कुछ लोग राष्ट्रवाद को बुरा क्यों मानते हैं? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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कुछ लोग राष्ट्रवाद को बुरा क्यों मानते हैं? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्न: नमस्कार, राष्ट्रवाद के बारे में आपका क्या कहना है?

आचार्य प्रशांत: शब्द एक है, राष्ट्रवाद, पर मोटे तौर पर इसके अर्थ दो हैं। दोनों को अलग-अलग समझना पड़ेगा।

इंसान के पास हमेशा दो रास्ते होते हैं न, वैसे ही समझ लो बहुत सारे शब्द हैं जिनके उन्हीं दो रास्तों के समानांतर दो अर्थ होते हैं। एक रास्ता होता है आत्मा का, एक रास्ता होता है अहम का; एक रास्ता होता है मुक्ति का, एक होता है बंधन का; एक रोशनी का, एक होता है अंधेरे का। तो इसी तरीक़े से जो व्यक्ति राष्ट्र की बात कर रहा है, वह भी दो केंद्रों से राष्ट्र की बात कर सकता है।

साधारणतया जो व्यक्ति राष्ट्र की बात कर रहा होता है, वो बस यह कह रहा होता है कि — "जो लोग मेरे जैसे हैं, उनका दूसरों पर, और दुनिया पर वर्चस्व रहे, ये मेरा राष्ट्रवाद है।" राष्ट्र समझते हो न क्या होता है? एक जनसमुदाय का नाम होता है 'राष्ट्र'। राष्ट्र, राज्य नहीं होता। राष्ट्र आवश्यक नहीं है कि कोई राजनैतिक इकाई हो। कोई भी लोग जो एक विचारधारा के हों, या उनका एक-सा उद्गम हो, एक-सी एथनिसिटी हो, या एक धर्म के हों, ये सब आपस में मिल करके, ये पूरा जो जनसमुदाय है, ये एक 'राष्ट्र' या एक 'नेशन' कहला सकता है। ठीक है न?

राष्ट्र ‘नेशन’ है, राज्य ‘नेशन स्टेट’ है, या 'कंट्री' है—इन दोनों में अंतर होता है। तो राष्ट्र माने कि कुछ लोग हैं जो किसी कारण से आपस में एक-दूसरे को एक-दूसरे से संबंधित समझते हैं। मान लो सौ लोग हैं, ठीक है, और वो सब मानते हैं कि उनका जो पारस्परिक, सामूहिक उद्गम है, वो एक ही है। मान लो, मानते हैं कि वो सब सूर्य से उतरे हैं जमीन पर, ठीक है? कुछ कहते हैं अपने आप को —ऐसा हुआ था, वैसा हुआ था और सूर्य से ज़मीन पर आ गए। तो अब संभावना है कि ये जो लोग हैं, ये अपने आप को एक राष्ट्र के रूप में देखेंगे कि हम एक राष्ट्र हैं। ऐसा हो सकता है, सैद्धांतिक रूप से हो सकता है, हो चाहे न हो, वो अलग बात है। या कि कुछ लोग हैं जिनकी एक बोली हो, वो एक भाषा बोलते हैं; तो ये जो लोग हैं, जो एक बोली बोलते हैं, ये अपने आप को एक राष्ट्र के तौर पर ले सकते हैं, कि — "भई हमारी बोली एक है, इसीलिए हम राष्ट्र हैं।" ठीक है? कुछ लोग हो सकते हैं जो कहें कि हमारा धर्म एक है, इसीलिए हम एक राष्ट्र हैं।

तो कुछ लोग अपने आप को एक राष्ट्र समझते हैं, इसके पीछे सदा एक कारण होता है। एक केंद्र होता है हर राष्ट्र का। तुम अपने आप को एक राष्ट्र क्यों मानते हो? वो केंद्र क्या है? वो केंद्र दो तरह के हो सकते हैं, इसीलिए राष्ट्र और राष्ट्र में अंतर होता है।

