क्रोध पर कैसे काबू पाएँ? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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क्रोध पर कैसे काबू पाएँ? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा प्रश्न यह है कि क्रोध पर कैसे काबू पाया जाये?

आचार्य प्रशांत: अगर सिर्फ़ क्रोध पर काबू पाना हो तो उसके लिए तो बहुत विधियाँ हैं।

सबसे अच्छी विधि यह है कि किसी को नियुक्त कर दो कि जब तुम्हें क्रोध आ रहा हो तो एक डंडा मारे। और आदमी तगड़ा होना चाहिए। देखा है न कि तगड़े आदमी के सामने क्रोध आता नहीं?

तुम्हारे सामने कोई सबल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री खड़ा हो, कभी आया है तुम्हें इतना क्रोध कि तुमने उछल कर उसका गला पकड़ लिया हो? और यही बेचारा कोई गरीब सब्ज़ीवाला हो, रिक्शावाला हो, वहाँ बात-बात में तुनक जाते हो।

बॉस के सामने कौन क्रोध प्रदर्शित करता है? हाँ, अधीनस्थ हो तो उसके सामने तो फिर कुछ भी कर सकते हो। अगर सिर्फ़ क्रोध की घटना पर काबू पाना हो तो व्यावहारिक तल पर बहुत उपाय हैं।

सिर पर पानी डाल लो या क्रोध आ रहा हो तो पूरा ही क्रोध कर डालो। अंजाम ऐसा होगा कि बहुत दिनों तक नहीं आएगा क्रोध। यह सारे उपाय क्रोध की घटना को, इवेंट आफ एंगर , उसको रोक सकते हैं। और खेद की बात है कि हमारा ज़्यादा आशय, ज़्यादा प्रयोजन ही क्रोध की घटना से होता है। समझना!

क्रोध एक चीज़ है और क्रोध की घटना दूसरी चीज़ है। क्रोध की घटना है वो अवसर, वो मौका जब तुम फट पड़े। और क्रोध है एक सुलगता हुआ जीवन। अभी कल या परसों ही मैं कह रहा था कि क्रोध की घटना है कुकर की सिटी का बज जाना। और क्रोध है नीचे जलती आग, भीतर बढ़ता हुआ तनाव और दबाव। सीटी तो तभी बजेगी जब दबाव एक सीमा को पार कर जाएगा। पर हमें इस बात से कोई आपत्ति ही नहीं होती कि आग लगी हुई है और दबाव बढ़ रहा है। हमें आपत्ति सिर्फ़ तब होती है जब सीटी बज जाती है। फिर हम कहते हैं सीटी कैसे न बजे। तो बैठ जाओ सिटी पर, नहीं बजेगी। या सीटी ही निकाल कर फेंक दो — न रहेगा बांस, न बजेगी सीटी।

क्रोध तो ऐसा है जैसे कि होटल में, घर में फ़ायर-अलार्म लगा हो। जब धुआँ उठता है और तापमान बढ़ता है तो वो बजने लग जाता है। बजता है न? अब बहुत अगर दिक़्क़त हो रही हो कि यह क्यों बजता है बीच-बीच में तो उसका तार काट दो, नहीं बजेगा।

क्रोध की अभिव्यक्ति तो सिर्फ़ एक रासायनिक घटना है। बाज़ार में गोलियाँ आ गई है, तुम उनको खा लो, क्रोध उठेगा ही नहीं। इंजेक्शन आ गए हैं, लगा लो, क्रोध तुरंत गिर जाएगा, तुम मुस्कुराने लग जाओगे। तुम मस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव डाल सकते हो कि क्रोध न आये। लेकिन कोई भी गोली तुम्हारा जीवन नहीं बदल सकती।

अब बताओ क्रोध की घटना भर पर काबू पाना है या जीवन बदलना है? क्योंकि क्रोध की अभिव्यक्ति, क्रोध की घटना यूँही नहीं होती। उसके पीछे एक सुबकता हुआ, सुलगता हुआ जीवन होता है। एक ऐसा जीवन होता है जिसकी कामनाएँ पूरी नहीं हो पा रही है, वो चिढ़ा हुआ है। फिर वो बीच-बीच में फ़टा करता है; अनुकूल मौका पाकर फटा करता है। जहाँ पता है कि सामने कोई ऐसा है जिस पर फटा जा सकता है — वो फट जाता हैl

