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खोदा पहाड़ निकली चुहिया || पंचतंत्र पर (2018)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
34 min
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। जीवित गुरु का क्या अर्थ है? संतजन जीवित गुरु को अधिक महत्व देते हैं, पर कभी-कभी ये भी कहते हैं कि ये हवाएँ, ये जल, ये पर्वत, ये जानवर, ये सब भी मेरे गुरु हैं। आप भी कहते हैं, “ये तुमने क्या कर दिया, तुमने मुझको भी शरीर तक ही सीमित कर दिया?”

आख़िर गुरु कौन है? कृपया समझाने की अनुकम्पा करें।

आचार्य प्रशांत: गुरु कौन है, ये समझने से पहले ये जानना होगा कि तुम कौन हो, क्योंकि गुरु प्रासंगिक तुम्हारे सन्दर्भ में होता है न? तुम न हो तो गुरु जैसा क्या? गुरु सदा किसी का गुरु होता है। शब्द की भी अगर विवेचना करें तो शब्द कहता है, जो तुम्हें ‘गु’ (अंधकार) से ‘रु’ (प्रकाश) तक की यात्रा करा दे सो गुरु है।

तो गुरु के होने के लिए सर्वप्रथम 'गु' का तो होना ज़रूरी है न। अगर 'गु' नहीं तो गुरु कहाँ? और 'गु' कौन है? चेला। पहले उसकी बात करनी पड़ेगी। गुरु समझना है तो पहले 'गु' को समझना होगा। 'गु' हो तुम।

कौन हो तुम? एक वृत्ति मात्र हो तुम, वृत्ति, टेंडेंसी , कोई पदार्थ नहीं हो तुम। एक भाव हो तुम, एक झुकाव हो तुम, एक धारणा हो, एक मान्यता हो, कह सकते हो कि एक ज़िद हो तुम। ये तुम हो।

क्या कहते हो तुम? तुम कहते हो, “हम ज़रा कम हैं। हम भरपूर नहीं, हम पूर्ण और तृप्त नहीं, हम कम हैं।” ये तुम्हारा नाम है। और अपनी इस कमी को पूरा करने के लिए तुम सहारा लेते हो शरीर का। शरीर प्रकृति है, मस्तिष्क प्रकृति है, संसार प्रकृति है। तीनों साथ-साथ ही चलते हैं न। जहाँ शरीर होगा, वहाँ मस्तिष्क भी होगा, जहाँ शरीर है, वहाँ संसार भी होगा। बिना संसार के तो कोई शरीर होता नहीं।

तो ये दुनिया है। इस दुनिया में संसार है और शरीर है। जो वृत्ति हो तुम, वो वृत्ति जा करके शरीर को पकड़ लेती है, कहती है कि इसके माध्यम से क्या पता कमी पूरी हो जाए, शरीर के माध्यम से क्या पता कमी पूरी ही हो जाए। वो कमी पूरी होती नहीं, तुम शरीर और शरीर के सभी उपकरण का पूरा इस्तेमाल कर लेते हो।

शरीर के क्या उपकरण हैं? खाल, आँख, नाक, लिंग और ये खोपड़ा जिसमें स्मृति, बुद्धि इत्यादि बैठे हुए हैं। तुम इन सबका पूरा इस्तेमाल कर लेते हो, सोचते हो कि वो कमी किसी तरह से हटे। जीवन भर तुम शरीर से ही सम्बद्ध होकर जीते हो, अपने-आपको शरीर मानकर जीते हो। और तुम्हारे पास एक वजह है, तुम्हारी नज़रों में तुम्हारे पास एक वाज़िब वजह है शरीर बनकर जीने की। और वो वाज़िब वजह ये है कि शरीर बनकर जिएँगे तो आसार बढ़ेंगे पूर्णता के, क्योंकि सब अनुभव किसके माध्यम से मिलने हैं? शरीर के माध्यम से। और धारणा पकड़ रखी है।

मैंने कहा था न कि एक ज़िद हो तुम। धारणा तुम्हारी ये है कि अनुभवों के माध्यम से पूर्णता मिल जाएगी, इन्हीं अनुभवों की कमी है जीवन में। इसीलिए देखा नहीं है नए-नए अनुभवों के लिए आतुर रहते हो। कोई कहता है कि चलो, विदेश चलते हैं, पेरिस घूमकर आएँगे, कोई मॉरीशस जाना चाहता है, कोई कह रहा है कि हवाई चलते हैं।

तुमने कभी देखा है कि जानवर अपना बंधा-बंधाया दायरा छोड़कर बहुत दूर जाते हों अनुभवों की तलाश में? हाँ, रोटी-पानी की तलाश में भले चले जाएँ, पर अनुभवों की तलाश में ऐसा करते हुए देखा है? क्योंकि उनको ये ज़िद ही नहीं कि नए-नए अनुभवों के माध्यम से उन्हें तृप्ति मिल जाएगी। आदमी को ही बड़ी ज़िद है।

क्या बने बैठे हो तुम? शरीर। तुम्हारी नज़रों में फिर क़ीमती क्या चीज़ है? शरीर। शरीर बने बैठे हो, शरीर को ही क़ीमत देते हो, शरीर की ही सुनते हो, शरीर से ही सुनते हो, ये तुम्हारी ज़िद है। चूँकि ये तुम्हारी ज़िद है, इसलिए शरीरी गुरु आवश्यक हो जाता है, अन्यथा शरीरी गुरु का कोई महत्व नहीं।

तुम्हें तो हर चीज़ शरीरी ही चाहिए न? इसीलिए गुरु भी तुम्हें शरीरी चाहिए। तुम्हें भाषा शरीर की ही समझ में आती है न? पेड़ भी बोलते हैं, हवाएँ भी गाती हैं, तुम्हें कुछ समझ में आता है? तो तुम्हें तो तभी समझ में आता है जब इंसान बोले इंसान की ही भाषा में। ये तुम्हारी ज़िद है। इसलिए फिर तुम्हें गुरु भी ऐसा चाहिए जो तुम्हारे सामने खड़ा हो, तुम्हारी ही भाषा में तुमसे बात कर पाए।

परमतत्व तो सर्वत्र विराजता है। उसी का प्रसार है। पर कहो, इस कमरे में बैठे हो, तो मुझसे सीख रहे हो, या इन पर्दों या दीवारों से?

