प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं हमेशा चाहता हूँ कि मैं अपने परिजनों, मित्रों को खुश रखूँ, पर कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि किसी कारणवश वे दुखी हो जाते हैं। ऐसे में क्या करूँ?
आचार्य प्रशांत: किसी को भी दुख देने वाला कभी कोई दूसरा नहीं होता, कभी भी नहीं होता। अब कई-कई सालों से बोल रहा हूँ, लोगों से मिल रहा हूँ, हर पृष्ठभूमि के लोगों से मिलता हूँ, हर उम्र के लोगों से मिलता हूँ, और ज़्यादातर लोग जो मिलते हैं वो किसी-न-किसी रूप में दुखी होते ही होते हैं। सारे सवाल ही दुख से निकलते हैं। लेकिन मैंने कभी नहीं पाया कि कोई ऐसा हो जिसके दुख का कारण कोई दूसरा हो।
ऊपर-ऊपर से लग सकता है, ऊपर-ऊपर से तुम किसी और को दोषी ठहरा सकते हो कि मैं उसके कारण दुखी हूँ, पर यह बहुत सतही बात है। कभी भी कोई किसी और के कारण दुखी होता नहीं है। तुम्हारे दुख का कारण तुम्हारे अलावा कोई दूसरा नहीं है। किसी और के दुख का कारण उसके अलावा कोई दूसरा नहीं है। एक स्वस्थ व्यक्ति को तुम कुछ भी कर लो, दुखी नहीं कर पाओगे; वो तुम्हारी पहुँच से, तुम्हारी पकड़ से बाहर है। तुम्हारी सारी चेष्टाएँ व्यर्थ जाएँगी, वो दुखी होगा नहीं। तुम उसे सुखी भी नहीं कर पाओगे। उसका सुख-दुख तुम पर निर्भर करता ही नहीं है, वो ख़ुद सुख-दुख के परे है। वो कहीं और बैठा हुआ है।
हमें यह भ्रम हो जाता है कि हम किसी को सुख दे सकते हैं। हमें यह भी भ्रम हो जाता है कि हम किसी को दुख दे सकते हैं। सुख और दुख के मूल कारण उसके अपने चित्त में हैं। तुम वो करो जो तुम्हें तुम्हारी चेतना से उचित दिखता हो। उससे तुम ख़ुद नहीं जान पाओगे कि कौन सुखी है कौन दुखी है; यह तो बड़ी संयोगवश घटनाएँ हैं, बहुत संयोगवश होती हैं।
तुम अगर वास्तव में किसी के प्रति जुड़े हुए हो, प्रेम है, ख़याल रखना चाहते हो, तो यह मत पूछो कि इससे उसको सुख होगा या दुख होगा। यह पूछो कि इससे, मेरे कर्म से, मेरे होने से, उसका मन साफ़ होगा या नहीं होगा। असली सवाल यह है।
तुम एक बच्चे को ले जाते हो डॉक्टर के पास, डॉक्टर उसे इंजेक्शन लगाता है, बच्चा खूब रोता है, चिल्लाता है। चिल्लाता है, रोता है कि नहीं? बच्चे से पूछो तो कहेगा, ‘मुझे बहुत दुख हो रहा है।’ पर अगर तुम्हें प्रेम है उस बच्चे से तो तुम उसको वो दुख दोगे, ज़रूर दोगे, कि नहीं दोगे? तुम यह परवाह ही नहीं करोगे कि सुख है या दुख है, तुम कहोगे, ‘जो उचित है वो होना चाहिए, सुख-दुख हटाओ।' जो उचित है वो होना चाहिए और अक्सर जो उचित होता है उससे लोगों को दुख ही पहुँचता है। पर प्रेम इस बात की परवाह नहीं करता। प्रेम दुख देने में भी संकोच नहीं करता। प्रेम कहता है सुख और दुख तो तुम्हारी अपनी वृत्तियों से निकल रहे हैं, इन्हीं वृत्तियों की तो सफ़ाई करनी है।
बच्चा अगर डॉक्टर के इंजेक्शन लगाने से रो रहा है, दुखी हो रहा है, तो क्या उसके दुख का कारण डॉक्टर है या उसका अज्ञान, ईमानदारी से बताओ। बच्चा डॉक्टर के इंजेक्शन से रो रहा है, दुखी हो रहा है, तो दुख का कारण क्या डॉक्टर है? फिर तो डॉक्टर को बड़ी ग्लानि उठनी चाहिए, हर बच्चे को रुलाते हैं वो। डॉक्टरों का काम ही यही होता है, उनके पास बच्चे लाये जाते हैं और वो बच्चों को रुला देते हैं। फिर तो डॉक्टरों के भीतर बड़ा अपराध-भाव आ जाना चाहिए, ‘हम बड़े अपराधी हैं। देखो न, किसी बच्चे को रुला दिया!’
