आचार्य प्रशांत: इन सैकड़ों श्लोकों की यात्रा करेंगे हम। इस यात्रा में ये सोच कर आगे नहीं बढ़िएगा कि आप पहले से कुछ भी जानते हैं। हर जगह रुकिए और पूछिए — ये क्या हो रहा है? उसको आदत-सा बना लीजिए, अभ्यास करिए।
जो अभ्यास आपका बाहर की तरफ़ रहता है, वही भीतर की तरफ़ भी हो जाता है। बाहर यदि आप ऐसा स्वांग करेंगे जैसे ‘मुझे तो पहले से ही पता है’ तो भीतर की तरफ़ भी आपका यही रवैया हो जाएगा कि ‘स्वयं को तो मैं पहले से जानता हूँ’। एक-एक श्लोक पर वैसे ही रुकना है जैसे अपने एक-एक क्रियाकलाप और विचार पर। ‘ये क्या है?’ ‘मुझे मालूम नहीं। मैं एकदम ताज़ी शुरुआत करना चाहता हूँ, मैं पूछना चाहता हूँ, ये क्या किया तुमने? ये क्या सोच रहे हो? किस दिशा जा रहे हो?’ और जब ऐसे पूछेंगे तो कुछ नया सामने आएगा; लाभप्रद।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। जैसा कि आपने अभी बात करी कि ऊँचा दुःख और ऊँची लड़ाई। तो पहले मैं एक गृहणी थी तो गृहणी के रूप में शांत थी। अब व्यापार शुरू करने के बाद अपने-आपमें लोभ दिखता है, लालच, डर, ईर्ष्या; अब अपने में ही इतने सारे विकार दिखते हैं। अभी हाल ही में एक घटना हुई, व्यापार को लेकर, तो मैं तीन-चार रातों तक सो नहीं पायी। तो जैसे आपने बताया कि गहराई में जाने से ही समाधान मिलेगा लेकिन स्थितियाँ जैसे ही सामान्य होती हैं हम फिर से अपने ढर्रों पर आ जाते हैं; और गहराई और ऊँचाई की तरफ़ जाना ही भूल जाते हैं। तो ये कैसे हो पाएगा?
आचार्य: ये तो अर्जुन के साथ भी होता था। अगर अर्जुन लगातार गहरी चेतना में ही वास कर रहे होते तो गीता की ज़रूरत ही क्यों पड़ती? कृष्ण से यदा-कदा दूर हो जाते रहे होंगे, तभी तो मन में इतने तरह के संशय उठे। जो आपके साथ हो रहा है वो किसी के भी साथ होगा, जो कृष्ण से दूर हो जाएगा। अब एक ग़लती ये होती है कि कृष्ण से दूर हैं और दूसरी ग़लती ये होती है कि जब संशय उठे तो उसे ख़ुद ही निपटा दिया। कृष्ण-चेतना के अभाव में ही निपटा दिया।
सर्वप्रथम समझिए कि आप कौन हैं। आप वो हैं जो बीच में टंगा हुआ है और बीच में टंगे रहकर गिरने की जिसकी वृत्ति ज़्यादा है। नारियल के पेड़ पर नारियल टंगा हुआ है; पहली बात तो वो बीच में है, ना ऊपर ना नीचे है। दूसरी बात, संभावना है कि जैसा है अगर वैसा ही रह गया तो गिरेगा तो बेटा नीचे ही। वैसी हमारी हालत है कि जड़ और चेतन के बीच में हैं। और वृत्ति यही है कि जड़ता की ओर ही और गिरें। सबकी — आपकी, अर्जुन की, हम सबकी — साझी वृत्ति।
कृष्ण चाहिए। कोई और उपाय नहीं। ईर्ष्या, लोभ, भय, जिसकी भी आपने बात करी तो क्यों हम उनकी बात ऐसे करते हैं जैसे वो कोई विसंगतियाँ हों, जैसे वो अनहोनी हों, जैसे वो दुःखद संयोग मात्र हों? ये सब जिनका नाम आपने विकारों की तरह लिया, ये विकार नहीं हैं भाई; ये हमारा भाग्य हैं, ये हमारी देह हैं। इनको ऐसे मत देखिए कि, ‘अरे! कुछ अनघट घट गया है। हम तो बड़े अच्छे आदमी थे, ये हममें ईर्ष्या कहाँ से आ गयी? मैं तो बड़ी साहसी स्त्री हूँ, मैं आज डर कैसे गयी?’ गर्भ से हम साहस नहीं, भय ही लेकर पैदा होते हैं। प्रेम नहीं, ईर्ष्या ही लेकर पैदा होते हैं। पर आश्चर्य हम यूँ दिखाते हैं जैसे बड़े भले, बड़े निर्दोष, एकदम निर्मल पैदा हुए थे और किसी दुष्ट ने आकर के हमको मलिन कर दिया। है न?
'लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे?' वो बात ठीक है। पर असलियत उससे भी आगे की है। ये चुनरी पैदा ही काली होती है। जिसको कबीर साहब कहते हैं, झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया, उसमें एक बात वो नहीं बोलते कि चादर का रंग क्या है। झीनी-झीनी बीनी तो ठीक है पर एकदम काली पैदा होती है। और जीवनभर फिर क्या करना होता है? घिसो, उसपर ज्ञान का साबुन लगाओ, जितना घिस सकते हो, घिसते रहो।
ये काला रंग क्या है? वही सब जो आप बता रही हैं और सबकी चदरिया एक जैसी होती है। हाँ, काले के भी प्रकार होते हैं फिर; किसी का कोयले वाला काला, किसी का रात वाला काला, किसी का नागिन वाला काला। तो उसी प्रकार मनुष्यों में विविधताएँ पायी जाती हैं। फिर हम कहते हैं, ‘देखो मैं उससे अलग हूँ; वो काला है, मैं काला नहीं हूँ।‘ वो काला काला है, तुम कोयला काला हो। इससे ज़्यादा नहीं अंतर है दोनों में। मनुष्य-मनुष्य में प्राकृतिक रूप से इससे ज़्यादा अंतर नहीं होता। इससे ज़्यादा अंतर मनुष्यों में तब आता है जब मनुष्यों में कोई एक कृष्ण के संग जाता है। तब कुछ आयामगत अंतर आता है, अन्यथा तो… चुनाव कर लो कि कौन-सा चाहिए।
हेनरी फोर्ड की एक कार आयी थी और वो बड़ी माँग में थी, हर कोई खरीदना चाहता था, मॉडल-टी था शायद। तो अब वो अलग-अलग रंगों के गाड़ियाँ निकाले और उत्पादन करें तो समय लगेगा। तो सारी गाड़ियाँ एक ही रंग की निकालते थे — काली। तो लोगों ने कहा ‘भाई, हमें अलग-अलग रंगों की चाहिए, कैसे कर रहे हैं आप?’ उनकी *मोनोपोली *(एकाधिकार), वो काहे को सुनें? उन्होंने कहा, ‘*यू कैन हैव एनी कलर, एज़ लॉन्ग एज़ इट्स ब्लैक*। (आप कोई भी रंग चुन सकते हैं जब तक कि वो काला है)’
वैसे ही हमारा हाल है; दीदी वाली ईर्ष्या, भैया वाला दाह, अंकल वाला अज्ञान, आंटी वाला भ्रम, चुन लो जो चाहिए। स्वयं को लेकर के एक अनभिज्ञता, बल्कि एक साज़िश — जिसे ग़लतफ़हमी कहना उतना ठीक नहीं, साज़िश कहना ज़्यादा ठीक है — उसमें क्यों रहते हैं आप? ‘अरे! मेरे से धोखे से ग़लती हो गई।‘ धोखे से कुछ नहीं होता। हम ऐसे हैं और वैसा होने से सिर्फ़ आपको कृष्ण बचा सकते हैं। मैं जब यहाँ कृष्ण कह रहा हूँ तो मैं मोरपंख वाले कृष्ण की तो नहीं बात कर रहा न; मैं गीता वाले कृष्ण की बात कर रहा हूँ। उससे सिर्फ़ आपको कृष्ण बचा सकते हैं।
ताज्जुब इस बात का मत किया करिए कि गिर गए; ताज्जुब तब किया करिए जब कृष्ण के समीप ना हों लेकिन ऐसा लग रहा हो कि नहीं गिरे। ये बड़ी खतरनाक हालत है। गिर गए तो ये तो होना ही था। गिरने के लिए ही तो पैदा होते हो। लेकिन कृष्ण के साथ हैं नहीं फिर भी ऐसा लग रहा है कि गिरे नहीं हैं, सब ठीक-ठीक चल रहा है, ज़िन्दगी बढ़िया चल रही है तब बिलकुल सहम जाया करिए। कुछ बहुत खतरनाक चल रहा है जीवन में। कृष्ण जीवन में नहीं हैं फिर भी ऐसा लग रहा है कि सब सही चल रहा है, तो कुछ बहुत-बहुत विनष्टकारी होने जा रहा है, हो रहा है।
कृष्ण जीवन में नहीं हैं और कोई पूछ रहा है, ‘हाउ इज़ लाइफ ?’ और उत्तर आए, ‘ कूल (मस्त)!’ खौफ़नाक! ये बात बहुत-बहुत भयंकर है!
प्र: आचार्य जी, आपसे चार साल से जुड़ी हुई हूँ और शायद मन में ये भी भ्रम बैठा हुआ था कि मैं तो अध्यात्म में बहुत आगे बढ़ चुकी हूँ और अब लगता है कि कुछ भी नहीं सीखा। तो इससे बहुत ज़्यादा ग्लानि भी लगती है।
आचार्य: अर्जुन, श्रीकृष्ण को, कभी सखा बोलते हैं, कभी गुरु, कभी सम्बन्धी और मित्र तो बोलते ही रहते हैं। तो इतनी निकटता है दोनों में, उसके बाद भी अर्जुन भ्रमित। और उनका रिश्ता, उतना ही पुराना है जितनी अर्जुन की उम्र। और महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन की उम्र पचास पार कर चुकी थी। तो कम-से-कम पचास साल का रिश्ता और वो भी इतनी गहराई का — गुरु भी, सखा भी, सम्बन्धी भी — और तब भी अर्जुन बहक गए और आप कह रही हैं, ‘चार साल में लगभग मैंने छः कोर्स करे हैं, आठ किताबें पढ़ी हैं और साढ़े-सात कैम्प करे हैं। मैं कैसे फिसल गयी?’ अर्जुन फिसल सकते हैं, आप बच जाएँगी? आपके सुपुत्र बोधस्थल में रहते हैं, वो दिन में — कौन-सा आँकड़ा बोलूँ? — उतनी बार फिसलते हैं, और वो मुझसे चार कदम की दूरी पर होते हैं।
हमें अपनी हालत का कुछ ठीक-ठीक अनुमान है ही नहीं। हमें लगता है कि हम बड़े बढ़िया लोग हैं और हम यूँ ही अकस्मात, कभी-कभार, फिसल जाते हैं। फिसलना तो तय है। आप कभी-कभार फिसलने से बच कैसे जाते हैं, इसका अनुग्रह किया करिए।