श्रोतागण: आपसे।

आचार्य: तो बस इसी से स्पष्ट हो जाएगा कि शरीरी गुरु क्यों चाहिए। इसलिए नहीं कि परमात्मा पक्षपात करता है, इसलिए क्योंकि तुम पक्षपात करते हो। ऊपर वाले की ज़िद नहीं है कि गुरु कोई देही आदमी ही हो सकता है, ये तुम्हारी ज़िद है।

तुम्हें शरीर से बड़ा मोह है, बड़ी आसक्ति है, तो फिर तुम सीखते भी किसी ऐसे से ही हो जो सशरीर हो, नहीं तो तुम सीख नहीं पाओगे। तुम्हारे सामने चीटियाँ और कबूतर हों, बोलो, सीख लेते हो? सीख लेते हो क्या? सीखा जा सकता है, पर तुम सीख लेते हो क्या? तुम तो नहीं सीखते न? इसलिए शरीरी गुरु चाहिए।

जिस दिन तुम ऐसे हो जाओगे कि चाँद-तारों और हवाओं से भी सीखने लग जाओगे, उस दिन तुम्हें शरीरी गुरु की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। पर वैसे तुम तब हो जाओगे, जब तुम्हें अपने भी शरीर से बहुत आसक्ति नहीं रहेगी।

जिस दिन तक तुम्हें अपने शरीर से बड़ा मोह है, अपने शरीर को बड़ा महत्व देते हो, उस दिन तक तुम चाँद-तारों से कैसे सीख लोगे? और चाँद-तारे तो फिर भी साकार हैं, उस दिन तुम निराकार सत्य से कैसे सीख लोगे? अभी तो तुम अपनी पहचान ही बताते हो कि “मैं साकार हूँ।” ठीक? तुम्हारी क्या पहचान है अभी? “मैं साकार हूँ।” इसीलिए मृत्यु तुम्हारे लिए कितना बड़ा डर है, है न? “कहीं मर न जाएँ!”

मरने पर क्या मरता है? आकार ही तो मरता है न? तो जिस दिन तक तुम मौत से घबराते हो, उस दिन तक तुम्हें सशरीर ही गुरु चाहिए। जिस दिन तुम ऐसे हो जाओगे कि मौत तुम्हारे लिए एक मज़ाक रह जाए, उस दिन तुम ख़ाली आकाश से और बंदर से और बहते पानी से और मौन से और सन्नाटे से भी सीख लेना।

शरीरी गुरु का काम बड़ा मुश्किल होता है। उसे काँटे से काँटा निकालना होता है। तुम्हारा मूल काँटा ही यही है कि तुम्हें पदार्थ से, देह से, संसार से बड़ा मोह है। और शरीरी गुरु ख़ुद तुम्हारे सामने क्या धारण करके बैठा है? देह। तो तुम उसकी समस्या समझो। एक देही आदमी को तुम्हें ये सिखाना है कि देह महत्वपूर्ण नहीं—काँटे से काँटा निकालना है। तुम्हारे सामने कोई ख़ुद देह लेकर बैठा हुआ है, और वो तुमको सिखा क्या रहा है? देह से मोह छोड़ो। कितना मुश्किल काम है! इसीलिए शरीरी गुरु और आवश्यक हो जाता है।

वो देह धारण करके तुम्हारे सामने आएगा, क्योंकि देह लेकर न आए तो बड़े ज़िद्दी हो तुम, उसकी सुनोगे ही नहीं। वो देह से तुम्हारी आसक्ति छुड़ाएगा और जब सब पदार्थों से तुम्हारी आसक्ति छूट जाएगी, तो तुम पाओगे कि एक आख़िरी पदार्थ है जिससे तुम्हारी आसक्ति बची हुई है, बल्कि और दृढ़ हो गई है, वो कौन आख़िरी पदार्थ होता है? वो गुरु की देह होती है।

अहम् कुछ-न-कुछ तो पकड़ना चाहता है। जब उससे सब कुछ छूट जाता है, तो वो आख़िरी चीज़ पकड़ता है गुरु, कहता है कि “अब इनको तो पकड़ लें।” कहते हो न, "धन-धन गुरुदेव, तेरा ही आसरा। अब सबको छोड़ दिया तो आख़िरी यही बचे, इनको ही पकड़ लो।” तब गुरु को अपना आख़िरी काम करना पड़ता है, वो कहता है, “अब सब छोड़ दिया है, अब मुझे भी छोड़ दो। हटो!”

तुम चीखते-चिल्लाते हो फिर, कहते हो, “दगाबाज़, धोखेबाज़, बेवफ़ा, इसके भरोसे हमने पूरी दुनिया छोड़ी और अब ये ख़ुद ही हमें छोड़कर चल दिया।” तुम बड़े-से-बड़ा आक्षेप लगाते हो। देखते हो न कितनी बड़ी तोहमत है, कि “तुम्हारे लिए हमने पूरी दुनिया छोड़ी, अब तुम्हीं हमें छोड़कर चल दिए?” अब ये तो उसे करना पड़ेगा।

आख़िर तक भी उसे शरीर चाहिए, क्यों चाहिए? ताकि जिस हाथ से तुमने उसको पकड़ लिया है, उस हाथ को वो छुड़ा सके। बात बड़ी विरोधाभासी है, ये हाथ चाहिए ताकि इस हाथ को तुम्हारे हाथ की पकड़ से छुड़ा सकूँ। शरीर नहीं होगा तो कैसे होगा? तो गुरु के दोनों रूप ज़रूरी हैं। उसका देही होना बहुत ज़रूरी है, उसका तुम्हारे मन को समझना बहुत ज़रूरी है। कोई किताब तुम्हारे मन को नहीं समझ पाएगी। यहाँ पर किताब बैठी हो, तो उसे थोड़े ही दिखाई देगा कि तुम तो जम्हाइयाँ मार रहे हो।

फिर उसके बाद कोई किताब तुमसे थोड़े ही कहेगी कि “आप बाहर जाइए, जम्हाई मारिए।” तुम यहाँ पर बैठा दो कोई बड़ा विशुद्ध और पावन ग्रन्थ, वो थोड़े ही तुम्हें दरवाज़ा दिखाएगा। गुरु दिखा देगा, क्योंकि वो तुम्हारे जम्हाई का अर्थ समझता है। ग्रन्थ क्या समझेगा?

