प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे किसी भी भागीदारी के साथ बोझ आता है, ख़ासकर ज़्यादा महत्व लोगों का होता है, अपनी और दूसरों की वृत्तियाँ भी होती हैं, तो आगे आने वाले, बनने वाले रिश्तों को किस तरीक़े से — चाहे जिस भी प्रकार के रिश्ते हों — उनको किस तरीक़े से बनाया जाए? और जो पहले से ही हैं उनको किस तरीक़े से संचालित किया जाए?
आचार्य प्रशांत: तुम कौन हो, तुम्हें क्या चाहिए यही निर्धारित करेगा न कि तुम किससे रिश्ता बनाते हो! एक बाज़ार है ये संसार, सब दुकानें हैं तुम्हें क्या चाहिए ये निर्धारित करेगा न कि तुम किस दुकान में प्रवेश करते हो! जिनसे तुम सम्बन्ध बनाते हो, हर एक को मानो जैसे कोई दुकान है। उस दुकान से तुम्हें कुछ मिल सकता है। और हर दुकान से जो माल-मसाला मिलना है वो अलग-अलग है।
कितनी दुकानें हैं? अनगिनत! अनगिनत दुकानें हैं। तुम किसी में भी प्रवेश कर सकते हो। जिसमें प्रवेश कर गये उससे रिश्ता बन गया। तुम कौनसी दुकान में प्रवेश करोगे, बोलो? बोलो? जहाँ तुम्हें वो मिले जो तुम्हें चाहिए। तुम्हें चाहिए क्या भाई?
'वो तो पता नहीं है।'
तो ऐसे ही अपना बटुआ खाली कर दो। किसी को दान-दक्षिणा दे दो। यहाँ संस्था में ही बहुत ज़रूरत है। दुकानों में क्यों लूट रहे हो? हमें ही दे जाओ। कितनी भोली मुस्कुराहट है, ये देखो! रिकॉर्ड कर लो। (प्रश्नकर्ता की ओर देखते हुए)
कह रहे हैं, 'वो तो पता नहीं, क्या चाहिए? बस ये बता दीजिए कि कौनसी दुकान में घुसें?'
भाई तू है कौन? तेरी तमन्ना क्या, तेरी चाह क्या, तेरी प्यास क्या, वो तो बता मुझे।
'नहीं, वो नहीं बताऊँगा।'
क्यों नहीं बताऊँगा?
‘क्योंकि उस पर कभी ग़ौर किया ही नहीं।’
क्यों नहीं ग़ौर किया?
'क्योंकि बाज़ार इतना गरम है, इतना मस्त है, अपनी ओर कौन देखे! बाज़ार को देखने में भूल ही गये कि हम कौन हैं। अपना कुछ पता ही नहीं। बाज़ार की चका-चौंध में हर तरफ़ कुछ-न-कुछ लुभा रहा है। कहीं कुछ, कहीं कुछ।'
भूल ही गये हम कौन हैं, यहाँ आये क्यों हैं, अपनी हालत क्या है? क्या हालत है अपनी?
'वो आप बता दीजिए न, आचार्य जी! हमें बाज़ार देखने दीजिए। देखिए अपना-अपना विभाग होता है डिपार्टमेंट। हमारा डिपार्टमेंट है बाज़ार के मज़े लेना और आपका है हमें हमारे बारे में बता देना।'
तुम चश्मे वाली दुकान में जाओ। तुम्हें ऐसा चश्मा चाहिए, जिससे संसार नहीं, सार दिखता हो उससे रिश्ता बनाओ। किस दुकान में जाना है तुम्हें? जहाँ चश्में मिलते हों। किस दुकान में जाना है तुम्हें? जहाँ आईने मिलते हों।
आईना चाहिए, ताकि तुम्हें तुमसे मिलवा सके। चश्मा ऐसा चाहिए जो संसार का सार दिखा सके — इन दो से रिश्ता बनाना। आगे अब उसी से रिश्ता बनाना जो या तो तुम्हें संसार का सार दिखाता हो या तुम्हारा तुमसे परिचय कराता हो। ऐसा दर्पण हो जिसमें तुम्हारी शक्ल साफ़ नज़र आती हो। और किसी से रिश्ता मत बना लेना!
तमाम दुकानें हैं, उनका करना क्या है? कहीं कुछ मिल रहा है, कहीं कुछ मिल रहा है। रत्न जड़ित कच्छे, तुम घुसे चले जा रहे हो, अरे! रुक जा भाई, तू करेगा क्या इसका? यही करेगा कि जीवनभर की जमा पूँजी गँवा देगा।
'बहुत बढ़िया चीज़ है, बहुत बढ़िया चीज़ है ले लो।'
करोगे क्या?
'नहीं, क्या करेंगे ये बाद में देखेंगे। चीज़ बढ़िया है न!'
ये तर्क तुमने सुना है या नहीं?
'बढ़िया माल मिल रहा है, सस्ता मिल रहा है ले लो।'
करोगे क्या?
'अरे, सस्ता तो है, ले लो न! ये बाद में देखेंगे इसका करना क्या है।'
ऐसे ही चलता है न हमारा खेल? क्योंकि हमें ये पता ही नहीं है कि हमें चाहिए क्या। संसार सुपरमार्केट है। पता नहीं क्या-क्या मिल रहा है यहाँ पर! उससे तुम्हें नाता रखना क्यों है भाई? उत्सुकता, कौतूहल, बचपना। किसी छोटे बच्चे को ले जाओ सुपरमार्केट में, क्या करता है? इस चीज़ पर हाथ रख रहा है, उस चीज़ को देख रहा है। फ़लाना पैकेट उठा लाया। बोतल मिली, बोतल में मुँह डाल दिया। कुछ भी कर रहा है।
वैसे ही हमारा हाल है। जो ही कुछ मिलता है, उसी में मुँह डाल देते हैं। फिर फँस जाता है मुँह, तो अद्वैत बोध शिविर। काहे को आए हो?
'बोतल निकाल दीजिए, मुँह फँस गया है।'
काहे को निकाल दूँ तुम्हारा मुँह बाहर?
'वो दूसरी बोतल बहुत लुभा रही है। उसमें मुँह डालना है। आप हैं तो, फँस जाएँगे तो आपके पास आएँगे।'
कौनसी दो दुकानें बतायी तुम्हारे लिए?
प्र: जहाँ पर शक्ल दिखती है।
आचार्य: या तो किसी ऐसे से सम्बन्ध बनाना जो तुम्हें बताये कि तुम्हारी हक़ीक़त क्या है; भले वो कड़वी हो। या किसी ऐसे से बनाना जो संसार से परिचय ही करा दे कि दुनिया चीज़ क्या है। तीसरे किसी की कोई ज़रूरत नहीं!
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