किस उम्र तक सेटल हो जाएँ?

Acharya Prashant

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किस उम्र तक सेटल हो जाएँ?
जहाँ कहीं भी हो, उस जगह से आगे बढ़ना है। तुम जिस भी मुक़ाम पर हो, वहाँ इसलिए हो कि उसके पार जा सको। हम यहाँ घर बसाने के लिए नहीं आए हैं। तुम सेटल होने के लिए पैदा ही नहीं हुए हो। एक ही तरीका है बचे रहने का — कहीं मत रुकना, लगातार हाथ-पाँव चलाते रहो। सारी ज़िंदगी बस इसी बात से तय होनी है कि आपने ठहरने का निर्णय किया या बढ़ते रहने का। एक दिन भी जीवन का शेष हो, तो आगे बढ़ते रहना है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, मेरा सवाल है कि अपनी स्थिति तो दिखाई दे रही है कि मुक्ति पानी है यानि स्वतंत्रता के लिए मन वैसे ही लालायित भी रहता है। तो हमने लगभग आधी उम्र ही निकाल दी है। न कोई बहुत बड़ा अचीवमेंट (उपलब्धि) है, न कोई बात। सर, मैं कोई लाचारी या मजबूरी की बात नहीं कर रही हूँ, पर मुझे ऐसा फील (अनुभव) होता है कि ये जो रास्ता है न बहुत लम्बा है, कि पहले कुछ प्राप्त करें फिर उसे त्यागें। बड़ा कन्फ्यूजन (द्वन्द्व) है। इस पर आप मार्गदर्शन दे सकें तो।

आचार्य प्रशांत: देखिए, जब छोटी वस्तु से आसक्ति का रिश्ता बन जाता है न, तो फिर बड़ी वस्तु जीवन में नहीं आ सकती। जो हमारी बात रहती है कि मैंने ज़िंदगी में ज़्यादा बड़ा पाया नहीं, उसमें हम एक बात को एकदम छुपा जाते हैं, वो बात ये रहती है कि मेरी छोटे से ही ऐसी आसक्ति हो गई कि बड़ा पाने की मुझे कोई ज़रूरत लगी ही नहीं। मैं एक छोटी सी चीज़ के साथ ही ममता का रिश्ता बना लूँगा तो आगे बढ़ने की मुझे ज़रूरत महसूस ही किसलिए होगी।

समझ रहे हैं?

ये कहना कि किसी ने बहुत पाया, ये नहीं बताता है कि उसने क्या पाया। वो इससे ज़्यादा ये बताता है कि उसने किस-किस जगह पर घर नहीं बनाया। आप किसी को अगर देखें कि वो पर्वत शिखर पर बैठा हुआ है, तो भूल होगी ये कहना कि उसने शिखर को पाया। ईमानदारी से ये कहिए कि उसने शिखर से नीचे कहीं भी घर नहीं बनाया। लालच तो उसको भी बहुत था। मील के इतने पत्थर मिलते हैं और रास्ता दुखदायी होता है। बहुत प्रलोभन आता है कि कहीं पर बस जाओ और बसते हम बहुधा एक रात के लिए ही हैं। उस रात में ही भोग की ऐसी लत लग जाती है कि आदमी कहता है, 'अब आगे काहे के लिए बढ़ना है।'

अब आगे न बढ़ें और फिर कहें कि हम तो कभी शिखर तक पहुँचे नहीं, तो उसमें हम इस बात को छुपा रहे हैं कि जहाँ बैठे हैं, वहाँ पर हम किस-किस तरह का सुख ले रहे हैं। समस्या सुख लेने में नहीं है, समस्या अपने आप को नाकाबिल समझ लेने में है, अयोग्य, अपात्र समझ लेने में है उससे किसी ऊँचे सुख के। आपको चोटी से बहुत-बहुत नीचे कोई जगह मिल गई, कोई गुफ़ा वगैरह, वहाँ छाँव भी थी, वहाँ थोड़ी सुरक्षा भी थी, उसके आस-पास कुछ फलदार पेड़ थे, खाने को भी था। इसका मतलब ये नहीं है कि वो जगह खराब थी, इसका मतलब ये है कि आपने अपने आप को उस जगह से ज़्यादा किसी ऊँची जगह के लायक नहीं समझा।

