आचार्य प्रशांत: ज़िंदगी ऐसी जीनी है जो खाती कम-से-कम हो और पहुँचाती ऊपर-से-ऊपर हो। बात आ रही है समझ में?
और जो ऊपर नहीं पहुँच रहा है उसको दुनिया चाहे कुछ भी बोले, आपको उसे बड़ा आदमी नहीं मानना है। जो बस यहीं पसरता जा रहा है और ऊपर को नहीं जा रहा है उसे बड़ा आदमी नहीं मानना है, समाज कुछ भी बोलता रहे। उसको मिल रहे होंगे नोबेल पुरस्कार, दुनिया के सबसे बड़े पुरस्कार, मिल रहा हो उसको पद्मश्री, पद्म विभूषण, भारत रत्न, कुछ भी मिल रहा हो, आपको उसे बड़ा आदमी नहीं मानना है, अगर उसके कर्मों ने उसको आंतरिक ऊँचाई नहीं दी है। अगर उसके जीवन का आयाम नहीं बदला है तो। ठीक है?
और जो इसका विपरीत है वो भी स्वाभाविक रूप से सच है। क्या? कि जो ऊपर उठ गया है, उसके विषय में ये नहीं देखना है कि इसके हाथ में कितना है।
जो नीचे ही पड़ा हुआ है उसके हाथ में कितना भी हो उसकी कोई हैसियत नहीं और जो ऊपर उठ गया है उसका गिनना नहीं है कि उसके हाथ में कितना है और कितना नहीं। समझ में आ रही है बात? क्योंकि अगर आप इसी आधार पर निर्णय करने लग गए कि किसको नोबेल पुरस्कार मिला है किसको नहीं, तब तो बेचारे ऋषिजन और संतो की कोई कीमत ही नहीं रह जानी है। उन्होंने तो न राज्य जीते, न शासन किया किसी पर, न संसाधन जुगाड़े।
सम्मान बहुत मूल्यवान चीज़ होनी चाहिए आपका। जल्दी से किसी को सम्मान नहीं दे देना है। ये सर जो है हर औनी-पौनी जगह झुक नहीं जाना चाहिए कि ये तो बड़ा आदमी है, सर झुका दो। एकदम नहीं! एकदम भी नहीं! बहुत खास जगहों पर ही ये सर झुके और जब ये सर झुके तो उसका कुछ मतलब हो कि आज झुका है। ऐसे नहीं कि कहीं भी जाकर के दंडवत हो गए, किसी को भी बड़ा आदमी बोल दिया। काहे का बड़ा आदमी? अरमानी पहनता है तो बड़ा आदमी हो गया? यही अध्यात्म है।
न तो रत्न जड़ित अंगूठियाँ पहनना अध्यात्म में आता है, न साँप को दूध पिलाना, न हवाई यात्राएँ करना, न ये पूछना कि, "आत्मा मरने के बाद कौन से लोक में जाती है?" ये सब नहीं है अध्यात्म। यही है: ठसक, जो अहंकार से नहीं निकल रही है, बोध से निकल रही है, विवेक से।
तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए इस बात पर कि जिन्हें हम बड़े लोग कहते हैं, वो सब-के-सब अर्धविक्षिप्त हैं या अधिकांशतः। सौ में से दो-चार अपवाद हो सकते हैं। कोई हैरानी की बात नहीं है। हैरानी की बात ये है कि आप उन्हें बड़ा बोलते ही क्यों हैं? हैरानी की बात ये है कि इंसान हो, चाहे कार हो, चाहे कोई डब्बा बंद उत्पाद हो, हमारे लिए ये ब्रांड शब्द इतना महत्वपूर्ण है ही क्यों? हमारी आँखें ऐसी क्यों नहीं है जो हकीकत देख पाएँ? हमें लेबलों से इतना सरोकार क्यों है?
मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूँ जिस दिन संस्था को मेरे वीडियोज़ पर आइआइटी, आइआइएम वगैरह नहीं लिखना पड़ेगा। कुछ नहीं लिखना पड़ेगा।
दिक्कत हो जानी है। उन्हें बड़ा नहीं मानोगे तो फिर वो सारे काम करने भी बंद करने पड़ेंगे न जो उन्हें बड़ा मानने के कारण कर रहे हो। जिसे बड़ा मानने लगते हो, जिसे सम्मान देने लगते हो, उसी के जैसा बनने की ख्वाहिश भी आ जाती है। हम तो सारे काम ही वही करते हैं जो तथाकथित बड़े लोग कर रहे हैं। अब अगर उन्हें बड़ा नहीं माना तो हम करेंगे क्या?
अभी तक तो आसान था, किसी के पीछे-पीछे लग लिए, किसी के पीछे क्या, बड़े आदमी के पीछे कि भई बड़े लोगों ने ऐसा बोला हम भी वही कर लेते हैं। अगर किसी के पीछे नहीं लगना तो ज़िंदगी फिर अपनी दृष्टि से, आत्मा से जीनी पड़ेगी। आत्मा का हमें कुछ पता नहीं। तो तकलीफ हो जाएगी।
मैं चाहता हूँ आपको वो तकलीफ़ हो जाए। किसी का अंधा अनुकरण करने से कहीं बेहतर है उलझे हुए खड़े हो जाना। कम-से-कम वो उलझाव आपके तो होंगे। अभी तो एक स्पष्टता है जो झूठी है, जो पराई है। पराई स्पष्टता से कहीं बेहतर है अपने उलझाव। और एक बार आप उन उलझावों के सामने खड़े हो गए, रूबरू, समकक्ष तो फिर उलझाव सुलझने लगते हैं क्योंकि अब कोई विकल्प नहीं बचता न। उलझन सुलझाए बिना आगे नहीं बढ़ सकते। कहीं भी बढ़ने के लिए कुछ स्पष्टता चाहिए तो फिर मजबूर होकर स्पष्टता जीवन में लानी पड़ती है। लेकिन वैसी कोई मजबूरी आपको आएगी ही नहीं अगर आप चुपचाप बड़े लोगों के पीछे-पीछे चलते रहते हैं।
बैसाखियाँ मिली ही रहेंगी तो पाँव की मांसपेशियों को ताकत जुटाने की कोई मजबूरी क्यों आएगी? कि आएगी? टांगे भी खुश हैं क्योंकि ताकत विकसित करने के लिए मांसपेशियों में, मांसपेशियों को दर्द झेलना पड़ता है, ये आप भली-भाँति जानते हैं। "दर्द से कौन गुज़रे, बैसाखियाँ हैं तो!"
मैं चाहता हूँ आप बैसाखियाँ छोड़कर दर्द से गुज़रें, गिरें, चोट खाएँ, वो चोटें ही आपको निखारेंगी। आपको कभी-कभार ऐसा भी लग सकता है कि ये चोटें आपको मिटा देंगी। नहीं आप नहीं मिटेंगे। मिटेंगी आपकी कमजोरियाँ।
सच मिट नहीं सकता, जो मिट रहा है वो झूठ ही होगा। तो अगर कुछ मिट रहा है आपका, तो उसकी बहुत परवाह करिए भी मत। वो झूठ ही होगा। सच होता तो मिटता क्यों?
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