केवल प्रेम ही अहंकार की दवा है || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

Acharya Prashant

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केवल प्रेम ही अहंकार की दवा है || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

आचार्य प्रशांत: अब देखिए यहाँ पर किन-किन पशुओं के नाम वर्णित हैं – मयूर है, गरुड़ है, वाराह है, सिंह है, गजराज है, गीदड़ियों की आवाज़ की हम बात कर ही चुके हैं। ये इतने भाँति-भाँति के पशुओं का उल्लेख हमें क्या बताता है? ये सब पशु हमारे भीतर की पशुता के अलग-अलग रूप हैं। तो पशुता तो हमारे भीतर रहेगी ही, यह शरीर ही पशु है। यह शरीर ही पशु है तो पशुता तो रहेगी ही, बस क्या करना है? उस पशुता को समर्पित कर देना है, उसको एक सही दिशा दे देनी है, उसको चैनलाइज कर देना है।

प्रश्नकर्ता: शुरू में आचार्य जी, एक अवलोकन है इस बात से कि आज पहली बार समझ में आया है कि समानता होती क्या है, जो आपने आख़िरी में बताया वह। और दूसरा प्रश्न यह है कि जब हमने पहले सुना था कि अपनी आइडेंटिटी (पहचान) को ड्रॉप (त्याग) करना है, उसको सही तरह चैनलाइज करना है। तो दोनों ही बात सही हैं?

आचार्य: यह अपनी आइडेंटिटी मिटाने की विधि है। आइडेंटिटी तो तुम्हें मिटानी है पर कैसे मिटाओगे? यह विधि है। सच जो है, वह महासागर है। तुम्हारी सब जो आइडेंटिटीज़ हैं, तुम्हारी जो पहचानें हैं, वे छोटी-छोटी नदियाँ हैं, उनको मिटाने का तरीका क्या है? सच में मिला दो।

तो यह आइडेंटिटी को मिटाने से अलग बात नहीं की जा रही यहाँ, वही बात की जा रही है, उसको करने का तरीका बताया जा रहा है। स्वयं को मिटाना है तो स्वयं को स्वयं से बड़े किसी उपक्रम में लगा दो, तुम मिट जाओगे। स्वयं से आगे जाना है तो जो एकदम आगे का है, उसके पीछे हो जाओ। उसके पीछे-पीछे चल लो, ख़ुद से आगे निकाल जाओगे। यह विधि है, और कोई विधि नहीं है।

प्र: * जैसे आपने बताया अभी कि जब कोई अनुचर हो जाएगा तो उससे उसकी वृत्ति अपने-आप उसमें मिल जाएगी, यह आपने बताया।

आचार्य: पीछे लग जाएगी। वृत्ति अनुचरी हो जाएगी, अनुगामिनी हो जाएगी।

प्र: तो ड्रॉप (त्यक्त) कैसे होगी फिर?

आचार्य: जो नदी सागर से मिल गई, वह ड्रॉप कैसे हुई? उसका कोई पृथक अस्तित्व बचा नहीं न, वह मिट गई। अब वह जो कुछ भी करती है, भले वह अपने तरीके से करती हो, लेकिन सत्य के लिए करती है। और धीरे-धीरे उसको यह पता चलता रहेगा के जितना ज़्यादा वह अपने तरीके से करेगी, उतना ज़्यादा सत्य के साथ चलना कठिन होता जाएगा।

तो फिर वह अपनी जो पृथक पहचान है, अपना जो पृथक तरीका है, अपना जो पृथक व्यक्तित्व है, उसको वह ख़ुद ही छोड़ती चलेगी, क्योंकि तुम्हारी जो पृथकता है, वह अड़चन डालने लगेगी तुम्हारे काम में ही। तुम्हारा काम क्या है? तुम्हारा काम है सच के पीछे चलना, और सच चलता है सीधी चाल। तुम हो शतरंज के घोड़े, तुम चलते हो ढाई। लेकिन तुमने ठान लिया है कि सच के तल पर, कि सच के पीछे-पीछे चलना है, तो अब क्या होगा बताओ?

सच सीधे चल रहा है और तुम चलते हो एक-दो-ढाई, एक-दो-ढाई। लेकिन तुमने तय कर लिया है कि चलना उसके साथ है, तो फिर क्या होगा? क्या होगा? तुम अपना घोड़ापन धीरे-धीरे मजबूर होकर छोड़ दोगे, क्योंकि घोड़े बने रहोगे तो उसके पीछे-पीछे चलना बड़ा मुश्किल हो जाएगा।

तब तुम्हारे महान उपक्रम, मेगा प्रोजेक्ट की विशालता ही तुम्हें विवश कर देगी। तुम्हारे प्रेम की विशालता तुम्हारे अहंकार की विवशता बन जाएगी। उसे मजबूर हो करके अपनी पृथकता का त्याग करना पड़ेगा।