वो जगह अच्छी थी, पर आपने उस जगह को अपने से बड़ा बना लिया। आपने कहा, ‘ये जगह मिल गई है, मेरे भाग्य खुल गए। अब मैं यहीं बैठ जाती हूँ।‘ मैं क्यों बैठ जाऊँ वहाँ! जीवन जब एक अनवरत यात्रा है, तो आपने कहीं पर भी तंबू कैसे गाड़ दिया। आगे बढ़ने का सूत्र यही होता है, कहीं रुको मत। और कैसे आगे बढ़ा जाता है! ये कदम ज़मीन पर भी आगे कैसे बढ़ते हैं? जहाँ पड़े होते हैं, उस जगह को पीछे धकेलकर के। आप आगे कैसे बढ़ते हो? आगे की किसी चीज़ को खींचकर के? न।

आप चलने की थोड़ा प्रक्रिया पर गौर करिए। आप आगे बढ़ते हो जहाँ कदम पड़ गया है, उस जगह को लात मारते हो एक तरह से। आप उस जगह को पीछे धकेलते हो, पीछ फेंकते हो। तब आप खुद ही आगे बढ़ते हो। आप जैसे ही जहाँ हो उसको पीछे फेंकते हो, तो आप आगे बढ़ते हो। न्यूटन का गति का तीसरा नियम — एक चीज़ को पीछे फेंकोगे तो वो चीज़ आपको आगे फेंकेगी। जहाँ कदम पड़ गए हैं, उसी जगह जम जाओ, तो क्या होगा! और जम सकते हो। राह गीले सीमेंट की है। या तो खट-खट, खट-खट आगे बढ़ जाओ और कहीं पर पाँव रखा और वहीं रखकर के छोड़ दिया आठ-दस घंटे, तो अब कदम आगे नहीं बढ़ेंगे। वो जो जगह है उसने अब आपको पकड़ लिया है।

कभी उस चूहे को देखा है — चूहेदानियाँ आजकल आतीं हैं बड़ी बर्बर, क्रूर किस्म की। उनमें एक तरह का मोम होता है, चूहा उस पर जाता है और चिपक जाता है। यही हमारी हालत रहती है ज़िंदगी के तमाम मुकामों पर। जल्दी से आगे बढ़ जाओ तो बढ़ जाओगे। रुक गए, तो फिर रुक ही गए।

उन लोगों को देखा है जो दिखाए जाते हैं, मेलों वगैरह में या कई धार्मिक जगहों पर कि वो आग पर चल रहे हैं। वो आग पर कैसे चल लेते हैं? वो रुकते नहीं। क्षणभर को भी रुक जाएँगे तो भस्म हो जाएँगे। ज़िंदगी की राह वही है, जलते हुए अंगार। बढ़ गए तो बढ़ गए, जो रुक गए तो खाक हो गए। रुकने का मतलब ये नहीं होता है कि अब बड़ी ऐश मिलेगी, पर हमें यही लग रहा होता है बड़ा सुख मिल रहा है तंबू गाड़कर। अरे! सुख नहीं मिल रहा है, तुम राख हो रहे हो।

जो ज़िंदगी में जहाँ भी रुक गया है वहीं राख हो रहा है। फिर समझना। वेदान्त की विधि नेति-नेति की होती है। बड़ा पाया नहीं जाता, छोटा छोड़ा जाता है। यूँही नहीं नेति-नेति की विधि है, कभी कुछ नहीं बड़ा मिलेगा। बड़े को हासिल करना सिर्फ एक तरीके से होता है, छोटे को छोड़ दो। छोटे को जिस क्षण छोड़ा, बड़ा मिल गया और जितना बड़ा छोड़ते जाओगे, इतना कलेजा करो कि बड़े-से-बड़ा छोड़ूँगा, पाओगे उससे बड़ा कुछ मिल गया।