तो गुरु का देही होना आवश्यक है, और फिर गुरु को ही ये सतर्कता रखनी पड़ती है कि जैसे तुम तमाम देहों से आसक्त होते हो, कहीं तुम गुरु की देह से भी आसक्त न हो जाओ, गुरु के व्यक्तित्व से कहीं जुड़ न जाओ। वो आख़िरी बात होती है। वो काम भी गुरु का ही होता है।

तो मैं दोनों बातें कहता हूँ इसीलिए, मैं ये भी कहता हूँ कि जैसे तुम हो, जो तुमने अपनी हालत कर रखी है, उसमें तो तुम्हें कोई सशरीर ही चाहिए।

क्या सदा कोई चाहिए शरीरी गुरु? नहीं, सदा नहीं चाहिए, सबको नहीं चाहिए। ऐसा हो सकता है किन्हीं परिस्थितियों में, एक विरल सम्भावना ये है कि कोई बिना जीवित गुरु के भी बोध को उपलब्ध हो जाए। ऐसी सम्भावना है, पर वो सम्भावना न्यूनतम है। लाखों में किसी एक के साथ ऐसा हो सकता है कि उसे जीवित गुरु न मिले, तो भी वो बोध को उपलब्ध हो जाए। ऐसा हो सकता है। अधिकांश लोगों के साथ ऐसा नहीं हो सकता, तो आवश्यकता है। ये पहली बात।

दूसरी बात, गुरु के लिए आवश्यक है कि वो देह धरकर सामने आए और शिष्य के लिए आवश्यक है कि वो गुरु को देह न समझे। अब ये बात फिर तुमको अटपटी लगेगी, पर समझना इसको। गुरु के लिए ज़रूरी है कि वो देह धरे, क्योंकि वो देह नहीं धरेगा तो तुम्हें देखेगा कैसे? तुम्हारे कान कैसे खींचेगा? और शिष्य के लिए ज़रूरी है कि वो गुरु को देह न माने, क्योंकि आख़िरी बात तो यही है कि देह में क्या रखा है।

देह से तृप्ति मिलनी होती तो तुम कब की पा गए होते न? कोई कोर-कसर तो छोड़ी नहीं है तुमने। जितने तरीक़ों से तुम शरीर का इस्तेमाल करके अपने आप को प्रसन्न कर सकते थे, तुमने कोशिश तो पूरी करी ही है। कुछ मिला क्या? तो आख़िरी बात तो यही है कि पदार्थ से, शरीर से, इनकी आसक्तियों से आगे बढ़ना है।

गुरु को देह नहीं मान लेना है। इस पहली और दूसरी बात को अगर एक बात बनाकर कहूँ तो वो ये होगी कि गुरु की देह बस एक साधन है। गुरु का जीव भासित होना बस एक साधन की बात है। गुरु के शरीर को एक साधन मानना, अंत नहीं, साध्य नहीं है। साध्य तो वो है जो निराकार है, साधन वो है जो साकार है।

मेरा सवाल है कि “जानने योग्य क्या है?” अब सत्य तो जाना नहीं जा सकता। बताने वाले बता गए हैं कि आत्मा अज्ञेय, अप्रमेय है। तुम मुझे बताओ फिर कि जानने योग्य क्या है। जो ज्ञान का विषय है, निश्चित रूप से उसी का तो ज्ञान हो सकता है। आत्मा तो ज्ञान का विषय है ही नहीं, सच्चाई तो ज्ञान का विषय है ही नहीं, तो क्या है जो जान सकते हो?

जो जान सकते हो, वही जानना चाहिए। क्या जान सकते हो? मन को जान सकते हो, मन को जान लो, और कुछ नहीं जानने लायक है। उसी को जान लो जो नचा रहा है तुमको, और कुछ नहीं जानना है। क्या उठता है? क्या गिरता है? कौन-से संवेग उठते हैं? कौन-से भीतर रस उत्सर्जित होते हैं? कैसे अलसिया जाते हो? और कैसे उत्तेजित हो जाते हो? कैसे हर्षा जाते हो? लगता है कि उमंग ही छा गई। कैसे उदास भी हो जाते हो?

और ये सब कुछ कितना पूर्वनियोजित, कितना ढर्राबद्ध, कितना तयशुदा है। कोई डाँट दे तुम्हें, तुम खिन्न हो ही जाओगे। ये तो बड़ी ग़ुलामी, कोई विकल्प ही नहीं है। डाँट पड़ी, खिन्न हुए। डाँट पड़ी,…

श्रोता: खिन्न हुए।

आचार्य: अजीब बात। ये इसमें ( माइक ) ये जल रही है बत्ती। जल रही है लाल-लाल? ये लाल ऐसा ही है जैसे खोपड़ा लाल हो जाए। देखो। भक्क! (ज़ोर से माइक पर चिल्लाते हुए और माइक को ऑन किया तो उसकी बत्ती जल गई) ये देखो। भक्क! (ज़ोर से माइक पर चिल्लाते हुए और माइक को ऑन किया तो उसकी बत्ती जल गई)

कोई मार रहा है जम्हाई? (ज़ोर से माइक पर चिल्लाते हुए और माइक को ऑन किया तो उसकी बत्ती जल गई) ये तो नाराज़ हो गया।

पता करो कि ये बटन कौन दबा रहा है। किसके हाथ में तुम्हारे बटन हैं? और पूरी दुनिया को पता है कि तुम्हें कैसे नचाना है, कौन-सा बटन दबाना है, तुम लाल हो जाओगे। कौन-सा बटन दबाना है तुम हरे हो जाओगे। दबा, दबा। (एक बच्चे से कहते हुए) इनको भी पता है। सबको पता है। देखो!

ऐसे कोई फ़ायदा जीने का? बटन हमारे और पता सबको है। और पता ही नहीं हैं, सबको दबाने का हक़ भी है, हम रोक भी नहीं पाते। हम रोक ही नहीं पाते। ये तो फिर भी एक महफ़िल है, परिचित लोगों का समूह है। राह चलता, अनजाना अपरिचित आदमी भी हमारा बटन दबा सकता है।

तुम गाड़ी चला रहे हो अपनी। पीछे से कोई तीन बार हॉर्न मार दे, बटन दबा गया तुम्हारा। हॉं या न?

