प्रश्नकर्ता: मैं एकसाइंटिस्ट हूँ, ‘सिक्स जी ' (संचार प्रौद्योगिकी) की रिसर्च में लगा हुआ हूँ। तो यहाँ तक पहुँचने में मुझे अपने ऊपर कॉन्फिडेंस था कि मैं कुछ कर रहा हूँ क्योंकि पहले मैं अपने आपको चारों तरफ से कंपेयर (तुलना) कर रहा था लेकिन अब इस सच से मैं रूबरू हो चुका हूँ कि जो मैं ढूँढ रहा हूँ वो यहाँ नहीं है।
पहले मेरे रोल मॉडल्स (आदर्श) हुआ करते थे कि आई.आई.टी पहुँच जाऊँगा, एम.आई.टी पहुँच जाऊँगा तो वहाँ पर वो चीज़ जानने को मिल जाएगी जो उन्हें पता है और मुझे नहीं क्योंकि वहाँ पर ब्रिलियंट (प्रतिभाशाली) लोग हैं, दुनिया के बेस्ट लोग वहाँ पर होते हैं। तो उसका भरपूर प्रयास किया, वहाँ तक पहुँचा भी, उन लोगों से मिला भी। मैंने बहुत ब्रिलियंट लोगों को देखा है, बहुत रिच (अमीर) लोगों को देखा है लेकिन उनका स्ट्रगल (संघर्ष) वही है जो एक उन्नीस-बीस साल का बच्चा स्ट्रगल कर रहा है। वे अपने-आपको वैसे ही खुश कर रहे हैं जैसे एक बच्चा अपने-आपको खुश करता है। जब कि वो कोई साधारण लोग नहीं है, उन्होंने अपने जीवन में बहुत पढ़ाई की है, बहुत आगे पहुँचे हैं। शाम को आकर वो ड्रिंक करके ही अपने-आपको खुश करते हैं और ऐसे ही उनका घटिया मनोरंजन होता है तो उनका भी जीवन इतना रूखा-सूखा क्यों है?
आचार्य प्रशांत: सबसे पहले तो अच्छा प्रश्न है, और अच्छा होता अगर और ज़्यादा ये अपने से संबंधित होता। अभी भी इस प्रश्न में मूल्य है लेकिन इसी प्रश्न में अगर जिज्ञासा और आंतरिक होती कि, 'मेरे लिए इतना मुश्किल क्यों है अविद्या से बचना?' तो बात थोड़ी-सी और ख़री होती।
तो आप पूछ रहे हैं कि जो तथाकथित सफल लोग हैं, बड़े लोग हैं, ऊँची जगहों के लोग हैं उनके लिए भी दुनिया की छोटी-छोटी चीज़ों के आकर्षण से बचना उतना ही मुश्किल क्यों है जितना किसी बच्चे के लिए या जितना किसी आम इंसान के लिए।
अब ज़ाहिर-सी बात है कि आपको ये विरोधाभास तो दिख ही रहा है। विरोधाभास क्या दिख रहा है? कि बड़े लोग हैं लेकिन उनकी वृत्तियाँ, विचार, रुझान मूलतः छोटे ही हैं। अभी ये विरोधाभास, जो कंट्राडिक्शन आपको दिखा है इसको सुलझाएँ कैसे? सुलझाने का तरीका बहुत सीधा है: उन्हें बड़ा मानो ही मत। सुलझ गया।
ये सवाल में जो आपको समस्या खड़ी हुई, इसीलिए तो खड़ी हुई न क्योंकि आपने सर्वप्रथम किसी को बड़ा मान लिया। अब मान लिया है बड़ा लेकिन जिसको बड़ा माना है उसकी हरकतें हैं छोटी तो आप उलझ रहे हैं कि ये क्या बात है, बड़ा आदमी छोटी हरकतें क्यों कर रहा है? कोई समस्या बचेगी अगर देख लो कि वो बड़ा आदमी बड़ा है ही नहीं? कोई समस्या बचेगी क्या?