एक केंद्र तो ये हो सकता है कि साहब हमारी ज़बान एक है, या हमारा मज़हब एक है, इसीलिए हम एक राष्ट्र हुए। भारत का विभाजन हुआ था राजनैतिक तौर पर, तो मोहम्मद अली ज़िन्ना का यही तर्क था। वो कहते थे कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग कौमें नहीं हैं, ये दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। वो कहते थे कि ये लोग ही बिल्कुल अलग-अलग हैं। और चूँकि यह अलग-अलग राष्ट्र हैं, इसलिए इनके अलग-अलग राज्य भी बन जाने चाहिए। वो जो उनका सिद्धांत था, जिसके आधार पर उन्होंने कहा था कि दो देश होने चाहिए, बिल्कुल यही था। वो कहते थे, “ये हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग पंथ, मज़हब, कौमें नहीं हैं; ये दो अलग-अलग नेशन्स हैं, दो अलग-अलग राष्ट्र हैं।” तो दो अलग-अलग राष्ट्र कैसे माने थे? ये एक लोग हैं जो हिन्दू कहलाते हैं, ये एक लोग हैं जो मुस्लिम कहलाते हैं, तो ये राष्ट्र हो गए। ठीक है?

चूँकि हम आमतौर पर राष्ट्र बनाते ही बड़े उथले केंद्रों से हैं, इसीलिए राष्ट्रवाद को समझदार लोगों ने एक समस्या ही माना, एक रोग ही माना। क्योंकि जो लोग अपने आप को एक राष्ट्र मान रहे हैं, उन्होंने राष्ट्र के केंद्र में कुछ ऐसी चीज़ रख दी है जो बहुत गहरी है ही नहीं। बात समझ रहे हो? उदाहरण के लिए, “साहब, हम सब गोरे लोग हैं, तो हम एक राष्ट्र हैं।” मान लीजिए एक जगह है जहाँ पर गोरे भी लोग हैं और काले भी लोग हैं, तो गोरे लोग सब इकट्ठा होकर क्या बोल रहे हैं? कि, “हम गोरे हैं, सो वी आर अ नेशन, हम एक राष्ट्र हैं।” ठीक है न? कहीं पर कोई जगह है, मान लीजिए जैसे यूगोस्लाविया था, वहाँ एथनिसिटी के आधार पर ज़बरदस्त फिर लड़ाई हुई थी और नरसंहार हुआ था। वहाँ भी यही था। लोग कहते थे कि जो ‘स्लाव’ लोग हैं वो अलग राष्ट्र हैं। क्यों? क्योंकि वो ‘स्लाव’ लोग हैं। समझ में आई बात? भारत में जो हुआ था, वो हम जानते ही हैं विभाजन के समय।

तो आप अपने आप को राष्ट्र किस आधार पर बोल रहे हो? या तो अपनी खाल के रंग के आधार पर कह रहे हो कि मैं एक राष्ट्र हूँ, या अपने खानपान के आधार पर बोल रहे हो, या अपनी जातीयता के आधार पर बोल रहे हो, या अपनी बोली के आधार पर बोल रहे हो कि मैं एक राष्ट्र हूँ। तो प्रश्न ये नहीं है कि राष्ट्र क्या है, प्रश्न ये है कि राष्ट्र के केंद्र में क्या है? तुम क्यों अपने आप को एक राष्ट्र मानते हो? भई, तुम दो हज़ार लोग हो, तुमने अपने आप को राष्ट्र मानना किस आधार पर शुरू कर दिया? तुम क्यों हो एक राष्ट्र? ये एक असली प्रश्न है। और आमतौर पर यह जो जनसमुदाय होता है, जो अपने आप को एक राष्ट्र मान रहा होता है, इसने उस राष्ट्र के केंद्र पर, मैंने कहा, बहुत ही हल्की चीज़ रख दी होती है: “मैं गोरा हूँ, तू काला है, तो तू अलग राष्ट्र है और मैं अलग राष्ट्र हूँ।”

