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कर्म नहीं, बोध || आत्मबोध पर (2019)

Acharya Prashant

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कर्म नहीं, बोध || आत्मबोध पर (2019)

अविरोधितया कर्म नाविद्यां विनिवर्तयेत्। विद्याविद्यां निहन्त्येव तेजस्तिमिरसङ्घवत्॥

कर्म अज्ञान का नाश नहीं कर सकता क्योंकि कर्म अज्ञान का विरोधी नहीं है। जैसे प्रकाश घोर अंधकार को दूर करता है, वैसे ही ज्ञान से अज्ञान का नाश अवश्य होता है।

—आत्मबोध, श्लोक ३

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। यहाँ कर्म से क्या तात्पर्य है? क्या कर्म अज्ञान में सहायक है? कृपया स्पष्ट करें कि कर्म का ज्ञान और अज्ञान के साथ क्या सम्बंध है।

आचार्य प्रशांत: कर्ता है, और कर्ता जहाँ है, वहाँ कर्म होगा। कर्ता बोध हो सकता है, कर्ता बोधहीनता हो सकती है और कर्ता प्रकृति हो सकती है। इन तीन के अतिरिक्त कर्ता और कोई होता नहीं।

तुम्हारे कर्म तीन ही बिंदुओं से निकलेंगे, या तो बोध से या बोधहीनता से या प्रकृति से। बोधहीनता से जो कर्म निकला है, वह कर्म तो बोधहीनता का उत्पाद है, बोधहीनता की पैदाइश है, वो कर्म अपने ही कर्ता का नाश कैसे कर देगा? बंदूक से निकली गोली बंदूक को ही कैसे ख़त्म कर देगी?

शंकराचार्य कह रहे हैं, “कर्म अज्ञान का नाश नहीं कर सकता।” किस कर्म की बात कर रहे हैं? जो कर्म अज्ञान से ही उद्भूत है। अरे, अज्ञान से ही कर्म निकल रहा है, ऐसा कर्म तो अज्ञान को और पुख़्ता करेगा न? और अगर कर्म बोध से निकल रहा है, तो बोध केंद्र है और बोधजनित कर्म उसका उत्पाद है; केंद्र पर बैठा है बोध और उस बोध से निकल रहा है सुंदर कर्म, अब बताओ, मिटाने के लिए अज्ञान बचा कहाँ?

तो जब अज्ञान है तो कर्म अज्ञान को नहीं काट सकता, क्योंकि वह कर्म निकला ही अज्ञान से है, और जब अज्ञान नहीं है, तो जो कर्म है, वह अज्ञान को नहीं मिटा सकता, क्योंकि अब मिटाने के लिए अज्ञान है ही नहीं।

जो परिधि पर है, वो केंद्र को बदल नहीं पाएगा। केंद्र परिधि का निर्धारण कर रहा है, परिधि केंद्र का निर्धारण नहीं करती। कर्ता कर्म का निर्धारण कर रहा है, कर्म कर्ता का निर्धारण नहीं करता। हाँ, कर्म कर्ता का परिचय ज़रूर देता है, पर परिचय देना एक बात होती है और निर्धारण करना दूसरी बात होती है। कर्म को देखकर कर्ता का पता लग सकता है, पर कर्म से कर्ता को बदला नहीं जा सकता। कर्म की उपयोगिता है—कर्म को ग़ौर से देखोगे तो तुम्हें पता चल जाएगा कि पीछे कौन था।

तो शंकराचार्य कह रहे हैं कि अज्ञान को तो ज्ञान ही मिटा सकता है। और यह बात बहुत, बहुत महत्वपूर्ण है—कैसे? क्योंकि अक्सर हम ‘हम’ ही रहते हुए, अपने केंद्र को यथावत् रखते हुए, कुछ करके यह कोशिश करते हैं कि जीवन बदल जाए। हम कर्म द्वारा केंद्र को बदलने की कोशिश करते हैं, जो हो नहीं सकता।