अध्यात्म यहाँ पर चीज़ें आपके लिए बहुत सरल कर देता है। अध्यात्म फिर आपका विस्तार नहीं नापता, आपका तल देखता है। इन दोनों बातों में अंतर समझिएगा। अध्यात्म आपका विस्तार नहीं नापता, आपका तल देखता है; संसार आपका विस्तार नापता है। संसार के पास कोई तरीका ही नहीं है तल देखने का क्योंकि संसार स्वयं एक ही तल पर सीमित है।
जैसे ये है (अपने सामने रखे मेज को बताते हुए) ये मेज, जैसे ये संसार का तल हो, तल, आयाम, डायमेंशन , ठीक है? और पूरा संसार बिखरा हुआ है इसी तल पर, तो वो कैसे नापे कि कौन बड़ा, कौन छोटा? उसके पास एक ही तरीका है: क्षेत्रफल देखने का, एरिया देखने का। जो जितना फैला हुआ है, जितना जो पसरा हुआ है उतना बड़ा मान लेंगे उसको। इस सतह पर और कैसे किसी का बड़प्पन नापोगे? कि जो जितना फैला हुआ है।
फैलने के क्या तरीके हैं? फैलने के तरीके में: पैसा ज़्यादा है, मकान ज़्यादा बड़ा है और क्या बड़ा हो सकता है? कद ज़्यादा बड़ा है, ज़मीन ज़्यादा है। जो कुछ भी संख्या में नापा जा सकता है, जो कुछ भी बड़ा, विस्तृत हो सकता है वो यहाँ पर है। संसार ये सब नापता है। उसी के आधार पर आप किसी को बना देते हो बड़ा, किसी को बना देते हो छोटा। ठीक है न?
तो किसी के पास बहुत पैसा है तो उसने इतनी (बहुत) बड़ी ज़मीन खरीद ली, तो आप कहते हो बड़ा। कोई बेचारा छोटे-से घर में रह रहा है, छोटे वाहन पर चल रहा है उसको आप कह देते हो छोटा।
अध्यात्म ये नहीं देखता कि संसार के तल पर आप कितना पसर गए। अध्यात्म देखता है कि आप इस तल से कितना ऊपर उठे। अंतर समझना। संसार की नज़रों में बड़ा कौन है? जिसने विस्तार लिया, पसार लिया, प्रसार लिया, जिसने अपना क्षेत्र बढ़ाया, वो संसार की नज़रों में बड़ा कहलाया।
अध्यात्म ऐसे नहीं देखता। अध्यात्म कहता है: तुम पगले हो। पगले क्यों हो? पगले इसलिए हो क्योंकि तुम्हारी इच्छा ही नहीं है यहाँ फैलने की और तुम इस पर फैले जा रहे हो और सोच रहे हो कि तुम्हें कुछ मिल जाएगा। जैसे कोई बच्चा हो छोटा जो तारे छू लेना चाहता हो और ये धरती है। वो धरती पर कितना भी पसर जाए वो तारे छू लेगा क्या? तुम तारे छूना चाहते हो, तुम ज़मीन पर क्या इतना इधर-उधर दौड़े जा रहे हो, विस्तार ले रहे हो? तो अध्यात्म कहता है: 'मैं तो बस ये देखूँगा कि तुम तारों की तरफ कितना उठे? मैं तुम्हारी ऊँचाई देखूँगा, विस्तार नहीं।'
गणित की भाषा में सीधे-सीधे ये कहेंगे कि जैसे धरती हुआ आपका एक्स-वाई एक्सिस (क्षैतिज तल), संसार ये देखता है। अध्यात्म देखता है: ज़ेड (खड़ा तल)।
हाँ, ऊपर भी उठने के लिए कई बार संसार के क्षैतिज तल पर थोड़ा-सा विस्तार चाहिए होता है। जैसे हवाई जहाज को ऊपर उठने के लिए रनवे चाहिए होता है न, तो अध्यात्म कहता है अविद्या भी ज़रूरी है। तुम्हें पता होना चाहिए कि ज़िंदगी में अपने लिए एक रनवे कैसे बनाना है। रॉकेट नहीं हो भाई तुम। खैर रॉकेट भी हो तो तुम्हें एक लांच पैड चाहिए न? एक लॉन्च स्टेशन तो चाहिए न? रॉकेट को भी ऊपर उठने के लिए पहले ज़मीन पर थोड़ी जगह चाहिए। जहाँ पहले उसका निर्माण हो सके, फिर लॉन्च हो सके।
तो ज़मीन पर तुम जितनी भी जगह लो, पहली बात तो उससे अपना बड़प्पन नहीं नापना, दूसरी बात उस जगह का उद्देश्य ज़मीन पर फैलना नहीं होना चाहिए। उस जगह का उद्देश्य आसमान की ओर, तारों की ओर उठना होना चाहिए। ये हम बिलकुल भूल जाते हैं। हम ज़मीन पर ही फैल कर के संतुष्ट होते रहते हैं। जैसे बड़ा आदमी! बड़ा आदमी! क्यों? फैल गया है। फैल कर क्या हुआ? उसे तो उठना था। उठा कि नहीं उठा?