तो इसीलिए विचारकों ने राष्ट्रवाद को, नेशनलिज़्म को अक्सर एक समस्या के तौर पर देखा। उन्होंने कहा, “ये बड़ी गड़बड़ चीज़ है, राष्ट्रवाद, क्योंकि आदमी और आदमी का विभाजन करा देती है, और विभाजन बड़े सतही आधार पर हो रहा है, विभाजन किसी बहुत ही मूर्खतापूर्ण चीज़ को केंद्र बनाकर हो रहा है।”

“भई, तेरे नाम के साथ एक उपनाम जुड़ा हुआ है, मेरे नाम के साथ एक उपनाम जुड़ा हुआ है, तो तेरे जैसे जितने लोग हुए वो एक राष्ट्र हो गए, और मेरे जैसे जितने लोग हुए वो एक दूसरे राष्ट्र हो गए”, ये बात समझ में आ रही है? तो आमतौर पर ऐसा ही होता है, निन्यानवे प्रतिशत मामलों में ऐसा ही होता है। तो इसीलिए फिर राष्ट्रवाद को एक समस्या के तौर पर देखा गया, और ये भी माना गया कि इतने बड़े-बड़े युद्ध हुए, पहला विश्वयुद्ध है, दूसरा विश्वयुद्ध है, उन्हें माना गया कि बहुत बड़ा कारण राष्ट्रवाद ही था, नेशनलिस्म।

तो विचारकों और बुद्धिजीवियों की नज़र में अधिकांशतः राष्ट्रवाद कोई अच्छा शब्द नहीं होता। ठीक है? कुछ हैं विचारक, कुछ हैं बुद्धिजीवी जो राष्ट्रवाद के गुणों की भी बात करते हैं, पर अधिकांशतः विरोधी ही रहते हैं। भारत में जो इसका उदाहरण है वो ठाकुर रबीन्द्रनाथ का है। जब भी भारत में राष्ट्रवाद की बात होती है, तो लोग याद करते हैं कि किस तरीक़े से रबीन्द्रनाथ राष्ट्रवाद के विरोधी थे।

अब राष्ट्रवाद के दूसरे पक्ष पर भी आते हैं। दूसरा पक्ष समझना बहुत ज़रूरी है।

हमने कहा राष्ट्र के केंद्र में हमेशा एक साझी पहचान होती है, वो साझी पहचान आमतौर पर क्या हो जाती है? पंथ, मज़हब, बोली, खानपान, आचरण, ये सब हो जाती है, या जातीयता। राष्ट्र के केंद्र पर जो साझी पहचान होती है, शेयर्ड आइडेंटिटी, वो आमतौर पर ये हो जाती है—इसीलिए राष्ट्रवाद गड़बड़ चीज़ है।

लेकिन एक अलग तरह का राष्ट्रवाद भी हो सकता है, जब एक जनसमुदाय बोले कि —"हम एकसे इसीलिए हैं क्योंकि हमें सच्चाई पर चलना है।" वो भी एक राष्ट्र ही कहलाएगा। वो भी एक नेशन ही होगा। इसीलिए एक सोच ये भी रही है कि अगर धर्म को स्थापित होना है—धर्म का पालन करने वाले लोगों के अलावा धर्म तो कुछ होता नहीं—तो उस धर्म के अनुयायियों को एक राष्ट्र मानना ही चाहिए। और अगर फिर उनको धार्मिक आधार पर जीवन जीना है, तो उस राष्ट्र को राज्य भी बन जाना चाहिए। अन्यथा धर्म आगे नहीं बढ़ सकता।

बात समझ रहे हो?

