धीरज धरो छिमा गहो, रहो सत्यव्रत धार गहो टेक इक नाम की, देख जगत जंजार ~ संत कबीर
आचार्य प्रशांत: पूछ रही हैं कि "क्षमा क्या है?" क्षमा है, क्षमा की ज़रुरत का अभाव।
क्षमा करने की ज़रुरत तब पड़ती है, जब चोट लगी हो। क्षमा उठती ही चोट से है। वास्तविक क्षमा कोई घटना नहीं है कि आपको चोट लगी और आपने माफ़ किया। वास्तविक क्षमा चित्त की वो निरंतर अवस्था है, जिसमें चोट खाना ही बड़ा मुश्किल हो जाता है। क्षमा को यदि आप एक घटना के तौर पर देखेंगे, तो भूल हो जाएगी। फिर आप कहेंगे कि, "मैंने क्षमा किया!"
क्षमा को एक घटना की तरह नहीं, एक मनोस्थिति की तरह देखिए। कहिए कि, "मैं क्षमा में हूँ, मैं निरंतर क्षमा में हूँ।"
अब जो कुछ भी हो रहा है वो चोट पहुँचाता नहीं। लगातार, कोई एक बार नहीं, कोई एक खास घटना नहीं। लगातार जो कुछ हो रहा है वो चोट पहुँचाता नहीं, वो स्पर्शित करता नहीं, वो कंपित करता नहीं। जैसे कृष्ण कहते हैं न, निर्वात स्थान में जलता दीया। अब दोनों गए मेरे जीवन से, क्षमा की आवश्यकता भी, और?…
जब चोट लगती है, बाहर वाले से, तो आपको क्षमा करना पड़ता है। बाहर वाला, इसके विपरीत, किस रूप में आपको प्रभावित करता है? एक तरीका तो ये है बाहर से सम्बंधित होने का कि बाहर वाला आपको चोट दे गया, जब चोट दे गया तो आप कह सकते हो – ‘क्षमा’। और इससे बिलकुल विपरीत कोई दूसरा बाहर वाला आपको क्या दे सकता है? प्रशंसा दे सकता है, प्रेम दे सकता है, सुख दे सकता है।
क्षमा की आवश्यकता पर बहुत-बहुत ज़ोर वही लोग देते हैं, जो कृतज्ञता की आवश्यकता पर भी ज़ोर देते हैं। वो कहते हैं, कि कोई बुरा कर दे तुम्हारा, तो क्षमा और कोई भला कर दे तुम्हारा, तो धन्यवाद। मैं आपसे कह रहा हूँ, कि जब आपके जीवन से ये घटना रुपी क्षमा जाएगी, ‘सिर्फ’ तब ही आपके जीवन से घटना रुपी धन्यवाद जाएगा।
घटना रुपी धन्यवाद अहंकार का ‘तरीका’ है, निरंतर धन्यवाद में ना बने रहने का।
ग़ौर से देखिए क्या होता है, किसी से आपको कुछ मिला आप कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। आप कहते हैं, धन्यवाद। धन्यवाद कहकर आप सिद्ध क्या कर रहे हैं? कि पहले नहीं मिला हुआ था। अब धन्यवाद एक घटना बन गई है, मनोस्थिति नहीं रही आपकी, और यही दुःख है, यही पीड़ा है। न तो क्षमा, और न ही कृतज्ञता, कोई पल-दो-पल की चीज़ होनी चाहिए।
क्षमा में जीया जाता है, वो एक सतत मनोस्थिति है।
उसी तरीके से कृतज्ञता में, अनुग्रह में जीया जाता है, बात-बात पर धन्यवाद ना बोल दिया करिए। जब मन में लगातार राम-धुन बज ही रही हो तो किस-किस बात पर राम को धन्यवाद दोगे? एक-एक साँस जब उसी की दी हुई है, तो क्या बार-बार बोलोगे, कि "धन्यवाद! धन्यवाद! धन्यवाद!" और कभी तो बीच में रुकोगे? क्षण भर का भी अंतराल हो जाएगा, तो गड़बड़ हो गई। चूके! धन्यवाद में ही जी रहे हैं अब क्या बोलें कि शुक्रिया। क्या बोलें? चोट लग ही नहीं रही, तो क्या बोलें कि क्षमा किया! न शुक्रिया, न क्षमा किया! बस बज रही है भीतर लगातार – वही धुन! वही धुन! वही धुन!
