कर्मों का खेल || (2018)

Acharya Prashant

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कर्मों का खेल || (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कर्मों के बारे में कुछ कहेंगे? कर्म क्या चीज़ है?

आचार्य प्रशांत: हमारे कर्म तो सही चीज़ को पाने का ग़लत प्रयास हैं। जो गहरी नीयत है वो तो ठीक ही है कि शान्ति मिल जाए, पर जो प्रयास की पूरी दिशा है, प्रयास करने वाले का जो केंद्र है, वो गड़बड़ है। प्रयास करने वाले का केंद्र जैसे नीयत से मेल ही ना खाता हो।

हर कर्म के पीछे एक गहन आकांक्षा होती है। हमारी त्रासदी ये है कि हमारा जो कर्ता है वो उस आकांक्षा से दूर हो गया है। जैसे आपका हाथ हो, आपका ही है लेकिन पगला गया है, ऐसा हाथ। अब आप चाह तो रहे हो वो आपको पानी पिलाए पर वो कँप रहा है, जैसा कई बार कई बीमारियों में या बुढ़ापे में काँपता है। आप चाह रहे हो वो आपको पानी पिलाए और वो आपको पानी पिलाने की जगह आपके ऊपर पानी गिरा रहा है। तो ऐसे हमारे कर्म हैं — चाह हम कुछ रहे हैं, हो कुछ और जा रहा है।

जैसे कि जो कर्ता है—करने वाला कौन है? हाथ, उदाहरण के लिए। हाथ करने वाला नहीं होता पर इस उदाहरण में करने वाला कौन है? हाथ। और चाहने वाला कौन है? मन—सिर्फ़ उदाहरण के लिए बता रहा हूँ—तो करने वाले में और चाहने वाले में जैसे एक खाई है बीच में। चाहा कुछ और जा रहा है, हो कुछ और रहा है। जैसे कोई नालायक या विश्वासघाती नौकर हो। उससे कहा कुछ जा रहा है करने को, वो कर कुछ और रहा है। वैसे ही आप चाह रहे हो शांति और आपके कर्मों से क्या आ रही है? अशांति। आप चाह रहे थे कि प्यास मिटे, और आपने क्या किया? कि प्यास और बढ़ गई, और प्यास बढ़ ही नहीं गई है, गीले भी हो गए फ़िज़ूल में। तो ऐसा हमारा जीवन है।

विचित्र घटना घटी है — मालिक और नौकर में दूरी बन गई है। मालिक और नौकर समझते हो न? मालिक कुछ बोल रहा है, नौकर अपनी मर्ज़ी चला रहा है। तो जितने कर्म हो रहे हैं वो सब गड़बड़ कर्म हो रहे हैं। उन कर्मों से फिर वो हो ही नहीं रहा जो होना चाहिए था। हम चाहते हैं शान्ति और पा क्या रहे हैं? अशांति। हम चाहते हैं कि तत्काल शांति मिले और कर्म ऐसे हैं जो शान्ति को समय में आगे ढकेल रहे हैं। हमारे सारे कर्म समय का निर्माण कर रहे हैं। पीछे से आते हैं, आगे को जाते हैं। तत्काल वहाँ कुछ होता ही नहीं।

प्र२: हम जब शान्ति के लिए इधर-उधर प्रयास करते हैं, तो उसमें ये आता है कि मोमेंट (इस क्षण) में रहो, अभी में जीना सीखो, ये करो, वो करो। तो फिर हम लोग जो सोच रहे हैं कि हमें ये करना है या हमें वो सोचना है, तो दोनों चीज़ों में विरोषाभास लगता है।

आचार्य: किसी गुरु ने नहीं सिखाया है कि मोमेंट में रहो, गुरुओं ने सिखाया है परमात्मा में रहो। 'मोमेंट में रहो' ये आपको पाश्चात्य उपभोक्तवाद ने सिखाया है। और उसका अर्थ ये होता है कि, "अभी सामने पिज़्ज़ा आया है तो खा ले न, आगे की क्या सोचता है, पगले! जल्दी खा और फिर पैसा निकाल। जल्दी से खा और फिर जल्दी से जेब ढीली कर भाई।"

प्र२: तो मोमेंट जैसा कुछ भी हमारे शास्त्रों में नहीं लिखा हुआ है, हमारे गुरुओं ने नहीं सिखाया?

