कोने-कतरे छुपा धर्म || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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कोने-कतरे छुपा धर्म || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: आपने बहुत धर्म सुने होंगे लेकिन जिस धर्म का वास्तव में पालन किया जाता है, वह होता है युगधर्म। इस युग का धर्म पहचानिए! आप इस युग में पिछले युग के युद्ध नहीं लड़ सकते। कहाँ है दुर्योधन जिसको आप मारेंगे, बताइए? वह पिछले युग में मारा जा चुका। आज कोई दुर्योधन नहीं है जिससे आप लड़ें।

बीती लड़ाइयाँ थोड़े ही लड़ी जा सकती हैं। लड़ाई तो वही लड़ोगे न जो सामने है। आज का युद्ध यही है — स्वार्थ की, अज्ञान की ताक़तों से लड़ना है, पूँजी की ताक़तों से लड़ना है, विनाश की ताक़तों से लड़ना है, जो जंगलों को ख़त्म कर दे रहे हैं उनसे लड़ना है, जो प्रजातियों को विलुप्त किये दे रहे हैं उनसे लड़ना है।

आप कहेंगे, ‘पर ऐसा तो किसी ग्रन्थ में लिखा नहीं है।’

अरे भाई! ऐसा किसी ग्रन्थ में इसीलिए नहीं लिखा क्योंकि पहले कभी ऐसा हुआ नहीं। अगर तब ऐसा होता, तो उन्होंने भी लिखा होता न। तो हम अध्यात्म के नाम पर अधिक-से-अधिक क्या कर लेते हैं? पूजा-अर्चना क्योंकि वह सब पहले भी होती थीं। पहले होती थी, ठीक है! लेकिन आज अगर सिर्फ़ पूजा-अर्चना करोगे तो ठीक नहीं है।

अर्जुन अगर ऐसा कहने लग जाए कि वेदान्त में तो ऐसा हुआ नहीं है कि शिष्य ने ज्ञान पाया और शिष्य तीर चलाने लगे, तो हे केशव! मैं भी आपसे ज्ञान तो ले लूँगा, लेकिन तीर नहीं चलाऊँगा क्योंकि देखिए, वेदों में ऐसा नहीं होता था कि शिष्य ज्ञान लेने के बाद तीर चलाये। वेदों में तो शिष्य ज्ञान लेने के बाद समाधि में चला जाता था, तीर तो नहीं चलाता था। तो केशव! अब मैं भी तीर नहीं चलाऊँगा। अर्जुन अगर ऐसा कह देते तो? उस युग का क्या धर्म था? ज्ञान मिला है तो तीर चलाओ!

आज के युग का धर्म यह है कि ज्ञान मिला है तो बाहर निकलो!

श्रोता: दुश्मन को पहचानना है?

आचार्य: बहुत बढ़िया बात! दुश्मन छुपा हुआ है। दुर्योधन तो बड़ा ईमानदार बन्दा था, सामने खड़ा हो गया था। उपलब्ध था, मारना है तो मारो। मरा वो तो लड़ते-लड़ते ही मरा। अपनी ओर से तो वह बेईमानी भी नहीं कर रहा था, लड़ ही रहा था।

आज तुम्हारा दुश्मन बहुत होशियार, बहुत चालाक है। सामने नहीं आ रहा। बुद्धि का इस्तेमाल करो, देखो वह कहाँ छुपा हुआ है।

झील के पास था दुर्योधन भी और अन्त में झील में ही जाकर छुप गया था, पर जैसे ही पांडवों ने चुनौती दी वह झील से बाहर आ गया। बोला, ‘आ गया मैं लड़ने के लिए और बोलो एक से लडूँ या तुम पाँचों से एकसाथ लडूँ?’

