमारे जैसा ना हो। हमारी ज़िंदगी की छाया भी ना पड़े उसपर। हमारा काम ये नहीं है कि हम अपने बच्चे को अपनी प्रतिलिपि बना लें। हमारा काम ये नहीं है कि हम अपनी सारी वृत्तियाँ और अपने सारे संस्कार बच्चे में भी स्थानांतरित कर दें। हमारा काम है कि दुनिया में जो उच्चतम हो सकता है वो हम अपने बच्चे तक ले करके आएँ। बच्चे को मैं अपनी बात नहीं बताऊँगी, बच्चे को मैं कृष्ण की बात बताऊँगी। मैं वो नहीं बताऊँगी जो मुझे ठीक लगता है या अच्छा लगता है, मैं वो बताऊँगी जो वास्तव में ठीक है या अच्छा है। मुझे जो ठीक लगता है या मुझे जो अच्छा लगता है, अगर वो अच्छा ही होता तो मैं ही ना तर गई होती।” पर ये मानने के लिए विनम्रता चाहिए और प्रेम चाहिए। विनम्रता चाहिए अपने अज्ञान के लिए और प्रेम चाहिए बच्चे के प्रति। ये मेरा आग्रह है सभी अभिभावकों से, कुछ भी करो, बच्चे में अपनी विचारधारा, अपनी धारणाएँ, अपनी मान्यताएँ मत आरोपित करो। ये बिलकुल ठीक नहीं है।
प्र: मेरे आसपास ऐसे कई बच्चे हैं जो माता-पिता से आज़ादी चाहते हैं। वो कहते हैं, "हमें खुल्ला छोड़ दो, हम आज़ाद जीना चाहते हैं।" और वो किसी ग़लत व्यक्ति को अपना गुरु मान लेते हैं। ऐसा ज़्यादातर बारहवीं के बाद होता है।
आचार्य: पहली बात तो देर कितनी करदी। बारहवीं में है बच्चा मतलब सत्रह-अठारह साल का होगा। अब सत्रह-अठारह साल के उसके संचित अनुभव-प्रभाव-संस्कार, सत्रह-अठारह साल के बाद आप यकायक अगर चाहेंगी कि उसके ज्ञान-चक्षु खुल जाएँ तो इतनी आसानी से नहीं होगा। अब दो काम करने होंगे। पहला — खुद समझिए ताकि आप समझाने कि स्थिति में आ पाएँ और दूसरा — किसी तीसरे पक्ष की सहायता लीजिए। आप हैं, बच्चा है अब कोई तीसरा भी चाहिए। तो अपनी ओर से जो अधिकतम कर सकती हैं वो तो करिए ही। खुद समझिए ताकि आप समझा पाएँ और किसी तीसरे की सहायता भी लीजिए। और आइंदा से इतनी देरी की नौबत मत आने दीजिए। सत्रह साल का हो गया कोई, उसके बाद उसको सुधारना बड़ा मुश्किल होता है। श्रम लगता है बहुत ज़्यादा। इससे अच्छा ये है कि जब वो सात का है तभी उसे बिगड़ने मत दो, उसपर अंट-शंट प्रभाव पड़ने मत दो।
प्र: पर वो जब सात का था, तो हमें समझ ही नहीं थी।
आचार्य: ठीक है, कोई बात नहीं। अब जो कर सकते हैं अधिकतम वो करिए।
प्र: क्यों बच्चों को ये अट्रैक्शन (आकर्षण) हो रहा है कि हमें फ्रीडम (आज़ादी) चाहिए? फ्रीडम (आज़ादी) शब्द कैसे आया कि माँ-बाप से हम नहीं जुड़ पा रहे हैं?