ये एक अलग तरह का राष्ट्र है। ये वो राष्ट्र है जो कह रहा है कि — "हम लोग इसीलिए नहीं इकट्ठा हैं कि तू काला, मैं काला, तू गोरा, मैं गोरा, तू भूरा, मैं भूरा। हम इसीलिए भी नहीं इकट्ठा हैं कि एक पर्वत के उस तरफ़ तू रहता है, एक पर्वत के इस तरफ़  हम लोग रहते हैं। पर्वत के इस तरफ़ जो हम लोग रहते हैं, हम अलग लोग हैं; उधर जो रहते हैं वो अलग लोग हैं।" या, "तुम्हारी भाषा दूसरी है, हमारी भाषा दूसरी है। हम इसीलिए नहीं अलग हैं। हम देखो इसीलिए अलग हैं क्योंकि हम कुछ लोग हैं जिन्होंने अब तय कर लिया है कि हमें तो जीवन सच्चाई को समर्पित करना है। और बड़े खेद की बात है कि वो जो तुम बाकी लोग हो, तुम ये बात मान नहीं रहे हो। तुम जो बाकी लोग हो, तुम कह रहे हो कि तुम्हें ज़िंदगी भोग-विलास में, सुख की खोज में बितानी है। तुम लोग कह रहे हो कि तुमको ज़िंदगी अहंकार की तृप्ति में बितानी है। और हम कह रहे हैं कि हमें ज़िंदगी अहंकार के विसर्जन में लगानी है। तो हम और तुम अलग राष्ट्र हो गए।"

"हम चाहते नहीं हैं कि तुमसे अलग राष्ट्र बनाएँ , लेकिन यथार्थ यही है कि हम और तुम देखो अब एक हैं नहीं। हम चाहते हैं कि तुम भी हमारे जैसे हो जाओ। नहीं, हम तुम्हारे जैसे नहीं बनना चाहते। और यह कोई हमारे अहंकार का प्रदर्शन नहीं है कि हम तुम्हारे जैसे नहीं बनना चाहते, बल्कि तुम्हें अपने जैसा बनाना चाहते हैं। ये यथार्थ की बात है। मेरी आँखें खुली हैं। मैं जानता हूँ मेरी आँखें खुली हैं और मैं किसी सपने में अपनी आँखों को खुली नहीं देख रहा हूँ। मैं रोज़ ज़िंदगी पर प्रयोग करता हूँ। मैं रोज़ ज़िंदगी की कसौटी पर अपने आप को कसता हूँ। मैं रोज़ बार-बार अपना परीक्षण करके देखता हूँ कि मेरी आँखें खुली हैं या नहीं खुली हैं। मैं रोज़ अपने आप से कड़ा सवाल पूछता हूँ कि मेरी ज़िंदगी गवाही दे रही है कि मेरी आँखें खुली हुई हैं? तो इसीलिए मुझे भरोसा है कि मेरी आँखें खुली हुई हैं। और मैं फिर तुम्हारा जीवन देखता हूँ, मैं तुम्हारे दुःखों को देखता हूँ, मैं तुम्हारी लड़खड़ाती चाल को देखता हूँ, तो मुझे फिर भरोसा आता है कि तुम्हारी आँखें बंद हैं। तो इसीलिए बहुत दुःख के साथ ही, लेकिन मुझे कहना पड़ रहा है कि तुम और मैं अलग-अलग राष्ट्र हैं।"

"हम चाहते हैं कि हमारी आँखें खुली हों, हमारी ही तरह औरों की भी आँखें खुली हुई हों, तो फिर हमको एक राज्य भी होना होगा।"

क्योंकि देखो राष्ट्र के नियम-कायदे नहीं होते, राष्ट्र एक सिद्धांत होता है, एक एब्सट्रेक्शन होता है, और राज्य के पास राजनैतिक सत्ता होती है। राज्य नियम-कायदे-कानून निर्धारित करता है, राष्ट्र नहीं कर सकता। समझ में आ रही है बात? इसीलिए फिर राष्ट्र को राज्य बनना पड़ता है। ये मजबूरी है राष्ट्र की कि उसे राज्य बनना पड़ेगा, नहीं तो राष्ट्र भी कायम नहीं रह पाएगा। बात समझ रहे हो?

