कामवासना: अध्यात्म बनाम मनोविज्ञान || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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कामवासना: अध्यात्म बनाम मनोविज्ञान || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्न: योग वाशिष्ठ में स्त्री भोग एवं संगत को 'सर्पिणी' की संज्ञा दी गई है। परंतु फ्राइड ने कहा है कि लैंगिक इच्छाओं के दमन से मानसिक विकृतियाँ पैदा होती हैं। अध्यात्म और मनोविज्ञान में ये विरोधाभास कैसा?

आचार्य प्रशांत: अध्यात्म तुमको बता रहा है कि - "जिसको तुम रस्सी समझ रहे हो, या सोने का हार समझ रहे हो, वो वास्तव में एक साँप है।" फ्रायड कह रहे हैं कि - "बार-बार साँप को अनुमति दे दोगे कि वो अपने बिल में ही छुपा रहे, तो ये बात तुम्हारे लिए घातक होगी।" इसमें विरोधाभास कहाँ दिख रहा है?

तुम्हारे घर में ज़हरीले साँप का बिल है। अध्यात्म तुमको वो दृष्टि दे रहा है, जिससे तुम साँप को 'साँप' की तरह देख पाओ। साँप कोई छुपा हुआ नहीं है - वो सामने है, पर दिखाई नहीं दे रहा।

माया इसी का नाम है ना? वस्तु तो सामने है, पर तुम उसको समझ कुछ और रहे हो। वो साँप है सामने ही, पर हम उसको माने क्या बैठे हैं? रस्सी मान बैठे हैं।

रस्सी ही मान लिया होता, तो कोई बात नहीं थी। एक साधारण-सा रस्सी का टुकड़ा है, तुमको दिख भी जाता है, तो छोड़ देते हो जहाँ पड़ा है।दिक़्क़त तब होती है जब विषैले साँप को मान लिया सोने का हार। अब क्या करोगे? उसको उठाकर के गले में डालोगे। अध्यात्म वो नज़र देता है जो माया को 'माया' जान सके, ताकि साँप को उठाकर के नेकलेस (गले का हार) ना बना लो। अध्यात्म ने बता दिया कि ये मत कर देना, और ये बहुत बड़ी बात है। बड़ी बात इसलिए है, क्योंकि साँप छुपा हुआ नहीं था—आपके सामने ही था।

दिक़्क़त वस्तु के ना दिखने में नहीं थी, दिक़्क़त थी देखने वाले के आंतरिक भ्रम में। वस्तु ही ना दिख रही हो, तो बड़ा झंझट नहीं है; किसी तरह से देख लोगे, और दिख गई तो बच जाओगे। लेकिन जब चीज़ दिखकर भी ना दिखती हो, तब समझ लो बुरे फँसे।

जब साँप दिखकर भी ना दिखता हो, तो बुरे फँसे ना? अब मारे जाओगे। गले में लटकाओगे, उसको मौका दोगे कि सीधे वो कान के पीछे डसे। कितना आकर्षक लग रहा है ना सुनने में - नाग या वायपर सीधे यहॉं डस रहा है, कान के पीछे?

(हँसी)

हँस क्या रहे हो? हम ऐसी ही ज़िंदगी जीते हैं।

जिन-जिन मुसीबतों ने हमारे जीवन को डस रखा है, उन्होंने क्या हमें दूर से डस रखा है? जो कुछ तुमसे दूर हो, वो तुम्हें डस भी सकता है क्या? हमारे जीवन का जितना ज़हर है, क्या वो हमें उन्हीं सब जगहों से नहीं मिल रहा जिनको हमने गले लगा रखा है? जो निकट का है, क्या वही हमारा शत्रु नहीं है? उसको निकट लाया कौन? हम ख़ुद लेकर के आए ना?

अध्यात्म तुम्हें बताता है कि कौन है जो निकट लाने योग्य है, और कौन नहीं है।

ये बात सुनने में साधारण लगती है, है नहीं, क्योंकि थोड़ी-सी विनम्रता के साथ कृपा करके ये मानें कि हम हमें शऊर नहीं है संगति चुनने का, हममें विवेक नहीं है सत्य और असत्य को अलग-अलग देख पाने का। जो चीज़ करीब लाने लायक नहीं होती, उसको हम जीवन के बिल्कुल केंद्र पर बैठा देते हैं; और जो चीज वास्तव में मूल्यवान होती है, उसके प्रति हम शंका और दुराग्रह से ही भरे रह जाते हैं।

माया वैसी बिल्कुल नहीं होती, जैसी आप उसे समझते हैं। 

मैं आपसे कहूँ कि ज़रा माया का एक चित्र बनाइए यहाँ पर, तो आप कैसा चित्र बनाएँगे? आप विशिष्ट चित्र बनाएँगे। आप ऐसे चित्र बनाएँगे जिनमें कुछ ख़ास हो, है ना? क्योंकि मैंने कहा है कि - "चित्रित करो माया को।" अब माया है इंटरनेशनल गैंगस्टर, ग्लोबल माफ़िआ, तो वो तो ख़ास ही होनी चाहिए ना? तो आप जिस भी तरह से माया को चिन्हित करेंगे, चित्रित करेंगे, उसमें कुछ ख़ास ज़रूर होगा। कोई उसे किसी आकर्षक नारी की तरह दिखाएगा - अद्वितीय सुंदरी। कोई उसको एक पाँच फन वाली नागिन की तरह दिखाएगा। कोई कहेगा, "ये अजीब बात है। माया को हमेशा स्त्री रूप में ही क्यों दिखाते हैं?" तो कोई उसे किसी ज़बरदस्त राक्षस जैसा दिखाएगा। कोई कुछ दिखाएगा, कोई कुछ दिखाएगा; वो आपकी अपनी विचारधारा पर है, आपकी अपनी रचनात्मकता पर है। पर आप जो भी चित्र बनाएँगे, वो सब चित्र कैसे होंगे? ख़ास। माया है, तो कुछ अलग होनी चाहिए ना?

अब समझिए बात को।

माया अलग नहीं होती; यहीं पर तो ख़तरा है। माया अति साधारण होती है, इसीलिए फँस जाते हो।

माया अलग होती, तो बच जाते। माया अनूठी दिखती - अनूठे रूप से सुंदर होती, या अनोखे रूप से कुरूप होती - तो बच जाते। माया बहुत मीठी होती, या बहुत कड़वी होती, तो भी बच जाते। माया बहुत गर्म होती या बहुत ठंडी होती, तो भी बच जाते। क्यों? उसकी पहचान हो जाती ना। "अच्छा, चीज़ बहुत गर्म है? माया है! माया है! बहुत ठंडी है? माया है! माया है!" माया बहुत सुख देती होती, तो भी बच जाते; पकड़ लेते कि बहुत सुख दे रही है। माया बहुत दुख दे रही होती, तो भी बच जाते; पकड़ लेते। कुछ तुम्हें चिह्न या निशानी मिल जाती माया को पकड़ने की।

माया एक औसत ज़िंदगी का नाम है, कैसे पकड़ोगे? द एवरेज लाइफ (एक औसत ज़िंदगी) —वो माया है। माया वो चेहरा है जिसमें कुछ ख़ास नहीं; तुम उसे याद ही नहीं रख सकते, इतना साधारण चेहरा है माया का। माया जीवन के उन दिनों, उन घंटों, उनको हफ़्तों, उन पलों का नाम है, जिनमें कुछ ख़ास  हुआ ही नहीं।

जिसको तुम कहते हो ना, "हाँ, जीवन बिल्कुल सामान्य चल रहा है, ठीक-ठाक चल रहा है" -  ये माया है। यहाँ पर मार खा रहे हो, यहाँ ज़िन्दगी गँवा रहे हो। जब कुछ ख़ास होता है, तब तो जग जाते हो, सचेत हो जाते हो। तुम मार वहाँ खा रहे हो, जहाँ सब ठीक-ठाक चल रहा है, औसत चल रहा है—एवरेज, सामान्य—वहाँ  माया है। जिसको तुम 'सामान्य' कहते हो, वहीं पर साँप बैठा है। सामान्य ही साँप है, जिसकी बात योग वाशिष्ठ में की जा रही है। सामान्य से बचना: द नॉर्मल इज़ नेफेरियस (सामान्य नापाक है)।

इसलिए बहुत महत्व है योग वाशिष्ठ में की गई इस बात का।

अध्यात्म तुम्हें बता देता है, वो आँख दे देता है, जिसमें तुम छुपी माया को पहचान लो। हर जगह है वो। चूंकि वो औसत है, सामान्य है, साधारण है, इसलिए हमारी नज़र उसपर टिकती ही नहीं।