बहुत-बहुत जो मैंने श्रम करा है, वह सिर्फ़ इसी धारणा के ख़िलाफ़ है कि तुम जो कुछ कर रहे हो, चाहे वह जितनी ज़िद से करो, चाहे जितनी मेहनत से करो, वह व्यर्थ जाना है, क्योंकि तुम बिलकुल अड़े हुए हो कि केंद्र पर तो तुम ही रहोगे। तुम कपड़े बदलने को तैयार हो, स्वयं को बदलने को तैयार नहीं हो; तुम दुनिया बदलने को तैयार हो, स्वयं को बदलने को तैयार नहीं हो। तुम सब कुछ बदल देने को तैयार हो, हर कर्म कर देने को तैयार हो, पर केंद्र को, यानि कि उस केंद्र पर जो ‘तुम’ बैठे हुए हो, उसको तुम बदलने को तैयार नहीं हो। यही बात शंकराचार्य यहाँ समझा रहे हैं।

वे कह रहे हैं कि केंद्र को तो ज्ञान ही बदल सकता है। उसे मैं ‘बोध’ कहता हूँ। अहम् को तो बोध ही काट सकता है; अहम् को कर्म नहीं काट पाएगा। कुछ कर-करके तुम स्वयं को नहीं बदल पाओगे। जब साफ़ दिखाई देगा कि तुम्हारा होना ही भ्रम है, तुम्हारा होना ही भूल है, तो अपने-आप मिट जाओगे, और कोई तरीक़ा नहीं है। जब कुछ कर रहे होते हो, तब तो तुम्हारी नज़र बाहर हो जाती है न? जब कुछ कर रहे हो तो तुम्हारी नज़र काम पर बैठ जाएगी, तुम व्यस्त हो गए—किसके साथ? काम के साथ। कर्ता को तो भूल ही जाओगे, पीछे छूट गया और मुस्कुराएगा वह पीछे खड़ा होकर। वह कहेगा, “देखो!”

तुम किस चीज़ के साथ व्यस्त हो गए? काम के साथ। और करने वाला? वह पीछे मज़े कर रहा है। पीछे वाला तो तभी बदलेगा जब मुड़ करके उस पर नज़र डालो।

बोध ही वास्तविक परिवर्तन लाता है।

जल्दी से अपने-आपको प्रमाणित मत कर दिया करो कि “देखो, इतना कुछ तो किया न मैंने।” इस वाक्य की संरचना को ही ग़ौर से देखो, क्योंकि यह वाक्य हम सबको बहुत प्यारा है। हम सब अक्सर इसी वाक्य का सहारा लेते हैं, इसी का हवाला देते हैं, “इतना कुछ तो किया मैंने।” तो जब तुम कहते हो कि इतना कुछ तो किया मैंने, तो उसमें तुम्हारा पूरा ज़ोर किन शब्दों पर रहता है? "इतना कुछ तो किया," और कौन-से शब्द को बिलकुल छुपा जाते हो, पचा जाते हो? 'मैंने'।

हाँ, किया तो बहुत कुछ, पर किसने किया?

श्रोतागण: ‘मैंने’।

आचार्य: उसकी तो बात ही नहीं करना चाहते।

तो जब तक तुमने किया, तब तक तुमने जितना कुछ किया, वह व्यर्थ जाएगा। यही तुम्हारी सज़ा है। ठीक है करा, बहुत कुछ करा, माँ-बाप अक्सर अपने बच्चों से कहते हैं न कि “हमने तुम्हारे लिए इतना कुछ किया।” हाँ, बिलकुल इतना कुछ किया, पर आपने जो करा, वह अहम् के केंद्र से ही करा। बोध कहाँ था उसमें? और बोध नहीं था, केंद्र अहम् का था, तो उसकी अब आपको सज़ा मिल रही है कि सब कुछ करके भी आपको आनंद नहीं है।

पूरे वाक्य पर वो एक पुछल्ला शब्द भारी पड़ रहा है। “इतना कुछ किया मैंने,” पूरे वाक्य पर वह एक छोटा-सा शब्द भारी पड़ रहा है, कौन-सा शब्द? ‘मैंने’। सब कुछ कर डाला, पूरी दुनिया बदल डाली, पर किसने?