जो कोई क्रोध में दिखे समझ लेना कि जीवन नारकीय जी रहा होगा। नहीं तो क्रोध कहाँ से आता? क्रोध को उसी समय प्रेसिपिटेट (अवक्षेप) करने वाली, प्रकट करने वाली घटना, हो सकता है छोटी सी हो — आपकी गाड़ी पर किसी ने खरोंच मार दी, आपने उसको गोली मार दी। खरोंच का जवाब गोली! घटना छोटी सी थी।

आपको क्या लग रहा है, गोली खरोंच की वजह से चली? गोली खरोंच की वजह से नहीं चली है। उसके पीछे एक जिंदगी है जिसमें इच्छाएँ बहुत हैं और पूर्णताएँ बहुत कम। कामना ही जब पूरी नहीं होती तो क्रोध बन जाती है। क्रोध उठ ही नहीं सकता जब तक अपूरित कामनाएँ न हो। और कामना क्यों करते हो? कामना इसलिए करते हो क्योंकि कुछ चाहिए, सीधी बात।

चाहना बुरा नहीं है। जैसे चाह रहे हो वैसे नहीं मिलता। जिस दिशा चलकर के चाह रहे हो उसे दिशा नहीं मिलता। जब नहीं मिलता तब चिड़चिड़ाते हो; जब नहीं मिलता तो जो ऊर्जा कामना में लगी हुई थी, वही ऊर्जा क्रोध बनकर उफ़नाती है, विस्फ़ोट लेती हैl

जब चाहो तो बहुत सतर्क होकर चाहो। यूँही मत चाह लिया करो। चाहना भली बात है। आदमी को चाहना पड़ेगा क्योंकि आदमी पैदा बन्धन में होता है। जो बन्धन में पैदा हुआ है, उसे मुक्ति तो चाहनी पड़ेगी। चाहो ज़रूर, पर चाहते वक़्त बहुत सावधान रहो कि क्या चाह रहे है।

ऊँची से ऊँची चीज़ मांगो और उसके लिए फिर न्यौछावर हो जाओ। छोटा-छोटा माँगोगे तो कभी संतुष्टि नहीं मिलेगी क्योंकि तुम्हें छोटे से संतुष्टि मिलनी ही नहीं है।

एक क्रोध इस बात का होता है कि जो माँगा वो मिला नहीं। लेकिन जब मैं कहता हूँ अपूर्ण कामना, तो मैं उसे क्रोध की बात ज़्यादा कर रहा हूँ जो उठता है तब, जब जो माँगा वो मिल गया। हम इस बात पर तो क्रोधित हैं ही कि जो चाह रहे हैं वो हो नहीं रहा, हम इस बात पर ज़्यादा क्रोधित हैं कि जो चाहते हैं, जब वह हो भी जाता है तो भी भीतर बेचैनी बनी ही रहती हैl

असफल आदमी का क्रोध तो चलो ठीक है, सफल आदमी का क्रोध असीम होता है। क्योंकि वह सफल तो हो गया लेकिन फिर भी भीतर कुछ सुलग ही रहा है। इधर हाथ चला लिए, उधर पहुँच गए लेकिन भीतर कोई है जिसके आँसू पुछते ही नहीं। एक अजीब सी है जो दरिद्रता चेहरे पर भी दिखाई देती है। आँखें जैसे किसी भिखारी की हो — बहुत कुछ पा लेने के बाद भी।

तो चाहना बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है। यूँही मत चाह लिया करो। चाह-चाह कर ही अपनी हालत इतनी ख़राब करी है। ऊपरवाले ने श्राप नहीं दिया है कि जीवन ख़राब रहेगा — यह हमने चाहा है।

ध्यान से देखना, आज जिनको तुम कहते हो कि यह हमारी जिंदगी का बंवार है, जीवन का नर्क़ है, वो सब तुम्हारे जीवन की कभी चाहतें हुआ करती थी। और सौ-सौ बार तुमने कहा था कि जान से ज़्यादा चाहते हैं तुम्हें। और आज कहते हो न चाहत है, न जान है — मुर्दा जिस्म है।

होशपूर्वक चाहोगे तो मुक्ति मिलेगी, सौंदर्य मिलेगा। बेहोशी में चाहोगे तो बेचैनी मिलेगी और क्रोध मिलेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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