प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप कहते हैं कि संगति पर किसी की निर्भरता नहीं होनी चाहिए, पर मेरा जीवन तो ऐसा है कि मैं लगातार किसी ना किसी पर आश्रित रहती हूँ, कैसे मैं इस निर्भरता को छोड़ सकती हूँ?
आचार्य प्रशांत: देखो, एक होता है आखिरी सच, उसको कभी आत्यंतिक बोलते हैं, कभी पारमार्थिक बोलते हैं, हैं ना? एब्सलूट ट्रुथ (परम सत्य), अल्टीमेट (अंतिम)। खबर होनी चाहिए कि वैसा कुछ है, पर उसकी बस खबर ही मिलेगी, उसको जान नहीं पाओगे। वैसे हो नहीं जाओगे। मैंने कभी अगर कह दिया या तुमने उपनिषदों में पढ़ लिया कि "विशुद्ध आत्मा हो तुम और आत्मा के अतिरिक्त किसी की सत्ता नहीं। दूसरे किसी के होने का कोई सवाल नहीं, इसीलिए तुम्हें किसी की संगत की ज़रूरत नहीं। आत्मा तो असंग है। "अहमेव केवलम्", मेरे अलावा तो कोई दूसरा है ही नहीं।" मैंने कभी ऐसा कह दिया, तुमने कभी ऐसा सुन लिया; भला हुआ कि तुमने सुन लिया, उसका श्रवण आवश्यक है क्योंकि उसके श्रवण से यह पता चलता है कि संगति पर हमारी जो आश्रयता है, वह आवश्यक नहीं है।
बड़े बूढ़े बुजुर्ग जिन्हें हमसे स्नेह था, जो हमारा भला चाहते थे, वह हमें बता गए हैं कि असंग जीना, असंग सत्ता ही सत्य स्वभाव है। यह बात तुमने सुन ली, यह बात तुम्हारे कानों में पड़ गई। इसका कानों में पड़ने का महत्व है, लेकिन यह बात तुम्हारे कानों में पड़ गई इसका मतलब यह नहीं है कि तुम इस सत्य में प्रतिष्ठित हो गए। यह सत्य तुम्हारी जिंदगी बन गया, बन नहीं जाएगा।
मैं जो बात बोल रहा हूँ वह थोड़ी सी महीन है। वो सुनने में थोड़ी सी विरोधाभासी लगेगी, तो गौर से समझना। हम जिंदगी बिता रहे हैं जिसमें हम किसी की संगति पर आश्रित होते हैं। हमें हाथों में पकड़ने को कुछ चाहिए। हम चाय पी रहे हैं, तो हमारी आरजू होती है कि सामने कोई बैठा हो और एक की जगह दो प्याले हों। होती है ना? यह आँखें आसमान की ओर भी देखती है तो आसमान में भी खोजती हैं कि कुछ हो। खाली आसमान भी इनको नहीं सुहाता। वहाँ भी कहती है कि चांद हो, तारा हो, कोई पंछी हो।
मन को कोई विषय चाहिए। शरीर को कोई वस्तु चाहिए। मन विषय की तलाश में रहता है, कुछ सोच सकूँ। शरीर वस्तु की तलाश में रहता है, कुछ छू सकूँ। आँखें दृश्य की तलाश में है, कान ध्वनि की तलाश में है। है ना?
