वक्ता: सरफ़राज़ का सवाल है कि अभी हमसे कहा जाए कि अपने बारे में कुछ लिखो, अपने बारे में कुछ बताओ, अपना विवरण दो – सेल्फ-डिस्क्रिप्शन(आत्म-विवरण) , तो हम सोचने लग जायेंगे। सरफ़राज़ पूछ रहे हैं कि अपने बारे में भी लिखने के लिए सोचना क्यों पड़ता है? दो वजहें हैं।
श्रोता १: सर, जब हम अपने बारे में लिखते हैं, तो हम यह सोचते हैं कि मतलब दूसरा इंसान जिसको हम लिख रहे हैं, वो इसके बारे में क्या सोचेगा? तो डर लगता है कि कहीं उसे पसंद आएगा या नहीं आएगा।
वक्ता: (मुस्कुराते हुए) देखो, तुम्हें मेरी ज़रुरत ही नहीं है सरफ़राज़, तुम्हें खुद ही पता है। अब यही बात मैं, बड़े बोरिंग तरीके से, गोल-गोल घुमा के २० मिनट तक बताता। देखो कितना स्मार्ट है, उसने झट से बता दी १ मिनट में।
क्या नाम है तुम्हारा?
श्रोता १: शशांक।
वक्ता: शशांक। बैठो। बिलकुल ठीक। वजहें दो हैं। पहली तो उसने बता ही दी। तुम अपने लिए लिखते कहाँ हो? तुम लिखते हो कि कोई पढ़ेगा, और जो पढ़ेगा, उससे डरे हुए हो; उसको प्रभवित करना चाहते हो, उसको तुमने बहुत तवज्जो दे रखी है। तो तुम बहुत सोच-सोच के लिखते हो। ठीक वैसे ही, जैसे बाहर निकने से पहले तुम खूब मेक-अप वगैरा करते हो।
घर में कैसे रहते हो और बाहर कैसे रहते हो, ध्यान देना। घर में कुछ भी पहन के घूम रहे होगे, फटा-पुराना भी हो सकता है। पर, बाहर निकना होगा, तो कुछ बदलते हो। एक बार चेहरा देखते हो। यह सब वही बात है कि दूसरे के लिए किया जा रहा है।
दूसरी बात और भी है, मैं अपने बारे में कुछ लिखूँ, उसके लिए पहले मुझे अपने बारे में पता होना चाहिए। मुझे अपने बारे में कुछ पता तो जब चले, जब मैं अपने बारे में गौर करता हूँ। हम अपने बारे में कभी गौर करते ही नहीं, तो अपने बारे में लिखें कैसे? मैं लिखूँ तो तब न, जब मैंने अपनी दैनिक गतिविधियों पर, अपनी रोजमर्रा की हरकतों पर गौर किया हो।
मैं गौर करता ही नहीं, मैं बस मशीन की तरह, सुबह से शाम तक चलता रहता हूँ। मैं कभी ठहर कर के देखता ही नहीं कि मैं कर क्या रहा हूँ? तुम्हें कहा जाता है, अपने बारे में कुछ लिखो – किसके बारे में? अपने बारे में? अच्छा! मैं हूँ? मैं क्या हूँ? मैं कौन हूँ? फिर पागल हो जाते हो। लिखूँ तो क्या लिखूँ?
और बड़ा मज़ा आता है, तुम्हारे सीनियर्स हैं, तो आजकल वह नौकरी की तैयारी में लगे रहते हैं। वह भी एक दिन हमारे ही सामने से, ऐसे ही क्लासिज़ करके सेकण्ड ईअर से गुज़रे हैं। तो आजकल उनकी इंटरव्यू वगैरा की तैयारी चलती है। एक सवाल है जिससे बड़े झुँझलाते हैं और वह पहला ही सवाल होता है इंटरव्यू का।
श्रोतागण: टेल मी समथिंग अबाउट योर सेल्फ।
वक्ता: अरे! क्या बताएं! और उसमें वो कैसी बातें बताना शुरू कर देते हैं! यह मेरा नाम है, यह मेरी माता जी का नाम है, यह मेरे पिता जी का नाम है, यह मेरे गाओं का नाम है, यह मेरे कस्बे का नाम है, यह मैंने प्रोजेक्ट करा है, मैं इस कॉलेज में पढ़ रहा हूँ। अरे! यह सब तो लिखा ही हुआ है तुम्हारे सीवी में! इसके आगे भी तुम कुछ हो? तुम्हारा नाम! तुम्हारे कॉलेज का नाम! तुम्हारे डिपार्टमेंट का नाम! तुम्हारे पिता जी का नाम! इसके आगे भी तुम कुछ हो? “सर, वो तो हमें पता नहीं, वो हम नहीं जानते।”
तो बड़ा मज़ा आया। इंटरव्यू ख़त्म होता है, तो अंत में अक्सर इंटरव्यूअर कहता है कि, ‘हाँ भई, तुम्हें अब कोई सवाल हो तो मुझसे पूछो।’ तो इंटरव्यू शुरू हुआ था, तो मैंने उससे पहला सवाल पूछा था – एक एमबीए कॉलेज था। यह उसके एंट्रेंस का इंटरव्यू चल रहा था, उन लोगों ने अपने पैनल पर बुलाया था। तो कैंडिडेट आया था, तो पहला सवाल मैंने उससे पूछा था, वही कि अपने बारे में कुछ बताओ – ‘टेल मी समथिंग अबाउट योर सेल्फ’ , अब उसने यही ही उल्टा-फुलटा जवाब दिया। तो मैंने उसकी थोड़ी टांग खींची।
जब इंटरव्यू ख़त्म हुआ, तो मैंने कहा, अब तुम कुछ पूछना चाहते हो? तो बोलता है, ‘सर, कैन यू टेल मी समथिंग अबाउट माई सेल्फ?’
