Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
किनसे प्रभावित हों? कौन हों आपके आदर्श?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
15 min
157 reads

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कैसे जानें कि किससे प्रभावित होना है और किससे नहीं होना है? कैसे पता करें कि कोई व्यक्ति हमारा आदर्श बनने लायक है या नहीं?

आचार्य प्रशांत: प्रभावित होने का क्या अर्थ है? प्रभावित होने का अर्थ है कि हम एक स्थिति में हैं, मन हमारा एक स्थिति में है और कोई बाहर से आकर के उसको उस स्थिति से हिला-डुला रहा है, उसको उस स्थिति से हटा रहा है। हमारी स्थिति पर कोई बाहर वाला प्रभाव डाल रहा है। उसके संपर्क में आने के बाद हम वैसे ही नहीं रह जाएँगे जैसे कि हम पहले थे, उसके संपर्क में आने से पहले। हमारी स्थिति बदल रही है किसी के प्रभाव क्षेत्र में आकर के। इसको कहते हैं प्रभावित होना।

तो स्थिति बदल रही है मन की। कोई आया ज़िन्दगी में, तुमने किसी की बात सुनी, किसी को देखा, किसी की संगति करी और उसके कारण तुम्हारी ज़िन्दगी, तुम्हारे मन की स्तिथि बदली।

पर किधर को बदली? तुम्हारा मन पहले से बेहतर हुआ या तुम्हारा मन पहले से बदतर हुआ? किसी का प्रभाव तुम पर पड़े तो यही दोनों विकल्प हो सकते हैं न, कि उसकी संगति में आने के कारण या तो तुम पहले से बेहतर मन और इंसान हो गए या उसकी संगति में आने के कारण तुम और बदतर हो गए।

अब बेहतर और बदतर होने का अर्थ क्या है, इसको भी समझते हैं। हम सभी बेहतरी अपनी चाहते हैं न? हमारी बेहतरी की परिभाषाएँ अलग-अलग होंगी लेकिन सब परिभाषाओं में कहीं-न-कहीं एक शब्द तुमको मिल जाएगा — ऊँचाई या शांति। अगर आपकी ज़िन्दगी में जो परिवर्तन आ रहे हैं वो परिवर्तन आपको अशांत करे दे रहे हैं या उन परिवर्तनों के कारण आपके मन पर भ्रम और बढ़ता जा रहा है, मानस पर भीतर कोहरा सा छाता जा रहा है, धुँआ-धुँआ हो रहा है सब तो आप ये तो नहीं कहोगे न कि आपकी बेहतरी हो रही है।

आप कब बोलते हो, मैं सवाल पूछ रहा हूँ, कि आप एक बेहतर इंसान हो पाए? बोलिए। और हम में से हर कोई चाहता है एक बेहतर इंसान हो पाना। किस स्थिति में आप कह देते हो कि अब आप पहले से बेहतर हो?

जब आप पाते हो कि आप साफ़ सोच पा रहे हो, साफ़ देख पा रहे हो, डर कम रहे हो, चीज़ों को समझते हो, तमाम तरह के उकसावों के बीच भी शांत रह लेते हो, बिना उत्तेजित हुए भी शांतिपूर्वक दृढ़ता से सही काम कर लेते हो और सही काम को साफ़ नज़र से पहचान पाते हो तो आप कहते हो न कि अब आप एक बेहतर इंसान हो?

और किसको कहते हो आप एक बदतर इंसान?

जो आदमी किसी भी एक विचार पर, लक्ष्य पर, संकल्प पर, कायम न रह पाए। जो कभी इधर और कभी उधर को लुढ़क जाए। जो कभी किसी के लालच में आ जाए और कभी किसी से डर जाए। जो सच्चाई से दूर-दूर और दूर होता जाए और भ्रम की ही गिरफ्त में पड़ता जाए। इसी को आप कहते हो न बदतर इंसान। है न?

तो हम सब जानते हैं कि बेहतरी क्या है और बदतरी क्या है। थोड़ी बहुत विषमताएँ, अंतर हो सकते हैं हमारी परिभाषाओं में लेकिन मोटे तौर पर इतना तो हम सब समझते ही हैं कि उन्नति कहाँ है और अवनति कहाँ है। बहुत भेद नहीं है अलग-अलग लोगों की परिभाषाओं में। अगर कोई आदमी पहले से ज़्यादा शक्की हो गया है और डरपोक हो गया है और वहमी हो गया है तो कोई नहीं कहेगा कि वो आदमी बेहतर हो गया पहले से। है न?