यही यज्ञ का भी सिद्धान्त है। मेरे पास जो बड़ी-से-बड़ी चीज़ होगी, मैं सब आहुति में डाल दूँगा। मुझे नहीं पता उससे मिलना क्या है, लेकिन चमत्कार होता है, मैंने इधर डाला, जितना डाला, उससे ज़्यादा बड़ा कुछ मिल जाता है। ये सब प्रतीक हैं जीवन की राह के। जहाँ कहीं भी हो, उस जगह से आगे बढ़ना है। तुम जिस भी मुकाम पर हो, तुम वहाँ इसलिए हो कि उसके बियॉन्ड (पार) जा सको। हम यहाँ घर बसाने के लिए नहीं आए हैं भाई।

आपका समाज इतने गलत मूल्यों और आदर्शों पर चलता है, जान ले लेता है जवान लोगों की। ‘सेटल (बस) कब हो रहे हो?' और मैं समझा-समझाकर हार गया कि भाई, तुम सेटल होने के लिए पैदा ही नहीं हुए हो। लेकिन इतना समझाने के बाद भी बाहर तो छोड़ दो, जो आस-पास हैं, इर्द-गिर्द; वो भी सेटेलाये जा रहे हैं (व्यंग्य हेतु सेटल्ड की जगह सेटेलाये कहते हुए)। बेताब हैं बिल्कुल कि सेटल कैसे हो जाएँ, इधर-उधर जाकर हाथ-पाँव मारना, इधर-उधर सबको इकट्ठा करना, माँ-बाप, दुनियादारी। ‘सेटल होने का तो देखना पड़ेगा न कुछ।'

तुम गीले सीमेंट की सड़क पर सेटल होने की सोच रहे हो। वहाँ कब्र बनेगी तुम्हारी। समझ में ही नहीं आ रहा है। तैरोगे तो पार लग जाओगे और जो रुक गया बीच धार में, उसका क्या होगा? सेटल हो रहा है वो। वो धारा के बीच में क्या बोल रहा है, सेटल होना है। उसका क्या होगा?

श्रोतागण: डूब जाएगा।

आचार्य प्रशांत: हम ऐसे डूबते हैं सेटल होकर। एक ही तरीका है बचे रहने का, कहीं मत रुकना, लगातार हाथ-पाँव चलाते रहो शायद तर जाओगे। जो कहीं भी रुक गया, वो मरेगा।

हम रुके हुए लोग हैं और कोई बात नहीं है। कोई बहुत अलग से विशेष प्रतिभाशाली नहीं होता। एक ही आत्मा है और उसका प्रकाश हम सबको बिल्कुल एक बराबर उपलब्ध है। कोई न छोटा, न बड़ा, न आगे, न पीछे। बस अपने-अपने चुनाव में अंतर है। कोई चुनाव कर लेता है बस जाने का, कोई चुनाव कर लेता है बढ़ जाने का। और सारी ज़िंदगी आपकी बस इसी बात से तय हो जानी है, आपने बस जाने का निर्णय किया या बढ़ जाने का।

जो बस गया, वो बस गया (बेकार हो गया)। अब आप बहुत हँसी-खुशी से बसे हुए हो, अब मैं क्या करूँ — मतलब, मैं क्या कर सकता हूँ इसमें। और जिसका पाँव अब सीमेंट में जम गया हो, मेहनत लगती है। ऐसा नहीं कि आगे नहीं बढ़ सकता वो। मेहनत लगेगी, थोड़ी तोड़-फोड़ होगी। जब तोड़-फोड़ होती है, तो दर्द होता है। दर्द वो आपको झेलना पड़ेगा। और मुझे उसमें बड़ी किंकर्तव्यविमूढ़ता रहती है कि मैं कैसे तोड़-फोड़ कर दूँ, जब दर्द आपको झेलना है। दर्द अगर आपको झेलना है तो फिर तोड़-फोड़ भी आपको खुद करनी चाहिए न। बिल्कुल ये बराबरी के सौदे की बात हुई न।