फैलना वर्जित नहीं है, पर वो विस्तार जिसमें उड़ान न हो व्यर्थ है। ऐसे हवाई जहाज पर कौन बैठना चाहेगा जो जमीन पर ही भगता रहता है, टेकऑफ (उड़ान) ही नहीं करता?
ज़मीन पर आप भागिए थोड़ी देर तक, पर इस तरह से भागिए न कि थोड़ी देर बाद आप टेकऑफ कर सको। आप भागे ही जा रहे हो ज़मीन पर, भागे ही जा रहे हो: पैसा इकट्ठा कर लिया, लोग कहने लग गए बड़े इज़्ज़तदार आदमी हैं, दो-चार जगह जाकर फीता काट आए, माल्यार्पण कर आए, उद्घाटन कर आए। ये सब आप कर रहे हो। अपने क्षेत्र के नामी-गिरामी हो गए हो, चलो प्रधानमंत्री हो गए हो, जो भी हो गए हो। ऊँचाई मिली क्या?
और ऊँचाई मिली कि नहीं मिली ये कोई सामाजिक मापदंड नहीं है। ऐसा नहीं है कि समाज कह रहा है कि ऊँचे उठना चाहिए। समाज तो कह रहा है ज़मीन के तल पर फैलो। तो ऊपर उठना फिर ज़रूरी क्यों है? क्योंकि आपका दिल यही चाहता है।
समझना बात को: अध्यात्मा अगर किसी चीज़ के लिए ‘हाँ’ बोलता है, किसी चीज़ के लिए ‘ना' बोलता है तो इसलिए नहीं कि जिस चीज़ को ‘हाँ' बोल रहा है वो समाज सम्मत है या विधि स्वीकृत है, ना। अध्यात्म अगर किसी चीज़ की पैरवी करता है, किसी चीज़ की अनुशंसा करता है, आपको कहता है कि इसको अपनाओ तो इसलिए कहता है क्योंकि उसको अपना करके आपको वो मिलेगा जिसके लिए आपका मन बेचैन है, विकल है।
तो एक तरह से अध्यात्म आपको कोई बाहरी बात नहीं बता रहा है वो आपको आपकी ही बात बता रहा है। समाज और कानून आपको बाहरी बाते बताते हैं।
आप किसी जगह जाइए, वहाँ आपको पूछना पड़ता है कि 'अच्छा! इस जगह के नियम क्या हैं?' है न? वो जो नियम हैं वो आपने नहीं बनाए, उनका आपसे कोई ताल्लुक नहीं है। वो किसी पराए लोगों ने बनाए हैं और आपको उन नियमों को मानना पड़ेगा, नहीं मानोगे तो दंड मिलेगा।
अध्यात्म भी कई बार कुछ बातें ऐसे ही बोलता है जैसे वो नियम हों पर वो नियम आपको इसलिए नहीं बताए जा रहे कि कुछ और लोग हैं जो आपको अपने आधीन रखना चाहते हैं। वो आपके अंतर्जगत के नियम हैं। आपको वो बाते बताई जा रही हैं जो आप चाहते ही हैं। आपको आईना दिखाया जा रहा है। आपको आपसे मिलवाया जा रहा है। समझ में आ रही है बात कुछ?