तो कुल मिला-जुला कर सभी लोगों की बेहतरी की परिभाषा में कुछ साझे सूत्र होते-ही-होते हैं।

और अगर कोई आदमी है जिसके चेहरे पर आपको संकल्प की दृढ़ता दिखाई देती है, जिसके जीवन में आपको सच्चाई की रोशनी दिखाई देती है, जो कठिन परिस्थितियों में भी आप देखते हो कि अब मुस्कुराकर झेल जाता है, जो बड़े से बड़े दुश्मन के सामने भी नहीं घबराता है, उसको तो सभी लोग मानेंगे न कि ये इंसान एक बेहतर इंसान है? तो हम सब जानते हैं बेहतरी क्या और बदतरी क्या।

अब तुम देखो कि जो तुमको प्रभावित करने आया है, वो तुमको किस ओर को ले जा रहा है। क्या वो तुम्हारे मन को डर से आज़ाद कर रहा है? क्या उसके संपर्क में आने के बाद तुमको अपना जीवन और दुनिया और ज़्यादा साफ़ दिखाई देने लग गए हैं? अगर ये हो रहा है उसके प्रभाव के कारण तो उसका प्रभाव शुभ है तुम्हारे लिए। तुम उसकी संगति निभाए चलो।

लेकिन याद रखना, बेहतर होना हमेशा श्रमसाध्य होता है, उसमें कठिनाई होती है, मेहनत करनी होती है। और बदतर होना, कम-से-कम शुरुआत में तो आसान ही लगता है। तो इसीलिए अगर कोई चाहता है तुमको प्रभावित करना तो उसके लिए ज़्यादा आसान है कि वो तुमको बदतर बनाकर तुम्हें प्रभावित कर ले।

तुम ही बता दो न, कि किसी आदमी को ललचा देना ज़्यादा आसान है या लालच से आज़ाद कर देना ज़्यादा आसान है, बोलो? किसी आदमी के भीतर बैठे हुए डर को निकाल देना ज़्यादा आसान है या उसको डरा देना ज़्यादा आसान है?

डरा देना।

तो किसी को प्रभावित करने का सस्ता और सरल तरीका ये है कि उसको डरा कर रखा जाए, कि उसको गिरा कर रखा जाए, कि उसके साथ वो सब कुछ किया जाए जो उसको बदतर बनाता है।

इसीलिए ज़रा सतर्क रहना होता है, बहुत सतर्क रहना होता है। सौ में से निन्यानवे लोग इस लायक नहीं होते कि तुम उन्हें मौका दो कि वो तुम्हें प्रभावित कर पाएँ। ये तो छोड़ ही दो कि वो तुम्हारे आदर्श बनने लायक हैं, वो इस लायक भी नहीं होते कि तुम उनकी छाया भी अपने ऊपर पड़ने दो। उनकी छाया भी तुम पर पड़ेगी तो तुम गिर जाओगे। और दूसरे को गिराने में अक्सर गिरे हुवों का स्वार्थ होता है।

एक बात बताओ, अगर तुम में डर ना हो तो बहुत सारी चीज़ें अभी जो तुम बाज़ार से खरीद लेते हो, वो खरीदोगे क्या? बहुत सारे काम अभी जो तुम करते हो, वो करोगे क्या? अगर तुम्हारे भीतर भ्रम और संदेह ना हों, तो बहुत सारे निर्णय जैसे तुम अभी ज़िन्दगी के ले लेते हो, लोगे क्या?

नहीं लोगे न।

तो वो सब लोग जिनका स्वार्थ है तुम्हें बाज़ारू, सस्ती, अनावश्यक और मूल्यहीन चीज़ें बेचने में वो तो ये चाहेंगे न कि उनकी संगति में तुम और गिर जाओ। बोलो। जिसकी शराब की दुकान होगी, क्या वो चाहेगा कि तुम्हारी ज़िन्दगी में साहस और रौशनी और सच्चाई आए? क्या वो चाहेगा कि तुम्हारेे जीवन में होश बढ़े?

वो तो यही चाहेगा कि तुम नशे के दीवाने रहो। वो तुमको इस तरीक़े से प्रभावित करेगा कि तुम लगातार नशे की ओर खिंचते रहो क्योंकि इस तरह ही तुम्हें प्रभावित करने में उसका स्वार्थ है। उसकी शराब की दुकान है भई। और इस दुनिया में सबकी दुकानें हैं। सब कुछ-न-कुछ बेच रहे हैं।

क्यों बेच रहे हैं सब कुछ-न-कुछ? क्योंकि सब को कुछ-न-कुछ चाहिए। सब भीतर-ही-भीतर माया के शिकार हैं इसीलिए खालीपन और अपूर्णता महसूस करते हैं। तो वो कुछ बेचकर के कुछ कमाना चाहते हैं, सोचते हैं कि जो कमा रहे हैं उसके माध्यम से वो अपना खालीपन भर लेंगे।

तुम्हें जो प्रभावित करने आ रहा है वो बेचारा तो खुद बीमार है, रुग्ण है, ख़ाली है, अपूर्ण है। वो तो खुद, मैं कह रहा हूँ, माया का शिकार है। वो माया का शिकार है, वो तुम्हें कौनसी शुभता ला देगा जीवन में? उसके संपर्क से तुम्हारा क्या कल्याण हो जाना है। तो वो तुम्हें भी कुछ ऐसा ही देगा जो तुम्हें और गिरा दे। ये बात निन्यानवे प्रतिशत लोगों पर लागू होगी। जो तुम्हारे जीवन में, तुम्हारी संगति में आएँगे उनसे बहुत बचकर रहना है।

कोई बिरला होता है, सैकड़ों, हज़ारों में एक जिसके संपर्क में आने पर तुम उठोगे। उसकी संगति करने लायक है। वही सच्चा मित्र है, उसको तुम आदर्श बोलो, न बोलो, वो तुम्हारे ऊपर है। लेकिन जो तुम्हें उठाएगा वो तुम्हें नहीं भाएगा। क्योंकि उठना महँगा सौदा होता है। गिरना आसान होता है। पहाड़ पर ऊपर चढ़ना आसान है एक बेहोश पत्थर के लिए या पहाड़ की चोटी से नीचे लुढ़क आना आसान है एक बेहोश पत्थर के लिए? हम बेहोश पत्थर जैसे ही तो हैं। चेतना कहाँ हममें बहुत ज़्यादा है? हमसे कहा जाए, “बेहतर बनो, उठो।" बड़ी मेहनत लगती है, हम कहते हैं, “इतना कष्ट कौन झेले?"

ऊपर से नीचे लुढ़क आना ज़्यादा आसान है। वो हमें बेहतर लगता है। ज़िन्दगी में तरक्की हमेशा कठिनाई से आती है। और आसान राह हर इंसान को सुहाती है। इन दोनों बातों को जोड़कर देख लो क्या मिला। इसका मतलब ये है कि ज़िन्दगी की जो ज़्यादातर राहें हैं तुम्हारे सामने, वो प्रगति की, तरक्की की, बेहतरी की नहीं हैं। वो अवनति की ही हैं, वो पतन की ही हैं। वो तुमको गिरा रही हैं, उनसे बचना है।

आ रही है बात समझ में?

हम तैयार रहते हैं प्रभावित होने के लिए। हम तैयार रहते हैं गिरने के लिए। उनको दोष भी क्या दें जो अपने स्पर्श और संपर्क से आकर हमें गिरा ले जाते हैं। हम ही तैयार बैठे हैं।

लोगों के बड़े संदेश आते हैं। कोई आएगा, कोई यूट्यूब पर वीडियो देखेगा हमारा और फ़िर उसके नीचे कुछ आहत सा होकर के लिखेगा कि, "ये कितने अफ़सोस और आश्चर्य की बात है कि ऐसे वीडियो पर बस चार हज़ार व्यूज़ (दर्शक) हैं और एक से एक घटिया और ज़लील विडियोज़ पर चालीस लाख व्यू होते हैं।"

इसमें अफ़सोस की बात हो सकती है, अचरज कुछ नहीं है क्योंकि नीचे गिरना हमेशा ज़्यादा आसान है। और जो तुम्हें नीचे गिरा रहे हों, उनकी तरफ़ आकर्षित होना हमेशा ज़्यादा प्राकृतिक होता है। पत्थर को उछालने में ऊर्जा लगती है, ऊपर से नीचे तो वो अपने-आप ही आ जाता है न।