श्रोता: ‘मैंने’।

आचार्य: दुनिया बदल गई, मैं तो नहीं बदला। और दुनिया पूरी मैंने बदली ही इसलिए क्योंकि मेरी घोर ज़िद थी कि मुझे नहीं बदलना है। यही समझा रहे हैं शंकराचार्य।

दुनिया बदलने से क्या होगा, तुम तो बदले ही नहीं। तो तुम्हारी हालत वैसी ही रहेगी जैसे पहले थी, बल्कि और ख़राब हो जाएगी, क्योंकि अब तुम्हारे पास बड़ा गुरूर रहेगा कि “मैंने दुनिया बदल दी!” और जितना गुरुर रहेगा, उतनी ही निराशा रहेगी। तुम कहोगे, “दुनिया भी बदल दी, तब भी भीतर की अशांति और दु:ख वैसे का वैसा है।”

कर्म से तुम्हारे भीतर का अंधेरा दूर नहीं होगा, तुम्हारे भीतर का अंधेरा तभी दूर होगा जब यह बोध उदित होगा कि तुम कितने अनावश्यक हो, तुम कितने भ्रमित हो, तुम कितने दरिद्र हो—तुम्हारी ज़रूरत क्या है!

बहुत कुछ करने से पहले यह देख लो कि करने वाला कौन है, काम आ कहाँ से रहा है।

कितना कुछ कर रहा है देखो वह आदमी उस जानवर के लिए, कितना कुछ कर रहा है! खुद आधे पेट रहकर उसको खिलाता है। उसको रोज़ साफ़ भी करता है। खुद उसे ठंड लग रही हो भले ही, पर उस पशु को ओढ़ाकर रखता है, पहना-लिपटाकर रखता है। कितना कुछ कर रहा है, कितना सारा कर्म कर रहा है! बहुत कुछ करा, बहुत कुछ करा।

यह देख लेना कि करने वाला कसाई तो नहीं। कर्म पर मत चले जाना, कर्म के पीछे कर्ता कौन है, यह देख लेना। कसाई भी बहुत कुछ करता है। एक-एक किलो की परवाह करता है वह। जैसे माँ अपने बच्चे को तुलवाती है हर महीने, वज़न बढ़ रहा न ठीक से कि नहीं, कसाई भी वैसे ही तुलवाता है वज़न बढ़ रहा है न ठीक से। पशु का वज़न बढ़ने पर अगर तुम किसी को बहुत ख़ुश होते देखना, तो एक बार जाँच लेना, कसाई भी हो सकता है।

बहुत कुछ कोई कर रहा है—कौन कर रहा है? यही कहना चाह रहे हैं शंकराचार्य।

प्र२: अपने-आपको देखना है और सामने वाले को भी देखना है?

आचार्य: हाँ, बिलकुल, क्योंकि वृत्तियों के तल पर तो हम सब एक ही हैं। संसार को भी ग़ौर से देखो तो अपना चेहरा दिख जाएगा। और कई दफ़े ऐसा होता है कि अपने-आपको निरपेक्ष होकर देख पाना थोड़ा मुश्किल होता है, मोह इत्यादि के कारण, तब दूसरों को देखना ज़्यादा काम का होता है। आदमी अपनी खोट ईमानदारी से देख पाए, थोड़ा मुश्किल होता है, दूसरों को ही देख लो। दूसरे जो ग़लतियाँ कर रहे हैं, वही ग़लतियाँ तुम भी कर रहे होगे।

प्र३: आचार्य जी, ‘इतना कुछ तो किया मैंने’, तो यह जो 'मैंने' आता है आख़िरी में, यह उस छवि के द्वारा आता है जिस छवि की पहले सवाल में बात हुई थी?

आचार्य: तुम हो, ये तुम हो। तुम वही जो अपने-आपको मानो ‘तुम’। उपनिषद् बार-बार समझाते हैं अपने-आपको बद्ध मानोगे तो बद्ध हो तुम, अपने-आपको मुक्त मानोगे तो मुक्त हो तुम। अहम् और क्या है, एक ग़लत धारणा का नाम है अहम्। अहम् का मतलब है अपने विषय में धारणा रख लेना कि मैं यह हूँ, कि वह हूँ, छोटा हूँ, बड़ा हूँ, क हूँ, ग हूँ। वह तुम हो जहाँ से तुम्हारे सारे कर्म आ रहे हैं।

प्र३: किसी भी प्रकार की छवि से मुक्त होना भी छवि बनाना है?