फिर तुम कहोगे कि हम चाहते तो नहीं थे अपने अश्वत्व का त्याग करना लेकिन प्रेम हो गया किसी से, और वह चलता है सीधे। यह टेढ़ी चाल चलकर हम उसके साथ नहीं चल पा रहे थे तो हमने कहा कि उसको तो छोड़ नहीं सकते, अपनी चाल ही छोड़े देते हैं। छूट गई चाल, लो हो गई आइडेंटिटी ड्रॉप (पहचान का त्याग)। ऐसे छूटती है, प्रेम में, और पता भी नहीं चलेगा। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि मिट ही गए।

और बैठे-बैठे कहो कि मिटना है तो कभी नहीं मिटने वाले। शतरंज का घोडा जबसे शतरंज का खेल है, तब से ढाई कदम ही चल रहा है। कुछ नहीं मिटता उसका, प्यार नहीं हुआ न उसे आज तक। हुआ भी हो तो अपने ही जैसे किसी से हुआ है, घोड़ी से। यह भी ढाई, वह भी ढाई और दोनों मिलकर ऐसा भी नहीं हुआ के पाँच हो गए हों, ढाई ही रह गए तब से।

शतरंज के खानों के बाहर कोई हो, उससे प्रेम में पड़ना ज़रूरी है। शतरंज तो रची ही इस तरह से गई है कि जो ढाई है, वह ढाई ही बना रहे। खेल से बाहर जाना पड़ेगा। शतरंज समझ रहे हो क्या है? तुम्हारे जीवन के खाने, तुम्हारे जीवन का ताना-बाना। उसमें जब तक रहोगे, अगर घोड़े पैदा हुए हो तो घोड़े ही रहोगे। उससे बाहर जाना पड़ेगा, अपना उल्लंघन करना पड़ेगा। घोड़े को ऐसी चाल चलनी पड़ेगी जो उसे शतरंज से ही बाहर कर दे।

ऐसी चाल तो सिखाई ही नहीं गई, नियम में तो है नहीं। नियम तोड़ने पड़ेंगे। घोड़ा नियम नहीं तोड़ेगा तो घोड़ा ही बना रहेगा। घोड़ा, घोड़ा ही रहेगा, हाथी, हाथी ही रहेगा, वह बेचारा वो नन्हू सा प्यादा, वह प्यादा ही रह जाएगा। उसका तो काम ही होता है पिटना। उसको सिर्फ़ दूसरे पक्ष वाला ही नहीं पीटता, उसको तो अपने पक्ष वाला भी बार-बार कुर्बान करता है। जहाँ कुछ गड़बड़ होता है, वहाँ प्यादा आगे कर दिया जाता है, लो इसको पीट दो। अब कोई प्यादा पैदा हुआ है, वह जीवन भर क्या करेगा? पिटेगा। कभी उसे कोई दूसरा पीटेगा, कभी अपने ही तरफ़ वाला उसे पिटवा देगा।

चेतना नहीं है न उसमें, इसलिए उसको कोई और चलाता है। जब तुम्हें कोई और चलाता है, वही स्थिति अचेतना की कही जाती है। तुम्हें कोई और चला रहा है, ऐसे तुम्हारी मुंडी कोई और पकड़े है, जहाँ चाहता है, वहाँ रख देता है। तुम शतरंज के भीतर ही रह जाओगे जब तक तुम्हें कोई और चलाएगा।

लेकिन तुममें एक विशेषता है जो शतरंज के मोहरों में नहीं। तुम्हारे पास क्या है? चेतना। तुम बाज़ी एकदम पलट सकते हो। तुम नियम ही भंग कर सकते हो। कूदकर बाहर ही आ जाओ, लो। जब तक मैं चौंसठ खानों में बैठा हूँ, मैं प्यादा ही कहलाऊंगा। एक ही तरीका है प्यादा न कहलाने का, क्या? ऐसी चाल चली कि बाहर ही आ गया। उसी बाहर आने को कभी तुरीय कहते हैं, कभी आत्मा कहते हैं, कभी सत्य कहते हैं, कभी साक्षी कहते हैं। इन सबमें उल्लंघन का भाव है।

तुरीय माने तीन का उल्लंघन कर दिया, चौथा हो गया। घोड़ा जैसे तीन ही तो चलता है, एक, दो, तीन, हम ढाई कहते हैं। घोड़े ने जैसे चौथा चल दिया, वह तुरीय कहलाएगा। चौथा क्या चल दिया? घोड़ा उठा, किसी ने उठाया नहीं, जब तक कोई और उठाता था तो वह ढाई ही चलता था। अपने-आप ही उठा और बाहर निकल गया। यह तुरीय हो गया।

जब तक तुम्हें कोई और चला रहा है, तब तक वह पक्ष जीते कि यह पक्ष जीते, तुम्हारी तो हार ही है न? कौन सा तुम्हें बड़ा सम्मान मिलता है? होगे तुम, ऊँट होगे, वज़ीर होगे, हाथी होगे, और चाहे बादशाह ही हो, देखा है न तुम्हें कैसे चलाया जाता है? ऐसे एक हाथ आता है, तुम्हारी मुंडी पकड़ता है और तुम्हें उठाकर कहीं रख देता है। कहते तुम अपने-आपको हो कि हम बड़े भरी वज़ीर हैं, सब दिशाओं में चलते हैं, कितना भी चलते हैं, कुछ भी कर सकते हैं। वज़ीर हैं, साहब, वज़ीर हैं। काहे के वज़ीर हो? तुम्हारी मुंडी तो कोई और चला रहा है।

कोई और से मतलब समझ रहे हो क्या?

