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कुविचार और सुविचार क्या हैं? || योगवासिष्ठ सार पर (2018)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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जिस प्रकार हवा से पैदा की गई आग उसी हवा से बुझ जाती है, उसी प्रकार जो कल्पना से पैदा हुआ है, वो कल्पना मात्र से ही मिटाया जा सकता है। —योगवासिष्ठ सार

आचार्य प्रशांत: चिंगारी को ज़रा हवा देते हैं तो आग भड़क जाती है और चिंगारी को फूँक देते हैं तो आग बुझ जाती है। दोनों ही स्थितियों में काम किसने किया? हवा ने किया। तो उसका दृष्टान्त बनाया है।

जो कल्पना से आया है, उसे कल्पना मात्र से ही मिटाया जा सकता है। आज जितनी हमने बातें की हैं, वो सारी बातें आ करके इस दृष्टान्त में समा जाती हैं। ये हमें बता रहा है कि कल्पना और कल्पना में भेद होता है। बात यह नहीं है कि तुम कल्पना कर रहे हो कि नहीं, बात यह है कि किस केंद्र से कर रहे हो।

हवा और हवा में अंतर है। एक हवा आग लगा देगी, दूजी हवा आग बुझा देगी। विचार और विचार में अंतर है, बुद्धि और बुद्धि में अंतर है, मन और मन में अंतर है।

बहुत मिलते हैं जो कहते हैं कि किसी तरीके से निर्विचार दे दें। मैं कहता हूँ, ये कुविचार है। तुम तो यह मनाओ कि तुम्हारा कुविचार सुविचार में बदल जाए। तुम यह जो निर्विचार माँग रहे हो, यह कुविचार है। तुम तो यह माँगो कि विचार पर आत्मा का वरदहस्त रहे।

जब विचार आत्मा को छुए रहता है तो वो सुविचार होता है। जब विचार आत्मा से दूरी बनाए है, सत्य से, गुरु से दूरी बनाए है, तो वो कुविचार है।

अब माँग निर्विचार रहे हो, और देख नहीं पा रहे हो कि ये जो विचार है निर्विचार माँगने का, ये वास्तव में कुविचार है। जितनी बातें हम करते हैं और ग्रंथों ने जो कुछ कहा आपसे कभी भी, वो सारी बातें मृत्यु के साथ मिट जाती हैं। मृत्यु तो बहुत दूर की बात है, आप सो भी जाते हो तो वो सारी बातें विलीन हो जाती हैं। सोने का भी क्यों नाम लें? आप जाग्रत भी हो पर मुक्त हो गए, बुद्ध हो गए, कबीर हो गए, तो आप ग्रंथों से आज़ाद हो जाते हो। मतलब क्या है इस बात का? मतलब इसका है कि ग्रन्थ भी जो कह रहे हैं, वो बात नित्य नहीं है। नित्यता का पैमाना क्या होता है? नित्यता की कसौटी क्या है? जो कभी भी विलुप्त न हो, जो कभी मिटे न सो नित्य।

तुमने ग्रंथों में जो पढ़ा, जो स्मृति रूप में तुम्हारे पास है, या बोध कह लो, जो भी तुम उसको अपना नाम दो, वो तुम्हारी मौत के बाद बच रहा है क्या? गया। तुमने ग्रन्थ में जो पढ़ा, वो तुम्हारी नींद में तुम्हारे साथ है क्या? और मौत और नींद की हमने कहा कि बात करने की ज़रूरत नहीं है। तुमने ग्रंथ में जो पढ़ा, वो तो तब भी वाष्पीभूत हो जाता है जब तुम बुद्ध हो जाते हो।

कबीर से कोई पूछे तो वो यही कहेंगे कि, “हमें ग्रंथों से कोई बहुत मतलब नहीं है।” कृष्णमूर्ति खुलेआम बोलते थे, “हमने तो कुछ पढ़ा ही नहीं।” ग्रंथ खुद कहते हैं: “हमें पढ़ लो, समझ लो, फ़िर हमें ढोए-ढोए मत फिरना, छोड़ देना। पढ़ लिया, समझ लिया, काम हो गया न? अब छोड़ दो।”

जो मिट जाए, जो नित्य न हो, वो क्या हुआ? जो कुछ भी नित्य न हो, वो क्या हुआ? कल्पित ही तो हुआ। दो ही तो संसार है: एक नित्यता का और दूसरा कल्पित। जो ही नित्य नहीं सो कल्पित; जो ही मिट जाए सो कल्पित। कल्पित माने वो जो नकली है, जिसके होने का कोई भरोसा नहीं; जो अभी है, और अभी नहीं है; जो सिर्फ तब तक है, जब तक मन उसके साथ लगा हुआ है। मन कल्पना के साथ लगा हुआ है, कल्पना बची है। मन कल्पना से हटा, कल्पना गई।

