जीवन‌ ‌के‌ ‌सबसे‌ ‌महत्वपूर्ण‌ ‌समय‌ ‌में‌ ‌ही‌ ‌कामवासना‌ ‌क्यों‌ ‌प्रबल‌ ‌होती‌ ‌है?‌

Acharya Prashant

12 min
844 reads
जीवन‌ ‌के‌ ‌सबसे‌ ‌महत्वपूर्ण‌ ‌समय‌ ‌में‌ ‌ही‌ ‌कामवासना‌ ‌क्यों‌ ‌प्रबल‌ ‌होती‌ ‌है?‌

प्रश्नकर्ता: जो जीवन का सबसे कीमती समय होता है, जब हमें ज़िन्दगी बनानी होती है और ज़िन्दगी के बड़े-बड़े निर्णय करने होते हैं, ठीक उसी अवधि से गुज़रते हुए, ठीक उसी दरमियान हमें कामवासना सबसे ज़्यादा क्यों सताती है? एक बार अधेड़ हो गए, बूढ़े हो गए फिर कौन-सा बड़ा निर्णय लेना है, फिर तो वैसे भी कौन-सा नए जीवन का निर्माण करना है। और जिन दिनों मौका होता है, अवसर होता है और ख़तरा होता है नए जीवन के निर्माण का। ठीक उन दिनों सारा समय, ऊर्जा, ध्यान कामवासना खींच कर ले जाती है, ऐसा क्यों है? आदमी अगर अस्सी साल जीता है तो कामवासना सबसे ज़्यादा पन्द्रह से पैंतीस की ही उम्र में प्रभावित करती है और पन्द्रह से पैंतीस की ही जो उम्र होती है उसके जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण उम्र भी होती है।

आचार्य प्रशांत: इसी से समझ जाओ कि प्रकृति के इरादे क्या हैं। कामवासना का संबंध शरीर से है, शरीर प्राकृतिक है। प्रकृति नहीं चाहती कि तुम अपनी मुक्ति का आयोजन करो। कभी मैं कह देता हूँ — प्रकृति तुम्हारी मुक्ति के प्रति उदासीन है, इनडिफरेंट है और कभी मैं कह देता हूँ कि प्रकृति तुम्हारी मुक्ति की विरोधी है। इसको जैसे देखना-सुनना चाहो समझ लो लेकिन एक बात तो तय है कि प्रकृति चाहती तो बिलकुल नहीं है कि तुम अपनी मुक्ति का प्रयास करो।

तो जब तुम्हारे पास बुद्धि की तीव्रता सबसे ज़्यादा होती है और बाहुबल भी सबसे ज़्यादा होता है ठीक उस समय प्रकृति अपना दाँव खेलती है। जवानी में ऐसा नहीं है कि तुम्हारे पास सिर्फ शारीरिक उर्जा ही सबसे ज़्यादा होती है, बुद्धि भी।

तुमने शतरंज के खिलाड़ी देखे हैं? जैसे टेनिस के खिलाड़ी, और, और खेलों के खिलाड़ी पैंतीस-अड़तीस के बाद सेवानिवृत्त, रिटायर हो जाते हैं। हो जाते हैं न? वैसे ही शतरंज के खिलाड़ी भी तुमको सत्तर की उम्र में खेलते नहीं मिलेंगे। शतरंज में भी वो रिटायर हो जाते हैं। तुम कहोगे शतरंज में क्यों रिटायर होते हैं? शरीर बूढ़ा हुआ है, मन तो बूढ़ा नहीं हुआ है। नहीं साहब, एक उम्र के बाद बुद्धि भी घटने लग जाती है। आपकी बुद्धि में जो तीव्रता होती है, जो चपलता होती है, जो उत्कटता होती है, जो शार्पनेस होती है, वो एक उम्र के बाद कम होने लग जाती है। जैसे पूरे शरीर की कोशिकाएँ पुरानी, कमज़ोर होने लगती हैं वैसे ही तुम्हारे मस्तिष्क की ब्रेन सेल्स भी पुरानी और कमज़ोर होने लगती हैं। तो बुद्धि भी तुम्हारी धीरे-धीरे कम होने लगती है। हाँ, अनुभवों में तुम आगे निकल जाते हो। पर जो तुम्हारी मेंटल कैपेसिटीज़ होती हैं, रेफ़्लेक्सेस और कई और चीजें, उनमें तुम गिर जाते हो।

तो जवानी के बाद तुम शारीरिक-मानसिक दोनों तरीके से गिर जाते हो माने जवानी में शिखर है तुम्हें — शारीरिक भी और मानसिक भी। इस समय अगर तुमने अपना सदुपयोग कर लिया तो तुम आज़ाद उड़ जाओगे।

प्रकृति देवी परेशान हैं, बोली, "ये तो मैं नहीं करने दूँगी जमुरे को! क्योंकि अगर ये पन्द्रह से पैंतीस की उम्र निकाल ले गया तो उसके बाद इसको रोकना बड़ा मुश्किल है या तो इसको अभी बाँध लो, अभी रोक लो, तो ये रुक जाएगा। इस पर जिम्मेदारियाँ डाल दो, इसके बच्चे-वच्चे पैदा कर दो, ये वादे-वादे कर ले, फेरे-वेरे ले ले। फिर तो ये फँस गया। अब भाग कर कहाँ जाएगा बच्चू?" लेकिन अगर ये पैंतीस तक निकाल ले गया तो फिर इसको रोकना बहुत मुश्किल है। ये बहुत प्रखर चमकेगा, ये सूरज बनकर चमकेगा और ये आसमान में आज़ाद उड़ेगा। तो इसीलिए तुम पर ज़बरदस्त वार प्रकृति द्वारा कामवासना का किया जाता है ठीक उस समय जब तुम्हारे सामने दूसरे महत्वपूर्ण काम मौजूद हैं।

एक बात और समझना — अगर तुम्हारी चेतना का स्तर साल-दर-साल बढ़ना ही है तो अठ्ठारह की उम्र में कैसा होगा? तुम्हारी चेतना अगर बढ़ती ही जानी है तो अठ्ठारह की उम्र में कैसी होगी? बीस में कैसी होगी? पच्चीस में कैसी होगी? तीस कैसी होगी? पैंतीस कैसी होगी? साल-दर-साल ऊँची उठेगी न, अगर तुम सही जीवन जी रहे हो। अगर तुम सही जीवन जी रहे हो तो हर बीतते वर्ष के साथ, तुम्हारी चेतना उठती जाएगी। ठीक है? अच्छा!

तुम जैसे रिश्ते बनाते हो वो इसी पर निर्भर करता है कि तुम्हारी चेतना का स्तर कैसा है। तुम्हारी चेतना का जो स्तर होगा तुम उसी हिसाब से साथी ढूँढ लोगे, रिश्ते ढूँढ लोगे, यही करोगे न? अब अठ्ठारह की उम्र में तुम्हारी चेतना का स्तर कैसा होता है? एकदम गिरा हुआ। अब तुम ने अठ्ठारह की उम्र में ये गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड बना लिया और उससे कसमें-वादे भी कर लिए, जिसे तुम कमिटमेंट बोलते हो। तो गए न! क्योंकि अठ्ठारह की उम्र में तो तुम्हें वही मिलेगी, जो अठ्ठारह के तल की थी तुम्हारे और अगर सही ज़िंदगी जी रहे हो तो अठ्ठाईस के हो जाओ, तो कहीं बेहतर अक्ल आ जाएगी, कहीं बेहतर इंसान बन जाओगे, कहीं ज़्यादा समझदार हो जाओगे, ज़िंदगी में, सोच में, गहराई आ जाएगी, अपने लिए कहीं बेहतर साथी चुन पाओगे।

प्रकृति नहीं चाहती कि तुम बेहतर साथी चुनो। वो चाहती है कि तुम पहला साथी चुनो, जो पहला मिल जाए, उसी के साथ लग जाओ। प्रकृति तुम्हें इंतज़ार नहीं करने देगी, तुममें कामवासना प्रज्वलित कर देगी। इंतज़ार तुमसे करा नहीं जाएगा। तुम कहोगे "सामने शिकार मौजूद है, इंतज़ार क्यों करूँ? तुरंत टूट पड़ो!" ये सज़ा मिलती है उनको जो अभी जीवन के निचले स्तरों पर होते हैं पर रिश्ते बनाने के बड़े इच्छुक होते हैं।

सब नौजवान लोगों से बोल रहा हूँ, लड़के-लड़कियों दोनों से बोल रहा हूँ।

तुम अभी जीवन के एक निचले स्तर पर ही हो, तुम कौन हो अभी? मान लो कि तुम किसी ऐसे ही छोटे-मोटे कॉलेज में पढ़ते हो, ऐसे ही साधारण-सा कोर्स कर रहे हो और तुमने वहीं पर एक बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड बना ली। वो भी किस स्तर का होगा? जिस स्तर के तुम हो, उसी स्तर का तो होगा। अरे थोड़ा इंतज़ार कर लेते पागल! मेहनत कर लेते जीवन में, तो फिर अपने-आप तुम्हारा रिश्ता किसी ऊँचे और बेहतर आदमी से बनता लेकिन नहीं बड़ी जल्दी है, इक्कीस की उम्र में ही दिल भी दे डाला और कसम भी दे डाली, "माँ शपथ!" बड़ी जल्दी है।

अब आगे बढ़ो ज़रा, तुम अभी नए-नए किसी नौकरी में लगे हो और जहाँ अभी तुम्हारी कोई हैसियत नहीं, औकात नहीं, आमदनी नहीं, तुमने अभी कुछ सीखा नहीं, कोई तरक्की नहीं करी, कोई पहचान नहीं बनाई, कोई ज्ञान नहीं अर्जित किया। ना तुम अभी सामाजिक दृष्टि से कुछ हो, ना आंतरिक, आध्यात्मिक दृष्टि से कुछ हो और तुमने रिश्ता बना दिया। निश्चित रूप से ये रिश्ता बनाने के लिए तुम्हें कैसी लड़की मिली होगी? अपने जैसी ही तो मिली होगी क्योंकि बहुत बेहतर होती तो तुमसे रिश्ता क्यों बनाती। अगर बहुत बेहतर होती तो वो एक साधारण औसत लड़के से रिश्ता क्यों बनाती? तुमने एक साधारण औसत लड़की से जल्दबाजी में बना लिया रिश्ता, अब वो तुमको भी बेहतर नहीं होने देगी।

और ये बात मैं लड़कियों के संदर्भ में भी बोल रहा हूँ। तुम किसी साधारण औसत लड़के से रिश्ता बना लोगी, उसके बाद अब तुम ज़िन्दगी में तरक्की करना चाहोगी वो तुम्हारा बॉयफ्रेंड या प्रेमी या पति तुम्हें तरक्की करने नहीं देगा। ये होता है जब तुम प्रकृति प्रदत्त कामवासना में फँस कर जल्दी से रिश्तेबाज़ी में कूद पड़ते हो।

ज़िंदगी में पहले कुछ बन जाओ, कोई आंतरिक मुकाम हाँसिल कर लो, फिर तुम्हें समझ में आएगा न रिश्ता किससे बनाना है। अब रिश्ता बना लिए हैं छब्बीस की उम्र में ही। तुम्हारा लक्ष्य हो सकता है ज़िंदगी में ऊँचे उठना; जिससे तुमने रिश्ता बना लिया है उसे ना उठने से कोई मतलब है, ना बढ़ने से कोई मतलब है, उसे बस फैलने से मतलब है। तुम ऊपर उठना चाहते हो, वो फैलना चाहता है। अब तुम ऊपर उठ रहे हो, तुम्हें काहे को उठने देगा? और वो फैल चुका है, तुमसे ज़्यादा वज़नी है। ऐसे पकड़ेगा और खींच लेगा नीचे और फिर रो रहे हो अब।

रो सिर्फ इसलिए रहे हो क्योंकि वो छब्बीस-अठ्ठाईस में तुम्हें इतनी ज़ोर की कामवासना की खुजली उठी थी कि तुमसे रहा नहीं गया। फेरे ले आए। तुम्हें समझ में ही नहीं आता कि तुम ये सब जो गतिविधियाँ कर रहे हो, वो ना व्यक्तिगत हैं, ना सामाजिक हैं, वो वास्तव में प्राकृतिक हैं, जैविक हैं, शारीरिक हैं। ये सब तुमसे तुम्हारा शरीर करवा रहा है, समाज का तो नाम है।

प्रकृति के इरादे तुम समझते नहीं, अपनी चेतना की बेचैनी तुम समझते नहीं, आत्मज्ञान तुमको है नहीं, आत्म जिज्ञासा तुमने कभी करी नहीं, शास्त्रों के पास तुम कभी गए नहीं, शिक्षा तुमको कभी मिली नहीं स्वयं को जानने की, नतीजा — ग़लत रिश्ते, ग़लत वर्तमान, ग़लत भविष्य, और चौपट जीवन। तुम्हें कुछ बात समझ में आ रही है?

जिन्हें जीवन में ऊपर उठना हो, जिनके जीवन का ग्राफ कर्व यूँ जाना हो (नीचे से ऊपर की ओर इशारा करते हुए) उन्हें जल्दी रिश्ता बनाना चाहिए या ठहर कर? देर में? तो पगलू अभी जब तुम यूँ ही व्यर्थ घूम रहे हो, तो तुम क्यों रिश्तेबाज़ी में लग जाते हो? और उस रिश्तेबाज़ी की वजह सिर्फ एक है। मैं क्यों पूछ रहा हूँ, उसका उत्तर वही है जो तुमने सवाल में लिखा है — कामवासना।

तुम और सौ बातें बोल दो — नहीं, कामवासना नहीं थी, हम अकेला अनुभव करते थे। अकेला अनुभव करते थे तो कोई दोस्त बना लेते, जा कर बैडमिंटन खेलने लगते, क्रिकेट की टीम में घुस जाते, अकेलापन नहीं रहता, ग्यारह होते या अकेलापन सिर्फ विपरीत लिंगी के साथ ही मिटता है? कौन-सा अकेलापन है? ये बात अकेलेपन की नहीं है इसमें तो मामला दूसरा है।

तुम सोचते हो कामवासना तुम्हें सुख देती है। तुम्हें समझ में नहीं आता? वो तुम्हें सुख देने नहीं आई है। वो तुम्हें ज़िंदगी भर के लिए बंधक बनाने, बर्बाद करने आई है और ये मैं लड़के-लड़कियों दोनों से बोल रहा हूँ भाई! कोई ये ना सोचे मैं एक पक्ष की तरफ से बोल रहा हूँ।

तुम्हें लगता है, "वाह मज़ा आ गया! लाइन दे दी उसने।" अरे, तुझे लाइन नहीं दे दी है, सेंटेंस लिख दिया है — मृत्युदंड! जब किसी को मृत्यु दंड दिया जाता है, जानते हो क्या लिखता है जज (न्यायाधीश)? 'टू बी हैंगड टिल डेथ '। अब ये लटकेगा जब तक मरेगा नहीं। हर कामुक आदमी की यही दशा है — वो लटका ही हुआ है, जब तक मरेगा नहीं। तुम्हें लगता है, "वाह मज़ा आ गया! मैंने आँख मारी, उधर से भी आँख आ गई मर के।" ये जो मरी हुई आँख है, ये न जाने क्या-क्या मारेगी तुम्हारा अब। लगे हुए हैं, लगे हुए हैं, इन्हीं बेवकूफियों में।

अरे बाबा! मुझे ना लड़की से कोई समस्या है, ना लड़के से कोई समस्या है, मुझे ज़िंदगी के बर्बाद जाने से समस्या है। इंसान हो तुम, सूअर, गधे, कुत्ते, कोई जानवर थोड़े ही हो कि कैसी भी ज़िंदगी बिता लो चलेगा। तुम्हारा अधिकार है एक ऊँचे जीवन पर और तुम अपने उस अधिकार से ख़ुद को ही वंचित किए दे रहे हो। मैं इसलिए तुमको कह रहा हूँ। मैं कोई नैतिकतावादी नहीं हूँ कि मुझे काम से, सेक्स से, या प्रकृति से यूँ ही कोई नफ़रत है। जाओ जितना सेक्स करना है करो! मेरी बला से! बात ये है कि इन चक्करों में तुमने ज़िंदगी ख़राब कर लेनी है क्योंकि तुम समझते ही नहीं वो चक्कर तुम्हारी ज़िंदगी में आ कहाँ से रहे हैं।

प्रकृति को समझना आसान नहीं है। वास्तव में पूरा आध्यात्मिक साहित्य, आत्मा को नहीं समझता, अनात्मा अर्थात प्रकृति को ही समझता है। प्रकृति का ही पूरा अन्वेषण, खोजबीन होती है। खुद को समझना माने प्रकृति को समझना। इसलिए अध्यात्म जवानों के लिए ज़रूरी है। नहीं तो ग़लत नौकरी चुनोगे, ग़लत साथी चुनोगे, सब तरह के ग़लत निर्णय लोगे। तुम्हें कुछ पता नहीं होगा कैसे जीना है।

और इतना ही नहीं बहुत तुम्हें मज़ा आ रहा होगा। तुम्हें लग रहा होगा — आ! हा! हा! क्या रस मिल रहा है, क्या आनंद आ रहा है, क्या मटक रहे हैं। आ! हा! हा! शरीर दिखा-दिखा कर, इसको ललचा रहे हैं, उसको ललचा रहे हैं। बड़ी हमारी इज़्ज़त बढ़ रही है, बड़ी हमें कीमत मिल रही है। तुम्हें समझ में ही नहीं आएगा कि ये तुम्हारा मरसिया पढ़ा जा रहा है। ये तुम्हारी मौत का इंतज़ाम हो रहा है। तुम्हें ऐसा दर्द, ऐसा दुःख, ऐसी तकलीफ मिलने वाली है कि तुम्हारा पूरा जीवन अब नष्ट होगा। समझ में आ रही है बात?

प्रकृति चाहती है कि तुम इन्हीं झंझटों में पड़े रहो। चेतना चाहती है कि तुम आज़ादी की तरफ बढ़ो। तुम चाहो तो अपने को चेतना जानो, तुम चाहो तो अपने को प्रकृति जानो। हो तो तुम चेतना ही क्योंकि प्रकृति आगे बढ़कर कभी आत्मा नहीं बन जानी। चेतना आगे बढ़ेगी तो आत्मा बन जाएगी।

तुम प्रकृति में कितना भी लोट लो, लथपथ हो लो, आत्मा तक नहीं पहुँच जाओगे। हाँ, चेतना को अगर दुरुस्त करोगे, तंदुरुस्त करोगे तो आत्मा तक पहुँच जाओगे। इसीलिए बेहतर है कि प्रकृति को एक तरफ रखो, अपने शारीरिक उद्ववेगों को एक तरफ रखो और ज़रा चेतना की तबीयत पर ध्यान दो।

जितना हो सके उतना तो करो बाबा! मुँह ना लटका लिया करो कि ये तो बड़ी ऊँची शर्त रख दी। जितना कर सकते हो उतना करो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories