प्रश्नकर्ता : “पूर्ण से पूर्ण को निकाल लो, पूर्ण ही शेष रहता है,” इसका मर्म, मुझे तो अर्थ से नहीं समझ में आया, क्योंकि जो...
आचार्य प्रशांत: कहीं और की बात हो रही है, दुनिया की चीज़ों में ऐसा नहीं होता।
दुनिया की चीज़ों में कितनी भी बड़ी चीज़ से अगर छोटी-से-छोटी चीज़ भी निकालोगे, तो उस बड़ी चीज़ में से कुछ घट जाएगा। तुम्हारे पास अरब रुपए हों, उसमें से एक रुपया भी निकाल दिया तो वो अरब रुपए अब अरब रुपए नहीं रह गए, कुछ घट गया।
तो ये बात निश्चित रूप से कहीं और की हो रही है, किसी पदार्थ की बात नहीं हो सकती। किसी ऐसी चीज़ की बात है जो देने पर घटती नहीं है, शायद और बढ़ जाती है। जिसके घटने और जिसके बढ़ने की शायद बात ही व्यर्थ है, क्योंकि उसका स्वभाव ही कुछ विचित्र है, वो देती रहती है, देती रहती है, न जाने कहाँ से देती है। इतनी पूर्ण है कि घटेगी क्या, बढ़ भी नहीं सकती।
अब ये सोचो कि ऐसी वस्तु में अगर स्थापित हो जाओ तुम, ऐसी वस्तु अगर मिल जाए तुम्हें, तो कितनी राहत की बात है न? गईं सब चिन्ताएँ, छूटे सब बंधन, छूटी मृत्यु भी। सारा तनाव ही यही है कि, “ये छूट न जाए, जो पाना है कहीं उसको पाने से चूक न जाएँ", यही है न सारा तनाव?
वो जिसको पाने के बाद कोई डर बचता नहीं, जिसके खो जाने की कोई संभावना नहीं, जो इतना पूरा है कि उसमें कोई वृद्धि, कोई इज़ाफ़ा हो सकता नहीं, उपनिषद् तुम्हें उसकी ओर प्रेरित कर रहे हैं।
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥"
सब उपनिषदों का सार, समझ लीजिए इसी शांति पाठ में समाया हुआ है। दुनिया में तो जिधर भी देखा, अपूर्णता ही अपूर्णता पाई, वो कह रहे हैं, "पूर्णमदः पूर्णमिदं, ये भी पूर्ण है, वो भी पूर्ण है।“
जैसे किलकारी-सी उठे भीतर से, “वाह! क्या बात है, ऐसा हो सकता है क्या? ज़िन्दगी ऐसी हो सकती है, अतृप्ति से रहित? वेदना से रहित? कलुष, कलष, तमाम तरह के कषायों से, क्लेशों से रहित?”
"और ले जा सकते हो जो, ले जाओ, 'पूर्णम् एव अवशिष्यते', पूर्ण ही बचेगा, अवशेष भी पूर्ण होगा। ले जा सकते हो जो, ले जाओ, हम दरवाज़ा खोल कर सोते हैं, बिगाड़ क्या लोगे, उखाड़ क्या लोगे? 'पूर्णम् एव अवशिष्यते', तुम जब सब कुछ ले जाओगे, तो भी हमारे पास पूरा बचा होगा। अब भैंसे पर आओ कि टैंक पर आओ, हमारा कुछ नहीं बिगड़ने वाला। भैंसा अपग्रेड (उन्नयन या सुधार करना) करो महाराज, टैंक , सबमरीन (पनडुब्बी), यू.एफ.ओ. (उड़ने वाली अपरिचित वस्तु), किसी ऐसी चीज़ पर आओ अब। पर इतना बताए देते हैं कि किसी भी चीज़ पर आओगे, हमारा कुछ नहीं बिगड़ेगा, 'पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णम् एव अवशिष्यते'।"
ये हुई बात बेफ़िक्री की, ये हुई बेख़ुदी, अब अपना ख़्याल क्या रखना? अहं माने, लगातार सुरक्षा माँग रहा है कोई। और ये बड़ी बोझ की बात है न, कि लगातार किसी की सुरक्षा कर रहे हो, कर रहे हो, कहीं वो आहत न हो जाए, कहीं चोटिल न हो जाए, कहीं खो न जाए , कहीं मिट न जाए। अहं माने एक ऐसी चीज़ जिसको लगातार सुरक्षा देनी पड़ती है।
उपनिषद् तुमसे कह रहे हैं, "कोई सुरक्षा नहीं चाहिए, कुछ नहीं खोने वाला, कुछ नहीं मिटने वाला।"
आया मज़ा?
“और जो ले गया है हमसे वो भी अपूर्ण नहीं ले गया, उसको भी पूर्ण ही मिला, ‘पूर्णात्पूर्ण’ से ‘पूर्णात् पूर्णमुदच्यते', ले जाने वाले के पास भी पूरा, और हमारे पास तो ख़ैर..."
प्र : आज इनसे भी चर्चा हुई थी, साहिल से, जब शास्त्र पढ़ते हैं, तो एकदम, जैसे कहते हैं न, नींद, जैसे आँखें पथरा गईं। तो इन्होंने बताया कि वो, (साहिल से पूछते हुए) किसके क्रिय है, अहम के?
आचार्य: सक्रिय और अक्रिय विरोध।
प्र: अक्रिय विरोध।
आचार्य : ये अक्रिय विरोध है।
प्र: तो बोर्डम (बोरियत) तो है नहीं, जो मैं अपना देखता हूँ, तो जैसे ही पुस्तक खोली, या पढ़ना चालू किया, तो वो थोड़ी देर के लिए ऐसे होता है जैसे कि नींद आ गई। लेकिन छोड़ना तो है नहीं, तो उसके बाद फिर जगते हैं तो वही करते हैं। तो इसका और कोई तरीका है?
आचार्य: मेरे सामने तो आप सोते नहीं कभी, तो यही तरीका है।
सबको सब पुस्तकें नहीं जमेंगी, आपको जो पुस्तक जमती है आप वो पढ़िए न। उपनिषद् ज़रूरी थोड़े ही है कि आपके पास कागज़ में छप कर ही पहुँचें। उपनिषद् जिन शिष्यों के पास मौलिक रूप से भी पहुँचे थे, कागज़ में छप कर नहीं पहुँचे थे, ऐसे (श्रोतागण और अपनी ओर इशारा करते हुए ) पहुँचे थे। तो आपका उपनिषद् फिर यही है, कागज़ तो आपको सुला देता है, यही (सत्र) पुस्तक है आपकी।
प्र: कुछ देर पहले हम खेल खेल रहे थे एक, जिसका नाम है चाईनीज़ व्हिस्पर (एक खेल का नाम)। उसमें हमने एक, दो बार कोशिश करी, हमको लगा शायद एक बार हमने एक्सपेरिमेंट (प्रयोग) गलत किया। हमने दो बार प्रयास किया, और पाँच प्रतिशत बात भी आगे नहीं पहुँची, आखिरी वाले बन्दे को पता नहीं क्या ही पहुँचा था। तो अभी भी, हम आपसे इतने समय से सुन रहे हैं, हम सभी लोग, तो, हम तक वही पहुँच रहा है जो आप दे रहे हैं, या उसमें भी हम फिल्ट्रेशन (छलनी) लगा कर, कुछ और ही पहुँच रहा है? इसको कैसे एंश्योर (सुनिश्चित) करें?
आचार्य: ये तो ख़ुफ़िया बात है। (सभी हँसते हैं)
मैं वो दे रहा हूँ जो मेरे पास है, तुम वो ले रहे हो जो तुम्हें लेना है, अब क्या होगा?
ये प्रयोग किया जा चुका है, बीसों बार। सत्र पूरा होने के बाद मैं कहता हूँ, "मैंने जो कहा वो लिख लेना दस बिंदुओं में", लोग लिख लेते हैं सब। फिर मैं कहता हूँ, “अपने पड़ोसी से अपना पर्चा बदल लो”, अब तुमने जो लिखा होता है और बगल वाले ने जो लिखा होता है, बिलकुल अलग। तुम उससे कहते हो, "आचार्य जी ने ये कब कहा?", वो कहता है, "आचार्य जी ने ये कब कहा?", और दोनों ने ही जो लिख रखा होता है, वो मैंने कहा नहीं।
(सभी हँसते हैं)
और आगे का प्रयोग भी हो चुका है, कि, "चलो हो सकता है सुनने में और याद्दाश्त में फेर हो गया हो, तो ऐसा करो, वीडियो (चलचित्र) लो, और उसको जितनी बार सुनना है सुनो, सब लोग।" अब उसके बाद लिखते हैं कि प्रमुख बातें क्या हैं, उसमें भी अंतर रहता है, और छोटा-मोटा नहीं, ज़मीन-आसमान का अंतर रहता है।
प्र: सिस्टम (तंत्र) फॉल्टी (दोषपूर्ण) है हमारा ?