कोई और माने वह जो तुम वास्तव में नहीं हो – तुम्हारा शरीर, तुम्हारे संस्कार। जो इनके चलाए चल रहा है, वह कभी इस काले-सफ़ेद के द्वैत से बाहर नहीं आएगा।

शतरंज का द्वैत देखा है न? जो काला-सफ़ेद है, वही तो द्वैत है। यहाँ से उठे, वहाँ पहुँचे, वहाँ से उठे, यहाँ पहुँचे। और जब बाज़ी ख़त्म हुई तो काले-सफ़ेद सब एक ही डिब्बे में डाल दिए गए। बताओ कौन जीता? काला राजा सफ़ेद प्यादे के बगल में पड़ा सो रहा है, डिब्बे के अंदर, बाज़ी ख़त्म। अगल-बगल क़ब्रें बिछी हैं दोनों की। जीवन में ऐसा ही तो होता है। बाज़ी ख़त्म!

बहुत उछल रहे थे बच्चू, ‘हम राजा हैं।’ तभी तुम्हारी बाज़ी चलाने वाले का मन ही पलट गया, उसने ऐसे किया, सारे प्यादे गिराए, सबको ले करके डिब्बे मे डाल दिया, क्या हुआ बादशाह का? साफ़, बादशाह ही साफ़ हो गया। तो तुम्हारी बादशाहत भी किस काम की? तुम्हारी नहीं है, जो तुम्हारी नहीं है,वह तुम्हारे क्या काम आएगी, भाई? कोई भी उठाकर तुम्हें चला देता है, कोई भी हटाकर तुम्हें गिरा देता है।

अपना क्या है? शतरंज में तो बादशाह भी नियमों से बंधा हुआ है। बड़े कठोर नियम है बादशाह, कुछ नहीं कर सकता वो। दुल्हन की तरह होता है, सब उसकी रक्षा करते हैं, वह ख़ुद कुछ नहीं करता। जैसे चलती है न घर की इज़्ज़त, वैसा होता है बादशाह। पूरा घर लगा हुआ है उसको बचाने में और वह मारा गया तो सब ख़त्म।

तुम बादशाह भी हो तो क्या हो? ये कूद, ये फाँद, वह भी अपने-अपने नियमों के अंदर, और फिर एक ही डिब्बा। यह तो छोड़ दो कि मोहरों के पास ईमान नहीं होता, उनके पास तो बेईमानी भी नहीं होती। शतरंज में अगर बेईमानी भी करता है तो कोई और करता है, मोहरे ख़ुद नहीं करते। मोहरे होने की सजा यह है कि ईमानदारी तो छोड़ो, तुम बेईमानी भी नहीं कर सकते। हाँ, तुम उल्लंघन कर सकते हो, ज़िंदा हो अगर तुम तो, चेतना है अगर थोड़ी तो।

प्र: कबीर साहब का एक दोहा याद आ रहा है, जैसे वे कहते हैं कि कामी, क्रोधी, लालची...। तो क्रोध वाला तो समझ में आया कि कैसे वह सत्य को समर्पित हो सकता है। कामी और लालची कैसे सत्य की ओर चल सकते हैं?

आचार्य: नहीं, संतों ने ही इसके आगे भी बात की है। यहाँ पर जिस काम, क्रोध, लोभ की बात हो रही है, वह वही है जो व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए इस्तेमाल होते हैं। काम माने आकर्षण, कामना। कामना माने इच्छा। किसकी कामना है तुमको? किसका लोभ है तुमको? किसके विरुद्ध क्रोध है तुमको?

कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय। भक्ति करे कोई सूरमा, जात, वरण, कुल खोए॥ —कबीर साहेब

अगर तुम्हारा लोभ ही यह हो जाए कि मुझे खोना है, खोने का लोभ हो जाए तो?

अभी इस श्लोक में बात उनकी हुई है जो लोभ करते हैं जाति, कुल, वर्ण का। तभी तो कह रहे हैं कि इनसे भक्ति नहीं होगी, भक्ति तभी होगी जब तुम ऐसे सूरमा हो जाओ जो जाति, कुल, वर्ण, नाम, पहचान, इनको खो सके।

तो काम, क्रोध, लोभ, ये व्यर्थ कब हैं? जब ये जाति, कुल, वर्ण की रक्षा में उद्यत हो जाएँ। पर यदि काम, क्रोध और लोभ जाति, कुल और वर्ण के विरुद्ध ही खड़े हो जाएँ तो अच्छे हैं, बहुत अच्छे हैं। आमतौर पर ऐसा होता नहीं इसीलिए श्लोक में उस अपवाद की चर्चा ही नहीं है। यह श्लोक उनके लिए है जिनके काम, क्रोध और लोभ जाति, कुल और वर्ण की सुरक्षा में लगे हुए हैं। उनके लिए है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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