आज का जो दुश्मन है वह झील के नीचे छुपा है। बाहर नहीं आ रहा है।

जानते हैं चंडीगढ़ की झील के नीचे क्या छुपा हुआ है? क्या छुपा हुआ है? टनों कचड़ा। ऊपर-ऊपर सब ठीक है, नीचे से झील मर रही है। इतनी भी ईमानदारी नहीं कि जो नीचे है वह बाहर आकर अपना चेहरा दिखा दे। जो नीचे है वह छुपा रहेगा और नीचे-ही-नीचे सबको बर्बाद कर देगा। कहाँ से आ रहा है वह कचड़ा? पता करिए! जहाँ से भी आ रहा है उससे लड़िए।

और मेरा आशय यह नहीं है कि जिसने कचड़ा फेंका है उससे लड़ो! यह जो पूरा तन्त्र है जो आपको सिखा रहा है — भोगो! भोगो! और भोगो! कि यह पूरी पृथ्वी भोगने के लिए ही है। भोगने के बाद चाहे पहाड़ हो, झील हो, उसमें कचड़ा कर दो, बर्बाद कर दो। पूरी दुनिया है ही इसीलिए कि तुम उसका बलात्कार कर दो। इसी तन्त्र से लड़ना है। यह आज का दुश्मन है और यह बहुत भयानक दुश्मन है।

पुराणों में आप कथाएँ पढ़ते हैं कि एक राक्षस था जिसके पाँच सिर थे। आप कहते हैं — ‘बाप रे! विकराल।’ दस सिर का रावण हो गया, तो कहते हैं — ‘बाप रे! दस सिर’। आज जो आपका दुश्मन है उसके करोड़ों सर हैं और सबसे ख़तरनाक बात यह है कि उनमें से एक सिर आपका भी है। आपका दुश्मन आपके सिर में ही घुसा हुआ है, और आपके सिर को भी इस्तेमाल कर-करके उसने अपना सिर बना लिया है। इतना विकट युद्ध है ये, पर लड़ना है न।

भोग है आज का धर्म।

एक वीडियो है मेरा यूट्यूब पर, पिछले एक महीने से वो काफ़ी गति ले रहा है — ‘वासना हटाने का सीधा उपाय’। पिछले दो-तीन दिनों से उसको देखने वालों में काफ़ी इज़ाफ़ा हो गया है। तो मैं कल रात उस पर जो कमेंट आये थे, उनको पढ़ रहा था। और बहुत कमेंट थे इसी तरह के कि हटाएँ ही क्यों! मज़ेदार चीज़ है, हम तो और करेंगे और वासना आये तो स्त्री पकड़ो। सीधे-सीधे न मिले तो उठा के ले आओ और वो प्रबन्ध भी न हो पाये तो हस्तमैथुन करो। और मैं बड़ी सभ्य भाषा का प्रयोग कर रहा हूँ, जिन्होंने लिखा था उन्होंने इतनी सुसंस्कृत भाषा में नहीं लिखा था। अभी भी लिख रहे होंगे।

प्रतिपल इस तरह के कमेंट आ रहे होंगे। यहाँ पर एक स्क्रीन होती तो हम देख सकते थे, हर मिनट पर एक कमेंट आ रहा है। मैं नहीं कह रहा सब ऐसे ही आ रहे हैं लेकिन इससे पता चलता है कि आज का नौजवान कैसा हो गया है। और आज का नौजवान माने कमरे के बाहर कोई घूम रहा है वो नहीं! आज का नौजवान माने आपका भाई, आपका बेटा, आपकी बेटी, शायद आप ही; हम सभी।