यहाँ तक कि तुम्हारी मांसपेशियाँ भी किसी तरह की चुनौती, किसी तरह के वजन, किसी बोझ की तलाश में है। उनको नहीं मिलता तो वो सूखने लग जाती हैं। दूसरे की तलाश जीव को लगातार है। यह हमारी अवस्था है अभी, अद्यतन। अद्यतन माने करेंटली।
आदमी को इसे कभी भी नहीं भूलना चाहिए। और मैं इस पर बहुत सालों से बार-बार बहुत जोर देता आया हूँ कि अध्यात्म की ऊँचाइयों से जो आवाजें आएँ, जो आकाशवाणी हो उसको सुन कर के, उससे मुग्ध होकर के, यह भूल मत कर बैठना कि तुम अपनी वर्तमान हालत को भूल जाओ, अवहेलना करने लग जाओ।
ऊपर से आकाशवाणी हुई "अहमेव केवलम्", मैं ही मैं हूँ और तुमने कहा "अहमेव केवलम्" और हाथ में तुम ने पकड़ रखा है चाय का प्याला। तुम ही तुम हो तो यह प्याला कहाँ से आया? ऊपर से उतर गई बात 'तत त्वम असी' और तुमने कहा ठीक, बहुत ऊँची बात है और बात सुनने में तो बहुत सुंदर है, बहुत ऊँची ही है, परम सत्य है, कोई संदेह नहीं। लेकिन 'तत त्वम असी' सुनके या 'अहम् ब्रह्मास्मि' सुनके तुमने इस बात की बिलकुल उपेक्षा कर दी कि तुम कभी पति हो के जी रहे हो, कभी पत्नी होके जी रहे हो, कभी कर्मचारी होके जी रहे हो, कभी कुछ और।
तुमने कह दिया, "मैं तो ब्रह्म हूँ।" मैं ब्रह्म हूँ, इस बात की पुष्टि उपनिषदों ने करी है। यह बात झूठ तो नहीं हो सकती, मैं तो ब्रह्म हूँ। और यह बात झूठ बिलकुल नहीं है, पर मत भूलो कि वो बात आकाशों से आ रही है और तुम ज़मीन के बासिन्दे हो। एक ओर तो मैं कह रहा हूँ कि जब आकाशों की भी बात सुनो तो तुम अपनी यथार्थता को भूल मत जाना। दूसरी ओर मैं यह भी कह रहा हूँ कि उस बात का सुना जाना बहुत ज़रूरी है।
अब तुम बताओ उसका सुना जाना ज़रूरी क्यों है? अगर वह बात आसमान की है जबकि हम ज़मीन पर बसते हैं तो फिर हम उस बात को सुने ही क्यों? क्यों सुने?
श्रोता: यदि नहीं सुनेंगे तो जो कुछ भी हम सोच रहे हैं, जिसमें फँसे हैं, वही हमें सच लगेगा।
आचार्य: बढ़िया, ठीक। उसको नहीं सुनोगे तो नीचे फँसे रह जाओगे। दूसरी बात नीचे फँसे रहने में चैन भी तो नहीं है ना। उसको ना सुनने का तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं है। तुम्हें वह बात सुननी ही पड़ेगी क्योंकि उसको नहीं सुनोगे तो अशांत रहोगे, नीचे फँसे रहोगे और अशांत रहोगे, तो तुम्हें उसे सुनना भी है। लेकिन विनम्रता के साथ यह याद भी रखना है कि वह जो ऊपर से बोल रहे हैं उनकी बात ठीक है, पर वो हमारा यथार्थ नहीं है। वो बात परम शुद्ध है लेकिन हम कौन हैं? हम अशुद्धियों के जीव हैं और वो बात परम शुद्ध है। हम उस बात के आगे नमन करते है, लेकिन नमन करते वक्त हम इतना भी अहंकारी नहीं हो जाएंगे कि हम कहने लग जाए कि वो बात हमी ने तो कही है, और हमारे ऊपर ही तो लागू होती है।
समझ में आ रही है बात?
अब आते हैं आपके प्रश्न पर। आपने कहा कि आचार्य जी, आप बात करते हैं कि संगति में किसी पर निर्भरता नहीं होनी चाहिए, पर मेरा जीवन तो ऐसा है कि मैं लगातार कभी फ़ोन पर, कभी किसी चीज़ पर आश्रित ही रहती हूँ। ठीक है? तो अब मैं तुम्हारे सामने स्थिति रख देता हूँ तुम बताना कि आगे कैसे बढ़ना है।
आसमान हमको बता रहे हैं कि हमें दूसरे पर निर्भरता से मुक्त होना है। यह हमें किसने बताया? आसमानों ने। बहुत ऊँची बात है कि दूसरे पर जो तुम यह निर्भर हो गए हो इसको बंद करो बेटा और ज़मीन से जो हम पैदा हुए हैं, मिट्टी का जो यह तन है यह तन लगातार क्या बोल रहा है? कि तुम तो दूसरे पर ही निर्भर हो। तुम तो इस तन के जन्म लेने के लिए भी एक दूसरे तन पर निर्भर थे। आसमान कह रहे हैं कि दूसरे की कोई सत्ता नहीं, 'द्वितीयो नास्ति'। और तन तुम्हें बता रहा है कि दूसरा नहीं होता तो हम भी ना होते। यह तो बड़ी खराब हालत है तो तुम्हें क्या करना है?
तुम्हें देखना है कि तुम्हारे लिए हितकर क्या है। और हितकर की जब बात करते हो तो यह देखना होगा कि हानि कहाँ हो रही है। क्योंकि हित और हानि तो जुड़ी हुई बातें हैं ना। हानि हो रही है तुम्हें दूसरे पर आश्रित रहकर। धरती ने तुमसे बिलकुल ठीक बोला कि दूसरे ना होते तो तुम्हारा शरीर भी ना होता। लेकिन तुम धरती को यह उत्तर दोगे ना, कि सिर्फ़ शरीर बने रह कर के कहाँ सुकून है। चैन भी तो नहीं है ना। माता आपकी बात बिलकुल ठीक है, कि दूसरे ना होते तो यह शरीर ना होता लेकिन दूसरों पर लगातार अवलंबित रहकर सुकून कहाँ है बताओ? तो अब क्या करें?
एक ओर तो यह बात कि दूसरे चाहिए ही चाहिए, वो मजबूरी है। शरीर की मजबूरी है, जीव की मजबूरी है, व्यक्तित्व की मजबूरी है कि दूसरे चाहिए ही चाहिए। और दूसरी ओर वो आसमान है, जो ऊपर से नाद करें ही जा रहे हैं कि दूसरे नहीं चाहिए। अब तुम क्या करोगे? जल्दी से बताओ कोई उपाय।
श्रोता: आसमान से जाकर पूछ सकते हैं कि नही?
(सभी श्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य: आसमान कह रहे हैं कि जब तक तुम ऐसी हालत में नहीं आ जाते, जहाँ पर तुम दूसरों से मुक्त हो, तब तक तुम्हें सुकून नहीं मिलेगा। यह बात तुम से आसमान कह रहे हैं। और ज़मीन का यथार्थ यह है कि तुम्हें दूसरा चाहिए ही चाहिए। तो अब तुम क्या करोगे?
श्रोता: हमें यह भी तो देखना चाहिए कि मैं भी तो दूसरा ही हूँ।
आचार्य: सब कुछ देख लो, सब कुछ देखने के बाद भी बात यह है कि दूसरा तो चाहिए ही चाहिए।
श्रोता२: हमें यह देखना होगा कि क्या हमें चाहिए।
आचार्य: आगे बढ़ो।
श्रोता२: हमें यह देखना होगा कि क्या हमें चाहिए, तो हम कहीं ना कहीं उससे छुटकारा पाने की भी कोशिश करते हैं।
आचार्य: और इसको सरल रखो। उतना घुमाओ नहीं।
प्र२: दूसरा हमें क्यों चाहिए?
आचार्य: दूसरा बस चाहिए। विचार क्यों आते हैं? विचार आपकी अनुमति लेकर तो नहीं आते ना! विचार, इस प्रश्न के उत्तर के बाद तो नहीं आते ना कि विचार क्यों आए? जब विचार उमड़-घुमड़ भी रहे हैं, तो उस वक्त उनसे कह दो कि क्यों आए हो तो क्या लौट जाते हैं? तो जब बात जीव की होती है और जीव की वृत्तियों की होती है, तब यह क्यों वाला प्रश्न काम आता ही नहीं। सवाल बढ़िया हैं कि भाई दूसरे की संगत क्यों चाहिए, पर अब चाहिए तो चाहिए। जैसे एक छोटा बच्चा हो, वह माँ को पकड़े हुए है। माँ उसको समझा रही है देखो बेटा! तुझे माँ क्यों चाहिए? उसे तुम समझा लो बौद्धिक रूप से, बिलकुल समझा लो, उससे हाँ करवा लो, उसकी सहमति ले लो कि पक्का है ना कि तुझे अभी माँ नहीं चाहिए घंटे भर के लिए। इतना कहकर आगे बढ़ो, पीछे फिर पकड़ लेगा। अब सिर धुनते बैठे रहो कि इतना तो इसको समझा लिया यह फिर भी! इसको चाहिए तो चाहिए।
यही तो वृत्ति है। वृत्ति अंधी होती है। प्रेम नहीं अंधा होता। वृत्ति अंधी होती है। वह क्या, क्यों, किसलिए इत्यादि प्रश्न समझती ही नहीं है। कभी तलब उठी है, किसी भी चीज़ की? चाहे चाय की उठी हो, चाहे घूमने की उठी हो, तमाम तरह के इंद्रियगत सुखों की उठी हो, उस वक्त यह क्यों वाला प्रश्न काम आता है क्या? आता है क्या?
श्रोता: बिलकुल नहीं।
आचार्य: नहीं आता ना! तो क्यों की बात ही नहीं। तो हम तो ज़मीन पर हैं, और ज़मीन पर फँसे हुए हमें दूसरा चाहिए। अब इस मुद्दे पर कोई बहस नहीं हो सकती क्योंकि बहस से मुद्दा सुलझेगा नहीं।
दूसरा हमें चाहिए। लेकिन यहीं पर हम रुक भी नहीं सकते क्योंकि अगर तुम यहाँ पर रूके तो ऊपर वाला खफ़ा होता है, जो कहता है दूसरा नहीं चलेगा। हमारे दरबार में दो का होना गुनाह है। सिर्फ़ अस्वीकार्य ही नहीं है, गुनाह ही है। वहाँ तो बस एक, और नीचे दो नहीं, दो हजार।
अब क्या करना है, बोलो? मैं तुमसे यह बोलूँ कि एक झटके में इन सब दो हज़ार को त्याग दो तो मैं तो बोल कर निकल जाऊँगा। तुम फँसे रह जाओगे। तुम कहोगे, आचार्य जी बड़ी अच्छी सलाह दी। क्या सलाह दी? कि बेटा ये जितने हैं, सब को त्याग दो क्योंकि उस के दरबार में तो एक ही चलता है। तो ज़मीन पर सब त्याग त्याग दो। ठीक, बढ़िया बात बोली आचार्य जी, तालियाँ। उससे तुम्हें मिल कुछ नहीं जाना है।
श्रोता: अगर सच्ची श्रद्धा हो तो भी नहीं मिल सकता?
आचार्य: तुम वो हो (एक सोते हुए बच्चे की ओर इशारा करते हुए), दिखने में बड़े हो। हम सब वो हैं (सोते हुए बच्चे की तरफ़ इशारा करते हुए), जो सो रहा है। दिखने में बड़े हैं बस। शरीर बढ़ जाता है। वृत्ति इतनी ही बड़ी है सब की। और जब वो चिल्लाती है ना तब तुम बेबस हो जाते हो। तुम्हें पता नहीं है क्या? भीतर से जब वृत्ति चिल्लाती है तो बेबस हो जाते हो कि नहीं हो जाते हो? और वृत्ति कुछ भी माँग सकती है। वो यह भी कह सकती है कि साथ चाहिए। वो माँग सकती है शराब चाहिए, तो कभी कहती है आज चाट चाहिए, आज तो गोलगप्पा चाहिए। कभी दुकान में कोई बढ़िया चीज़ दिख गई, नया कोट आया है, वही चाहिए। और तुम्हें अच्छे से पता है कि वो जो चीज़ है दुकान में, बहुत महत्व कि नहीं है लेकिन वृत्ति फिर भी — कई बार तुम उसको दबा देते हो लेकिन अक्सर वही जीतती है। जीतती है कि नहीं जीतती है? चाहे वो भावनात्मक ऊर्जा के क्षण हों, क्रोध के हों, चाहे कामवासना के हो, जीत जाती है ना!
प्र३: आचार्य जी वृत्ति क्या होती है?
आचार्य: वृत्ति का मतलब होता है कि प्यास लगी है तो पानी की ओर भागोगे। शरीर कुछ चीज़ों की तरफ़ भागता ही भागता है। और शरीर (मस्तिष्क सम्मिलित) उसे कुछ चीज़ें चाहिए ही चाहिए। उससे तुम कितना भी तर्क कर लो बहस कर लो, वो नहीं मानता। वो घटनाएं अपने-आप होती रहती हैं।
प्र३: आचार्य जी, हम जिस स्तर पर होते हैं, हमें वो चाहिए होता है। जैसे हम बुद्धि के स्तर पर हैं तो बुद्धि वाली चीजों को ज़्यादा पसंद करेंगे। अगर हम शरीर के स्तर पर हैं तो आँख, नाक इत्यादि से प्रभावित होंगे। अगर हम अपने अहंकार को बहुत ज़्यादा देख कर चलते हैं कि मैं ऐसा हूँ तो हम अपनी तारीफ़ खोज लेंगे। तो हम कहीं ना कहीं जिस स्तर पर होते हैं हमें वो चाहिए होता है।
आचार्य: पर जो भी चीज़ चाहिए होती है वह है तो दूसरी, क्या फायदा हुआ?