पर डॉक्टर जानता है कि अगर बच्चे को दुख हो रहा है तो उस दुख का कारण वो नहीं है, उसका इंजेक्शन भी नहीं है, बल्कि बच्चे के भीतर जो मूढ़ता, जो अज्ञान बैठा हुआ है वो है। हर व्यक्ति अपने दुख का कारण स्वयं होता है क्योंकि उसके भीतर अज्ञान होता है। अज्ञान ही दुख का कारण है। अज्ञान ही सुख का कारण भी है। सुख और दुख दोनों अज्ञान से निकलते हैं, तुम ये भ्रम मत पाल लो कि तुमने किसी को दुख दिया। उसको दुख मिलता है उसके अपने अज्ञान की वजह से, उसको दुख मिलता है उसकी अपनी नासमझी की वजह से। तुम तो वो करो जो उचित है। कैसे जानोगे क्या उचित है?
हमने कहा, दुख का कारण क्या है? अज्ञान। तो उत्तर मिल गया, क्या उचित है? अगर दुख हटाना है तो क्या हटाना होगा? अज्ञान। पर याद रखना — अज्ञान हटेगा तो दुख के साथ-साथ सुख भी हटेगा। एक दूसरी मौज आ जाएगी, मस्ती आ जाएगी, पर दुख-सुख नहीं रहेंगे। तो तुम दूसरों का दुख हटाने की कोशिश मत करो, तुम तो उनका, क्या हटाने की कोशिश करो? अज्ञान। रोशनी देने की कोशिश करो। दिये की तरह हो जाओ, सूरज की तरह हो जाओ। इस चक्कर में मत पड़ो कि दुख हटाऊँगा।
दो लोग हैं, वो एक आम के लिए लड़ रहे हैं। दोनों को आम चाहिए, और पूरा चाहिए। उनका अहंकार पूरे से कम में राज़ी नहीं होता। एक को आम दोगे तो दूसरा दुखी हो जाएगा, दूसरे को आम दोगे तो पहला। आधा-आधा करोगे तो दोनों। अब उनका दुख तुम्हारे कर्मों से आ रहा है या उनके अहंकार से आ रहा है, जल्दी बताओ।
प्र: अहंकार से।
आचार्य: उनका दुख हटाने का एक ही तरीक़ा है, कि आम को पीछे करो और अज्ञान की बात करो।
देखो, बेटे हो, लगेगा तुम्हें कि कुछ ऐसा करूँ जिससे माँ-बाप सुखी हो जाएँ। माँ-बाप होते हैं, वो कहते हैं, ‘कुछ ऐसा करें जिससे बेटे सुखी हो जाएँ।’ होता है कि नहीं? बेटे, बेटी। पत्नी चाहती है पति सुखी रहे, पति चाहता है पत्नी सुखी रहे, दोस्त चाहता है दोस्त सुखी रहे। ठीक?
तुमको सुखी देखने वाले बहुत लोग हैं, कुछ लोग दुखी देखने वाले भी हैं। पर ज़्यादातर लोग तुम्हें ऐसे ही मिलेंगे जो कहेंगे कि हम तो चाहते हैं कि तुम सुखी रहो। और अक्सर वो चाहते भी हैं, ऐसा नहीं कि वो झूठ बोल रहे हैं, चाहते भी हैं कि लोग सुखी रहें। पर तुम अपने चारों ओर की दुनिया देखो किससे भरी हुई है, सुख से या दुख से? जिसको देखो वही तनाव में है, जिसको देखो वही झुँझलाया हुआ है।
यह सुख का लक्षण है या दुख का?
ज़रा-ज़रा सी बात पर लोग आहत हो जाते हैं, चोट खा जाते हैं। तुमने जा करके किसी से ज़रा सी अपनी मोटरसाइकिल छुआ दी, वो मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। इससे क्या पता चलता है? वो आदमी दुखी है, बहुत दुखी है। उसका दुख ही हिंसा बन रहा है। दुनिया दुख से भरी हुई है, हम लगातार कोशिश कर रहे हैं सुख देने की, क्योंकि हमारी चेष्टा में ही भूल है। हम सोच रहे हैं कि दुख सुख से मिट जाएगा। इस कारण हम सुख देने की कोशिश कर रहे हैं। हमने ग़लत समझा है। दुख सुख से नहीं मिटता, दुख मिटता है अज्ञान के मिटने से। तुममें से जो भी कोई यह भूल करेगा वो पाएगा — दुख मिटा नहीं, बढ़ ही गया।
मैं दोहरा रहा हूँ — दुख सुख के आने से नहीं मिटता, दुख अज्ञान के जाने से मिटता है, दुख नासमझी के जाने से मिटता है। क्या ये बात याद रखोगे?