तो ग्रंथों द्वारा जो कहा जाता है, वो भी याद रखो कि अनित्य ही है। नित्य वो है जो ग्रंथों के बाद भी तुम्हारे पास बचता है और ग्रंथों के पूर्व भी तुम्हारे पास था। ग्रंथों की उपयोगिता है, नित्यता नहीं है।

यह याद रखना: ग्रंथों की परम उपयोगिता है पर नित्यता नहीं है।

ग्रंथ भी किसी परम कवि की कल्पना समान ही हैं, पर बड़ी मीठी कल्पना हैं। उस कल्पना में और साधारण कल्पना में अंतर होता है। हमने कहा कल्पना, कल्पना में फ़र्क होता है। तुम जिन कल्पनाओं में जी रहे हो, उनको ऋषि की कल्पना मिटा देगी। भजन गाते हो तुम, शब्द ही तो हैं। पर ये शब्द तुम्हारे मन में चल रहे शोर को मिटा देते हैं। ये तो अजीब बात है! शोर में शब्द-ही शब्द-हैं, हज़ार आवाज़ें हैं। पर कबीर का भजन भीतर जाता है, और वो भी तो आवाज़ ही है, गाया ही तो, पर ये आवाज़ भीतर गई तो बाकी सब आवाज़ों को हटा दिया।

ऐसी होती है परम कवि की कल्पना। वो बाकी सब कल्पनाओं को मिटा देती है और बाकी सब कल्पनाओं के मिट जाने के बाद वो स्वयं भी शेष नहीं रहती।

उपनिषदों के ऋषि महाकवि ही तो हैं, साधारण नहीं, महाकवि। ऋचाएँ हैं उनकी, शब्द नहीं हैं। ऋचा और छंद में बड़ी नज़दीकी का रिश्ता है, गीत हैं ऋचा। शाब्दिक अर्थ से भी देखें तो ऋषि वो जो गीत गा सकें। ऋषि वो जिनका गद्य पद्य में बदल गया और पद्य भी अब परम को समर्पित है।

हम गीत नहीं गाते। कवि गीत गाता है लेकिन कवि के गीत संसार से आबद्ध होते हैं, उसके गीतों में संसार-ही-संसार भरा होता है। कभी किसी प्रेयसी की कल्पना, कभी किसी दुःख की बात, कभी किसी संघर्ष की बात, ये साधारण कवि की कविताएँ हैं। वो क्रांति का बिगुल फूँकेगा, वो दुनियादारी की तमाम बातें करेगा। ज़रा गहराई रहेगी लेकिन बातें दुनियादारी की हो होंगी।

फ़िर आता है महाकवि, ऋषि। वो भी गीत गाता है लेकिन उसका गीत अब उधर (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) को है, वहीं से आता है और वहीं को जाता है। उसी की बात है और उसी को अर्पित की जाती है। वो गीत ऐसा है जो सारे शोरों को मिटा देता है। यही बात यहाँ पर वशिष्ठ राम को समझा रहे हैं।

शब्द, शब्द को मिटा सकता है; शोर, शोर को मिटा सकता है। दुनिया से परेशान हो तो दुनिया में ही कोई ऐसा मिल सकता है जो दुनिया की सारी परेशानियों से आज़ादी दे सकता है। दुनिया के बाहर खोजने जाओगे तो नहीं मिलेगा। दुनिया में ही इलाज भी मौजूद है। दुनिया, दुनिया में फ़र्क होता है; बंदे, बंदे में फ़र्क होता है। बड़े बंदों से परेशान हो, तुम्हें निजात भी कोई बंदा दिला सकता है।

ग्रन्थ, ग्रन्थ में फ़र्क होता है। किताब, किताब में फ़र्क होता है। किताबों ने ही तुम्हें बड़ा परेशान किया है, और एक किताब होती है जो आज़ादी दिला सकती है। ज्ञान, ज्ञान में फ़र्क होता है। एक ज्ञान होता है जो तुमको ताई जी और फूफी जी देती हैं। लिया है न खूब ज्ञान? दुनिया ऐसी, दुनिया वैसी, और तुझे ऐसे करना चाहिए। और एक ज्ञान होता है जो ग्रंथ या उसके बाद गुरु से मिलता है। ज्ञान, ज्ञान में अंतर होता है।

गुरु से जो ज्ञान मिलेगा, वो तुम्हारे मन में संचित सारे पुराने ज्ञान को साफ़ कर देगा और खुद भी चढ़कर नहीं बैठ जाएगा। कपूर की तरह होता है, पूरा ही भाँप हो जाएगा; रोशनी देगा और पूरा भाँप हो जाएगा। कपूर का कोई अवशेष देखा है? रोशनी पूरी दे जाता है और फ़िर गायब। गुरु ऐसा होता है, कपूर की तरह। यह वास्तविक ज्ञान की कसौटी है, बचेगा नहीं। न दूसरे को बचने देगा, न खुद बचेगा।