हम कहते हैं, "ठीक है। ये भी ठीक है, वो भी ठीक है; ऐसा ही तो होता है।" क्योंकि वो हर तरफ़ है, यत्र-तत्र-सर्वत्र है, इसीलिए हमें उसकी आदत लग गई है। जिसकी आदत लग जाएगी, वो कभी असामान्य लगेगा? जो असामान्य नहीं लगेगा, तुम उसके विरुद्ध चेतोगे क्यों? जिसकी आपको आदत लग गई है, उसी का नाम 'माया' है। आपके औसत जीवन का ही नाम माया है। अध्यात्म आपको कोंच-कोंच कर कहता है, "सवाल उठाओ, सवाल उठाओ, सवाल उठाओ। ये ठीक नहीं है, ये ठीक नहीं है।"

फ्रायड ने उसमें एक बात जोड़ दी है छोटी-सी; जोड़ी भी नहीं है, सामान्य बुद्धि की है। फ्रायड ने कहा कि - "जब दिख जाए कि साँप है, तो उसका दमन भर मत करो। उसको बाहर ही भेज दो।" दमन करने का मतलब है कि साँप दिख भी गया, तो उसको बार-बार क्या कह रहे हैं? "जाओ-जाओ, अपने रूम में जाओ, क्यूट स्नेकी (या स्नेकू; कुछ भी हो सकता है: कोब्रू, वायप्रू, करेतू)।" फ्रायड कह रहे हैं कि - "ये मत कर देना।" 

दमन का यही मतलब होता है। 

जो चीज़ अपने बिल से निकल रही है - बिल माने तुम्हारा अवचेतन, जो तुम्हारा सबकॉन्शियस है - जो चीज़ अपने बिल से बाहर निकल रही है, मुँह दिखा रही है, उसको तुमने क्या करा? उसको वापस दबाकर के अपने बिल में भेज दिया। फ्राइड कह रहे हैं कि - "बिल में क्यों भेज रहे हो? जब बाहर निकल रही है, तो उसको रवाना ही कर दो ना। उसको बोलो, 'खाली करो। मेरा घर है, तुम यहाँ क्यों घुसे हुए हो? साफ़ रहने दो'।" 

वास्तव में अगर आप योग वाशिष्ठ को समझ गए हैं, तो आप फिर आपको फ्रायड की ज़रूरत भी नहीं है, क्योंकि बात बड़ी सीधी-सरल है। जान गए हो अगर वास्तव में साँप को 'साँप', तो तुम उसे फिर क्यों रहने दोगे उसके बिल में? वो भी तब जब उसका बिल हो तुम्हारे दिल में? साँप की संज्ञा इसीलिए दी गई है माया को यहाँ पर। साँप रहता है बिल में, और माया रहती है तुम्हारे दिल में। बार-बार कहते हो ना कि - "मेरा दिल धड़कता है"—जिस भी चीज़ के लिए रुपया-पैसा, ये-वो —वही सब है माया। कोई यहाँ पर विरोधाभास नहीं है, जैसा कि प्रश्न में लिख दिया है। किसी तरह का कोई भेद, कोई विरोधाभास नहीं है। 

दमन सिर्फ़ एक तात्कालिक उपचार है; उस समय काम आ जाता है, इतनी ही उसकी उपयोगिता है। लेकिन अगर तुम सिर्फ़ दमन के सहारे जी रहे हो, तो किसी-न-किसी समय पर विस्फोट होगा। कितना दमन कर लोगे?

दमन की उपयोगिता निश्चित रूप से है, परंतु दमन की उपयोगिता बस इतनी है कि जिस वक़्त तुम फिसलने जा रहे हो, उस वक़्त बच जाओ। लेकिन अगर तुमने अपनी फिसलने की वृत्ति का मूल उपचार नहीं किया, तो कितनी बार तुम अपने आप को फिसलते-फिसलते बचा लोगे?

दो बार बचाओगे, चार बार बचाओगे। बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी? कभी -न-कभी तो कटेगा। तो दमन की उपयोगिता है, लेकिन उस उपयोगिता की बड़ी सीमा है।

दमन भरोसे जीवन नहीं काट सकते; पूरा उपचार करना होगा। *

उसी पूरे उपचार का नाम 'अध्यात्म' है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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