आचार्य: गुरुओं ने परमात्मा में जीने को कहा है, उस परमात्मा को ही कहा है वर्तमान। वही वर्तमान है। वो वर्तमान समय का कोई बिंदु थोड़े ही है। वो वर्तमान ऐसा थोड़े ही है कि अतीत, फिर वर्तमान और फिर भविष्य। वर्तमान का अर्थ दूसरा है ग्रंथों में। वर्तमान का अर्थ है वो जो वर्तता है, वो जो विध्यता है, वो जो है — दैट व्हिच इज़ दैट व्हिच इज़ का मतलब ये थोड़े ही है कि ये सब कुछ।

ये कुछ पश्चिमी पागलों ने पढ़ा और उन्होंने निकाल दी इस तरह की बातें कि, "उसमें जियो न जो है।" तो क्या है? ये (समय) है, उन्हें लग रहा है यही तो है और क्या है। और उनसे कहा जा रहा है कि अभी में जियो तो अभी का क्या मतलब समझते हैं? कि अभी अगर बारह बजकर दस मिनट हुआ है तो इसमें जियो।

अभी का मतलब होता है, यहाँ का मतलब होता है — कालहीनता, स्थानहीनता। और कालहीनता, स्थानहीनता आत्मा की होती है, मन तो हमेशा काल और स्थान में ही जियेगा न। उसे जीना है, यही उसका प्रारब्ध है, यही उसकी संरचना है। मन को तो देश, काल, स्थान, प्रभाव इसी में जीना है, आत्मा अकेली है जो काल से आगे की है। आत्मा का ना कोई अतीत है, ना कोई भविष्य है।

जब कहा जाता है कि वर्तमान में जियो तो उसका असली अर्थ है आत्मस्थ होकर जियो, दुनिया के होकर मत जियो।

अपने होकर जियो, आत्मस्थ होकर जियो। अपने में जीना, क्योंकि दुनिया में तो समय लगातार है, दुनिया में तो घड़ी चल रही है न? तो दुनिया में लिविंग इन द मोमेंट का कोई मतलब नहीं है। बाहर तो जब भी देखोगे वहाँ घड़ियाँ-ही-घड़ियाँ चल रही हैं। भीतर कोई है जो घड़ी से बँधा हुआ नहीं है, भीतर कोई है जिसकी कोई उम्र नहीं है, भीतर कोई है जिसको समय से कोई लेना-देना नहीं, जो समय के साथ बदलता नहीं। दुनिया तो समय के साथ बदलती है क्योंकि दुनिया में क्या चल रही है? घड़ी चल रही है। भीतर घड़ी नहीं चल रही।

वर्तमान में जीने का मतलब है भीतर जियो, परमात्मा में जियो, आत्मा में जियो, हृदय में जियो। वहाँ घड़ी नहीं चलती, बाहर घड़ी चलती है और बाहर घड़ी चलेगी लेकिन तुम बाहर के हो मत जाना। इसका अर्थ ये नहीं है कि बाहर की अवहेलना करनी है, इसका अर्थ है तुम अपना पहला रिश्ता उससे मानो जो समय का नहीं है।

पहला रिश्ता तुम्हारा कालातीत से होना चाहिए, माहाकाल से होना चाहिए। वो तुम्हारा पहला प्रेम रहे, वो तुम्हारा पति रहे, तुम्हारा पहला दोस्त रहे, तुम्हारी पहली पहचान रहे, हर तरीके के उसको नाम दिए हैं संतों ने। कोई उसे बोलता है, "वो मेरा अटूट प्रेमी है", कोई बोलता है, "वो मेरी प्यारी प्रेमिका है", कोई बोलता है, "मेरा बाप है", किसी ने कहा, "मेरी माँ है"। इन सबका आशय एक था कि उसीसे मेरा पहला रिश्ता है। और बाहर के सारे रिश्ते उसके बाद के हैं।

घड़ी के रिश्ते ठीक हैं। (जैविक) माँ से जो रिश्ता मिला वो किसका रिश्ता है? घड़ी का। बाप से जो रिश्ता मिला वो किसका है? बीवी से रिश्ता है, पति से जो रिश्ता है, बच्चों से जो रिश्ता है, पड़ोसी से, पैसे से, कपड़े से, ये सारे रिश्ते किसके हैं? घड़ी के। देह से भी जो रिश्ता है वो किसका है? घड़ी का क्योंकि देह की भी अंतिम घड़ी आती है।

तो घड़ी के रिश्तों में जीना नहीं है। घड़ी के रिश्ते ठीक हैं, कामचलाऊ हैं, व्यावहारिक हैं। घड़ी के रिश्ते व्यावहारिक हैं और भीतर एक रिश्ता रहे — वो अघड़ी रिश्ता है। वो पारमार्थिक है, वो पहला है, प्रथम। सदा उसका ख्याल रखो।

तुम उसका ख्याल रखो, बाहर के रिश्तों का ख्याल वो रख देगा अपने-आप। जो कालातीत का ख्याल रख रहा है, कालातीत उसका ख्याल रख लेता है। तुम अकाल का ख्याल रखो, अकाल तुम्हारे काल का ख्याल रख लेगा। ये है वास्तविक अर्थ वर्तमान में जीने का, लिविंग इन द मोमेंट का। लिविंग इन द मोमेंट का जो तुम किताबों वगैरह में अर्थ पढ़ रहे हो वो बचकाना, बेवकूफी भरा और घातक है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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