प्र२: कल्पना तो और कल्पना को जन्म देती नज़र आ रही है।

आचार्य: वो तो देगी ही। किस तल पर कल्पना कर रहे हो, सब इस पर है। किस केंद्र से कल्पना कर रहे हो, सब इस पर है।

देखा है पुराने ग्रंथों में कैसे काल्पनिक दृश्य हैं? लम्बी-चौड़ी कल्पनाओं का जाल कि तुम जब मरोगे तो तुम्हारे साथ क्या-क्या होगा: तुम फलाने पेड़ के नीचे से गुजरोगे, वो पेड़ तुमसे चार सवाल पूछेगा। अगर तुमने सही बता दिए तो तुम पेड़ से आगे फ़िर एक नदी में स्नान कर पाओगे, और गलत बता दिए तो तुम पेड़ पर उलटे टंग जाओगे। और फ़िर उस नदी में जब तुम नहा रहे होगे, तभी उस नदी से दो दूत निकलेंगे। वो दो दूत तुम्हारे दो कंधे पकड़ लेंगे और फ़िर तुमको एक महल की ओर ले जाएँगे। अब ये सब क्या है? ये किस्सागोई ही तो है, कि बैठकर कोई किस्सा गढ़ रहा है, और क्या कर रहा है? पर ये किस्सा उपयोगी रहा है। अनुभव ने हमें बताया है कि ऐसे किस्से उपयोगी रहे हैं।

नर्क की धारणा ने बहुतों की मदद की है कि गलत काम कर रहे हो, उबाले जाओगे; बहुत पिटोगे, बेटा। क्योंकि अक्सर जब तुम कुछ ज़ुल्म कर रहे होते हो या कुछ गलत कर रहे होते हो तो और कोई तुम्हें देखने वाला होता नहीं। जिस पर ज़ुल्म कर रहे हो, हो सकता है कि वह बहुत कमज़ोर हो। तो तुम्हें यह लग सकता है कि मेरा क्या नुकसान होगा? जिसको मैं पीट रहा हूँ, वह बहुत कमज़ोर है, ये तो ज़िन्दगी में कभी बदला ले नहीं पाएगा, और किसी ने देखा भी नहीं। तब जो नर्क की कल्पना है, वो काम आती है। नर्क की कल्पना तुम्हें वास्तविक में जीवित नर्क में डूबने से बचा देती है। है वो कल्पना ही, पर काम दे जाती है। कल्पना, कल्पना में फ़र्क होता है। कल्पना किस केंद्र से उठ रही है।

गीत, गीत में फ़र्क होता है। एक गीत उठता है वासना के केंद्र से, और करोड़ों ऐसे गीत हैं कि नहीं हैं? और एक गीत उठता है आत्मा से। तो ये कुतर्क कभी मत देना कि गाने तो वो भी गाते हैं और गाने तो वो भी गाते हैं। तुम हमसे ऊँचे थोड़े ही हो गए? तुम कबीर के भजन गाते हो और हम क्लासिक फिल्मों के गीत गाते हैं। तुम भी गाते हो, हम भी गाते हैं, दोनों बराबर। न, न, न, ऐसी बात नहीं है।

एक श्रोता: गीत पर भी जब सत्र किया था तब यह पाया था कि एक ही गीत और दो अलग केंद्र हैं।

आचार्य: हाँ, एक ही गीत दो लोग गा रहे हों तो भी गीत, गीत में अंतर हो जाता है। समझना इस बात को, एक ही गीत को दो लोग गा रहे हों तो भी गीत, गीत में अंतर हो जाएगा। गायन का केंद्र अलग है; आवाज़ कहीं और से आ रही है।

यह तर्क खूब दिया जाता है कि संतों को देखो, वो भी वही काम कर रहे हैं जो आम आदमी करता है। क्या फ़र्क है? वो फ़र्क तुम्हें तब समझ में आएगा जब तुम्हें भी ज़रा संतत्व छू जाएगा, नहीं तो नहीं समझ में आएगा।

एक श्रोता: महर्षि का चित्रण है सब्ज़ी काटते हुए।

आचार्य: हाँ, रमण महर्षि सब्ज़ी काट रहे हैं। कहेंगे, “ये देखो और वो बगल के शर्मा जी हैं, वो भी जब-जब पिटे हैं तब-तब सब्ज़ी काटी है उन्होंने। तो उनमें और रमण महर्षि में क्या अंतर हो गया?” अरे, बड़ा अंतर है, समझ में काहे नहीं आता?

