आचार्य प्रशांत: पिछले साल या पिछले से पिछले साल भी आया था यहां पर। काफी अच्छी बातचीत हुई थी आपसे और उम्मीद है पिछली बार जैसे हुई थी उससे और ज्यादा हम गहरी और गर्म बातचीत होगी। बताइए क्या बात करी जाए? सत्र आपका है।
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मेरा नाम मधुर है। मैं बीएससी फिजिक्स ओनर का फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट हूं। आचार्य जी। जैसे मैंने कॉलेज ज्वाइन किया तो मैंने अपने आप को कई विषयों से घिरा हुआ पाया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि कैसे इनको टैकल करूं और किस तरीके से इनको वरीयता दूं। तो आचार्य जी मेरा सवाल है कि किस बात को किस मूल बात को केंद्र में रखकर मैं विषयों को वरीयता दूं ताकि अपनी कॉलेज की जिंदगी का मैं सबसे मतलब उच्चतम इस्तेमाल कर सकूं।
आचार्य प्रशांत: कैसे विषय? कौन सी चीजें हैं जो कॉलेज में आ गई हैं और उसमें तुम वरीयता नहीं दे पा रहे हो। माने प्रायोरिटाइज नहीं कर पा रहे हो। उदाहरण दो।
प्रश्नकर्ता:: जैसे सर सोसाइटीज में पार्टिसिपेट करना या किसी कंपटीशन में पार्टिसिपेट करना तो उसमें सर मैं कंफ्यूज हो जाता हूं कि किस में करूं या किसको छोड़ूं किसको ज्यादा वरीयता दूं।
आचार्य प्रशांत: उसमें कंफ्यूजन क्या है? जहां कहीं भी अपनी रुचि है और थोड़ी स्किल है, कुशलता है तो वहां जाना चाहिए। और इनके इवेंट्स इतने ज्यादा तो होते नहीं है कि एक-एक दिन में दो-दो हो रहे हैं और एक ही समय पर हो रहे हैं। हम ओवरलैपिंग है कि चुनना पड़े कि ये करूं। कि ये करूं तो समस्या कहां पर आती है?
अब बहुत सारी सोसाइटीज होती हैं। कोई भी ऐसा नहीं होता स्टूडेंट जो सारी ही सोसाइटीज में उत्सुक हो या कि उसकी वो क्षमता या पात्रता भी रखता हो। हमारे यहां पे तो मतलब ड्रामेटिक्स, फोटोग्राफी, राइटिंग, डांसिंग हम कितने ही सारे फिल्म सोसाइटी, लेक्चर सीरीज ना जाने कितने तरह के क्लब्स होते थे। आईआईटी की बात कर रहा हूं। वहां बीआरसीए होता था। बोर्ड फॉर रिकक्रिएशनल एंड कल्चरल एक्टिविटीज। लेकिन ऐसा तो कोई भी नहीं था जो 13 में से 13 या 13 में से सात आठ क्लब्स में भी सक्रिय हो।
यह तो हमें खुद ही पता होता है ना कि कहां पर मेरी क्षमता है। मैं वहीं पर तो जाऊंगा। कहां पर आ रही है? मैं चाहता हूं कि तुम साफ-साफ उंगली रखो कि कहां फंस जाते हो।
प्रश्नकर्ता:: सर मैं सोसाइटीज के बीच में ही और लेक्चर्स के बीच में जैसे डिसाइड नहीं कर पाता।
आचार्य प्रशांत: पर जो सोसाइटीज का काम होता है वो आमतौर पे लेक्चर के समय में तो होता ही नहीं है। लेक्चर्स दिन में होते हैं और ये जो क्लब्स और सोसाइटीज हैं ये दोपहर बाद या कि शाम को या कि जो हॉस्टल के स्टूडेंट्स हैं उनके लिए रात को सक्रिय होती हैं। ऐसा तो शायद कॉलेज भी अलाउ नहीं करता होगा कि लेक्चर के समय पे ही सोसाइटी का इवेंट भी चल रहा है। ऐसा तो नहीं होता होगा। होता है?