(सभी श्रोतागण हँसते हैं)
वक्ता: (हँसते हुए) ठीक है। बात मज़ेदार है, पर बात सच भी है। हम ऐसे अंधे हैं कि हमें दूसरों से पूछना पड़ता है कि टेल मी समथिंग अबाउट माई सेल्फ। पर लड़का ईमानदार था। उसने साफ़-साफ़ पूछ लिया कि, “सर, आप मुझे मेरे बारे में कुछ बता सकते हैं?”
हमारा जीवन ऐसा ही बीत रहा है। हमें दूसरों से पूछना पड़ता है कि मुझे मेरे बारे में कुछ बताओ? यह नौबत क्यों आ गयी है? यह नौबत इसीलिए आ गयी है क्योंकि हम कभी गौर नहीं करते, ध्यान नहीं देते। अब तुम यहाँ बैठे हो, क्या तुम ध्यान दे रहे हो कि तुम्हारा मन कहाँ-कहाँ जा रहा है? तुम ध्यान दे भी रहे हो कि तुम्हारे सम्बन्ध कैसे हैं? रिलेशनशिप्स कैसी हैं?
तुमने कभी ठीक-ठीक जानना चाहा कि तुम पढ़ाई कर क्यों रहे हो? तुममें से बहुत लोगों ने ज़िंदगी में कुछ बनने के लक्ष्य बना रखे होंगे, तुमने कभी ठीक-ठीक जानना चाहा कि यह लक्ष्य कहाँ से आये? बिलकुल ईमानदारी से अपने आप से यह सवाल किया कि यह लक्ष्य आ कहाँ से रहा है? क्यों आ रहा है?
पूरी भीड़ एक तरफ़ को चल देती है, तुम भी साथ चल देते हो, सब जा रहे हैं मूवी देखने, तुम्हें भी देखनी है। सब अगर क्लास बंक कर रहें हैं, तो तुम्हें भी करनी है। सब किसी एक चीज़ की तैयारी कर रहे हैं, तुम्हें भी करनी हैं। तुम कभी ठीक-ठीक अपने आप से पूछते हो कि मैं क्यों करूँ? मैं ऐसे जी क्यों रहा हूँ?
मैं क्यों ऐसे जी रहा हूँ?
इसी का नाम है खुद को जानना, और कोई तरीका नहीं है खुद को जानने का।
और सरफ़राज़, जब यह करना शुरू कर दोगे, तब यह लिखने में दिक्कत नहीं आएगी कि सेल्फ-डिस्क्रिप्शन(आत्म-विवरण), आराम से लिख लोगे, २ मिनट नहीं लगेंगे। कहोगे – “लो! अभी बताता हूँ।” पूछते हो कभी अपने आपसे कि किन बातों पर गुस्सा आता है? ठीक-ठीक क्यों आता है? वह गुस्सा है या चिड़ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ छुपा रहे हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी डर से निकल रहा है वह गुस्सा? पूछा कभी अपने आप से कि घुसते हो अगर किसी क्लासरूम में, तो सबसे आगे बैठते हो या सबसे पीछे? और अगर लगातार मेरी आदत है पीछे की कुर्सियाँ तलाशने की, तो इससे मेरे बारे में क्या पता चलता है? कभी पूछा है, गौर किया है, गौर ही नहीं करते न?
क्लास में आते हो बस सीधे धड़ल्ले से जाते हो पीछे और बैठ जाते हो। आज भी तो यही हुआ है, आए हो तो पहले पीछे वाली कुर्सियाँ भरी हैं। आगे वाली बाद में भरी हैं। पर तुम गौर ही नहीं करते कि मैं ऐसा कर क्यों रहा हूँ? ठिठक के रुकते ही नहीं हो कि मैं ऐसा कर क्यों रहा हूँ? मैं ऐसा कर क्यों रहा हूँ? जैसे ही वह देखना शुरू कर दोगे, गौर करना शुरू कर दोगे, बड़ा मज़ा आने लगेगा। तब खुद को भी समझोगे और दूसरों को भी समझोगे।
और इसमें कोई इतनी गंभीर बात नहीं है, ऐसे चेहरे मत लटकाओ। यह बात बहुत मज़ेदार है, हँसोगे। हँसी ही आएगी कि किन बातों को ले करके, मैं इतना सीरियसली लेकर बैठा हुआ था। इसमें तो कुछ रखा ही नहीं है। फालतू ही परेशान था। जैसे कोई किसी परछाई को भूत-वूत समझकर डर रहा हो और फिर पता चल जाए उसे कि यह परछाई है। तो क्या करता है? थोड़ा हल्का महसूस करता है, और हँसता है, अपने ही ऊपर हँसता है।
‘ज्ञान सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।