मैं तो कर सकता हूँ तोड़-फोड़, बताइए। लेकिन कितनी ये अन्याय की बात होगी कि मैं कुछ करूँ जिसका ख़ामियाज़ा आपको भुगतना है। तो इससे बेहतर है, वो सब आप खुद करो। मुझे अगर कुछ करना है, तो मेरी ज़िंदगी में करने दो। मैं आपको बस बता सकता हूँ कि हमारी हालत क्या है, हम कहाँ फँसे हैं। आप जहाँ कहीं भी बसे हैं…अरे! कर लो पूरा। ये भी मुझसे ही करवाना है (श्रोताओं से वाक्य पूरा करने को हँसकर कहते हुए)?

श्रोतागण: वहीं पर फँसे हैं।

आचार्य प्रशांत: आप जहाँ कहीं भी बसे हैं, ठीक वहीं पर आप फँसे हैं और आपको बिल्कुल नहीं पता कि ज़िंदगी क्या-क्या दे सकती है आपको। और वो जो कुछ आपको दे सकती है न, उसमें कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं है। वो आपका मूलाधिकार है। इन दोनों बातों में अंतर करना सीखिए।

जैसे ही बात होगी आगे बढ़ने की, तो लोग कहेंगे, ‘ये देखो, ये बड़े एम्बीसीयस (महत्त्वाकांक्षी) हो रहे हैं, इन्हें संतोष नहीं है। अरे! संतोषम् परमं सुखम् और ये कह रहे हैं अभी और आगे जाना है, पुराना सब ध्वस्त करना है और नया कुछ बनाना है।' ये बात महत्त्वाकांक्षा की नहीं है, ये बात मूलाधिकार की है। मूलाधिकार की भी नहीं है, ये बात मूल कर्तव्य की है।

ये ज़िंदगी के प्रति आपका कर्तव्य है, दायित्व है कि आगे बढ़ते रहिए, कहीं रुकना नहीं है। कहीं रुकना नहीं। एक अच्छा सा गीत है, फिल्मी है, मुझे पसंद है। “नदिया चले चले रे धारा, तुझको चलना होगा, तुझको चलना होगा।” उसके आगे के भी जो बोल हैं, बड़े सुंदर हैं। “आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, आगे बढ़ो रुकना नहीं। जीवन कहीं भी ठहरता नहीं है।”

आप ठहर क्यों गए, मैंने कहा था? और जितने लोग ठहरते जाते हैं, वो सब मुझसे दूर होते जाते हैं। कल ये आकर के मुझसे शिकायत कर रहे थे (एक श्रोता की तरफ संकेत करके)। बोल रहे थे, ‘आचार्य जी, आप बोलते हैं कि छात्र, विशेषकर वो जो थोड़े साधारण आर्थिक पृष्ठभूमि से हों, इनसे तो योगदान की बात भी मत किया करो। इनको बस गीता में लेकर के आओ, इनको बहुत ज़रूरत है।' तो हम इनको ले आते हैं, कुछ ज़्यादा बोलते भी नहीं। पूछो क्या कर रहे हैं, तो बोलते हैं कि हम सरकारी नौकरी वगैरह की तैयारी कर रहे हैं। तो हम इनको एक-एक, दो-दो साल एक तरह से पालते हैं। इनसे संस्था को कुछ नहीं मिलता, लेकिन हम इनको जितना दे सकते हैं देते हैं।

और जिस दिन इनकी नौकरी लग जाती है, उस दिन ये ग़ायब हो जाते हैं। विशेषकर सरकारी नौकरी। लगी नहीं कि ग़ायब। क्योंकि अब उनको उस नौकरी में ठीक वो सब करना है, जो करने को आचार्य जी आप मना करते हो, तो अभी ये आपको कैसे सुनेंगे। बोले, फिर ये बड़ी अदा के साथ बोला करते हैं, ‘हाँ, पिछले कुछ समय से मैं सुन तो नहीं पा रहा हूँ' (सभी श्रोता हँसते हुए)।

समझ में आ रही है बात?