प्रश्नकर्ता:: नहीं ज्यादातर टाइम तो सर…
आचार्य प्रशांत: जब नहीं होता है तो फिर प्रायोरिटाइज करने की बात कहां आई? दोनों कर लो। तो ऐसे ही करते थे। सुबह 8:00 से ले शाम 5:00 तक जो इंस्टट्यूट बिल्डिंग थी वहां रहते थे। और उसके बाद लौट कर आते थे जल्दी से कुछ खाया पिया और फिर 6:00 बजे से जो इवेंट्स होते थे अलग-अलग क्लब्स के उनको भी कर लेते थे। उसके बाद कभी मन किया तो रात में मूवी देखने भी चले जाते थे। उसके बाद वापस आकर के अगले दिन के लिए जो भी असाइनमेंट्स वगैरह थे वो थोड़ा बहुत करा, थोड़ी बहुत नींद ले ली। अभी तक मैं पूरी तरह समझ नहीं पाया हूं। कहां फंस रहे हो? देखो समय बहुत होता है। 24 घंटे बहुत होते हैं।
तुम मुद्दा अच्छा लेके आए हो प्रायोरिटाइजेशन का। पर असली जो चीज प्रायोरिटाइज होनी चाहिए और जो एक चीज है जो प्रायोरिटाइज बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। शायद आप उसकी बात कर नहीं रहे हो। 24 घंटे कम नहीं पड़ते हैं। समय तब कम पड़ता है जब समय बहुत सारी बिल्कुल बेकार की चीजों में जा रहा हो। अब मैं यह करूं कि मैं अपना बहुत सारा समय तो बिल्कुल फिजूल कामों में लगाता रहूं। तो उस कारण मेरे पास समय बचा ही कितना? बहुत थोड़ा सा। और मैं कहूं कि अब ये थोड़ा सा समय मुझे बताइए कि मैं प्रायोरिटाइज कैसे करूं? तो यह तो सवाल ही थोड़ा गड़बड़ हो गया ना। पहली प्रायोरिटी तो यह होनी चाहिए थी कि जो समय व्यर्थ जा रहा है, फिजूल जा रहा है, उसको बर्बाद नहीं होने देना है। और अगर वह पहली प्रायोरिटी आप पूरी कर लें तो फिर आप पाओगे कि इस 24 घंटे में बहुत सारे अच्छे सकारात्मक कामों के लिए, सार्थक चीजों के लिए आपके पास वक्त की कोई कमी नहीं है।
बहुत होते हैं 24 घंटे और अगर हम बिल्कुल निष्पक्ष होकर के देखें तो पता यह चलता है कि हम सब साधारण लोग आम आदमी हम अपने 24 घंटों में जो हमें फिर सोने और दिन भर के साधारण कामों के अलावा मान लो आपको 14 घंटे मिलते हैं। इन 14 घंटों में से हम 4 घंटे से ज्यादा का सही इस्तेमाल नहीं करते हैं। बाकी समय व्यर्थ ही जाता है और वह आपको तब तक पता नहीं चलेगा जब तक आप उसको साफसाफ नापोगे नहीं।
मैनेजमेंट का एक सिद्धांत होता है कि व्हाट इज इम्पोर्टेन्ट मस्ट बी मेजर्ड। एंड इफ समथिंग इज नॉट बीइंग मेजर्ड देन इट इज नॉट इम्पोर्टेन्ट एट ऑल। आप अगर अपने वक्त को कीमती मानते हो ना तो उसको साफ-साफ मेजर करना सीखो। आंकड़ों में, न्यूमेरिकली मेरा समय सचमुच जाता कहां है? और नतीजा आपको चौंका देगा। आप पाओगे कि जो 14 घंटे दिन में हमें मिलते हैं कि भाई अब इसमें काम करो। खाने पीने, सोने, नहाने धोने के अलावा 14 घंटे तो मिल जाते होंगे ना? तो ये जो 14 घंटे मिलते हैं। इस 14 घंटे में आप पाओगे कि 4 घंटे, 5 घंटे इतने ही निकल रहे हैं जिनका कोई सार्थक सदुपयोग हो रहा है। बाकी सारा समय कहीं गसिप में जा रहा है। कहीं बैठे-बैठे फालतू सोचने में जा रहा है, कहीं स्क्रॉलिंग में जा रहा है।
तो सवाल ही फिर दूसरा पूछना चाहिए ना। मैं सवाल हमें यह नहीं पूछना चाहिए कि मुझे मेरे पास तो चार ही घंटे हैं। मैं इस 4 घंटे में लेक्चर्स भी कैसे अटेंड करूं? स्पोर्ट्स भी कैसे करूं? सोसाइटीज का काम भी कैसे करूं? और अपनी रीडिंग भी कैसे करूं? और ये कैसे करूं? और सोशलाइज कैसे करूं? हम सवाल ये पूछ रहे हैं। क्या सवाल यह नहीं होना चाहिए कि मेरे पास सिर्फ चार ही घंटे क्यों हैं? क्या सवाल यह नहीं होना चाहिए कि मेरा समय वाकई बर्बाद कहां हो रहा है और वह आपको मैं कह रहा हूं तब तक नहीं पता चलेगा जब तक आप उसको लिखोगे नहीं नापोगे नहीं, मेजर नहीं करोगे नहीं तो सबको यह लगता रहता है कि मैंने तो काम का सही उपयोग किया।
इसी तरीके से एक और सिद्धांत होता है वर्क एक्सपेंड्स इटसेल्फ अकॉर्डिंग टू द टाइम अवेलेबल कोई काम है आपने 3 घंटे में करा, आपको लगेगा देखा 3 घंटे तो मेरे लग गए ना इस काम में माने ये इन तीन घंटों का सही इस्तेमाल हो गया। हकीकत यह है कि वो काम शायद 20 मिनट में भी निपट सकता था। और अगर आपके पास 20 मिनट ही होते तो आप पाते कि 20 मिनट में निपट भी गया है। ऐसा किस-किस ने अनुभव करा है? मैंने तो खूब करा है।
तो हम अपने आप को धोखे में भी खूब रख लेते हैं। हम बोलते हैं 3 घंटे काम करा। और वो काम है सचमुच कितना बड़ा? वो 20 मिनट लायक ही काम है। तो इसलिए मैं कह रहा हूं कि जब हम थोड़ा निर्मम होके रूथलेसली अपने समय के व्यय को हम एक्सपेंडिचर को नापते हैं तब हमें पता चलता है कि जिसको मैं कह रहा हूं कि 14 घंटे का दिन था मेरा वो 14 घंटे का नहीं था साहब वो 4 घंटे का ही था और यह भी हो सकता है कि मैं बहुत उदार होकर 4 घंटे बोल रहा हूं। कई लोगों का दिन आधे घंटे का होता है। 13.5 घंटे उन्होंने बर्बाद करे होते हैं।
और एक बात और समझिएगा जितना ज्यादा आप समय बर्बाद करते हो ना वो बर्बादी बस एक दिन की आदत नहीं रहती वो आदत आगे तक जाती है। आज अगर आपने दिन ऐसा जिया जिसमें 14 में से 10 घंटे खराब किए और फिर कल वैसा ही जिया जिसमें 8 10 12 घंटे खराब करे 14 में से। हफ्ते भर आपने ऐसा कर लिया हफ्ते के बाद आप सुधारना चाहेंगे आसान नहीं होगा क्योंकि क्या बन गई है अब? आदत बन गई है। और जब आदत बन जाती है ना तो हम भीतर से बड़े चतुर चालाक होते हैं। हम कभी यह नहीं कहते कि मैं तो समय बर्बाद करने वाला प्राणी हूं। हम कहते हैं इन कामों में तो समय लगता ही इतना है।
हम जिस ढर्रे पर चल रहे होते हैं, जो हमारा टाइम को खर्च करने का, टाइम को स्पेंड करने का पैटर्न बन गया होता है। हम उस के पक्ष में कुछ तर्क निकाल लेते हैं। कुछ तर्क निकाल लेते हैं। कहते हैं नहीं इसमें तो इतना समय लगता ही है ना। नहीं अभी मन नहीं कर रहा। नहीं मैं क्या करूं? नहीं एक बंदा कितने काम कर सकता है। मेरे साथ वाले भी तो इतना कम काम ही करते हैं ना तो मैं क्यों करूं? कई तरह के आप भीतर से आर्गुमेंट्स तर्क निकाल लोगे अगर आपकी आदत बन गई है समय खराब करने की।
और बहुत सारी चीजें होती हैं दुनिया में चौंकाने वाली। एक बड़ी चौंकाने वाली चीज यह होती है कि आप एक दिन से कितनी कीमत, कितना मूल्य, कितना रस, कितनी वैल्यू निकाल सकते हो। कुछ लोग होते हैं जो एक दिन से एक हफ्ता एक महीना निकाल लेते हैं। तो अगर ऐसे देखो तो उनकी जिंदगी फिर 70 80 100 साल की नहीं होती। वो एक जिंदगी में हजार साल जी जाते हैं। नहीं तो कोई जिंदगी पूरी तरह सोते-सोते भी काट सकता है। उसके भी तो 100 साल बीत ही जाएंगे ना। ऐसा हो सकता है कि नहीं कि कोई 100 साल जिया लेकिन 100 में से 90 साल सिर्फ सो रहा था। हो सकता है कि नहीं हो सकता है? जिंदगी ऐसे नहीं गिनी जाती। जिंदगी गिनी जाती है कि मेरा कितना समय सार्थक काम में गया। बस उतने ही समय आप जिए बाकी समय तो बेहोशी का था। वो मरने जैसी ही दशा थी।
और फिर कुछ समय बाद जब आप देखोगे कि अरे समय तो थोड़ा ही था। एक महीना, दो महीना, तीन महीना ही था। इसमें मैंने क्या-क्या कर लिया? तो आपको खुद अचरज होगा कि यह कैसे हो सकता है? यह कैसे हो सकता है? यह कैसे हो सकता है? ये तो होता नहीं है मैंने किसी को करते नहीं देखा। इतने कम समय में मैंने इतने काम कैसे कर लिए?
आप एक बहुत अच्छे इंस्टिट्यूशन के सब छात्र हो। मैं भी एक अच्छे संस्थान से पढ़ पाया। तो मैंने बहुत कुछ वहां ऐसा था जो जो बहुत प्रेरणास्पद था। मैं देखता था जो टॉप रैंकर्स होते हैं ना आईटी जेई में तो वो कंप्यूटर साइंस लेते हैं यूजली तब भी ऐसा होता था अभी भी वैसा ही हो रहा है। तो पूरा इंस्टट्यूट ही उनकी ओर ऐसे देखता है कि क्योंकि सबने यही चाहा होता है कि हमारी भी टॉप 100 में रैंक आए। बात ही तो है नहीं। तो सब उनको देखते हैं ये कौन है?
जो चीज मुझे चाहिए थी इसको मिल गई है। टॉप 100 में रैंक ले आया। और मैंने यह देखा था कि बहुत सारे ऐसे जिनकी आईआईटी जेईई में रैंक भी अच्छी थी। अंदर आने के बाद उनकी सीजीपीए भी अच्छी थी। यही नहीं बस कि एंट्रेंस के लिए पढ़ के अंदर आ गए। अब अंदर कुछ नहीं करते। रैंक भी अच्छी थी। अंदर आके सीजीपीए भी अच्छी थी। माने पढ़ने में समय तो लगाते होंगे। वो वो थे जो तमाम तरह के कोकरिकुलर्स में सबसे आगे थे। और ऐसे भी थे जो बस किसी तरीके से धक्का खा के तीसरे चौथे अटेम्प्ट में आईआईटी में घुसे थे। और घुसने के बाद उनकी सीजीएपी भी बुरी थी। और वो किसी क्लब में किसी तरह की कोई एक्टिविटी नहीं करते थे। जहां तक अपने आप को निर्मित करने की बात है, व्यक्तित्व के तौर पर, इंसान के तौर पर, वो जैसे भीतर घुसे थे, ठीक वैसे ही बाहर भी निकल गए।
अब मुझे बताइए ऐसा कैसे हो गया? कि एक इंसान है, छात्र है, उसके पास पढ़ने के लिए भी बहुत समय निकल आता है। वो खेलों में भी आगे है, वो ड्रामेटिक्स में भी आगे है। और कई बार वो मौज मस्ती में भी सबसे आगे है। यह नहीं कि बस वो किताबी कीड़ा बना हुआ है। कहीं बन रहा है। चलो इस बार अब हफ्ते भर का कुछ गैप आ रहा है। चलते हैं। ट्रैकिंग करके आएंगे। वो उसमें भी सबसे आगे है। और सबसे ज्यादा अब छुपा कर क्या बोलूं? जलन तब होती थी जब पता चलता था कि इनके पास अपनी गर्लफ्रेंड को देने के लिए भी टाइम है। वो पढ़ भी रहा है, वो खेल भी रहा है, वो लिख भी रहा है। वो कई बार एडिशनल प्रोजेक्ट्स भी कर रहा है। यह बड़ी बात होती थी ग्रेजुएशन के दिनों में क्योंकि हमारे बैच में सिर्फ 13 ही लड़कियां थी। यह भारत का हाल है। 350 का बैच था उसमें सिर्फ 13 लड़कियां थी। इसमें इसमें लड़कियों की क्षमता की बात नहीं है। हमारे समाज की बात है। हमारे देश की बात है। 350 में 13 तो गर्लफ्रेंड बनाना बड़े दूर की कौड़ी होती थी। कुछ हैं उनके गर्लफ्रेंड्स भी हैं। वहां भी समय दे पा रहा है और फिर वापस आता है और अगले दिन लेक्चर में जाता है। लेक्चर में भी वो सब पूरी तैयारी करके गया है। समय लाता कहां से है तू? कहीं से नहीं लाता। सबके दिन में 24 ही घंटे होते हैं। वो बस अपना समय बर्बाद नहीं करता है।
वो रातों में चार-चार घंटे बैठकर अड्डा नहीं मारता है। चार बैठ गए हैं। कुछ नहीं कर रहे हैं। कुछ भी नहीं कर रहे। क्या कर रहे हैं? इधर-उधर की फिजूल बातें हैं। कुछ नहीं बैठे हुए हैं ऐसे। उनमें से बीच में एक सो भी गया है। फिर बैठे हैं 4 घंटे बैठे हो। 3- 4 बजे तक जगे हो तो भूख भी लगाई है। तो फिर अपनी बाइक स्कूटर लेकर के बाहर निकले हौसखास में पराठे खोज रहे हैं। उसमें और घंटा डेढ़ घंटा लगा दिया। फिर वापस लौट करके आए तो अब देखा अरे ये तो सुबह रोशनी होने लग गई। 5:30 बज गया। बोले यार 1 घंटे में तो अब मेस में ब्रेकफास्ट ही मिलने लगेगा। तो जग ही लेते हैं। तो जग लिए। और रात भर के जगे और उसके बाद खा भी लिया खूब। तो अब आई मस्त नींद। बोले अब ऐसा करते हैं आज की जो क्लासेस हैं सारी बंक। ये यहां पर तो किसी के साथ नहीं होता। कितने बैठे हैं जिनसे मिलती जुलती जिनके साथ घटनाएं होती हैं। कोई भी नहीं है। काफी
वक्त ऐसी ही चीज है। वो कब फिसल जाता है पता नहीं चलता। और हम स्ट्रॉ मैनिंग जानते हैं किसको बोलते हैं? स्ट्रॉ मैनिंग असली समस्या से बचने के लिए एक फिजूल की नकली समस्या खड़ी करना और उस नकली समस्या से उलझ जाना। स्ट्रॉम मैन जानते हो कि नहीं क्या होता है? स्ट्रॉम मैन क्या होता है? नकली आदमी। किस चीज का आदमी? स्ट्रॉ का। तो असली जो आपका दुश्मन है वो यहां है। पर आपको डर लगता है उससे उलझने में, उसको चुनौती देने में तो आप क्या करते हो? आप एक नकली दुश्मन बिना ताकत का, बिना दम का, घास-फूस का स्ट्रॉम मैन वहां खड़ा करते हो और फिर आप उससे उलझ जाते हो। कहते हो ये स्ट्रॉम मैन है। इसको परास्त करूंगा।
भाई प्रायोरिटाइजेशन शायद आपकी केंद्रीय समस्या है ही नहीं क्योंकि प्रायोरिटाइजेशन की बात तब आती है जब आइदर ऑर पैराडाइम हो। आइदर ऑर की बात है ही नहीं। बात एंड की है। एक्स और वाई नहीं है। जिंदगी एक्स एंड वाई है। यह भी करूंगा और वो भी करूंगा। क्यों चूकूं? एक ही जिंदगी है।
पर आप एक नकली समस्या खड़ी करके कह रहे हो कि साहब समय की बहुत कमी है। प्लीज गाइड मी हाउ डू आई चूज़ एक्स ओवर y? यह स्ट्रॉंग मैन प्रॉब्लम है। ये नकली समस्या है। समस्या उधर खड़ी है और वो क्या है और असली समस्या क्या है बोलिए। हम समय बर्बाद करते हैं इसलिए हमारे पास समय बचता नहीं है। समय बर्बाद कर रहे हैं हम इसलिए समय बचता नहीं है। समझ में आ रही है बात ये?
सन 2000 में नवंबर के महीने में मैंने सिविल सर्विज का मेंस एग्जाम लिखा है और दिसंबर में कैट का लिखा है एग्जाम 99 में पास आउट हुआ था अगले साल ये एग्जाम और ये दोनों ही क्लियर हो गए और मानना मेरा भी यही था कि कोई इंसान अगर कई अटेम्प्ट्स लगा के इन दोनों में से किसी एक को भी क्लियर कर ले तो बड़ी बात होती है। एक एक साथ दोनों कैसे क्लियर हो गए? इतना समय कहां से आ गया पढ़ने का? कहीं से नहीं आ गया। उतना ही समय था। बस ऐसा कुछ था नहीं जिंदगी में कि जिस पर मुझे लगे कि समय व्यर्थ करना है। और अब पीछे मुड़कर देखता हूं तो मुझे ही लगता है तो बड़ी अजीब बात है। एक ही साल में एक ही महीने के अंतराल में आप सिविल सर्विज और कैट दोनों को कैसे हो सकता है? हो सकता है भाई। हो सकता है। एकदम हो सकता है।
कभी भी अपने आपको ये सामने पांच चीजें दिखे तो यह मत बोला करो कि क्या चुनूं क्या ना चुनूं। पर हां अगर अपना दिन चार घंटे का ही रखोगे तो कुछ चीजों से हाथ धोना पड़ेगा। जब भी कुछ दिखाई दे कि कीमती है पर उसके लिए समय नहीं है तो यह मत करो कि किसी दूसरी कीमती चीज से समय काटो। बस यह नापो कि समय बर्बाद कहां जाता है और उसको काट दो। जिंदगी सचमुच गहरी होनी चाहिए। रिच होनी चाहिए। क्यों हम अपने आपको किसी भी बढ़िया बात से वंचित रखें बस यह बोल के कि मेरे पास टाइम नहीं है। मेरे पास है टाइम। मेरे पास एनर्जी भी है। एनर्जी की तो कमी होनी नहीं चाहिए आपकी उम्र में। एक जगह से भाग के आए हो। घुसो ना अब दूसरी चीज में। हां ये करके आए हैं। अब ये करेंगे। हां पूरे दिन इंस्टट्यूट से थक के आए हैं। कोई बात नहीं। अब जा रहे हैं टेनिस खेलने। ये थोड़ी कि अरे मैं थक गया। मैं 3 घंटे सोऊंगा कुछ नहीं। बल्कि वापस लौट रहे हो इंस्टट्यूट से हॉस्टल तक आओ ही मत। ना रैकेट वगैरह बांध के जाओ कि जैसे ही क्लास ओवर होगी सीधे उधर निकल जाऊंगा। समय जहां-जहां भी बच सकता है बचाओ।
यह भी फिजूल की बात है कि वहां से पहले लौट के आ रहे हो, फिर मुंह धो रहे हो, फिर कुछ खा रहे हो, फिर बतिया रहे हो, फिर कपड़े बदल रहे हो। क्यों? अरे शूज तो रूम में रखे हैं ना। शूज बांध कर ले जाओ भाई। एक छोटा सा बैग क्यों नहीं रख सकते हो? उसमें शूज भी है, चेंज ऑफ क्लोथ्स भी है। वहीं से करके निकल जाऊंगा सीधे। मेक द मोस्ट ऑफ द लिमिटेड टाइम दैट देयर इज़ और मौत कब आ जाए पता तो चलता नहीं और मौत सिर्फ इसी तरह नहीं आती है कि आदमी गिर गया लाश हो गया, मौत ऐसे भी आती है कि अब आप में एनर्जी नहीं रही आपको कोई बीमारी हो गई या आपके ऊपर इधर-उधर की फिजूल जिम्मेदारियां आ गई आपने अपनी गलती से उठा ली वो भी एक तरह की मौत ही है क्योंकि वह अब जीने नहीं देती जो चीज जीने ना दे उसको ही मौत बोलते हैं ना।
अभी बहुत समय है व्यर्थ के पछड़ों में भी अभी फंसे नहीं हो। कैंपस में एक तरह की सिक्योरिटी है, सुरक्षा है। अधिक से अधिक इस्तेमाल करो इस समय का। जो रीडिंग आप अभी कर लोगे ना वो जिंदगी भर चलेगी। जैसी हमारी जिंदगी होती है हिंदुस्तान में और जैसा हमारा पारिवारिक माहौल हो जाता है और जैसे ही हम नौकरियां ले लेते हैं। बाहर आकर के जिसको आप कहते हो रियल लाइफ असली जिंदगी उसमें आने के बाद ना जाने कितने तरीके के चक्र शुरू हो जाएंगे और फिर भूल जाओ कि कभी किताबें उठाने वाले हो। रीडिंग होगी ही नहीं। अभी अधिक से अधिक रीडिंग कर लो। अभी कैंपस में हो, दिल्ली में हो। बहुत तरह की स्पोर्टिंग फैसिलिटीज अवेलेबल होंगी। यहां से बाहर निकल गए कौन जाने कि स्विमिंग पूल कितनी आसानी से एक्सेसबल होगा।