तो ये इस दुनिया में जीने का तरीका है: सिर्फ इकट्ठा करने के लिए कुछ भी इकट्ठा करो मत, और ना ये बोल दो अपने-आपको कि इकट्ठा करना गुनाह है।
एक अति तो ये होती है कि, 'और लाओ! और लाओ!' और दूसरी अति क्या होती है? 'नहीं जी साहब, हम तो संतोषी आदमी हैं, हमारा तो दो रुपए में गुजारा चलता है।' अध्यात्म में ये दोनों ही अतियाँ मूर्खता की हैं। अध्यात्म कह रहा है, 'देखो! इस दुनिया से तुम्हारा काम नहीं चलना पर इस दुनिया के बिना भी नहीं चलना। तुम्हें जहाँ जाना है उसका रास्ता तो इस दुनिया के बीच से ही गुजरता है, इस दुनिया को छोड़कर तुम जाओगे कहाँ?'
रॉकेट याद है न? रॉकेट को तो सीधे भी ऊपर उठना है, तो भी उसे शुरुआत कहाँ से करनी है? ज़मीन से ही। तो ज़मीन को छोड़कर रॉकेट भी कहाँ जाएगा? उसका निर्माण भी ज़मीन से हुआ है और उसको ईंधन भी ज़मीन से ही मिलना है। आसमानों को जाता होगा रॉकेट, लेकिन कोई ऐसा रॉकेट देखा है जिसको ईंधन भी आसमानों से ही मिलता है? अरे चलो सोलर पॉवर ऑपरेटेड (सौर उर्जा चलित) भी है मान लो, तो भी उसमें सोलर पैनल तो ज़मीन से ही लगेंगे न। या वो भी सूरज से आएँगे?
ये सब बातें प्रतीकों में हो रही हैं, कुछ समझ में आ रहे हैं प्रतीक?
प्र: जी।
आचार्य: हम जो रिश्ते बनाएँ, हम जो कर्म करें, हम जो ज्ञान अर्जित करें, हम जो नौकरी करें, हम जो व्यापार करें, हम जो डिग्रीयाँ लें, हम जो कुछ भी करें दुनिया में उसका उद्देश्य क्या होना चाहिए? और कुछ तो करना ही पड़ेगा दुनिया में। ये तो कह मत दीजिएगा कि 'हम तो अब विरक्त हो गए हैं, हम कुछ करते नहीं।' सब लोग कुछ-न-कुछ लगातार कर ही रहे हैं। किस उद्देश्य से करें? उद्देश्य ज़मीन के तल पर फैलना नहीं है, उद्देश्य ऊपर को उठना है।
आपके सब संसाधनों का, आपके सब ज्ञान का, आपके सब संबंधों का, एक ही उद्देश्य होना चाहिए कि वो आपको ऊपर उठा रहे हैं कि नहीं। और आपके संसाधनों की, संबंधों की, ज्ञान की गुणवत्ता कितनी है वो भी आपको ऐसे ही नापना है।
आपने पैसा इकट्ठा कर लिया जीवन में, आपके पैसे ने आपको तलान्तर दिया कि नहीं? आपके तल का अंतरण हुआ कि नहीं हुआ? या उसी तल पर रह गए खूब पैसा कमा कर भी?
तो कमाते रहो पैसा, वही हाल होगा जिसका अभी प्रश्नकर्ता उल्लेख कर रहे थे कि बहुत पैसे वाले हैं, विकसित देश से हैं, और ये हैं वो हैं, ज्ञान भी है लेकिन बुद्धि बच्चों जैसी, डर भी बच्चों वाले, क्योंकि ये पता ही नहीं था कि ये जो मिट्टी है दुनिया में, इस मिट्टी का इस्तेमाल क्या करना है।
इस मिट्टी को छोड़ नहीं सकते पर इस मिट्टी से बनानी है देव प्रतिमा। जो है तो मिट्टी, पर आपको मिट्टी के पार ले जाएगी। चलो आज की भाषा में कहें: इस मिट्टी से बनाना है रॉकेट, जो आपको ऊपर ले जाएगा। बात खुल रही है कुछ?