कबीर ने इतनी मेहनत की, इतनी मेहनत की, इतना प्रचुर साहित्य दिया तुमको। और तुम बिलकुल कह सकते हो, "बड़े महत्वाकाँक्षी थे, अपना नाम रखना चाहते थे। उतने ही महत्वाकाँक्षी थे जितना ये बगल का छोकरा, ये भी रोज़ सुबह गाड़ी में बैठकर अपने कॉर्पोरेट ऑफिस भागता है कि मुझे भी तो अपना नाम बनाना है, मुझे भी बहुत सारा काम करना है। तो ये तो देखो अपना नाम बनाने के लिए काम करे जा रहा है, कबीर ने भी नाम बनाने के लिए भी काम किया। एम्बिशन (महत्वाकाँक्षा) थी कबीर की और क्या था?"

काम कबीर भी कर रहे हैं और बड़ी मेहनत एक संसारी भी कर रहा है। पर मेहनत, मेहनत में फ़र्क होता है। कर्म, कर्म में फ़र्क होता है।

बड़ी सुन्दर बात यहाँ कही है। यह बात अगर बैठ गई तो बहुत सारे कुतर्कों को नहीं उठने देगी और बहुत सारी छवियों को ध्वस्त करेगी। हमारे मन में छवि है कि या तो वस्तु होती है या शून्यता, नहीं, नहीं, नहीं। वस्तु और शून्यता नहीं होते। वस्तु, वस्तु में फ़र्क होता है। एक वस्तु शून्यता से ओतप्रोत हो सकती है, ये तो हो सकता है, पर वस्तु और शून्यता, नहीं। तुम कहो, “देखिए, उसके पास भी चीज़ें हैं और उसके पास भी चीज़ें हैं।” चीज़, चीज़ में फ़र्क होता है।

जब तुम वस्तु की और शून्यता की तुलना करने लग जाते हो न, तो तुम शून्यता को भी वस्तु बना देते हो; क्योंकि तुलना तो सजातीय, समान चीज़ों की ही हो सकती हैं। तराज़ू के एक पलड़े पर तुम वज़न और दूसरे पलड़े पर सुगंध थोड़े ही रख सकते हो। एक ही जैसी तो चीज़ें रखोगे न? एक जगह वज़न है तो दूसरी जगह भी वज़न ही होना चाहिए, वज़नी कुछ होना चाहिए।

अगर तुम कहते हो कि संसारी और संत में ये भेद है कि संसारी वस्तुओं में जीता है और संत शून्यता में जीता है, तो तुम पगले हो। संत भी वस्तुओं में जीता है, संसारी भी वस्तुओं में जीता है, पर वस्तु, वस्तु में फ़र्क होता है। शून्यता कहाँ है? इस भेद को समझ पाने में शून्यता है।

शून्यता कोई वस्तु नहीं है। तुम वस्तु और वस्तु का भेद समझ पाओ, इसको शून्यता कहते हैं।

नशा दारु के ठेके पर भी होता है और नशा सूफियों का भी है, पर नशे, नशे में फ़र्क होता है। और कई बार सूफी भी शराब का सेवन कर लेते थे, लेकिन उनको शराब नहीं चढ़ती थी, उन्हें कुछ और चढ़ता था। शायद शराब के माध्यम से चढ़ता हो, लेकिन ये पक्का है कि चढ़ती शराब नहीं थी। शराब भी पीते थे तो चढ़ता और कुछ था। हम जिस फ़र्क की बात कर रहे हैं, ग्रंथ उसको ही विवेक का नाम देते हैं। अंतर जान पाना, भ्रमित न हो जाना।

अब ये रिदम (एक श्रोता) है, एक लड्डू ये हलवाई के यहाँ से उठा लाई और एक लड्डू प्रसाद में मिला, एक ही है? तो बोलो लड्डू, लड्डू में फ़र्क होता है? प्रसाद वाला लड्डू कहने को लड्डू है पर चीज़ दूसरी है। एक लड्डू दिया है मोटे हलवाई ने और एक दिया है कृष्ण कन्हाई ने, फ़र्क है कि नहीं? एक लड्डू पेट में जाएगा, दूसरा लड्डू कहने को पेट में जाएगा, वास्तव में आत्मा में समाएगा, दिल में जाएगा।

दो घंटा ट्रैफिक में भी गुज़ारती हो और दो घंटे का ये सत्र भी होता है, पर घंटे, घंटे में फ़र्क होता है; समय, समय में फ़र्क होता। एक समय ऐसा होता है कि दो घंटे काटे नहीं कटते, दूसरा समय भी ऐसा होता है कि दो घंटे काटे नहीं कटते, पर फ़िर भी घंटे, घंटे में फ़र्क होता है।

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