श्रोता: हाँ।

आचार्य: किस-किस का बटन दबा है कभी-न-कभी? कुछ करना नहीं होता। बैठे हो तुम, वो पीछे है। जाम वग़ैरा है, गाड़ियाँ धीरे-धीरे चल रही हैं। पीछे से तीन बार मस्त हॉर्न मार दे।

पहली बार मारेगा ,तुम शीशे में देखोगे। दूसरी बार मारेगा, तुम साइड व्यू से देखोगे और तीसरी बार जब बढ़िया ललकारता हुआ हॉर्न आएगा तो खिड़की से मुँह बाहर निकालोगे, पीछे देखोगे। चौथी बार अगर उसने दुदुम्भी बजा दी, तो दरवाज़ा खुलेगा और गुर्राओगे। पाँचवीं बार में मुँह खुलेगा और छठी बार में मुक्का चलेगा।

बिलकुल बात लिखी-पढ़ी है स्टाम्प पेपर पर कि ऐसा तो होना ही होना है। इसी को पता करो कि ये कैसे हो जाता है। पूरी दुनिया को कैसे पता है कि हमें कैसे नचाना है। टीवी पर विज्ञापन आ रहा है, वो भलीभाँति जानता है तुम्हें कैसे नचाना है। उसे पता है कि इतने का विज्ञापन दूँगा, इतने का माल बिकेगा। कैसे पता उसको?

ये हमारी इच्छाएँ कहाँ से आती हैं? हमारी तो नहीं है। कैसे हो जाता है कि एक विज्ञापन हमारे भीतर इच्छा खड़ी कर जाता है और हम रोक नहीं पाते? तुम्हें अभी बता भी दिया जाए कि अभी इस टीवी पर एक विज्ञापन आएगा और उसको देख करके तुम इच्छुक हो जाओगे, तुममें कामना उठेगी।

और खौफ़नाक बात ये है कि ये तुम्हें पूर्व सूचना हो भी, तो भी अगर वहाँ विज्ञापन आएगा, तो तुममें इच्छा उठ ही जाएगी। तुम जानते-बुझते बेवक़ूफ़ बन जाओगे। ये कैसे हो जाता है? कैसे? यही पता करोगे, और कुछ नहीं है पता करने का।

बाहर वाले की ग़ुलामी तो फिर भी एक बार को थोड़ी खुली और स्पष्ट बात होती है कि कोई आया और उसने तुमको वशीभूत कर लिया। तुम सोचो कितनी ज़्यादा डरावनी बात है कि बाहर वाला तुम्हें बाहर से नियंत्रित करे ही न, वो तुम्हारे भीतर घुसकर बैठ जाए, वो तुम्हारी इच्छा बन जाए, और तुम बोलो, “ये तो मेरी इच्छा है, मैं ऐसा चाहती हूँ, मैं ऐसा चाहती हूँ।”

तुम नहीं चाह रहे। कोई और है जो तुमसे चहवा रहा है। “ऐसे कैसे होगा? मेरी इच्छा मेरी नहीं है?” तुम ही तुम्हारे नहीं हो, तुम्हारी इच्छा कैसे तुम्हारी हो जाएगी? पता करो कि क्या है जो वास्तविक है और क्या है जो कल्पित है। बहुत कुछ तो ऐसा है जो तुम्हारी व्यक्तिगत कल्पना के दायरे में आता है। उसको देखना अपेक्षतया आसान होता है कि ये तो मेरी व्यक्तिगत कल्पना है।

तुम बैठे-बैठे कुछ ख़्वाब ले रहे हो। अब ये बात तुमको पता है कि असली नहीं है, मैंने तो ख़्वाब ली है। बहुत मुश्किल तब हो जाता है जब कल्पना व्यक्तिगत न हो, सामूहिक हो। सामूहिक कल्पना बहुत कुछ तथ्य जैसी लगने लगती है क्योंकि सब एक ही कल्पना कर रहे हैं न। समझना बात को।

क्या प्रमाण है इसका कि यहाँ दीवार है? क्या प्रमाण है? बोलो।

श्रोता: सबको दिख रहा है।

आचार्य: दीवार है? है? है? (सभी से पूछते हुए)

श्रोतागण: जी।

आचार्य: तो हम कहते हैं कि जिस बात पर सब राज़ी हो जाएँ, उसका नाम है तथ्य। ठीक? अब किसी तरीक़े से तुम्हारे मन में ये बात बैठा दी जाए कि पीला रंग अध्यात्म का प्रतीक है। ये बात है सिर्फ़। ये बात है। सबके मन में क्या बात बैठ गई है? कि पीला रंग?

श्रोतागण: अध्यात्म से सम्बंधित है।

आचार्य: चलो। आध्यात्मिक है? (पीले दीवार की ओर इशारा करते हुए)

श्रोता: हाँ, है।

आचार्य: है? है? है? (सभी से एक-एक करके पूछते हुए)

श्रोता: जी।

आचार्य: सब लोग राज़ी हो रहे हैं तो ये बात भी फिर क्या हो गई?

श्रोता: तथ्य।

आचार्य: तथ्य हो गई न। अब तुम कैसे पता करोगे कि ये कल्पना थी बस। कैसे पता करोगे? बोलो। जिस कल्पना पर सब राज़ी हो रहे हों उसको पता कैसे करोगे कि वो कल्पना है? क्योंकि जिस पर सब राज़ी होते हैं, वो तो कहलाता है? तथ्य, काल्पनिक नहीं। और बहुत सारी चीज़ें हैं जिस पर सब राज़ी हैं। और हैं वो बातें झूठी, पर राज़ी उस पर सब हैं। सबको लगता है कि नहीं, ऐसा तो है ही।

ये पता करो कितनी झूठी बातें हैं जिनको सच्चा मानकर जी रहे हो। मन सच्चाई में जी नहीं सकता, मन को झूठ चाहिए। पता करो कौन-कौन से झूठ पकड़ रखे हैं। मुश्किल होगा क्योंकि एक-एक करके झूठों को हटाओगे, ऐसा लगेगा जैसे अपनी ही परतें हटा रहे हो। तुम्हारे झूठ मिटेंगे, तुम ही मिटते जाओगे।