इसीलिए आपने देखा होगा कि जहाँ प्रेम होता है, वहाँ बड़ी इच्छा नहीं होती है शुक्रिया अदा करने की।
शुक्रिया अदा करने के लिए अलगाव होना ज़रूरी है। इसी तरह आपने देखा होगा कि जहाँ नज़दीकी होती है, सानिध्य होता है, वहाँ क्षमा की ज़रुरत नहीं होती है। क्षमा करने के लिए भी अलगाव होना ज़रूरी होता है। जो है, सो है। तू ही देने वाला, तू ही लेने वाला, तेरा ही सारा खेल! किसके सामने नमन करूँ? कौन नमन करे?
दत्तात्रेय पूछते हैं बार-बार- "सर झुकाऊँ किसके सामने?"
कबीर कहते हैं- "माला फेरूँ न जप करूँ, मुँह से कहूँ न राम।"
फिर दूसरे दोहे में कहते हैं– "अब मन राम ही हो रहा, अब कहूँ अनत न जाए।"
नहीं कि मन राम के चरणों में बैठा है, नहीं कि मन राम को समर्पित है। "अब मन राम ही हो रहा, अब कहूँ अनत न जाए।" तो क्या बार-बार बोलें कि "धन्यवाद! धन्यवाद! बड़ी अनुकम्पा आपकी कि आपने इतना कुछ दिया।" किसको दिया? अपने ही घर रखे हुए हो। जब सब तुम्हारा ही तुम्हारा है तो देते किसको हो? ‘खेलते’ हो। और खेलने के मज़े भी कौन ले रहा है? ख़ुद ही ले रहे हो। धन्यवाद भी चाहिए अभी। सारा मज़ा तुमने लिया, अभी धन्यवाद भी माँगते हो! और किससे माँग रहे हो धन्यवाद? अपने ही आप से। बड़ी इच्छा हो रही है तो बताओ – दे देंगे, औपचारिकता के नाते। खेल है, उसमें ये भी चलता है कभी-कभी, धन्यवाद!
बार-बार ना कहा करो कि "प्रभु आपसे बहुत मिला है", वो जैसे देता है वैसे ही छीनता भी है। ना कहो कि तू बड़ा दरिया दिल है, ना कहो तू बड़ा मेहरबान है। वो समस्त द्वैतों का संगम है। ना कहो कि तूने जन्म दिया है, ना कहो कि ‘तेरी मर्ज़ी से ऐ-मालिक हम इस दुनिया में आए हैं’। छुपा गए बाकी आधी बात, तुम तो अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने में भी धूर्त हो, बाकी आधी बात कौन कहेगा? हर रविवार यहाँ बैठ कर गाते हो, तेरी मर्ज़ी से ऐ-मालिक हम इस दुनिया में आए हैं, तेरी रहमत से हमने ये जिस्मो-जान पाए हैं। बाकी आधी बात कौन बोलेगा? वो पचा गए। जन्म देने वाला वो है तो?
प्रश्नकर्ता: मृत्यु देने वाला भी वही है।
आचार्य प्रशांत: तब नहीं गाते हो। कोई आवश्यकता नहीं है ये सब बहुत गाने की, कि तेरी मर्ज़ी से आए हैं, जैसे उसने भेजा है, वैसे ही बुला भी लेगा। उस जगह पर स्थित रहो जहाँ ना भेजा जाता है, ना वापस बुलाया जाता है। कोई आवश्यकता नहीं है गाने की, कि तूने हमें भेजा है, जानो! कि भेजने जैसा कुछ होता ही नहीं, जानो! कि वापस कुछ बुलाया ही नहीं जाता, क्योंकि कभी कुछ भेजा ही नहीं गया। मत गाओ बार-बार कि तेरी रहमत से आए हैं, तुम अपने लिए दुःख का रास्ता तैयार कर रहे हो। यही सब तो नासमझियाँ हो जाती हैं।