बलात्कार जितने हो रहे हैं बस उतने ही हो रहे हैं, इसका भी कारण ये है कि लोग ज़रा डरे हुए हैं। नहीं तो आज हर मन बलात्कारी है! जो मन गंगोत्री पर जाकर गन्दगी फैला सकता है — मैं आमन्त्रित कर रहा हूँ आप सबको कि आप जाएँ और देखें वहाँ का हाल। और जा नहीं सकते तो बहुत सारी डॉक्युमेंट्रीज़ हैं, वीडियोज़ हैं, उनको देखें, उनका हाल देखें। जो मन गंगोत्री को गन्दा कर सकता है, जो मन पहाड़ों को काट सकता है, जो मन गंगा को बहुत जगहों पर नाला बना सकता है, वह मन कैसे नहीं बलात्कार करेगा? पुरुष भी बलात्कारी, स्त्रियाँ भी बलात्कारी, जवान भी बलात्कारी, बूढ़े भी बलात्कारी, अधार्मिक भी बलात्कारी और घोर धार्मिक भी बलात्कारी।

यह भोग का युग है, आज का धर्म है सिर्फ़ भोग! सिखा दिया गया है सबको तुम्हारे निजी और छोटे स्वार्थों के आगे कुछ नहीं है — बी हैप्पी! सबको बता दिया गया है हँसो! हँसो!

मेरे वीडियोज़ पर कमेंट आते हैं, ‘आप इतने गम्भीर क्यों रहते हैं? आप हँसते क्यों नहीं?’ तुमने कबीर साहब को हँसते हुए देखा? तुमने बुद्ध को हँसते हुए देखा? वेदों के ऋषियों की हमारे पास तस्वीरें नहीं हैं, पर जो उनके चित्र भी पाते हो उसमें वह हँस रहे होते हैं? क्राइस्ट हँसते हुए नज़र आते हैं? नानक साहब का कोई चित्र देखा है हँसता हुआ? पर आज का युग आपत्ति करता है, वह कहता है, ‘हँसो! हँसो! अगर तुम हँस नहीं रहे तो तुम गुनाह कर रहे हो’, क्योंकि हँसने का सम्बन्ध भोगने से है; भोगने से खुशी मिलती है, तो भोगो और हँसो। आज के गुरुजन भी भोगना और हँसना सिखा रहे हैं। जाकर के देखो, वो हँसते हैं, मुस्कुराते हैं। किस बात पर मुस्कुरा रहे हो, भाई? क्या है मुस्कुराने जैसा? हँसते थे बाबा फ़रीद?

सारी बातों का मूल एक है — ‘चार दिन की ज़िन्दगी है, मौज कर ले यार।’ जन्म के पहले कुछ नहीं था, और मौत के बाद नहीं संसार। मौज कर ले!

एक ने मुझसे कहा, ‘आप बार-बार क्यों बोलते हैं इतनी प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं? पृथ्वी के विकास में लाखों प्रजातियाँ तो विलुप्त हो चुकी हैं पहले भी। कुछ और हो जाएँगी तो फ़र्क क्या पड़ता है?’

मन में तो आया कह दूँ, ‘लाखों लोग रोज़ मरते हैं, लाखों लोग, तेरा एक बच्चा भी मर जाएगा तो फ़र्क क्या पड़ता है? तो मरने दे न अपने बच्चे को।‘

प्रेम नहीं समझते हैं। यह प्रेमहीनता का युग है। सम्बन्धों में प्रेम कहीं नहीं है, स्वार्थ पूरा है। घनिष्ठ से घनिष्ठ सम्बन्धों में भी प्रेम नहीं है और यह सब बातें आपस में जुड़ी हुई हैं। तुम एक चिड़िया के साथ क्या कर रहे हो और तुम अपनी बिटिया के साथ क्या कर रहे हो, यह बहुत अलग-अलग नहीं हो सकता, मानो मेरी बात।

यह धर्महीनता का युग है। बाहर निकलना पड़ेगा, धर्म युद्ध लड़ना पड़ेगा। तीर-तरकस लेकर कमरे में मत बैठे रहो। जो जितना कर सकता है, करे, और पूरी जान से करे। आज के युग के अध्यात्म को, मैं फिर कह रहा हूँ, सक्रिय सामाजिक होना ही पड़ेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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