श्रोता: आचार्य जी फिर उसे ही चाह लो जो आवाज़ दे रहा है ऊपर से।
आचार्य: जे बात! देखा, जो गद्दे को छोड़कर पास बैठते हैं उनको क्या मिलता है (आचार्य जी मुस्कुराते हैं)।
तो ज़मीन का तकाजा तो यह है कि दूसरा तो चाहिए और ऊपर की बात यह है कि दो के साथ बात बनेगी नहीं। तो ज़मीन पर फिर क्या किया जाए? ज़मीन पर फिर इन्होंने अभी जो कहा वो वाला प्लान योजना लगाया जाए।
इसने कही वो वाली योजना समझ में आयी? क्या है योजना? दूसरा तो चाहिए ही, तो किसी ऐसे को क्यों ना चाह ले जो ऊपर ही पहुँचा दे। नीचे की शर्त भी पूरी हो जाएगी और ऊपर वाले की आज्ञा भी। फिर ज़मीन पर भी काम चल जाएगा और आसमान भी नाराज़ नहीं होगा।
फिर आसमान कहेगा, दूसरा क्यों? तो आसमान को कहना कि अगर दूसरा नहीं होगा तो तुझ तक कैसे आएँगे। तो आसमान कहेगा ठीक! और ज़मीन ने तो शर्त रख ही दी थी कि एक से काम चलेगा नहीं। जीव पैदा हुए हो, जीव पैदा होने का मतलब ही हैं कम से कम दो, जीव और संसार। ज़मीन की शर्त भी पूरी हो गई, आकाश तक पहुँचने का जरिया भी खुला रहा।
संगति करनी ही है तो संगति में यही शर्त रखा करो, वो साथ हो जो साथ से आज़ाद कर दे।
फ़र्क नहीं पड़ता उसका साथ कहाँ ले रहे हो। फ़ोन पर लेना है, फ़ोन पर ले लो। आमने-सामने हैं, आमने सामने ले लो। विचारों में है, विचारों में ले लो। आदमी तो कई तलों पर है ना। दैहिक भी कई तल होते हैं। विचार, भावनाएँ, स्थूल माँस-मज्जा, जिस तल पर संगति करनी है, कर लो! लेकिन हर तल पर शर्त एक ही रखना। क्या शर्त? जिसका साथ कर रहा हूँ, जिसका साथ ले रही हूँ, उसका साथ, मुझे साथ से आज़ाद करेगा या मुझे और ज़्यादा साथ की गिरफ्त में बांधेगा।
चाहे वो कोई वस्तु हो। कोई वस्तु है, जो तुम्हें बहुत प्यारी हो गई है (हाथ में रिकॉर्डर को लेकर), जब इस वस्तु से बड़ा मोह हो जाए तो पूछो, इसका (वस्तु का) मोह मुझे मेरे बंधनों से मुक्ति दिला रहा है, या और बंधनों में फँसा रहा है? अगर यह वस्तु तुमको तुम्हारे बंधनों से मुक्ति दिलाता हो तो इसको ना सिर्फ़ अपने साथ रखना बल्कि पूजना। और अगर यह एक और बंधन बन जाता हो तो कहना, भग! हट!
इसी तरीके से व्यक्ति, जिसकी संगत में हो, वो क्या कर रहा है? तुम्हारे बंधन काट रहा है या तुम्हारे बंधन बढ़ा रहा है? विचार, ज्ञान, भाव भी, जिस भाव के साथ हो, भाव की भी तो संगत करते हो ना! तो जिस भाव के साथ हो, उस भाव का प्रभाव क्या है तुम पर? जिन विचारों को समर्थन दे रहे हो, वो विचार तुम्हारी समस्याओं को सुलझा देंगे या वो विचार खुद एक समस्या बन जाएंगे?
तुम्हें दिखता हो कि विचार तुम्हारी समस्या सुलझा रहे हैं वाकई, तो विचारों में और डूब जाना और अगर तुम्हें दिखाई दे कि विचारों से समस्याएँ सुलझ रही नहीं है, विचार खुद एक बोझ है तो कहना, हटो!
संगति में बुराई नहीं है। तुम्हें संगति चाहिए क्योंकि तुम धरती के बासिन्दे हो। इस ग़ुरूर में ना रह जाना कि हम तो नित्य शुद्ध आत्मा हैं, हमें संगति की ज़रूरत ही नहीं।
तुम्हें संगति चाहिए, तुम बस यह आजमा लो कि वह संगति तुम्हारे लिए ठीक है या नहीं है। कोई नहीं है जो अपने-आपको संगति से काट लेगा। कहीं भी जाओगे तो तुम्हारे पाँव के नीचे तो पृथ्वी ही है ना! संगति बची कि नहीं बची? कहीं भी जाओगे तो आँखों के आगे तो दृश्य ही है ना? संगति बची कि नहीं? तन पर तो कपड़े ही है ना! तो संगति है कि नहीं? चलो कपड़े नहीं है, खाल तो है, संगति है कि नहीं? संगति तो है।
संगति तो एक तरह की मजबूरी है तुम उस मजबूरी को ही वरदान बना लो।