श्रीभगवानुवाच अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।
श्रीभगवान् बोले – जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य काम करता है, वह सन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला सन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक १
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। जैसे अध्याय ६ के पहले श्लोक में कहा गया है, "जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य काम करता है, वह सन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला सन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है।"
यह अंतिम वाक्य मुझे समझ में नहीं आया कि क्या बोलना चाह रहे हैं कृष्ण।
आचार्य प्रशांत: सन्यासी कर्म-सन्यासी को कहा गया है। ये वो लोग हुआ करते थे जो कहते थे कि “अब हम कुछ नहीं करेंगे, हम कर्म सन्यासी हैं, हम कुछ नहीं करेंगे।” तो फ़िर ये जीते कैसे थे? ये भिक्षा पर जीते थे। जाते थे, खाना माँग लाते थे। माने ये अपने लिए चूल्हा नहीं जलाते थे। इसे कहते हैं अग्नि का त्याग।
ये आग से दूर हो जाते थे। आग माने चूल्हा। स्थूल रूप से आग का मतलब है कि ये अपना भोजन नहीं पकाएँगे। ये कर्ताभाव नहीं रखेंगे कि “मैं जाऊँ, मैं भोजन की व्यवस्था करूँ, मैं अपने लिए चुनूँ कि आज यह शाक खाना है, आज ऐसे अन्न खाना है। यह सब मैं नहीं करूँगा। मैं तो निकलूँगा, चलते-फिरते संयोगवश कहीं कुछ मिल गया तो खा लेंगे।”
श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि यह कोई बड़ी बात नहीं हो गई। जो कर्मफल का आश्रय ना लेकर काम करता है—’अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:’—जो अनाश्रित है कर्मफल पर और काम कर रहा है, कौन सा काम कर रहा है? कोई भी काम नहीं, एक ही काम। कौन सा? मुक्ति। जो बाकी सब कर्मफलों को त्याग चुका है, जिसको आख़िरी कर्मफल की अपेक्षा मात्र है, सिर्फ वही योगी है।
इसी तरीके से, क्रियाओं का त्याग कर देने वाले को योगी नहीं कह दिया जाता। योगी कौन होते थे? जो जीवन की साधारण क्रियाएँ वगैरह छोड़ देते थे, बस योगाभ्यास में रत रहते थे। श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि उससे भी तुम योगी नहीं हो जाओगे। बाहर की क्रिया छोड़ने से क्या हुआ अगर भीतर अभी कर्मफल की आकांक्षा बनी ही हुई है। फ़िर तो क्रिया को छोड़ना भी कर्मफल पाने का एक तरीका ही हो गया न। चाल हो गई मन की।
एक ही कसौटी बता रहे हैं कृष्ण, एक ही पैमाना है – कर्म करो और भरपूर करो, और उच्चतम लक्ष्य के लिए करो। उच्चतम लक्ष्य प्राप्ति नहीं है, उच्चतम लक्ष्य मुक्ति है। यही योग है। इसके अलावा बाकी सब जो योग के नाम से जाना जाता है, वह अंधविश्वास है, मूढ़ता है।