जो बस गया न — सरकारी नौकरी के साथ समस्या यही है, उसमें बस जाते हो। मजबूर हो जाते हो, बदल भी नहीं सकते। प्राइवेट में तो जब चाहो, यहाँ से वहाँ पहुँच गए। बहुत बड़ी मजबूरी है ये कि बदल भी नहीं सकते। इससे बड़ी क्या मजबूरी होगी। आगे नहीं बढ़ सकते, बसना पड़ेगा। वो शादी से ज़्यादा बड़ी शादी है, बस गए। जो बस गया, तो फिर अब फँस भी गया और मुझसे भी दूर होगा।

कोविड काल के बिल्कुल एकदम बीचों-बीच की या बाद की बात है। एकदम आठ-दस महीने यहाँ फँसे रहे, फँसे रहे। बीच में बाहर निकलने को नहीं मिलता था, आखिर मैंने कहा, ‘चलो बाहर चलते हैं।‘ तो हम लोग नैनीताल गए, तो यही गीत था, अभी इसकी बात करी, तो स्मृति आ गई। तो देवेश जी (स्वयंसेवी) को और केवल (स्वयंसेवी) को वहाँ नैनीताल में नाव में बैठाकर के मैंने कहा, ‘यही गाओ। तो इन्होंने दोनों ने गाया।' “नदिया चले चले रे धारा, तुझको चलना होगा, तुझको चलना होगा।”

चलिए तो सही। एक जगह पकड़ लेंगे, कहेंगे ये मिल गई अपनी गद्दी, इसी को घिसो, गरम करो। एकदम खुश हैं। एकदम गलत और घटिया आदर्श। नौकरी ऐसी पकड़ लो, जिसमें कोई निकाल ही न सकता हो, एकदम गलत बात! नौकरी वो पकड़ो जहाँ प्रतिदिन सुबह अपनी स्वेच्छा से जाओ, अपने प्रेम के मारे जाओ, मजबूरी के मारे नहीं, गारंटी के मारे नहीं। आज फिर आया हूँ सुबह, क्योंकि जिंदा हूँ। आज फिर आया हूँ सुबह, क्योंकि अभी दिल धड़क रहा है, साँस ले रहा हूँ इसलिए आया हूँ। इसलिए नहीं आया हूँ कि आना मजबूरी है, इसलिए भी नहीं आया हूँ कि अब तो बँधी-बँधाई नौकरी है, जाएगी कहाँ, कोई छीन ही नहीं सकता जॉब सिक्योरटी (रोजगार सुरक्षा) है। इसी तरह से रोज़ शाम को घर अगर आता हूँ तो इसलिए आता हूँ कि प्रेम है। इसलिए नहीं आया हूँ कि अब तो फँस गया हूँ और जाऊँ कहाँ।

हम कोई इसलिए थोड़ी घर लौटते हैं कि प्रेम है। जब आप घर जाते हैं तो वही भाव थोड़ी रहता है, जैसा डेट (मिलन) पर जाते किसी नौजवान को होता है। एक आतुरता, एक गर्मी, वो थोड़ी रहती है। वो तो रहता है थके पाँव, किसी तरह खुद को ढ़ोते-ढकेलते हुए लाकर घंटी बजाई और फिर खूब बजे। उधर घंटी बज रही है, उससे पहले…। क्या करोगे ऐसे बस के!

घर पकड़ रखे हैं, मोहल्ले पकड़ रखे हैं, विचार पकड़ रखे हैं, विचारधाराएँ पकड़ रखीं हैं, मान्यताएँ पकड़ रखीं हैं। इन्हीं सब को तो बसना बोलते हैं न। एक जगह पर जाकर के यात्रा को रोक दिया है। काहे को रोक दिया है?