आचार्य: फ़िल्टर्स (छलनी) लगे हैं। एम्प्लिफायर्स (बढ़ाने वाला यन्त्र) भी लगे हैं। किसी बात को इंपीड (बाधा डालना) किया जा रहा है। डैंपनर (हतोत्साहित करने वाला यन्त्र) लगा हुआ है। किसी बात को एंप्लिफाई (बढ़ाना) किया जा रहा है। किसी बात का तुक किसी दूसरी बात से जोड़ा जा रहा है जहाँ हो सकता है कोई तुक हो ना, तो सुपरइम्पोसिशन (अध्यारोपण) चल रहा है। सब चल रहा है।
कहीं पर क्रेस्ट (शिखर) को क्रेस्ट से जोड़ दिया तो बात चौगुनी हो गई, कहीं ट्रफ (द्रोणी) को ट्रफ से जोड़ दिया, कहीं क्रेस्ट को ट्रफ से जोड़ दिया तो बात ही ख़तम हो गई। तो ये सब हमारी करतूत चलती रहती है साथ में।
माया अज्ञान का नाम नहीं होता, माया अधूरे ज्ञान का नाम होता है। अज्ञान तो बड़ी प्यारी चीज़ है, खाली ही हो जाओ, कुछ बचा नहीं। माया है अधूरा ज्ञान, आधी बात।
प्र: अब इतना तो, फ़िल्टर्स * तो हैं ही, तो ग्रंथों को और आप को सुना कैसे जाए? * फ़िल्टर्स को क्या किया जाए कि...
आचार्य: मैंने कहा न, कि जब एक बार सुनने के प्रयोग का नतीजा ये आया कि दस-के-दस बिंदु अलग थे, तो मैंने कहा, "चलो ऐसा करो, वीडियो देख लो, और कई बार देखो।" फिर तुम्हारे पास छुपने की, या झूठ बोलने की, या बात को विकृत करने की गुंजाइश कम हो जाएगी। क्योंकि अब पाँच बार सुना, अब अपने आप को कैसे बोलोगे कि मैंने वो बात नहीं बोली?
तो इसीलिए समझाने वालों ने कहा, "शास्त्रों का जीवन भर पाठ करो, ताकि धीरे-धीरे साफ़ अर्थ समझ में आने लगे।" एक बार सुन कर आगे बढ़ गए, तो अर्थ का अनर्थ ही करोगे। किसी बात को समझना हो तो (दोहराने का इशारा करते हैं), और, गहरी बात को समझना हो तो अनंत पाठ चाहिए। हर पाठ के साथ साफ़ अर्थ उभर कर आता है, समय देना होगा, श्रम देना होगा। एक ही बात बार-बार पूछनी होगी, एक ही बात बार-बार सुननी होगी।
तभी तो मुझे पता है कि एक ही बात पूछ रहे हो, लेकिन मैं बार-बार उसका अलग-अलग तरीके से जवाब दिए जाता हूँ, क्योंकि पिछली बार तुमने सुना कहाँ था, तो इस बार बोलना ज़रूरी है। इस बार भी तुमने सुना कहाँ, तो अगली बार भी बोलना ज़रूरी है। अगली बार भी पूरा सुनोगे कहाँ, तो उसके अगली बार भी बोलना ज़रूरी है। तो बात भले ही वही हो, पर तरीके-तरीके से, भाँति-भाँति से उसको बार-बार दोहराना ज़रूरी हो जाता है।
प्र : आचार्य जी, जैसा आपने कहा कि प्रकृति से शुरू होता है फिर संयोगवश चलता है। तो इसमें एक चीज़ पता करनी थी, शिष्य का गुरु के साथ, ये संयोग है, कि...
आचार्य: (ना में सर हिलाते हुए) अनुकम्पा। ना संयोग है, ना प्रकृति है, नियति है।
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