लेकिन फिर भी पता करो। आदमी सामूहिक झूठों में जीता है। और ये बात बड़ी रोचक है क्योंकि अगर कोई व्यक्तिगत झूठ में जिए तो उसे हम पागल करार देते हैं। व्यक्तिगत झूठ का मतलब समझते हो? मैं कुछ ऐसा देख रहा हूँ जो है नहीं, पर सिर्फ़ मुझे दिखाई देता है। उदाहरण के लिए मैं कहूँ कि ये खम्भा है और मैं बार-बार दावा करता ही रहूँ कि ये खम्भा है, तो तुम लोग मुझे पकड़कर पागलख़ाने में डाल दोगे क्योंकि मैं ऐसी बात बोल रहा हूँ जो सिर्फ़ मैं बोल रहा हूँ, मेरी कल्पना की है। तुम सबको पता है कि ये खम्भा नहीं है और सिर्फ़ मैं कहे जा रहा हूँ कि ये खम्भा है।

तो अगर कोई आदमी अकेले झूठ बोले तो वो पहुँच जाता है पागलख़ाने। लेकिन अगर यही बात हम सब मिलकर बोलें कि ये खम्भा है तो वो एक समाज-स्वीकृत तथ्य बन जाती है। अब जानते हो पागलख़ाने कौन जाएगा?

श्रोतागण: जो बोलेगा ये खम्भा नहीं है।

आचार्य: गुरुजी बोले ये खम्भा नहीं है। चलो इन्हीं को जेल डालो। खम्भा है और ये कह रहे हैं खम्भा नहीं है। इनको जेल में डालो, इनको पागलख़ाने में डालो। ये ख़तरनाक हैं। ये पता करो कि कितने ऐसे झूठ हैं जो झूठ इसलिए नहीं लगते क्योंकि सब बोल रहे हैं। पर अगर थोड़ा-सा अपने भीतर जा करके देखो, थोड़ा ईमानदारी से देखो, थोड़ा दुनिया से हट करके देखो तो साफ़ दिखाई देगा कि बात तो झूठी है। हाँ, मान उसको सब रहे हैं। पागल उनको करार किया जा रहा है जो नहीं मान रहे।

प्र२: आचार्य जी, एक प्रश्न इस पर पूछना चाहूँगा। ये शादी की संकल्पना है, या ये भी झूठ ही है?

आचार्य: इतना उत्तेजक खम्भा हो, तो कौन बोले कि खम्भा है? मान ही लो कि प्राण प्यारी है। खम्भे को साड़ी भी पहना दिए, होंठ रंग दिए हैं, उसको सिखा दिया है कि बोलना क्या है। ठीक है।

खम्भा माने क्या? जो है नहीं, पर जिसके बारे में तुम्हारा दावा है कि है। शादी माने क्या? दो लोग कह रहे हैं कि साथ रहेंगे, तो कोई बात नहीं। दो लोग साथ रह सकते हैं, तीन लोग भी साथ रह सकते हैं, दस लोग भी साथ रह सकते हैं। वो तो कोई बात ही नहीं। दो लोग साथ रह रहे हैं, इसमें कोई बुराई नहीं हो गई।

पर ये दो लोग साथ क्यों रह रहे हैं? ये दो लोग साथ एक उम्मीद में रह रहे हैं। वो उम्मीद झूठी है।

प्र२: नहीं, मेरा प्रश्न है कि एक उम्र के बाद दो लोग साथ रहेंगे-ही-रहेंगे, मतलब शादी करना अनिवार्य है। क्या ये सामूहिक झूठ है या नहीं?

आचार्य: साथ तो अनिवार्य है क्योंकि हम जैसे हैं, हम एकाकी हैं; हम जैसे हैं, हमारी तो धारणा ही यही है कि हम कम हैं। अब जब तक तुम ऐसे हो कि कह रहे हो कि हम कम हैं, तो हमें कोई-न-कोई तो चाहिए। वो भी आवश्यक नहीं है कि कोई स्त्री ही चाहिए, कोई पशु भी हो सकता है, कोई छोटा बच्चा भी हो सकता है, कोई दोस्त-यार भी हो सकता है; कोई भी हो सकता है, तुम्हारा अपना भाई हो सकता है, पिता हो सकता है। हो सकता है कि तुम अपने दादा जी के साथ रहना शुरू कर दो। कुछ भी, उसकी भी थोड़ी-बहुत सम्भावना है।

पर एकाकीपन और ये चाहत कि कोई हो जिसके माध्यम से ज़रा पूर्ण अनुभव करें, ये तो तुम्हारे मन को अनुभव होगा ही। बात ये है कि मन जो उम्मीद लगा रहा है, वो पूरी होगी क्या, चाहे तुम किसी के साथ रह लो।

पच्चीस-तीस के बाद तुम कहते हो, “चलो ब्याह कर लेते हैं, किसी औरत के साथ रहते हैं।” उसके पहले क्या तुम अकेले रहते थे? उसके पहले भी तो तुम शादीशुदा ही थे। भाई, पच्चीस के बाद तुमने किसी औरत के साथ रहना शुरू कर दिया, उसके पहले तुम अपने यारों के साथ रहते थे, उससे पहले अपने हॉस्टल वालों के साथ रहते थे, उससे पहले अपने भाई-बहनों के साथ रहते थे। अकेले तुम कब थे?

तो मूल प्रश्न ये नहीं है कि शादी क्या बला है, मूल प्रश्न ये है कि ये अकेलापन तुम्हें क्यों सताता है? हॉस्टल में रहे हो? देखा है कि वो हॉस्टल वाला है और वो अकेला ही रहता हो? वहाँ भी तो ब्याहता ही घूम रहे हैं। वहाँ तो और बड़े झुंड होते हैं, सामूहिक परिवार।

उनमें भी तुम ग़ौर से देखोगे तो सबके अपने-अपने किरदार होते हैं, एक होगा, वो समझदार होगा, वो दादा जी हैं, उनमें एक होगा जो नटखट होगा, फच्चा, फर्स्ट यिअर (प्रथम वर्ष) में आया है अभी-अभी, वो परिवार का छोटू है। तो परिवार तो आदमी बनाता-ही-बनाता है, क्योंकि झुंड में सुरक्षा पाता है और लगता है कि अकेलापन दूर होगा।

तुम कहीं भी रहो, तुम परिवार बना लेते हो। अभी तुम ट्रेन से लौटना, देखना वहाँ पर तुम तीन घंटे, पाँच घंटे के लिए ही सही, पर तुम वहाँ परिवार बना लोगे। प्रश्न ये है कि जो तुम्हें चाहिए, वो तुम्हें किसी झुंड से मिलेगा क्या? जिस कमी को लेकर परेशान हो, वो कमी दूर होगी क्या?