आचार्य: ये सब वही है जो मैंने बात करी है। बिना ये समझे कि मुक्ति का अर्थ होता है स्वयं से मुक्ति, अपने ही अहंकार से मुक्ति, अपनी ही ज़िद, अपनी ही मान्यताओं से मुक्ति, ये जो पश्चिमी फ्रीडम (आज़ादी) है, वेस्टर्न कांसेप्ट ऑफ़ फ्रीडम (आज़ादी का पश्चिमी सिद्धांत) ये है — मुक्ति का मतलब है अपने आसपास जो दिख रहा है उन सबसे मुक्ति। पश्चिम अंतर्गमन नहीं कर पाता न, तो वो फ्रीडम (आज़ादी) की बात तो खूब करते हैं पर उनके लिए फ्रीडम (आज़ादी) का मतलब होता है — फ्रीडम फ्रॉम फादर (पिता से आज़ादी), फ्रीडम फ्रॉम मदर (माता से आज़ादी), फ्रीडम फ्रॉम टीचर (शिक्षक से आज़ादी), फ्रीडम फ्रॉम रूल्स एन्ड रेगुलेशंस (नियमों से आज़ादी)। उनके लिए मुक्ति का कभी अर्थ फ्रीडम फ्रॉम द सेल्फ (स्वयं से आज़ादी) नहीं होता, कि फ्रीडम फ्रॉम वंस ओन एरोगेंस (खुद के अहंकार से आज़ादी), फ्रीडम फ्रॉम वंस ओन टेंडेंसिस, वंस ओन बिलीफ्स (खुद की वृत्तियों से, अवधारणाओं से आज़ादी), इसको वो फ्रीडम (आज़ादी) समझ ही नहीं पाते। तो हाल ऐसा है।
प्र२: जो आपने बोला कि वेस्टर्न (पश्चिमी) और बच्चों को फ्रीडम (आज़ादी) चाहिए लेकिन एक जो लाइन (पंक्ति) आपने अभी आगे बोली — बच्चों में अपनी धारणा-विचारधारा नहीं लादनी चाहिए। ज़्यादातर ऐसा ही हो रहा है। पेरेंट्स (अभिभावक) अपनी वो धारणा-विचारधारा लाद रहे हैं "मैं जैसा बोल रहा हूँ यही करना है, वही करना है।" शायद उसी वजह से बच्चे बहुत चाहते हैं कि, "हाँ, हमें फ्रीडम (आज़ादी) चाहिए। हमें साथ में नहीं रहना है।"
आचार्य: वो भी बात है लेकिन ज़्यादा महत्त्वपूर्ण वो हवाएँ ही हैं जो बह रही हैं। देखो आजकल कितने गीत हैं, गाने हैं जिनमें फ्रीडम (आज़ादी) शब्द आता है या कि ये आता है कि,"आई विल फ्लाई हाई " (मैं ऊँचा उड़ूँगा)। फ्रीडम (आज़ादी) प्यारी चीज़ है, पर अगर समझा नहीं गया उसको तो तुम इधर से और उधर से, बाहर से तो अपने-आपको फ्री (मुक्त) कोशिश करोगे कराने की और अपने मन के ग़ुलाम बने रह जाओगे। जैसे कोई बाहर से अपना सारा कचरा साफ़ कर ले और भीतर उसके मल और मवाद भरा हो, उसकी वो रक्षा करता रहे। कि जैसे बाहर तुम्हें बेड़ियाँ पड़ी हुई हैं और आँतों में भी लोहे के कुछ टुकड़े पहुँच गए हैं और तुम्हें लग रहा है कि उसी लोहे से बस मुक्ति पानी है जो बाहर है। जबकि प्राणघातक क्या होने वाला है? वो लोहा जो भीतर पहुँच गया है।
प्र३: सर संबंधित प्रश्न है — अगर जैसे बच्चे हैं, वो अभी अबोध होते हैं, उनको कुछ पता नहीं है तो उनकी परवरिश कैसे हो कि उनका व्यक्तित्व बचपन से ही ऐसा हो।
आचार्य: सबसे पहले तो ये पूछो, "क्या नहीं होने देना चाहिए?" पर जो चारों तरफ़ से प्रभाव पड़ रहे हैं, उनके प्रति उनकी सुरक्षा करो। मुश्किल काम है पर अगर प्रेम है तो करना पड़ेगा। एक बच्चे को उसका परिवेश, उसकी पीढ़ी परिभाषित कर देती है। ये मत होने दो। बच्चे को उसकी पीढ़ी को मत परिभाषित करने दो। पीढ़ी और माहौल ना निर्धारित करें कि बच्चा कैसा होगा। ये नहीं कि आज के समय का है तो पब्जी तो करेगा ही। ये मूर्खता की बात है। ग़ौर से देखो कि क्या है जो उसके लिए हितकर है, सिर्फ़ वही उस तक पहुँचे। कोई भी चीज़ उस तक इसलिए ना पहुँचे क्योंकि वो प्रचलित है। मापदंड एक ही हो — क्या इसमें इसका हित है?