आचार्य: सब हो जाए, यह देख लो कि जो कह रहा है कि “मुझे छवि नहीं चाहिए,” वह है कौन। चोर अगर कह रहा है कि पाँच सौ के नोट नहीं चाहिए, तो इसका मतलब यह नहीं कि उसे पैसे से विरक्ति हो गई है, इसका मतलब यह है कि उसे दो हज़ार के चाहिए।

तो तुम जब बोलते हो कि “नहीं, छवि नहीं चाहिए, छवि नहीं चाहिए,” तो उसका मतलब यह नहीं होता कि तुम्हें छवियों से विरक्ति हो गई है, इसका मतलब यह होता है कि तुम्हें ज़रा और मज़ेदार छवि चाहिए। पाँच सौ के नोट नहीं चाहिए, यह बात ही कितनी सुंदर है! पर यह तो तुमने कभी ग़ौर ही नहीं किया कि कह कौन रहा है—वह चोर है।

वैसे जब तुम कहते हो न कि "न, यह सब मुक्ति इत्यादि तो छवियाँ हैं, छवि हटाओ," तो तुम्हारी मंशा यह होती ही नहीं है कि सब छवियाँ हट जाएँ, तुम्हारी मंशा यह होती है कि अब पुरानी छवियाँ हटें और नई छवियाँ आ जाएँ। नई छवियाँ इसलिए नहीं आ जातीं कि नई छवियों का आना ज़रूरी है, इसलिए आ जाती हैं क्योंकि यह तुम्हारी माँग है। यह तुम हो जो अनिवार्य कर रहे हो कि पुरानी हटेंगी ही तभी जब ज़्यादा कुछ अनुकूल, ज़्यादा कुछ सुखदायी कोई नई छवि मिल जाए।

देखा नहीं है तुमने कि कामनाग्रस्त लोग अक्सर अपनी कामना के विषय को ठुकराते रहते हैं। क्यों? वे कहते हैं, “और चाहिए।” यह उनका तरीक़ा है और माँगने का। पकवान चाहिए थे, महाशय घर आए, जिस तरह के पकवान चाहिए थे, वैसे नहीं थे, दूसरे थे, उन्होंने थाली उठाकर फेंक दी। इसका मतलब यह थोड़े ही है कि वे उपवास पर हैं, इसका मतलब थोड़े ही है कि इन्होंने निर्जल व्रत उठाया है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि स्वाद की इतनी लोलुपता है कि जैसा खाना मिला है, उससे ज़्यादा चटपटा, ज़्यादा मसालेदार, ज़्यादा सुस्वादु भोजन चाहिए था। तो जो थाली मिली है, उसको उठाकर फेंक दिया। वैसे ही तुम छवियाँ उठाकर फेंकते हो, क्योंकि तुम्हें थोड़ी और सुंदर, सपनीली, सजीली छवि चाहिए।

अक्सर जब किसी को कुछ ठुकराते देखना, तो तुरंत जान जाना कि इसकी इच्छाएँ बहुत बड़ी हैं। यह छोटा-मोटा कामी नहीं है, यह घोर वासनाग्रस्त जीव है। आम आदमी का तो छोटी वासना से ही पेट भर जाता है, इसको बहुत बड़ी वाली है, तो छोटी-मोटी चीजें सब ठुकराए दे रहा है। “लंबा हाथ मारना है हमको। यह दोवन्नी-चवन्नी तो हमको दिखाओ ही मत। आज तो नोट बरसने चाहिए।”

(एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) सब समझता है लड़का, बिलकुल अनुभव की बात कर रहा हूँ, है न? यह तो पुरानी तरकीब होती है नोट निकलवाने की, छोटी-मोटी चीज़ों को ठुकराते जाओ।

इसीलिए तो शंकराचार्य कह रहे हैं, “कर्म को मत देखना, कर्ता को देखना।” कर्म को देखोगे, धोखा खा जाओगे।

थाली परोसी गई दो लोगों को, एक ने झपटकर खा लिया, दूसरे ने जो सामने रखा था उसको ठुकरा दिया। अगर सिर्फ़ कर्म को देखोगे तो कहोगे कि जिसने झपटकर खा लिया, वह पेटू है और जिसने ठुकरा दिया, वह बड़ा संयमी, सन्यासी है, लेकिन बात उल्टी है। जो कुछ सामने आया, उसको जो खा गया, वह तो सहज संतोषी है और जिसने सामने आई चीज़ को ठुकरा दिया, वह ज़रूर घोर कामी है। पर सिर्फ़ कर्म को देखोगे तो लगेगा, नहीं, यह जो लपककर खा गया, इसी में कामना दोष है। उसमें नहीं है, वह तो सहज जीव है।

प्र४: यह निरीक्षण कैसे स्पष्ट होगा, हम कैसे भेद करेंगे दोनों को?

आचार्य: नीयत होनी चाहिए साफ़ देखने की, दिख जाएगा। हर चीज़ के लिए अगर प्रक्रिया दे दी तो फिर तो हर चीज़ मशीन द्वारा ही हो जाए, क्योंकि जो कुछ भी प्रक्रियाबद्ध है, उसे कोई यंत्र भी कर सकता है। तो बात-बात में यह नहीं पूछा करो कि कैसे होगा, कुछ बातें स्वत: घटती हैं, कुछ बातें स्वभावगत होती हैं। उनमें कुछ आगा-पीछा, प्रक्रिया नहीं होती। वह बस हो जाती हैं, नीयत होनी चाहिए। नीयत होगी तो हो जाएगा।

यह ऐसी ही सी बात है कि तुम ढूँढ़ रहे हो मुझे, ढूँढ़ रहे हो मुझे और मैं तुम्हारे सामने खड़ा होकर कहूँ कि “मैं यहाँ हूँ,” और तुम कहो कि “अब आपको देखें कैसे?” इतना तो कोई प्रक्रिया कर सकती है कि वह मुझे तुम्हारे सामने लाकर खड़ी कर दे, यह काम प्रक्रिया कर सकती है, पर तुम्हारे सामने आ करके खड़ा भी हो जाऊँ, फिर तुम कहो कि “अब आपको देखे कैसे?” तो अब यह नीयत की खोट है। यहाँ पर प्रक्रिया रुक जाती है, यहाँ तो अब काम सहजता से ही होगा। उसी को मैं नीयत कह रहा हूँ।

प्र५: क्या ज्ञान प्राप्ति के लिए कर्म अनिवार्य है? कर्म के अलावा ज्ञान प्राप्ति के कौन-कौन-से साधन हैं और ज्ञान की प्राप्ति के मार्ग में बाधा क्या है?

आचार्य प्रशांत: ज्ञान की प्राप्ति का सबसे बड़ा साधन तुम्हारी मुमुक्षा है। साधन तुमने कहा न, स्वयं आदि शंकराचार्य साधन चतुष्टय बता गए हैं। उसमें न जाने कितने गुणों का उन्होंने वर्णन करा है जो साधक में होने चाहिए। अगर साधक को परम पद चाहिए, अगर साधक को परम ज्ञान चाहिए, तो उसमें बहुत गुण होने चाहिए – विवेक, वैराग्य, शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति, तितिक्षा और सबसे ऊपर मुमुक्षा।

तो ज्ञान की प्राप्ति का सबसे बड़ा साधन है तुम्हारी मुमुक्षा। मुमुक्षा माने मुक्ति की इच्छा, इसी को मैं कह रहा हूँ नीयत, इरादा, लक्ष्य, ध्येय। ध्येय तो बनाओ, वही है ज्ञान की प्राप्ति का साधन। और समझना, मैं मुक्ति का सम्बंध ज्ञान से नहीं जोड़ता, बोध से जोड़ता हूँ। उसका कारण है। ‘ज्ञान’ शब्द जिस अर्थ में आदि शंकर प्रयोग करते हैं, वह अर्थ आज की भाषा में नहीं है। उस समय में ज्ञान शब्द को इतना सम्मान दिया जाता था कि मात्र आध्यात्मिक ज्ञान को ही ज्ञान कहा जाता था। आज तो तुमने ज्ञान को बहुत सस्ता शब्द बना दिया न।

तो तुम कहते हो, “अरे, मुझे ज़रा शेयर मार्केट का ज्ञान चाहिए था,” पचास तरीक़े का। तो इसलिए मैं बोध कहता हूँ। ज्ञान तो वस्तु है, कमोडिटी है, ज्ञान तो सूचना के बहुत क़रीब की बात है। जिसको तुम यहाँ पर ज्ञान या परम ज्ञान कह रहे हो, वह वास्तव में नॉलेज नहीं है, वह बोध है, वह रियलाइजेशन है।

बोध कोई वस्तु नहीं है, बोध पदार्थ नहीं है। बोध का कोई विषय नहीं होता, ज्ञान तो वस्तु है। ज्ञान का हमेशा विषय होता है। तुम किसी से कहो कि तुम्हें ज्ञान है, तो वह तत्काल पूछेगा, “किस बारे में ज्ञान है? किस विषय का ज्ञान है? किस चीज़ का ज्ञान है?” क्योंकि ज्ञान का सदा एक विषय होता है। बोध का कोई विषय नहीं होता है। बोध का मतलब होता है कि व्यर्थ के ज्ञान से मुक्ति मिली। बोध माने छुटकारा।

ज्ञान ऐसा है कि तुम किसी को बताओ कि मैं बँधा हुआ हूँ, तो वह पूछेगा, “किस चीज़ से बँधे हो?” बंधन का सदा एक विषय होगा। अगर तुम बँधे हो, तो किसी वस्तु से बँधे होगे, तो बंधन का हमेशा एक विषय होगा। पर अगर तुम कहो कि तुम मुक्त हो, तो कोई मूर्ख ही होगा जो पूछेगा कि “किस चीज़ से मुक्त हो?” मुक्त माने मुक्त, मात्र मुक्ति।

“किस चीज़ से मुक्ति?”

“अरे, अब चीज़ की क्या बात है? हर चीज़ से मुक्ति, मुक्ति से भी मुक्ति, मात्र मुक्ति।”

तो जैसे बंधन का विषय होता है, मुक्ति का विषय नहीं होता, वैसे ही ज्ञान का विषय होता है, बोध का विषय नहीं होता। इसीलिए मैं ज्ञान की अपेक्षा ‘बोध’ शब्द का प्रयोग करता हूँ।

बोध की प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा क्या है?

सबसे बड़ी बाधा है तुम्हारी ज़िद, सुख की तुम्हारी कामना, जो कुछ जैसा चल रहा है, उसी के साथ समायोजित हो जाने की तुम्हारी वृत्ति। बोध माने तो मुक्ति होता है। तुम पूछ रहे हो, “मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा क्या है?” मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है यह है कि मुक्त होने की तुम्हारी इच्छा ही नहीं है, और क्या बाधा है? तुम स्वयं ही बाधा हो। मुक्ति के मार्ग में क्या बाधा है? बंधन ही बाधा है। जो बद्ध है, वही बाधा है, क्योंकि वह जब चाहे मुक्ति का चुनाव कर सकता है, कर नहीं रहा है तो क्या बाधा है? बंधन ही बाधा है। और बंधन कौन? जो बद्ध है, वही बंधन है। तो तुम ही बाधा हो।

जिसे मुक्ति चाहिए, वह स्वयं ही बाधा है मुक्ति के मार्ग में, उसे ही हटना होगा। लेकिन हमारी माँग विचित्र होती है, हम कहते हैं कि बंधन को मुक्ति चाहिए। हम यह नहीं कहते कि बंधनों से मुक्ति चाहिए, हम कहते हैं कि बंधनों को मुक्ति चाहिए। माने हम चाहते हैं कि बंधन बने रहें और मुक्ति भी मिल जाए।

हम यह नहीं कहते कि बंधनों से मुक्ति चाहिए, हम कहते हैं कि बंधनों को मुक्ति चाहिए। माने बंधन तो बंधन हैं, उन्हें साथ में मुक्ति भी मिल गई। तो अब वो बड़े अलंकृत बंधन हो गए हैं। लोहे की बेड़ियाँ सोने की हो गई हैं, और सोने की ही नहीं हो गई हैं, उन पर खुदवा दिया गया है ‘मुक्ति’। बेड़ियाँ लेकिन पहने रहेंगे, बस उन पर सोने का पानी चढ़ा दो और उन पर अंकित करा दो 'मुक्ति', तो हम कहेंगे कि देखो, मुक्ति मिल गई। यही बाधा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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