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कर्ता कौन है? जीव कौन है?

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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कर्ता कौन है? जीव कौन है?

आचार्य प्रशांत: “कर्ता कौन है? जीव कौन है?” उपनिषद् ने यहाँ भी बड़े संक्षेप में उत्तर दिए हैं। कर्ता वो है जिसे सुख और दु:ख की अभीप्सा है। जिसे सुख और दु:ख की अभीप्सा है उसका नाम कर्ता है; क्योंकि वो जो कुछ भी करता है किस लिए करता है? सुख पाने के लिए, दु:ख से बचने के लिए; कर्म का और कोई आधार होता ही नहीं है।

श्लोक छः पर ध्यान दो —

“सुख प्राप्त करने और दुःख का परित्याग करने के लिए जीव जिन क्रियाओं को करता है, उन्हीं के कारण वो कर्ता कहलाता है।" ~ (सर्वसार उपनिषद्, श्लोक ६)

उपनिषद् ने कर्ता की परिभाषा बताई है। सुख पाने के लिए, दु:ख से बचने के लिए जो कुछ भी तुम करते हो वो तुम्हें कर्तृत्व दे देता है। हर कर्म के पीछे उद्देश्य, भावना एक ही है — सुख।

इसी तरीके से जीव के बारे में क्या कहा उपनिषद् ने?

“जब पाप-पुण्य का अनुसरण करता आत्मा इस शरीर को अप्राप्त की तरह मानता है, तब वह उपाधियुक्त जीव कहलाता है।“ ~ (सर्वसार उपनिषद्, श्लोक ६)

जब तुम्हें कुछ लगता है करने जैसा, कुछ लगता है ना करने जैसा, कुछ तुम्हारे लिए प्राप्य होता है, कुछ अप्राप्य होता है, तो जो तुम्हें लगता है कि करने में शांति है, विभूति है उसको तुम कह देते हो — पुण्य है। जो तुम्हें लगता है कि करने में अपकीर्ति है और क्षति है उसको तुम कह देते हो — पाप।

ये क्षति या प्राप्ति दोनों किसके लिए हैं? शरीर के लिए हैं। तो वो अहं, जो शरीर के साथ जुड़ गया है, शरीर को ही सत्य माने आत्मा समझने लगा है, वो अपने-आपको सदा इस दुविधा में पाता है कि, “किधर को जाऊँ, किधर को ना जाऊँ, क्या करूँ, क्या ना करूँ?” जिसकी ऐसी दशा पाओ, उसको नाम दे दो — जीव।

जीव वो जिसके सामने विकल्प हों। जीव वो जिसको कुछ ठीक और कुछ ग़लत लगता हो। जीव वो जिसको कहीं लाभ और कहीं हानि होती हो। जीव वो जो अपने-आपको असुरक्षित अनुभव करता हो। जीव वो जो अपनी पहचान भूलकर के अपने-आपको देह के साथ जोड़ चुका हो।

चूँकि वो अपने-आपको देह के साथ जोड़ चुका है इसीलिए वो जीव, माने जीवित कहलाता है। जीवित समझते हो? चूँकि देह के साथ अपने-आपको जोड़ लिया इसीलिए अब कभी-न-कभी मानेगा कि, “मेरा जन्म हुआ था”, और देह के साथ अपने-आपको जोड़ लिया तो इसीलिए कभी-न-कभी उसकी मृत्यु होगी।

जो अपने आपको जन्मा मान रहा है और मृत्यु की ओर बढ़ रहा है, उसके लिए हमेशा कुछ करणीय और कुछ अकरणीय, माने कुछ पाप कुछ पुण्य हो जाएगा।

जो कुछ भी उसकी देह को बचाकर रखेगा वो उसके लिए करणीय हो जाएगा, और जो भी विकल्प उसे मृत्यु की ओर ले जाएगा वो उसके लिए अकरणीय हो जाएगा। तो जीव अपनी ग़लत पहचान और अपनी ग़लत परिभाषा के कारण लगातार संकल्प-विकल्प का झूला झूलता है।

जिसके लिए कभी एक राह ठीक, कभी दूसरी राह ठीक, जो कभी इस संशय में, कभी उस शंका में उसका नाम जीव है।

आखिरी बात ये, कि जो मृत्यु में ही अपनी अंतिम गति देखता हो उसी का नाम है – जीव, और जब तक मृत्यु नहीं आई है मात्र तब तक कहलाता है वो — जीवित। तो उसकी जो अवस्था है वो बिलकुल तात्कालिक है, उसमें कुछ भी ऐसा नहीं जो सनातन या शाश्वत हो, इसीलिए जीव समय से भी सदा घबराया हुआ रहेगा।

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