और हित की क्या परिभाषा है? वृत्तियों से मुक्ति। बच्चे तक जो शिक्षा पहुँच रही है, जो प्रभाव पहुँच रहे हैं, इससे उसको अपनी वृतियों से मुक्ति मिलेगी या वो वृत्तियों में और धँस जाएगा — ये सवाल पूछो।
तो पहला कदम निषेध का होगा। पहला कदम नकार का होगा, रोकने का होगा, अस्वीकार का होगा। दूसरे कदम पर फिर तुम्हें देखना होगा कि क्या है जो उसको दिया जा सकता है। ग्यारह-बारह-चौदह इतनी उम्र में धीरे-धीरे बच्चे का परिचय बोध-साहित्य से कराना शुरू कर देना चाहिए। लेकिन याद रखना, गंदी थाली पर शुद्ध भोजन भी रखोगी तो ज़हर हो जाएगा। थाली पर भोजन रखने से पहले थाली को रगड़-रगड़कर साफ़ करना फिर उसपर धीरे-धीरे शुद्ध भोजन रखो, बच्चे को उपलब्ध कराओ। इतना बहुत होता है।
सुनने में ये बात इतनी सरल लगती है कि मन को यक़ीन नहीं होता। मन कहता है — कोई बहुत लम्बी-चौड़ी प्रक्रिया चाहिए होगी। नहीं चाहिए। ये दो कदम बस। झूठ का प्रतिकार, सच मात्र का स्वीकार, और किसी को स्वीकार नहीं करेंगे, सच मात्र का स्वीकार। और सच को तुम स्वीकार कर सको, इससे पहले तुम्हें झूठ का ज़ोरदार प्रतिकार-अस्वीकार करना पड़ेगा। जिसकी थाली गंदी है, जिसने आसन ही गंदा बिछाया है, उसके आसन पर सच कैसे उतरेगा? पहले सफाई तो करो।
प्र: जैसे अभी आपने कहा कि अध्यात्म के ग्रंथ पढ़ने चाहिए तो मैंने कोशिश तो की थी पतंजलि के योग-सूत्र पढ़ने की। जैसे सोलह-सत्रह सूत्र तक आए भी थे लेकिन शायद संस्कृत का बैकग्राउंड (पृष्ठभूमि) नहीं है तो जो उसकी ग्रास्पिंग-अंडरस्टैंडिंग (समझ) होती है, वो नहीं आ पाती है। फिर वापस किताब रख दी सोचकर कि समझ नहीं आ रही है। तो ये ग्रंथों को पढ़ने का क्या तरीका होना चाहिए?
आचार्य: आप अन्य पुस्तकों से शुरू करिए। आपको कुछ पुस्तकें मैंने बताई हैं, आप उनसे शुरू करिए। यूँही किसी भी ग्रंथ से शुरुआत नहीं करते। इतने ग्रंथ हैं सर्वप्रथम, तो ये पता होना चाहिए कि अपने लिए उपयोगी कौन-सा है। पुस्तकालय पहुँचकर कोई भी किताब उठा लोगे? दवाई की दुकान पहुँचकर कोई भी दवाई उठा लोगे?
क्या कोई भी पुस्तक झूठी है पुस्तकालय में? नहीं। क्या कोई भी दवाई ख़राब है दवाखाने में? नहीं। पर क्या देखना पड़ेगा तुम्हें? तुम्हारे लिए उपयोगी कौन-सी है। तो पहले तुम्हें कोई चिकित्सक चाहिए जो तुम्हारी स्थिति को समझ सके और फिर जो दवा तुम्हारे काम की हो वो तुम्हें बता सके। ऐसे ही किसी भी दवा का सेवन नहीं कर लेते। हालाँकि दवाएँ सब अच्छी हैं, एक से बढ़कर एक हैं। ढूँढो कि तुम्हारे काम की कौन-सी है।