अब हज़ार लोग हैं जो जग रहे हैं। और जागृति कुछ होती है या नहीं होती है, या उसको हम एक खयाली शब्द समझ के यूँ ही उड़ा देंगे? हज़ार लोग हैं जिनमें जागृति आ रही है। अब उनमें अगर जागृति आ रही है, तो वो अपना परिवेश, अपना माहौल, अपने नियम-कायदे एक तरह के रखना चाहते हैं न? एक नियम से वो चलना चाहते हैं न? और उनके नियम फिर दूसरों के नियमों से मेल नहीं खा सकते। तो फिर ये लोग जिनमें जागृति आ रही होती है, इनके लिए आवश्यक हो जाता है कि अपने राष्ट्र को राज्य में तब्दील करें।

अगर आपका राष्ट्रवाद ऐसा है जिसके केंद्र पर सच्चाई है और मुक्ति है, तो राष्ट्रवाद में फिर कोई बुराई नहीं है, लेकिन मैं इसमें आगाह करूँगा, चेतावनी दूँगा, कि निन्यानवे दशमलव नौ प्रतिशत मामलों में राष्ट्रवाद ऐसा नहीं होता। निन्यानवे दशमलव नौ प्रतिशत मामलों में राष्ट्रवाद तमाम तरह के उपद्रव का कारण ही बना है इतिहास में, और इस बात को हमें स्वीकार करना होगा। कोई वजह थी कि जानने-समझने वालों ने कहा कि राष्ट्रवाद आदमी की चेतना में लगा हुआ घुन है, खा जाता है।

तो दोनों बातें जाननी जरूरी हैं।

पहली यह कि व्यवहारिक तल पर राष्ट्रवाद के इतिहास में हमें जो अधिकांश उदाहरण मिले हैं, वो उदाहरण बड़े काले उदाहरण हैं। वो उदाहरण हमें बिल्कुल यही बता रहे हैं कि राष्ट्रवाद से बचके रहो, राष्ट्रवाद घनघोर बीमारी है। ये आपको एक भीड़ में बदल देता है, आपके सोचने-समझने की ताकत को ख़त्म कर देता है। आपको एक खोखली पहचान में बांध देता है।

राष्ट्रवाद के साथ तमाम तरह की समस्याएँ हैं। लेकिन जब हम कहें कि राष्ट्रवाद के साथ इतनी समस्याएँ हैं तो हमें उस संभावना को भी पूरी तरह से ख़ारिज नहीं कर देना चाहिए कि एक दूसरे तरह का राष्ट्रवाद भी हो सकता है जिसके केंद्र में सच्चाई और मुक्ति बैठी हो। उस संभावना को पूरी तरह ख़ारिज करना बहुत ख़तरनाक हो जाएगा।

भई, हज़ार पत्थर पड़े हैं, इनमें नौ सो निन्यानवे पत्थर मात्र हैं, एक हीरा है। उस हीरे की इतनी कीमत है कि हम नौ सो निन्यानवे पत्थरों के साथ भी सावधानी बरतें। सब एक हज़ार को ही एक-सा समझ करके तिरस्कृत न कर दें।

इस संभावना को हम सम्मान देते रहें, इस संभावना को हम क़ायम रखें कि एक अलग क़िस्म का राष्ट्र भी हो सकता है। लेकिन वो जो अलग क़िस्म का राष्ट्र होगा वो इतनी आसानी से नहीं आएगा, उसके लिए फिर बहुत पहुँचे हुए और बहुत ऊँचे लोग चाहिए। और बड़ा मुश्किल है कि करोड़ों ऐसे लोग हो जाएँ जिनकी राष्ट्रीयता के केंद्र में चेतना हो और आध्यात्मिक जागृति हो। बड़ा मुश्किल है। आज तक तो इतिहास में ऐसा हुआ नहीं। आज तक हुआ नहीं, लेकिन हो सकता है। हो सकता है। इस संभावना को, इस पॉसिबिलिटी को याद रखना बहुत आवश्यक है कि आज तक तो कम ही हुआ है इतिहास में, या बिल्कुल नहीं हुआ, लेकिन हो फिर भी सकता है।

एक ऐसा राष्ट्र जिसमें जितने लोग हैं, उनकी साझी पहचान एक ही है, क्या? हमें सच्चाई पर जीना है। हमें रोशनी में जीना है। अगर राष्ट्रवाद आपका ऐसा है तो राष्ट्रवाद बहुत सुंदर, बहुत ऊँची बात है, अन्यथा नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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