मैं शादी की व्यवस्था पर कोई विशेष प्रहार नहीं करना चाहता हूँ क्योंकि जो शादीशुदा नहीं भी होते, वो भी रिश्ते तो बना ही लेते हैं। भाई, तुम अकेला महसूस करके शादी कर लो या फिर तुम अकेला महसूस करके लिव इन में पहुँच जाओ, कोई अंतर है क्या?

चलो, ठीक है, तुमने शादी नहीं करी, तुमने लिव इन भी नहीं करा, तुमने यार पकड़ लिए। कोई फ़र्क़ है क्या? बोलो। वो जो शादीशुदा नहीं होते, तुम देखना, उनके यार बहुत बनते हैं, क्योंकि जिसकी अपनी गृहस्थी नहीं होती, वो उपलब्ध हो जाता है दूसरों की गृहस्थी में घुसने के लिए। तो फिर पूरी दुनिया उसके पास आती है, “देखिए थोड़ा-सा।” वो सबका यार है। उसका बहुत बड़ा परिवार है। “हमसे बड़ा कौन परिवार!”

तो मैं इस वृत्ति की बात करना चाहता हूँ। ये अकेलापन, ये चेपना, चेपना समझते हो? चिपक जाना, कि कोई तो चाहिए आदमी, औरत, मर्द, सांड, बैल, गाय, बच्चा, खम्भा, कुछ तो चाहिए ज़िन्दगी में जिससे हम चिपक जाएँ। कुछ तो चाहिए। और अगर कोई इंसान न मिले तो ख़्याल सही। किसी इंसान की अगर संगत नहीं मिल रही, तो बैठ करके हम सोचेंगे, ख़्यालों की संगत कर लेंगे। कुछ तो चाहिए जिससे चिपक जाएँ।

तुम मत करो शादी, उससे तुम कुँवारे थोड़े ही रह जाओगे। कुँवारेपन का मतलब समझते हो? वो जो अछूता है। ‘वर्जिन' शब्द बड़ा प्यारा है। वर्जिन शब्द का मतलब ये नहीं होता कि किसी ने आज तक तुम्हारे साथ संभोग नहीं किया। वर्जिन शब्द का मतलब होता है शुद्ध, पवित्र, वो जिस पर दाग नहीं लगे, वो जिसके मन को कोई मैला नहीं कर गया।

तो मैं कह रहा हूँ, तुम शादीशुदा नहीं भी हो तो भी तुम कुँवारे तो नहीं हो, क्योंकि मन तो तुम्हारा मैला ही है। हमें कुँवारा चाहिए। और मज़ेदार बात ये है कि कभी-कभार ऐसा भी हो सकता है कि सामाजिक रूप से कोई शादीशुदा है, पर भीतर-भीतर कुँवारा हो। सम्भावना बहुत कम है। कोशिश मत करने लग जाना कि आचार्य जी बता गए हैं कि शादी करके भी कुँवारे रह जाएँगे। तुमसे न होगा। जिनसे हुआ था, हुआ था। पूरे आदमी के इतिहास में मुट्ठी भर ही ऐसे लोग रहे हैं जो बाहर से शादीशुदा थे, भीतर से कुँवारे। ये सबके बस की बात नहीं है।

ज़्यादातर का तो ऐसा है, मैंने कहा, कि अगर वो बाहर से शादीशुदा नहीं भी हैं, तो भी भीतर से कुँवारे नहीं होते। कुँवारापन तो वास्तविक ब्रह्मचर्य है। कुँवारापन तो ये है कि आत्मस्थ जी रहे हैं। और किसी की संगति चाहिए नहीं, उसकी (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) संगत मिल गई है। जो उसकी संगत में जीना शुरू कर दे, वो कुँवारा हो गया। उसकी (ऊपर इशारा करते हुए) संगत नहीं है अगर, तो फिर आदमी की संगत करो, औरत की करो, शराब की करो, किताब की करो, विचार की करो, आचार की करो, तुम किसी की भी संगत करो, तुम ब्रह्मचारी नहीं, तुम कुँवारे नहीं। तुमने कुछ-न-कुछ तो पकड़ ही लिया, खम्भे से चिपक गए।

तो ये ख़्याल मत ले आ लेना, इस उम्मीद में मत रह जाना कि स्त्री से शादी नहीं करोगे तो कुछ बहुत बड़ा खम्भा उखाड़ लोगे। मैंने तो ये देखा है कि जो शादी करते हैं, उनकी दुर्गति, और जो नहीं करते, उनकी भी कोई बहुत सद्गति नहीं है। उनका आधा समय कलपने में बीतता है कि “कर ली होती तो ठीक रहता।”

इसीलिए मैं बहुत पसंद भी नहीं करता कि कोई दोष दे कि मेरी तो आध्यात्मिक उन्नति इसलिए नहीं हो पाई क्योंकि मेरी शादी हो गई। तुम्हारी शादी नहीं भी होती, तो तुम ऐसे ही होते। और ऐसा कहने वालों की कोई कमी नहीं है कि “हम क्या करें, हम तो बस समाधि के सात द्वारों में से साढ़े छह पर पहुँच ही गए थे, तभी अचानक ब्याह हो गया।” अचानक ब्याह कैसे होता है, ये भी मैं आज तक समझ नहीं पाया। एक दिन सुबह सोकर उठते हो और पाते कि तुम शादीशुदा हो। ऐसा होता है? “अचानक ब्याह हो गया और हमारी सारी आध्यात्मिक यात्रा पर विराम लग गया।”

यहाँ स्त्रियाँ आती हैं, कहती हैं, “मैं तो बस बिलकुल…पर तभी बच्चा हो गया अचानक।” अचानक बच्चा कैसे हो जाता है? सुबह-सुबह उठती हो और पाती हो बगल में बच्चा लेटा हुआ है? “मेरा तो हो ही गया था। नहीं, सर जी, डन केस था। ये पपलू पैदा हो गया।” झूठों, जब मन ही कलप रहा है किसी-न-किसी से चिपकने को, तब तुम शादी करो, चाहे न करो, तुम्हारा मन ऐसा है कि उसमें कोई आध्यात्मिक कुँवारापन नहीं है।

ब्रह्मचारी शादी करके भी ब्रह्मचारी हो सकता है और जिसको ब्रह्म से प्रेम ही नहीं, वो शादी नहीं भी करे तो भी वो...। ये कह करके मैं तुम्हें प्रोत्साहित नहीं कर रहा हूँ कि शादी कर लो। पर बात पूरी समझनी ज़रूरी है। शादी बहुत बड़ा मुद्दा है ही नहीं, ज़्यादा बड़ा मुद्दा है मन का साफ़ होना, मन में सत्य के प्रति प्रेम होना।

तुम्हारे मन में सत्य के प्रति गहरा-गहरा प्रेम है, गहरा प्रेम, दीवाने हो तुम कि कहीं से उसकी झलक मिल जाया करे, और फिर मिलती है तुम्हें कोई लड़की कि उसके पास रहते हो तो तुम्हें सही में मदहोशी आ जाती है, उधर की झलक मिलती है, तो कर लो शादी, कुछ नहीं हो गया।

उसके साथ रहने की तुमको यही सामाजिक क़ीमत देनी पड़ी कि शादी करोगे तो ही मेरे साथ रहोगे, तो कर लो, पर ऐसी लड़की मिले तब। पर जैसे तुम हो, तुम्हारे ऐसा होते हुए तुम्हें वैसी लड़की मिलेगी, इसकी सम्भावना बहुत कम है। वैसी मिल भी गई तो तुम उसे भगा दोगे।

तुम कहोगे, “मुझे उस पार का नहीं देखना है, मुझे इस पार का देखना है, दिखा।” वो परेशान है। वो परेशान है, वो कह रही है, “मैं तुझे उधर का दिखा रही हूँ, तुझे इधर का देखना है।”

मूल तत्व पर ध्यान दो। पुरुषों को ख़ास तौर पर शौक होता है चिल्लाने का, “बीवी ने ज़िन्दगी जहन्नुम कर रखी है।” “अच्छा, ठीक है, कल वो मर जाए, तुम्हारी ज़िन्दगी जन्नत हो जाएगी?”

श्रोता: दूसरी आ जाएगी।

आचार्य: दूसरी न भी आए तो भी? बताओ। और ये पुरुषों की बड़ी पसंदीदा शिकायत है, कि हम तो थे ही बाल ब्रह्मचारी। एक-एक बाल हमारा ब्रह्मचारी था बचपन से ही, रेशे-रेशे पर ब्रह्म लिखा हुआ था। ये आ गई चुड़ैल। अच्छा, ठीक है, मान लो वो चुड़ैल कल मर जाएगी, फिर? बताओ, कल वो मर जाए तो? तुम्हें निर्वाण मिल जाएगा?

प्र३: आचार्य जी, जैसे अकेलापन कुछ क्षणों में बहुत हावी होकर आता है। उनमें कई बार होता है कि कुछ फ़ोन मिला लूँ या कोई फ़िल्म देखने चला जाऊँ।

आचार्य: फ़ोन मिलाने में कोई बुराई नहीं, बस ये बताओ कि फ़ोन मिलाने से अकेलापन दूर हो जाता है क्या। तुम किसी ऐसे को पा जाओ जिसको फ़ोन मिला करके वास्तव में अकेलापन मिटता हो जड़ से, तो मैं कहूँगा कि चौबीस घंटे फ़ोन पर ही रहो। फ़ोन में क्या बुराई है? हद-से-हद क्या होगा? ब्रेन कैंसर हो जाएगा। पर जितने दिन जियोगे, समाधिस्थ जियोगे। अच्छी बात है, लगे रहो फ़ोन पर। मरोगे भी ऐसे ही, पर जितना जिये मुक्त होकर जिये। अच्छी बात है।

कुछ बुरा नहीं है। न वाट्सऐप चैटिंग बुरी है, न फ़ोन बुरा है, अगर वो करके तुमको मुक्ति मिलती हो, क्योंकि मुक्ति इतनी ऊँची चीज़ है कि उसके लिए कुछ भी करना पड़े तो सस्ता, कुछ भी करना पड़े। उसके लिए तुम्हें कैंसर झेलना पड़े तो भी सस्ता। तो मेरा इस पर कोई दावा नहीं है कि फ़ोन करो, कि न करो, चैटिंग करो, कि न करो। ये करो, न वो करो, बस इतना बता देना मुझे कि वो करके शांति मिली क्या। मिलती हो तो कर डालो, अभी कर डालो।

और अगर कहीं वास्तव में शांति की झलक मिली हो, तो उस झलक के बाद अपने-आपसे क्यों झूठ बोलते हो? जहाँ झलक मिली है, वहीं अडिग हो जाओ। तुम बार-बार बोलो कि मुझे पानी चाहिए, पानी चाहिए, प्यास है। और यहाँ चार बोतलें रखी हों और पारदर्शी कोई न हो, दूर से पता न चलता हो कि इनमें पानी है कि नहीं, एक खोलो ढक्कन, मुँह से लगाओ। कुछ नहीं हो, एक बूँद न हो। दूसरी खोली, मुँह में डाला, कुछ नहीं है। तीसरी डाला, कुछ नहीं। चौथी डाली, घट से पानी आया।

अगर तुम वास्तव में प्यासे होगे, तो तुम क्या करोगे?