बर्बाद होना ज़्यादा आसान है हमेशा। तो इससे अपने लिए एक बात समझ लो। जो कोई भी तुम्हें पहली नज़र में ही प्रभावित कर जाए उससे बचना है। जो कोई भी प्रथम दृष्टया ही आकर्षक लग जाए, संभावना यही है कि वो इंसान तुम्हारे लिए अच्छा है नहीं। क्योंकि हमारी वृत्तियाँ, हमारी इन्द्रियाँ, हमारा मन, ये सब पहले से ही रचे हुए हैं, पूर्वसंकलपित हैं, कंडीशंड (अनुकूलित) हैं सिर्फ़ प्राकृतिक काम करने के लिए। इनमें इस तरीक़े के संस्कार कुछ तो जन्मगत होते हैं और कुछ हमें मिल जाते हैं पैदा होने के बाद समाज से, शिक्षा से, परिवार-मीडिया से।

देखा है न, नथुनों में मसालेदार-चटपटे-स्वादिष्ट खाने की खुशबू पड़ती नहीं है कि तत्काल चहक जाते हो, सोचना भी नहीं पड़ता। ध्यान दो, सोचना भी नहीं पड़ता। अपने-आप ही अच्छा लग जाता है। चाहे वो मसालेदार खाने की खुशबू हो या चाहे किसी के बदन पर लगे हुए इत्र की खुशबू हो।

इसीलिए तो लोग अपने बदन पर इत्र लगाते हैं क्योंकि उस इत्र की गंध के सामने सामने-वाला व्यक्ति, दूसरा जो व्यक्ति है जो तुम्हारा शिकार है, उसको सोचने का भी मौका नहीं मिलने वाला। उसके नथुनों में खुशबू पड़ी नहीं कि वो बहक जाएगा, चंचल हो जाएगा, तुम्हारी ओर आकर्षित हो जाएगा।

तो जो कुछ भी तुम्हें प्रभावित कर रहा हो, तुरंत संभल जाओ, एकदम ठिठक जाओ, सतर्क हो जाओ। निन्यानवे प्रतिशत संभावना यही है कि कोई चीज़ अगर तुमको तत्काल बहुत जल्दी, अनायास आकर्षित कर रही है, प्रभावित कर रही है तो वो चीज़ गड़बड़ ही है। तुमको कोई अपना शिकार बना रहा है। तुम किसी साज़िश का हिस्सा बन रहे हो, बचो।

दूसरी ओर, जो चीज़ें तुम्हारे लिए वास्तव में अच्छी होंगी, जो लोग तुम्हारे लिए वास्तव में अच्छे होंगे, निन्यानवे प्रतिशत संभावना यही है कि वो तुमको शुरू में कड़वे और बुरे ही लगेंगे। तुम्हारा जी यही करेगा कि इनसे भाग जाएँ।

कल हम श्रीमद्भागवतगीता के अठारहवें अध्याय पर चर्चा कर रहे थे। उसमें श्रीकृष्ण सात्विकी प्रसन्नता की बात करते हैं, अठारहवाँ अध्याय। और सात्विकी जो प्रसन्नता है, उसका उन्होंने लक्षण ये बताया है कि वो आरंभ में विष जैसी और अंत में अमृत तुल्य होती है। शुरुआत में तो वो विष जैसी ही लगती है।

तो जो कुछ भी तुम्हारे लिए अच्छा होगा, इसमें ताज़्जुब नहीं कि वो शुरू में तुमको ज़हर जैसा ही लगेगा। ज़हर जैसा लगे तो भाग मत जाना। थोड़ा संयम करो, थोड़ा विवेक करो, थोड़ा ठहरो। और विचार कर लो कि बात क्या है।

समझ रहे हो?

दुनिया जिस तरह की है इसमें तुम्हारी ओर जो भी नजर उठेगी, जो भी हाथ बढ़ेगा वो आम तौर पर देखो, तुम्हारा शोषण करने के लिए ही बढ़ेगा। और फ़िर इसमें अचरज, आश्चर्य की कोई बात नहीं है।

मैं बार-बार कहता हूँ न, कि हम ताज़ा-ताज़ा निकले हैं जंगल से। और जंगल में कौन इच्छुक है किसी का कल्याण करने को, कौन इच्छुक है कि दूसरे को शांति देनी है कि मुक्ति देनी है?

एक जानवर दूसरे जानवर को स्पर्श कर रहा है तो या तो इसलिए कि उसे शिकार करना है या इसलिए कि कामवासना है। और यदाकदा इसलिए कि चलो यूँही थोड़ा प्राकृतिक क्रीडा कर लेते हैं, खेल-खुल लेते हैं, लोट लेते हैं। लेकिन किसी भी पशु का दूसरे पशु से सत्संगति का रिश्ता तो नहीं होता कि एक जानवर के संपर्क में आने से दूसरा जानवर जानवर से इंसान बन गया। ऐसा होता है क्या?

तो हम ताज़ा-ताज़ा जंगल से निकले हैं। और जंगल से निकलकर के हम जंगल से भी ज़्यादा बदतर हालत में पहुँच गए हैं क्योंकि जंगल में जबतक थे तब तक हम सिर्फ़ जिंगली थे। अब हम शहरों में आ गए हैं और हम सभ्य-जंगली हो गए हैं। हम संस्कारित जंगली हो गए हैं।

जंगली तो रहे, लेकिन ऊपर-ऊपर से हमने सभ्यता और संस्कार पकड़ लिए हैं और बुद्धि है हमारे पास। उस बुद्धि का उपयोग करके हमने अपने जंगली अंतरमन को बहुत हथियार, बहुत ताक़त दे दी है। केंद्र में तो हमारे जंगल ही बैठा है, लेकिन उस जंगल को हमने कौन सी ताक़त सौंप दी है?

बुद्धि की, विज्ञान की, तकनीकी की। तो हम बहुत ख़तरनाक हो गए हैं। बात समझ में आ रही है?

हम बहुत ख़तरनाक हो गए हैं लेकिन उन्नत नहीं हुए हैं, बेहतर नहीं हुए हैं। तो एक-दूसरे से हम जो भी रिश्ता बनाते हैं, एक-दूसरे से हम जो भी संपर्क बनाते हैं वो इसलिए तो आम तौर पर नहीं ही होता कि दूसरे का भला हो।

समझ रहे हो?

सतर्क रहा करो। और रिश्ता ऐसे ही नहीं बनाया जाता कि कोई आ रहा है और तुमसे बात कर रहा है और तुमसे कह रहा है, “क्या आप मुझसे रिश्ता बनाएँगे?" तुम सड़क पर चले जा रहे हो, होर्डिंग पर, बिलबोर्ड पर विज्ञापन दिख रहे हैं तुमको। वो भी तुमसे कोई रिश्ता बना रहा है।

कोई तुमसे कुछ चाह रहा है न? तुम्हारी ओर कोई हाथ बढ़ रहा है जैसे हमने कहा, तुम्हारी ओर कोई नज़र उठ रही है। वो नज़र क्यों उठ रही है तुम्हारी ओर?

उस विज्ञापन में एक आकर्षक महिला है और वो बिलकुल तुम्हारी आँखों में आँखें डालकर देख रही है। वो तुमसे नज़रें क्यों मिला रही है? गौर तो करो। जल्दी से उन नज़रों का शिकार मत बन जाओ। समझो तो कि तुमसे कोई नज़रें चार कर क्यों रहा है?

और कोई तुम्हारी ओर हाथ भी बढ़ा देता है हाथ मिलाने के लिए, तत्काल प्रसन्न मत हो जाया करो कि, “अरे बड़ा अच्छा लगा, किसी ने हाथ बढ़ाया।" समझो तो कि वो हाथ तुम्हारी ओर बढ़ क्यों रहा है।

नादानी में मारे जाते हैं हम। उन्हीं का शिकार हो जाते हैं जो हमें उनके जैसा बना लेना चाहते हैं। मैने कहा, मारे जाते हैं। मारे जाने से मेरा अर्थ ये नहीं है कि मृत्यु हो जाती है। मारे जाने से मेरा अर्थ ये है कि हम बिलकुल उतना ही गिर जाते हैं जितने गिरे हुए वो लोग हैं जो हमारे आदर्श बन गए, जो हमें प्रभावित कर ले गए।

ज़्यादातर जो इन्फ्लूएँसर्स (प्रभावशाली व्यक्ति) हैं, इनसे बचना, चाहे वो समाज में हों, चाहे मीडिया में हो, चाहे राजनीति में हों, चाहे कहीं हों। उनमें सौ में कोई एक ही इस काबिल होगा कि तुम उसे अपने जीवन और मन में जगह दो। बाकी सब तो शैतान ही हैं। मैंने कहा, उनकी छाया से भी बचना।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles