आचार्य प्रशांत: ज़िंदगी में पहले कुछ बन जाओ, कोई आंतरिक मुकाम हाँसिल कर लो, फिर तुम्हें समझ में आएगा न रिश्ता किससे बनाना है। अब रिश्ता बना लिए हैं छब्बीस की उम्र में ही। तुम्हारा लक्ष्य हो सकता है ज़िंदगी में ऊँचे उठना; जिससे तुमने रिश्ता बना लिया है उसे ना उठने से कोई मतलब है, ना बढ़ने से कोई मतलब है, उसे बस फैलने से मतलब है। तुम ऊपर उठना चाहते हो, वो फैलना चाहता है। अब तुम ऊपर उठ रहे हो, तुम्हें काहे को उठने देगा? और वो फैल चुका है, तुमसे ज़्यादा वज़नी है। ऐसे पकड़ेगा और खींच लेगा नीचे और फिर रो रहे हो अब।
रो सिर्फ इसलिए रहे हो क्योंकि वो छब्बीस-अठ्ठाईस में तुम्हें इतनी ज़ोर की कामवासना की खुजली उठी थी कि तुमसे रहा नहीं गया। फेरे ले आए। तुम्हें समझ में ही नहीं आता कि तुम ये सब जो गतिविधियाँ कर रहे हो, वो ना व्यक्तिगत हैं, ना सामाजिक हैं, वो वास्तव में प्राकृतिक हैं, जैविक हैं, शारीरिक हैं। ये सब तुमसे तुम्हारा शरीर करवा रहा है, समाज का तो नाम है।
प्रकृति के इरादे तुम समझते नहीं, अपनी चेतना की बेचैनी तुम समझते नहीं, आत्मज्ञान तुमको है नहीं, आत्म जिज्ञासा तुमने कभी करी नहीं, शास्त्रों के पास तुम कभी गए नहीं, शिक्षा तुमको कभी मिली नहीं स्वयं को जानने की, नतीजा — ग़लत रिश्ते, ग़लत वर्तमान, ग़लत भविष्य, और चौपट जीवन। तुम्हें कुछ बात समझ में आ रही है?
जिन्हें जीवन में ऊपर उठना हो, जिनके जीवन का ग्राफ कर्व यूँ जाना हो (नीचे से ऊपर की ओर इशारा करते हुए) उन्हें जल्दी रिश्ता बनाना चाहिए या ठहर कर? देर में? तो पगलू अभी जब तुम यूँ ही व्यर्थ घूम रहे हो, तो तुम क्यों रिश्तेबाज़ी में लग जाते हो? और उस रिश्तेबाज़ी की वजह सिर्फ एक है। मैं क्यों पूछ रहा हूँ, उसका उत्तर वही है जो तुमने सवाल में लिखा है — कामवासना।
तुम और सौ बातें बोल दो — नहीं, कामवासना नहीं थी, हम अकेला अनुभव करते थे। अकेला अनुभव करते थे तो कोई दोस्त बना लेते, जा कर बैडमिंटन खेलने लगते, क्रिकेट की टीम में घुस जाते, अकेलापन नहीं रहता, ग्यारह होते या अकेलापन सिर्फ विपरीत लिंगी के साथ ही मिटता है? कौन-सा अकेलापन है? ये बात अकेलेपन की नहीं है इसमें तो मामला दूसरा है।
तुम सोचते हो कामवासना तुम्हें सुख देती है। तुम्हें समझ में नहीं आता? वो तुम्हें सुख देने नहीं आई है। वो तुम्हें ज़िंदगी भर के लिए बंधक बनाने, बर्बाद करने आई है और ये मैं लड़के-लड़कियों दोनों से बोल रहा हूँ भाई! कोई ये ना सोचे मैं एक पक्ष की तरफ से बोल रहा हूँ।
तुम्हें लगता है, "वाह मज़ा आ गया! लाइन दे दी उसने।" अरे, तुझे लाइन नहीं दे दी है, सेंटेंस लिख दिया है — मृत्युदंड! जब किसी को मृत्यु दंड दिया जाता है, जानते हो क्या लिखता है जज (न्यायाधीश)? ' टू बी हैंगड टिल डेथ '। अब ये लटकेगा जब तक मरेगा नहीं। हर कामुक आदमी की यही दशा है — वो लटका ही हुआ है, जब तक मरेगा नहीं। तुम्हें लगता है, "वाह मज़ा आ गया! मैंने आँख मारी, उधर से भी आँख आ गई मर के।" ये जो मरी हुई आँख है, ये न जाने क्या-क्या मारेगी तुम्हारा अब। लगे हुए हैं, लगे हुए हैं, इन्हीं बेवकूफियों में।
अरे बाबा! मुझे ना लड़की से कोई समस्या है, ना लड़के से कोई समस्या है, मुझे ज़िंदगी के बर्बाद जाने से समस्या है। इंसान हो तुम, सूअर, गधे, कुत्ते, कोई जानवर थोड़े ही हो कि कैसी भी ज़िंदगी बिता लो चलेगा। तुम्हारा अधिकार है एक ऊँचे जीवन पर और तुम अपने उस अधिकार से ख़ुद को ही वंचित किए दे रहे हो। मैं इसलिए तुमको कह रहा हूँ। मैं कोई नैतिकतावादी नहीं हूँ कि मुझे काम से, सेक्स से, या प्रकृति से यूँ ही कोई नफ़रत है। जाओ जितना सेक्स करना है करो! मेरी बला से! बात ये है कि इन चक्करों में तुमने ज़िंदगी ख़राब कर लेनी है क्योंकि तुम समझते ही नहीं वो चक्कर तुम्हारी ज़िंदगी में आ कहाँ से रहे हैं।
प्रकृति को समझना आसान नहीं है। वास्तव में पूरा आध्यात्मिक साहित्य, आत्मा को नहीं समझता, अनात्मा अर्थात प्रकृति को ही समझता है। प्रकृति का ही पूरा अन्वेषण, खोजबीन होती है। खुद को समझना माने प्रकृति को समझना। इसलिए अध्यात्म जवानों के लिए ज़रूरी है
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