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कुसंगति क्या? सुसंगति क्या? || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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समेशुचौशर्करा वह्वीवालुकाविवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः। मनोनुकूले न तु चक्षुपीडनेगुहा निवाताश्रयणेप्रयोजयेत्त॥

साधक को चाहिए कि वह समतल और पवित्र भूमि, कंकड़, अग्नि तथा बालू से रहित, जल के आश्रय और शब्द आदि की दृष्टि से मन के अनुकूल, नेत्रों को पीड़ा ना देने वाले (तीक्ष्ण आतप से रहित), गुहा आदि आश्रय स्थल में मन को ध्यान के निमित्त अभ्यास में लगाए।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद (अध्याय २, श्लोक १०)

आचार्य प्रशांत: योग की दृष्टि से जितनी बातें इस श्लोक में कही गई हैं, उन सबके स्थूल अर्थ लिए जा सकते हैं। कहा जा रहा है कि समतल जगह पर बैठो, साफ़ जगह पर बैठो। और जब कहा जा रहा है समतल जगह तो उससे आशय जगह ही है। ऐसी जगह खोजो जो समतल है, ढलुआ नहीं है, ढलान नहीं है, कि जहाँ पर बैठे और लुढ़क गए। समतल जगह, साफ़ जगह। ये नहीं कि वहाँ बैठे और संक्रमण हो गया, या वहाँ बैठे और दुर्गन्ध आ रही है। कंकड़ वगैरह ना हों, ये नहीं कि बैठ गए और चुभ रहा है कुछ। बालू वगैरह ना हो, कि हवा चली और बालू उड़ कर मुँह में घुस गए।

"जल के आश्रय और शब्द आदि की दृष्टि से मन के अनुकूल।" ना बहुत गीली हो और ना बहुत ही शुष्क हो। ना वहाँ बहुत शोर आता हो और ना ही इतना नीरव सन्नाटा हो कि सन्नाटा ही शोर बन जाए। नेत्रों को पीड़ा ना देने वाली ऐसी जगह पर बैठो जहाँ बहुत ज़ोर से प्रकाश तुम्हारी आँखों पर ना पड़ता हो। इन सबसे शरीर में उत्तेजना आती है, शरीर में उत्तेजना आएगी, तो योग कहता है शरीर की उत्तेजना मन की उत्तेजना बन जाएगी।

तो ये सारी वो बातें बतायी जा रही हैं जो शरीर को उत्तेजना से बचाती हैं, कि भाई, तुम्हें कुछ चुभ ना रहा हो, जगह बहुत गीली ना हो, बहुत शुष्क भी ना हो, बहुत ठंडी ना हो, बहुत गर्म भी ना हो, ऐसी जगह पर बैठ करके योगाभ्यास करो। ठीक है? "गुहा आदि आश्रय स्थल में मन को ध्यान के निमित्त अभ्यास में लगाइए।" ऐसी जगह पर बैठ जाओ और फिर ध्यान की विधि का अनुसरण करो। ये योग की बात हुई।

अब वेदांत इसको कैसे देखेगा?

वेदांत कहेगा कि बाहर तुमसे जो कुछ भी है, वो संसार रचा तो तुम ही ने है, पर ये बात तो तुम कब की भूल गए न कि 'ये संसार मैंने ही रचा है'? अब तुम संसार को कहते हो, "मुझसे बाहर की कोई चीज़ है, मुझसे अलग कोई चीज़ है।" और अब ये तुम्हारे ही द्वारा रचा गया संसार तुम्हें प्रभावित करता है, करता है न? तुमने ख़ुद ही जो दुनिया रची है वो तुम्हें प्रभावित करती है कि नहीं? बाकी को और छोटा करके सुन लो, दुनिया तुम्हें प्रभावित करती है कि नहीं करती है? हाँ, तो वेदांत कह रहा है कि जब दुनिया तुम्हें प्रभावित करती ही है तो अपने आसपास की दुनिया, माने अपनी संगति ऐसी मत रखो, जो तुम्हें उत्तेजना दे देती हो।

योग की भाषा से सुनें तो कहा जा रहा है कि कंकड़ पर मत बैठ जाना, कंकड़ की संगति मत कर लेना क्योंकि कंकड़ की संगति करोगे तो शरीर में चुभेगा। और वेदांत कह रहा है अपनी ज़िंदगी में कोई कंकड़ रूपी मनुष्य मत ले आ देना, वो तुम्हें दिन-रात चुभेगा। योग की भाषा में अर्थ स्थूल है, वेदांत की भाषा में अर्थ सूक्ष्म है।

इसी तरीके से कह सकते हो कि ना तो बहुत भावुक हो जाना और ना ही बिलकुल भावना शून्य हो जाना। बहुत गीला भी नहीं हो जाना है और बहुत सूखा भी नहीं हो जाना है, क्योंकि बहुत जो कुछ भी है, अति जैसी भी है, वो तुम्हें प्रभावित कर जाएगी और यही तो होने नहीं देना है − स्वयं को प्रभावित नहीं होने देना है।

ये लेकिन कब तक है वर्जना, कि अपने-आपको प्रभावित मत होने दो, अपनी संगति का विशेष ख्याल रखो? ये वर्जना सिर्फ़ तब तक है जब तक तुम अभ्यासरत साधक हो। जैसे-जैसे तुम्हारी साधना आगे बढ़ेगी, वैसे-वैसे तुम्हारे लिए ये वर्जनाएँ कम होती जाएँगी।

और फिर एक बिंदु तो ऐसा आता है जब तुम्हारा दायित्व हो जाता है कि तुम जानबूझकर कुसंगति करो। क्यों? क्योंकि अब तुम ऐसे हो गए हो कि "चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।" अब जब तुम कुसंगति करोगे तो वो कुसंगति तुम्हें ख़राब नहीं करेगी, बल्कि वो जो कुसंगी है तुम्हारा, वो जो तुम्हें कुसंगति दे रहा है उसको भला कर देगी। अब ये नहीं होगा कि वो तुम्हारे पास आया और तुम बुरे हो गए, अब ये होगा कि बुरा तुम्हारे पास आया और बुरा भला हो गया। पर वो आगे की बात है, अभी की बात ये कि तुम जिस जगह पर हो, उस जगह का विशेष ख्याल रखो।

तुम्हारे जीवन पर तुम्हारे आसपास के वातावरण से ज़्यादा प्रभाव किसी और चीज़ का नहीं होता है। और हम अपने आसपास के वातावरण से ज़्यादा किसी भी और चीज़ से अभ्यस्त भी नहीं होते हैं। इसका मतलब तुम्हारे आसपास का वातावरण ख़राब हो चुका है ये तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा क्योंकि तुम उससे अभ्यस्त हो गए, तुम उससे एक्लीमेटाइज हो गए।

तुम एक कमरे में बैठे हो जो वातानुकूलित है, ठीक है? बाहर निकलते हो तुम और बाहर लोग घूम-फिर रहे हैं आराम से। तुम बाहर निकलते हो, अचानक तुम्हें ऐसा लगता है लू चल रही है और तुम परेशान हो जाते हो दो-तीन मिनट के लिए। पर जो दूसरे लोग बाहर हैं उन्हें तो कोई तकलीफ़ हो ही नहीं रही। ये क्या हुआ है तुम्हारे साथ? *एक्लीमेटाइजेशन*।

यही हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि हम जिस माहौल में होते हैं, उस माहौल का हानि-लाभ पता लगना हमें बंद हो जाता है; हम उस माहौल के जैसे ही हो जाते हैं। तुम्हें बहुत प्यास लग रही हो, लग रही हो, तुम पानी मत पियो। थोड़ी देर में फिर तुम भूल भी जाते हो कि तुम्हें प्यास लगी है। हालाँकि वो प्यास लौटकर आएगी आधे घण्टे बाद फिर से और फिर तुम पानी पीते हो, तुम्हें तब पता चलता है तुम कितने प्यासे थे।

तुमने पैंट पहन रखी है जो कमर पर ज़्यादा कसी हुई है, और उसको पहनकर हो सकता है तुम पूरे दिन घूमते रहो। तुम कितनी तकलीफ़ में थे पूरे दिन ये तुम्हें तब पता चलता है जब तुम पैंट को शाम को खोलकर उतारते हो, तब तुम्हें पता चलता है कि 'मैं इतनी तकलीफ़ में था', जब वो उतरती है।

कुसंगति कभी नहीं बताएगी कि वो कुसंगति है। कुसंगति के साथ तुम्हारा जो सामान्य अनुभव होगा, समझो ग़ौर से, वो दुःख का नहीं, बेहोशी का होगा। दुःख तो बड़ी प्यारी चीज़ है, दुःख का मतलब है तुम जग गए। एक बच्चा पैदा होता है, तुम कब परेशान होते हो, जब वो रो रहा है या जब वो शांत है? वो शांत है तो समस्या है। दुःख का भी क्या मतलब है? अगर वो रो भी रहा है तो मतलब क्या है? वो जग गया, वो सचेत हो गया, उसमें चेतना है। कुसंगति के साथ तुम्हारा जो अनुभव रहेगा आमतौर पर वो बेहोशी का रहेगा। तुम्हें कुछ भी अनुभव ही नहीं हो रहा होगा, तुम जड़ पड़े हो।

तो ऐसा नहीं है कि कुसंगति में दुःख होता है और सुसंगति में सुख। उल्टा है, समझना। कुसंगति में बेहोशी होती है और सुसंगति में दुःख होता है। सुख कहा होता है? ख़्वाबों में। सपने किसलिए हैं? कुसंगति में क्या होती है? बेहोशी। और सुसंगति में होता है दुःख। और जब तुम वहाँ पहुँच जाते हो जहाँ तुमको सुसंगति की भी ज़रूरत ना पड़े, तब तुम उसको कह सकते हो कि ये सुख की अवस्था है। वो असली सुख है, आनंद है।

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