और भारत में तो बड़ी परम्परा है, एक बार पचास पार कर जाओ, उसके बाद कहो, ‘अब तो अगले जनम में होगा जो होगा।' तो जी काहे को रहे हो? जब अगले ही जनम में होना है सो होना है। तो अभी तो चेक आउट (खाली) करो फिर, आगे का देखा जाएगा। जियोगे अभी कम-से-कम पच्चीस साल और। पर कोई सार्थक काम करने को कहा जाए, तो तुरंत बोल देते हो कि अब तो जो होगा अगले जनम में होगा, बेटा। तो ये भी कैरी फॉरवर्ड लो (आगे बढ़ा लो) पच्चीस।

एक दिन भी जीवन का अगर शेष हो, तो आगे बढ़िए। मैं खुशकिस्मत था मुझे प्रेरणास्पद वृत्तान्त पढ़ने को मिले बचपन में कि एक आदमी है, उसको फाँसी की सजा दी जा रही है। क्रांतिकारी था कोई, और उसके पास कुछ दिन, कुछ हफ्ते शेष थे। उसने कहा, 'मैं एक नई भाषा सीखूँगा।' लोग हैरान हैं, पूछ रहे हैं, 'तुम नई भाषा सीखकर करोगे क्या? पहली बात तो अभी तुम्हें फाँसी हो जाएगी, दूसरी बात ये जो तुम भाषा सीख रहे हो, ये बोलने वाला आस-पास कोई है नहीं, तुम करोगे क्या?' वो बोला, ‘ये बात है ही नहीं कि करूँगा क्या, जी रहा हूँ इसलिए सीखूँगा। जिस दिन तक जिंदा हूँ उस दिन तक सीखता रहूँगा।'

आपने आखिरी बार अपनी ज़िंदगी में कोई नई चीज़ कब सीखी थी, बताइए। 'नहीं, वो तो...।' सीखना वगैरह तो हम ऐसे सोच लेते हैं कि ये तो स्कूल-कॉलेज का काम है। वो भी इसलिए कि किसी तरह नौकरी लग जाए। सीखना तो कॉलेज के बाद बंद हो जाता है। उसके बाद तो भोगना शुरू होता है। तो भोगने के समय पर कोई हमसे क्यों पूछ रहा है कि क्या सीख रहे हो।

आप अगर सीख नहीं रहे हो तो आप जिंदा नहीं हो। सीखने का ही अर्थ होता है नेति-नेति। सीखना माने सिर्फ ये नहीं होता कि बाहर से कुछ लेकर आए, सीखने का अर्थ होता है कि बाहर से जो आता है न, वो भीतर की किसी चीज़ को चुनौती देता है, वो टूटती है। यही नेति-नेति है। कुछ आप नया सीख ही नहीं सकते बिना भीतर की किसी चीज़ को चुनौती दिए। तो बाहर सीख भी रहे हो अगर आप, तो वास्तव में वो एक भीतरी प्रगति है। इसीलिए हमें लगातार आगे बढ़ते रहना है।

मैं क्या समझाना चाह रहा हूँ इतनी बातें करके, अपने आप को मजबूर वगैरह मत बताइए और न ही ये कहिए कि ये मेरे जीवन का यथार्थ है कि मैं अब कहीं पर रुका हुआ हूँ। ये यथार्थ नहीं है, ये एक चुनाव है। आप जहाँ रुके हुए हो, वहाँ आपको भ्रम हो गया है कि आपको सुख और रस इत्यादि मिल रहा है, सुरक्षा मिल रही है।

हो सकता है वो चीज़ें मिल भी रही हों, पर आप उन चीज़ों का मूल्य बहुत ज़्यादा आँक रहे हो, उनको बहुत बड़ा बना रहे हो उन चीज़ों को और अपने आप को बहुत छोटा बना रहे हो। वो चीज़ें जो भी मिल रही हैं आपको बसने से, वो होंगी बड़ी, आप उससे ज़्यादा बड़े हो। इसीलिए अब बहुत बस लिए, आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, आगे बढ़ो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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