अब इस चौथी को पकड़ लोगे और जीभर पियोगे। यही करोगे न? और ये करने की जगह मैं ये पाऊँ कि तुमने चौथी भी बंद दी और पाँचवी, छठी और आठवीं और बीसवीं; तुम तलाश रहे हो और प्रयोग कर रहे हो, तो इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि तुम्हारी उत्कंठा प्यास बुझाने में है ही नहीं, तुम्हारी रुचि तो बोतलों में है। एक बोतल तलाश ली, दूसरी तलाश ली, तीसरी तलाश ली, चौथी तलाश ली। अरे, ज़रा और तलाशें।

तुम अनुभववादी हो। पिछले सौ दो सौ साल में ये धारणा बहुत बल पाई है, अनुभवाद, रोमांटिसिज़्म * * रोमांस का असली अर्थ यही होता है, रोमांटिसिज़्म तुम्हें बताता है कि ज़िन्दगी तुमने तब जी जब तुम्हें कई-कई तरीक़े के अनुभव हुए, जब तुमने गहरे समुंद्र में गोता लगाया, जब तुमने तरीक़े-तरीक़े के व्यंजन खाए, जब तुम्हारे आठ-दस स्त्री-पुरुषों से सम्बंध बने, जब तुम चाँद पर होकर आए। ये पिछले सौ-दो सौ साल में ये बहुत बढ़ी है चीज़।

पिक्चरों में नहीं देखते हो? वो वहाँ घूमने जा रहे हैं। वहाँ नए तरीक़े के अनुभव ले रहे हैं और ये कर रहे हैं और वो कर रहे हैं। और जितनी न्यूज़ वेबसाइट हैं, उन पर आता है कि “क्या आपने गधे की लीद से बने पकौड़े खाए?” ‘टेन थिंग्स यू मस्ट टेस्ट बिफोर यू डाई' , दस ऐसी चीज़ें जो आपको मरने से पहले ज़रूर स्वाद लेनी चाहिए। आता है कि नहीं आता है? उसमें जितनी चीज़ें होती ,हैं वो यही होती हैं। और उसके भी आगे जाकर वो उसको शीर्षक देते हैं, *‘वी बेट यू विल फॉल फॉर दिस लदौड़ा’*। पता नहीं कौन है वो जो लेख लिख रही है।

वो अच्छे से जानती है कि जितने पढ़ने वाले हैं, वो लीद के पकौड़े खाने को इतने...और भाई, अनुभववाद है। अनुभववाद का मतलब ही यही है कि नई-नई चीज़ें अनुभव करो।

तो तुम्हारी भी रुचि इसी में है कि पचास तरह की बोतलें। अपने ही ज़रा पुराने लोगों को देखोगे तो उनमें अनुभव को लेकर ऐसी कोई खुजली नहीं थी, उन्हें नहीं था कि बहुत देश-विदेश की यात्रा करें, पचास प्रकार के व्यंजन खाएँ, नई-नई चीज़ें आज़माएँ।

श्रोता: वो अभी भी संतुष्ट हैं अपने जीवन को लेकर।

आचार्य: उनके सामने सत्तर प्रकार के व्यंजन का मेनू आता ही नहीं था। रोटी, लौकी की सब्ज़ी, तरोई, ठीक है। बहुत हुआ तो किसी दिन पराठा बन गया, बात ख़त्म। पूड़ी खा लो, बात ख़त्म। लदौड़ा था ही नहीं।

अभी खोलो तुम, रेडिफ खोलो, एनडीटीवी खोलो, हैरान रह जाओगे। ये कपड़े हैं? तुम्हें नहीं पहनना तो तुम उसको वस्त्र का नाम क्यों दे रहे हो? अभी एक छपा था, उसने कच्छा मुँह पर डाल रखा था और बाकी कुछ नहीं पहन रखा है। कह रहे हैं, “ये देखिए, अनुभव। पहनो न, ये पहना नहीं तो ये जीवन में पीछे ही रह गए तुम।”

जहाँ प्यास बुझ जाए, वहाँ ठहर जाओ। अनुभव के इतने पिपासु मत रहो। ज़िन्दगी इतनी बड़ी नहीं है कि हज़ार मौके देगी। पचास बोतलें आज़माने के बाद लौटोगे उस पाँचवीं बोतल पर जिसमें पानी था, तो हो सकता है कि वो बोतल खाली मिले। देने वाले ने तुम्हें बहुत दिया है, पर फिर भी एक सीमा तो लगा ही दी है कि जिओगे तो बेटा सत्तर-अस्सी साल ही। ये न हो कि सत्तर-अस्सी साल प्यासे ही गुज़ार दिए। और मैं इस बात को बहुत ज़ोर दे करके, बहुत आग्रह से हाथ जोड़कर कह रहा हूँ, “जहाँ शांति मिलती है, वहाँ ठहर जाना।” अभी मैं आया तो यही गा रहे थे न तुम, "मन को दे ठहराए। न आवे, न जाए।"

काल का, माया का कोई भरोसा नहीं। पता चला कि तुम पचास जगह और घूमने निकले, और जब तक लौट करके आए, मामला सपाट था। ठहरना सीखो। मन तो लालची बंदर, उसको लगता है कि कहीं ठहर गए तो कहीं कुछ चूक तो नहीं रहे हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि इससे बेहतर कुछ उपलब्ध था और हम ठहर गए तो हम चूक गए हों। ये पागलपन मत करना।

पहले आसान था, इतनी सूचना ही नही होती थी कि पचास बोतले हैं कहाँ पर। अब तो सूचना ने बड़ी झंझट कर दी है न। ठहरने से पहले लगता है कि अरे, इतनी चीजों का तो और पता लग गया है, इनको तो अब तक आज़माया ही नहीं, तो ज़रा इनको भी तो पहले आज़मा लें।

पुरानी कहानी है जिसमें एक आदमी कुआँ खोदने निकलता है और सब्र नहीं है उसमें, तो दस जगह दस-दस फीट खोद देता है। दस फीट खोदता है, फिर कहता है, “अरे यार, कहीं और आज़माते हैं।” फिर दस फ़ीट और खोदता है। और पानी उपलब्ध था पचास ही फीट पर, पर इन्होंने दस जगह दस-दस फ़ीट खोदा।

और एक दूसरा होता है जो बदक़िस्मती से किसी रूखी जगह पर, उष्ण जगह खोद रहा होता है। वहाँ पर पानी सौ फीट नीचे था, लेकिन उसको मिल जाता है। उसको मिल जाता है क्योंकि वो एक ही जगह खोदता है। जहाँ हो, वहीं खोदो। पचास जगह खोदने से बेहतर है कि जहाँ हो, वहीं खोदो। गहराई आवश्यक है। अब मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुम चट्टान पर खड़े हो तो तुम चट्टान ही खोद दो। भरोसा नहीं क्या बोलूँ और क्या समझ लो। लेकिन प्रयोग की भी एक इंतिहा होती है, विवेक आज़माओ।

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