जो नहीं बना पाया रॉकेट उसने चाहे इस पूरे (ज़मीन के) तल पर कब्ज़ा कर लिया हो वो फिर भी महाभिखारी है। महा भिखारी है। और चालाक कौन है? शातिर कौन है बिलकुल? जिसने इस तल पर न्यूनतम संसाधनों के साथ टेकऑफ (उड़ान) कर लिया। हमें ऐसे ही तो रॉकेट चाहिए न, जो जल्दी बन भी जाता हो, कम-से-कम ईंधन खाता हो और तुरंत ऊपर पहुँचाता हो, ऐसा रॉकेट बनना है।
भई, कुछ तो संसाधन यहाँ पर इकट्ठा करने ही पड़ेंगे। कम-से-कम इकट्ठा करके गाड़ी खरीदते हैं तो यही तो पूछते हैं न कि, 'कितना देती है?' ज़िंदगी से भी यही पूछा करिए कि, 'कितना देती है? खाती तो खूब है ज़िंदगी। दिन भर हमें खाती ही रहती है।' महीने भर जो कमाते हो वो किसको खिलाने के लिए कमाते हो? ज़िंदगी को ही तो। कार में तो पूछ लेते हो कि, 'माइलेज कितना है?' ज़िंदगी का माइलेज कभी नापा करिए। कितना खाती है ज़िंदगी? और खाए ही जा रही है ज़िंदगी, खाए ही जा रही है। खा तो रही है, आपको पहुँचा कहाँ रही है?
ज़िंदगी भी एक यान है, एक वाहन है। आपको कहीं पहुँचा भी रही है या खाए ही जा रही है बस? यही पूछना है। ज़िंदगी ऐसी जीनी है जो खाती कम-से-कम हो और पहुँचाती ऊपर-से-ऊपर हो। बात आ रही है समझ में?
और जो ऊपर नहीं पहुँच रहा है उसको दुनिया चाहे कुछ भी बोले, आपको उसे बड़ा आदमी नहीं मानना है। जो बस यहीं पसरता जा रहा है और ऊपर को नहीं जा रहा है उसे बड़ा आदमी नहीं मानना है, समाज कुछ भी बोलता रहे। उसको मिल रहे होंगे नोबेल पुरस्कार, दुनिया के सबसे बड़े पुरस्कार, मिल रहा हो उसको पद्मश्री, पद्म विभूषण, भारत रत्न, कुछ भी मिल रहा हो, आपको उसे बड़ा आदमी नहीं मानना है, अगर उसके कर्मों ने उसको आंतरिक ऊँचाई नहीं दी है। अगर उसके जीवन का आयाम नहीं बदला है तो। ठीक है?
और जो इसका विपरीत है वो भी स्वाभाविक रूप से सच है। क्या? कि जो ऊपर उठ गया है, उसके विषय में ये नहीं देखना है कि इसके हाथ में कितना है।
जो नीचे ही पड़ा हुआ है उसके हाथ में कितना भी हो उसकी कोई हैसियत नहीं और जो ऊपर उठ गया है उसका गिनना नहीं है कि उसके हाथ में कितना है और कितना नहीं। समझ में आ रही है बात? क्योंकि अगर आप इसी आधार पर निर्णय करने लग गए कि किसको नोबेल पुरस्कार मिला है किसको नहीं, तब तो बेचारे ऋषिजन और संतो की कोई कीमत ही नहीं रह जानी है। उन्होंने तो न राज्य जीते, न शासन किया किसी पर, न संसाधन जुगाड़े।
सम्मान बहुत मूल्यवान चीज़ होनी चाहिए आपका। जल्दी से किसी को सम्मान नहीं दे देना है। ये सर जो है हर औनी-पौनी जगह झुक नहीं जाना चाहिए कि ये तो बड़ा आदमी है, सर झुका दो। एकदम नहीं! एकदम भी नहीं! बहुत खास जगहों पर ही ये सर झुके और जब ये सर झुके तो उसका कुछ मतलब हो कि आज झुका है। ऐसे नहीं कि कहीं भी जाकर के दंडवत हो गए, किसी को भी बड़ा आदमी बोल दिया। काहे का बड़ा आदमी? अरमानी पहनता है तो बड़ा आदमी हो गया? यही अध्यात्म है।
न तो रत्न जड़ित अंगूठियाँ पहनना अध्यात्म में आता है, न साँप को दूध पिलाना, न हवाई यात्राएँ करना, न ये पूछना कि, 'आत्मा मरने के बाद कौन से लोक में जाती है?' ये सब नहीं है अध्यात्म। यही है: ठसक, जो अहंकार से नहीं निकल रही है, बोध से निकल रही है, विवेक से।
तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए इस बात पर कि जिन्हें हम बड़े लोग कहते हैं, वो सब-के-सब अर्धविक्षिप्त हैं या अधिकांशतः। सौ में से दो-चार अपवाद हो सकते हैं। कोई हैरानी की बात नहीं है। हैरानी की बात ये है कि आप उन्हें बड़ा बोलते ही क्यों हैं? हैरानी की बात ये है कि इंसान हो, चाहे कार हो, चाहे कोई डब्बा बंद उत्पाद हो, हमारे लिए ये ब्रांड शब्द इतना महत्वपूर्ण है ही क्यों? हमारी आँखें ऐसी क्यों नहीं है जो हकीकत देख पाएँ? हमें लेबलों से इतना सरोकार क्यों है?
मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूँ जिस दिन संस्था को मेरे वीडियोज़ पर आई.आई.टी, आई.आई.एम वगैरह नहीं लिखना पड़ेगा। कुछ नहीं लिखना पड़ेगा।
दिक्कत हो जानी है। उन्हें बड़ा नहीं मानोगे तो फिर वो सारे काम करने भी बंद करने पड़ेंगे न जो उन्हें बड़ा मानने के कारण कर रहे हो। जिसे बड़ा मानने लगते हो, जिसे सम्मान देने लगते हो, उसी के जैसा बनने की ख्वाहिश भी आ जाती है। हम तो सारे काम ही वही करते हैं जो तथाकथित बड़े लोग कर रहे हैं। अब अगर उन्हें बड़ा नहीं माना तो हम करेंगे क्या?
अभी तक तो आसान था, किसी के पीछे-पीछे लग लिए, किसी के पीछे क्या, बड़े आदमी के पीछे कि भई बड़े लोगों ने ऐसा बोला हम भी वही कर लेते हैं। अगर किसी के पीछे नहीं लगना तो ज़िंदगी फिर अपनी दृष्टि से, आत्मा से जीनी पड़ेगी। आत्मा का हमें कुछ पता नहीं। तो तकलीफ़ हो जाएगी।
मैं चाहता हूँ आपको वो तकलीफ़ हो जाए। किसी का अंधा अनुकरण करने से कहीं बेहतर है उलझे हुए खड़े हो जाना। कम-से-कम वो उलझाव आपके तो होंगे। अभी तो एक स्पष्टता है जो झूठी है, जो पराई है। पराई स्पष्टता से कहीं बेहतर है अपने उलझाव। और एक बार आप उन उलझावों के सामने खड़े हो गए, रूबरू, समकक्ष तो फिर उलझाव सुलझने लगते हैं क्योंकि अब कोई विकल्प नहीं बचता न। उलझन सुलझाए बिना आगे नहीं बढ़ सकते। कहीं भी बढ़ने के लिए कुछ स्पष्टता चाहिए तो फिर मजबूर होकर स्पष्टता जीवन में लानी पड़ती है। लेकिन वैसी कोई मजबूरी आपको आएगी ही नहीं अगर आप चुपचाप बड़े लोगों के पीछे-पीछे चलते रहते हैं।
बैसाखियाँ मिली ही रहेंगी तो पाँव की मांसपेशियों को ताकत जुटाने की कोई मजबूरी क्यों आएगी? कि आएगी? टाँगे भी खुश हैं क्योंकि ताकत विकसित करने के लिए मांसपेशियों में, मांसपेशियों को दर्द झेलना पड़ता है, ये आप भली-भाँति जानते हैं। 'दर्द से कौन गुज़रे, बैसाखियाँ हैं तो!'
मैं चाहता हूँ आप बैसाखियाँ छोड़कर दर्द से गुज़रें, गिरें, चोट खाएँ, वो चोटें ही आपको निखारेंगी। आपको कभी-कभार ऐसा भी लग सकता है कि ये चोटें आपको मिटा देंगी। नहीं आप नहीं मिटेंगे। मिटेंगी आपकी कमजोरियाँ।
सच मिट नहीं सकता, जो मिट रहा है वो झूठ ही होगा। तो अगर कुछ मिट रहा है आपका, तो उसकी बहुत परवाह करिए भी मत। वो झूठ ही होगा। सच होता तो मिटता क्यों?