आचार्य प्रशांत: ये पूर्णत: पूर्वनिर्दिष्ट है कि आपको गुरु मिलेगा पर इस प्रारब्ध को आप मानते कहाँ हो! आपको तो जब मिल रहा होता है तो आप छोड़-छोड़ कर भागते हो। प्रारब्ध का अर्थ होता है, नियति का अर्थ होता है, वो जो टल नहीं सकता, वो जो होकर रहेगा; वो नहीं जो होगा।
प्रारब्ध का अर्थ होता है ‘जो है’, जो आपकी नियति है, जो होना-ही-होना है, जो हो ही रहा है। पर आप उसके आगे समर्पित कहाँ रहते हो?
आप तो कहते हो "ना! प्रारब्ध कुछ और कहता होगा हम कुछ और करके दिखाएँगे, हमारे पास पुरुषार्थ है! प्रारब्ध हमारा भले ही मुक्ति हो पर हम ग़ुलाम बन कर दिखाएँगे; जी साहब, हमारी भी कोई हस्ती है कि नहीं!"
प्र: सच्चे और अच्छे गुरु की क्या परिभाषा है? कैसे जानें कौन सा सच्चा है?
आचार्य: ना वो सच्चा लगेगा ना अच्छा लगेगा।
प्र: तो किसको गुरु बनाएँ फिर?
आचार्य: जिसको भी ‘आप’ बनाएँगे वो सच्चा और अच्छा होगा, और ठीक इसीलिए ना वो सच्चा होगा ना अच्छा होगा। आप गुरु बनाओगे, ठीक वैसे ही जैसे आप खिचड़ी बनाते हो?
प्र: मिलना चाहिए ऐसा गुरु जो सच्चा हो और अच्छा हो तो उसी को बनाएँगे न, वो कैसे ज्ञात हो?
आचार्य: आपको तो बहुत कुछ ज्ञात हुआ है और जो कुछ आपको आज तक ज्ञात हुआ है उसी ने आपको बीमार किया है। आपको ज्ञात हुआ कि किसको दोस्त बनाएँ, वो दोस्त आप पर भारी पड़े; आपको ज्ञात हुआ कि जीवन कैसे जियें, वो जीवन आपको भारी पड़ा; अब आपको ज्ञात हुआ है कि किसको गुरु बनाएँ, तो वो गुरु आपको भारी पड़ेगा।
ये कितना अश्लील तरीका है कहने का कि "मैं गुरु बनाऊँगा!" यह करीब-करीब वैसी ही बात है कि "मैं ब्रह्म बनाऊँगा"। आप करोगे क्या गुरु का? गुरु आपकी क्या है? कामवाली है? टैक्सी करी जाती है ऐसे, गुरु कर रहे हैं? पर यही होता है, जैसे दुकानों में जाकर आप अन्य चीज़ें करते हो, ख़रीदते हो वैसे ही आजकल गुरु-शॉपिंग हो रही है–एक दुकान, दो दुकान, "मैंने ख़रीदा है!"
प्र: अंतत: आप उसी को गुरु बनाते हो जो सपने बेचता है।
आचार्य: अंततः आप उसी को गुरु बनाते हो, जैसे आप होते हो, जैसे आप हो वैसे ही किसी को पकड़ लाओगे। जिसको ‘आपने’ चुना है, वो कभी भी आपको आपके चुनाव से आगे नहीं ले जा पाएगा क्योंकि वो आया ही कैसे है? वो आपके चुनाव द्वारा आया है।
प्र: जो भी था, हमने निर्धारित किया और चुना उसमें से।
आचार्य: आपने चुना न, तो आपको आपसे आगे कैसे ले जा पाएगा?
वास्तविक गुरु को आप नहीं चुनते, वो आपको चुनता है और आपको पता भी नहीं चलेगा कि उसने आपको क्यों चुन लिया है। वो अचानक आएगा, आपके सिर पर हाथ रख देगा, और चूँकि वो अचानक आएगा इसीलिए बहुत सम्भावना होती है कि आप उसे ठुकरा दो।
प्र: लेकिन गुरु अगर सच्चा है तो वो तो छोड़ेगा नहीं, वो तो पकड़ कर रखेगा।
आचार्य: बहुत सारे सच्चे नहीं होते न। ‘गुरु अगर सच्चा है’ माने क्या होता है?
प्र: नहीं-नहीं, वो नहीं छोड़ेगा भाई। आप भटकने भी लगोगे, गुरु का काम ही यही है कि वो आपको भटकने भी नहीं देगा, आपको पकड़ कर दोबारा सही रस्ते पर लेकर आएगा।
आचार्य: कोई गुरु आपकी स्वतंत्रता में बाधा नहीं डालता, अहंकार भी यदि उन्मत्त स्वतंत्र घूमना चाहता है तो गुरु उसे घूमने देता है। गुरु आपको बस उतना ही देगा जितना लेने के लिए आप सहज भाव से तैयार हों। गुरु आपको बंधन भी दे सकता है, नियम-कायदे भी दे सकता है, पर वो तभी देगा जब आप माँगो। जब आप कहोगे कि, "आप मुझे यह व्यवस्था दें और आप जो भी व्यवस्था देंगे मैं पालन करूँगा", तब दे देगा, पर वो आपके पीछे नहीं दौड़ेगा व्यवस्था देने के लिए। अगर तुम इसी में खुश हो कि तुम्हें इधर-उधर दौड़ मचानी है, कूद-फाँद, तो करो। वो दूर बैठा देखता रहेगा कि "ठीक! जब मन भर जाएगा तो आ जाना।"
प्र: सर क्या ये ज़रूरी है कि गुरु शारीरिक रूप में ही हो या निराकार रूप में?
आचार्य: आपके लिए कुछ भी ऐसा है जो शारीरिक रूप में ना हो? कोई भी ऐसी चीज़ बताइए जो आपको हो और शारीरिक ना हो।
प्र: ईश्वर।
आचार्य: ईश्वर आपके लिए शारीरिक नहीं है तो क्या है? जब आप ईश्वर बोलते हो तो क्या आपके सामने कोई भी छवि नहीं आती? जब आप कहते हो 'भगवान', 'ईश्वर' या जो भी कहते हो, यह कहते ही क्या आपके मन में कोई छवि नहीं आती?
प्र: आती है।
आचार्य: इसका मतलब आप जिसे भगवान बोलते हो वो बस एक शारीरिक चीज़ ही है। जब सब कुछ आपके लिए शारीरिक है तो गुरु को भी शारीरिक होना पड़ेगा अन्यथा आपके लिए उसका क्या अस्तित्व? गुरु वास्तव में आत्मा है–विशुद्ध, निराकार लेकिन आपको निराकार से क्या लेना-देना, आप तो मात्र साकार में जीते हो, आप तो सिर्फ़ उसको जानते-समझते, खाते-पीते, साथ रहते हो जो आकार-युक्त हो; तो गुरु भी आपके काम तभी आ सकता है जब वो आकार-युक्त हो, वरना निराकार से आपका क्या लेना-देना? निराकार यदि आपके काम आ सकता तो अब तक आ गया होता। निराकार कहीं गया है? वो तो ‘है’, आपके क्या काम आया? आपके काम तो साकार ही आएगा।