भारत में तो गली क्रिकेट चलता है। सड़क पर आ जाओ ईंटें रख दो वो किरमिच की बॉल ले लो और एक बैट ले लो खेलना शुरू कर दो। कौन जाने स्क्वाश कोर्ट अवेलेबल होगा कि नहीं होगा। और अवेलेबल होगा भी तो फिर कहते हो कि अरे बूढ़ी बूढ़ी लाल लगाम। कई लोग तो 28 के हो के ही अपने आप को बूढ़ा मानने लगते हैं। वो कहते हैं अब हमारी थोड़ी उम्र है कि बिल्कुल स्क्रैच से बिल्कुल शुरुआत से कोई नया स्पोर्ट सीखना शुरू करें। अभी कर लो सब कुछ। कम से कम शुरुआत अभी कर लो। अभी तुम्हारे पास लाइब्रेरी भी होगी। ये सोसाइटीज की बात कर रहे थे। कल्चरल सोसाइटीज उनकी बात कर रहे थे। लाइब्रेरीज होंगी। स्पोर्टिंग फैसिलिटीज हैं, सोसाइटीज हैं। इन सबका अधिक से अधिक इस्तेमाल कर लो। इंसान दूसरे हो जाओगे।
और यह गपबाजी अपने ही जैसों का झुंड बना लेना और में चलना। यह गलती कभी मत करना। कभी कभी कभी मत करना। बिल्कुल मत करना कि हम जैसे हैं अपने ही जैसों का चारप लोगों का एक झुंड बना लिया है और यह चार पांच अपने में ही अपना पड़े रहते हैं। यह मत करना कभी भी। मेरी टीम में एक सदस्य हैं वो एक आईआईटी से हैं। तो दो साल पहले उनकी आईटी ने इनवाइट किया कि आइए हमारे यहां बोलिए तो मैं गया तो वह उन्हीं का अलमा मीटर है तो मैं उनको लेके ही गया वो जाएंगे ही तो वो भी गए।
सब हो गया बहुत अच्छा हो गया दिन में सेशन हुआ रात में स्टूडेंट से अलग से बातचीत हुई इनफॉर्मल लंबा 5 6 घंटे तक बात होती रही 12:00 बज गए। 12:00 बज गए यह सज्जन कहीं दिखाई नहीं दे रहे जो टीम में है और उसी आईआईटी के पास आउट हैं कई साल पहले के तो इनको फोन ऑन किया गया। फोन भी नहीं उठा रहे। ढूंढा गया। तो ये जिम में मिले। जिम में मिले। मैंने कहा कर रहे हो तो जिमिंग जिमिंग करके आए। मैंने पूछा क्या हो गया? बोले कैंपस का जिम देखना चाहता था। मैंने पूछा देखना चाहता था माने? बोले यहां 4 साल रहा मैंने जिम देखा ही नहीं। मैं यहां 4 साल रहा। मैंने जिम देखा ही नहीं। जब मैं आपके पास आया और आपने इन चीजों पर पर बहुत जोर डाला कि खेलो, जिमिंग करो, रीडिंग करो इसके बिना नहीं। तो तब जाकर के मैंने जिमिंग शुरू करी। अब यहां पर वापस आया हूं तो मैं देखने आया हूं कि मेरे ही इंस्टट्यूट का जिम था कैसा और बहुत अच्छा था। बस एक पछतावा रह जाएगा कि साल थे, ओपोरर्चुनिटी थी और मौका हाथ से जाने दिया। हम और हम मौका हाथ से जाने देते हैं। जिन सज्जन की मैं बात कर रहा हूं उन्होंने क्या करा था?
उन्हीं की जबानी उन्होंने अपनी ही तरह के लोगों का एक ग्रुप बना रखा था और वो लोग आपस में रहते थे। और ये किस तरह के थे? बोले हम ऐसे थे जो ऐसे ही अपना रहते थे। पढ़ाई लिखाई में भी बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देते थे। लेकिन फेल नहीं होते थे। पास भी हो जाते थे। एवरेज किस्म के नंबर आते थे। तो हम कूल जैसा रहते थे। अपना इधर-उधर घूमते रहते थे। हम चारों पांचों लोग ही दुबले पतले थे। कोई भी किसी स्पोर्ट्स में भी नहीं था। जिमिंग भी कोई नहीं करता था। कुछ नहीं था। तुम आपस में अपना रहते थे। आपस में रहोगे तो तुमसे बेहतर कौन है और तुमसे बेहतर जिंदगी कैसे जी जा सकती है? तुम्हें पता भी कैसे चलेगा? यह बताओ। और जो भीतरी हमारी माया है, अहंकार उसकी यह चाल देख रहे हो? वो दोस्ती ही ऐसों से करना चाहता है जो अपनी ही तरह क्यों? क्योंकि किसी और के साथ हो गए तो तकलीफ हो जाएगी। बदलना पड़ेगा। किसी और के साथ हो गए तो जिसके साथ हो जाओगे वह एक चुनौती की तरह हो जाएगा। क्योंकि वो तो कहेगा मैं अब यह करने जा रहा हूं। मैं अब वो करने जा रहा हूं। और आप ना कुछ करते हो ना आपको कुछ आता है ना आप कुछ करना सीखना चाहते हो। तो ये तो बड़ी चुनौती खड़ी हो जाएगी।
तो हम अपना एक भीतरी कंफर्ट ज़ोन ही नहीं बनाते हैं। हम एक बाहरी कंफर्ट ज़ोन भी बना लेते हैं। अपने ही जैसों का एक गैंग बना के। और यह कॉलेज में खूब होता है। यह मत होने देना। जो तुम्हारे ही जैसा है वो तुम्हारी मदद नहीं कर सकता। जो तुम्हारे ही जैसा है वो तुम्हारे लिए प्रेरणा, इंस्पिरेशन नहीं बन सकता।
एक आखिरी बात और जब कोई बात बहुत जरूरी लग रही हो ना और उसमें बहुत समय जा रहा हो होता है ना और हमारी उम्र में ना जाने कितनी बातें हमको बहुत जरूरी लगने लग जाती हैं। बहुत आवश्यक अरे ये तो बहुत इंपॉर्टेंट बात है। तो बस एक चीज पूछना है अपने आप से। आज से 2 साल बाद इस बात का कितना महत्व रह जाएगा? आज से 2 साल बाद यह चीज अभी इतनी जरूरी लग रही है कि जेहन पर छा गई है। बिल्कुल मन से उतर ही नहीं रही। मैं 4 घंटे से इसी बारे में बात करे जा रहा हूं और 40 घंटे से सोचे जा रहा हूं। अपने आप से पूछो 2 साल बाद वो चीज कितनी जरूरी रहेगी तुम्हारे लि?ए और पिछले दो सालों में ऐसी कितनी चीजें हो चुकी हैं जो हो रही थी तो बहुत बहुत गहरी गंभीर लगती थी और आज उनकी कोई हैसियत नहीं, उनका कोई महत्व नहीं।
जो आदमी यह पूछना शुरू कर देता है वो दिन के अपने कई घंटे बचा लेता है क्योंकि हमारा बहुत सारा समय ऐसी चीजों में जाता है जो बिल्कुल एफिमिरल है। क्षणभंगुर माने अभी लग रहा है बहुत जरूरी है। अभी आके वो मेरा सारा समय खा लेगा और दो दिन बाद कुछ नहीं और हां दो दिन बाद लेकिन कोई दो दिन बाद क्या होगा? कोई दूसरा वैसा ही मुद्दा खड़ा हो जाएगा। और ऐसे ही दोद दो दो दिन करके जवानी भी बीत जाती है। जिंदगी भी बीत जाती है। मौत आ जाती है।
प्रश्नकर्ता:: नमस्ते आचार्य जी। मैं पॉलिटिकल साइंस सेकंड ईयर का छात्र हूं। इसी से रिलेटेड मेरा एक सवाल था। मैं पॉलिटिकल साइंस ले लिया। उस समय मुझे पॉलिटिकल साइंस में काफी इंटरेस्ट थी। लेकिन आपको सुनने के बाद मुझे पॉलिटिकल साइंस अरुची टाइप हो गई है और साहित्य और दर्शन में काफी इंटरेस्ट आ गया है। तो क्या मुझे अपना कोर्स चेंज कर लेना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: जो कुछ बोल रहे हो अगर उसमें सच्चाई है तो बिल्कुल कर लेना चाहिए। लेकिन ये जो इंटरेस्ट है ना ये कई बार बड़ी फ्लिमजी चीज होती है। है सतही और फिकल फिकल माने तो कोई बड़ा फैसला लेने से पहले जिसको तुम अपना इंटरेस्ट कह रहे हो उसकी गहराई जांच लेनी चाहिए क्योंकि इंटरेस्ट उसका क्या है? लहर की तरह आते हैं या लहर की तरह गिर जाते हैं। पिछले 5 सालों में देखो किस-किस चीज में तो इंटरेस्ट हुआ होगा। आज वो कोई चीज तुम्हें थाली पर सजा के भी दे तो तब भी ना लो। और जब वो इंटरेस्ट छाता है मन में तो ऐसा लगता है लहर बहा ले गई। बाप रे!
इंटरेस्ट सच्चा है या नहीं यह जांचने के लिए पूछो। सिर्फ आकर्षित हूं या समझता हूं। सिर्फ आकर्षित हूं या समझता हूं। यह भी पूछो कि जिस प्रक्रिया से मैंने पिछला फैसला लिया था जो अब मुझे गलत लग रहा है। अभी आपने कौन सा कोर्स लिया था? पॉलिटिकल साइंस आप कौन सा लेना चाहते हो?
प्रश्नकर्ता: साहित्य।
साहित्य लेना चाहते। पूछो कि जिस प्रक्रिया से मैंने पॉलिटिकल साइंस लिया था कहीं मैं बिल्कुल उसी प्रक्रिया उसी प्रोसेस से तो साहित्य लिटरेचर नहीं लेना चाहता। कुछ हुआ था मेरे साथ और मुझे राजनीति शास्त्र बहुत आकर्षक लगा था। आ यही पढूंगा, यही पढूंगा। कुछ हुआ था? बिना कुछ हुए तो आपने टिक नहीं करा होगा कि यही चाहिए।
प्रश्नकर्ता: सर, आकर्षक कम मेरे सारे दोस्त ले रहे थे तो मैं भी…
आचार्य प्रशांत: ठीक। तो, यह प्रक्रिया घटी थी कि बाहर से प्रभाव आया था और बाहरी प्रभाव में मैं भी बह गया था। यह प्रक्रिया थी पिछली बार। पूछना जरूरी है कि कहीं उसी से मिलती जुलती प्रक्रिया इस बार भी तो नहीं है? पिछली बार भी बाहरी प्रभावों के कारण पॉलिटिकल साइंस ले लिया और पछताए। और इस बार भी जो फैसला करने जा रहे हो कहीं उसमें भी अपनी समझ, अपना बोथ, अपनी अंडरस्टैंडिंग की जगह एक्सटर्नल इन्फ्लुएंसेस बाहरी प्रभाव ही तो नहीं है और बाहरी तो देखो बाहरी होता है। वो बाहरी प्रभाव चाहे तुम्हारे दोस्तों का हो, चाहे मेरा हो, किसी का हो। कोई फर्क नहीं पड़ता। आदमी को जिंदगी अपनी जीनी है, अपने साथ जीनी है।
समय आपको अपना लगाना पड़ेगा। आप जो भी क्षेत्र चुनोगे, ऊर्जा आपकी लगेगी। जिंदगी आपकी है। तो आपको पूछना पड़ेगा। मेरा इससे कोई दिली नाता है क्या? क्योंकि एक दो दिन की बात नहीं है। हल्कीफुल्की नहीं है। आपको उसके साथ कई साल गुजारने हैं। और तीन-चार साल तो कम से कम उसके आगे भी हो सकता है कि आप और उसी में पढ़ाई करें तो और कई साल लगे। उसके बाद हो सकता है कि उसी क्षेत्र में आप अपना करियर बना लें तो और कई साल लगे। इतने साल देने जा रहे हो किसी चीज को। पूछो तो सही। क्यों? बात क्या है? मेरा इससे नाता क्या है? मुझे कैसे पता कि यहां सब ठीक होगा। मैंने रिसर्च कितनी करी है? दोनों बातें पूछनी पड़ती है। मेरा इससे कोई हार्दिक दिली नाता है या नहीं? और दूसरा मैंने बाहर रिसर्च कितनी करी है?
ये लिटरेचर का फील्ड होता क्या है? क्या पढ़ाते हैं? पाठ्यक्रम क्या है? लोग पढ़ने के बाद क्या करते हैं? जो लोग पढ़ रहे हैं। क्या ऐसे पांच सात लोगों से मैं मिलकर आया? जो पढ़ा रहे हैं ऐसे कुछ प्रोफेसर्स से मैंने जाकर बात करी? और अगर मैं वो साधारण भीतरी और बाहरी रिसर्च भी करने को तैयार नहीं हूं तो फिर मेरे फैसले का आधार क्या है? वही पुरानी बात हो जाएगी ना कि किसी से एक प्रभाव आ गया तो मैंने उसी लहर में एक फैसला कर लिया। अब एक दूसरी लहर आई है तो अब मैं दूसरा या विपरीत फैसला कर रहा हूं। यह जो लहर वाला काम है ये गड़बड़ होता है।
तो दो तरह की रिसर्च करो। बाहर जाकर पता करो कि साहित्य का क्षेत्र वास्तव में है क्या? हम पढ़ने वालों पढ़ाने वालों दोनों से बातचीत करो। उस क्षेत्र में फिर जो काम करने निकलते हैं उन्हें किस तरह के काम उपलब्ध होते हैं यह देखो। यह बाहरी हो गई रिसर्च और एक भीतरी गवेना होती है। इंटरनल रिसर्च खोज। खुद से पूछना पड़ता है। साहित्य से मेरा नाता क्या है? इस क्षेत्र से मुझे प्रेम है। ऐसा क्या है मेरे भीतर जो साहित्य की ओर आकृष्ट हो रहा है। यह खुद से पूछना पड़ता है। और जब दोनों उत्तर तालमेल में हो, दोनों दिशाओं में बात बन रही हो तो समझ चलो फैसला हो गया।
प्रश्नकर्ता: सोसाइटी से रिलेटेड एक सवाल था। मैं फर्स्ट ईयर में था तो मुझे एक ही सोसाइटी में इंटरेस्ट थी। डिबेट में मुझे इंटरेस्ट थी तो मैं डिबेटिंग सोसाइटी ज्वाइन कर लिया और दर्जनों डिबेट किया लेकिन बहुत कम ही डिबेट जीता। लेकिन सेकंड ईयर तक आते-आते मुझे वहां से भी इंटरेस्ट खत्म हो गया। अब लगता है मतलब अंदर से आता है कि व्यर्थ ही डिबेट व्यर्थ ही टॉपिकों का डिबेट होता है कि हूं जाऊं। तो डीएक्टिव हो रहा हूं। तो क्या करना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: नहीं डिबेट में पहले जिस वजह से जाते थे वह वजह ही फिर उचित नहीं रही होगी। डिबेट माने क्या होता है? डिबेट माने थोड़ी होता है कि सामने वाले को रगड़ दूंगा। डिबेट माने ये थोड़ी होता है कि मैं जाऊंगा और कहूंगा आई एम द चैंपियन। डिबेट का मतलब होता है कोई मुद्दा है जिसके बारे में सचमुच मेरे पास कहने के लिए कुछ है। सचमुच है। और मैं समझता हूं कि जो मैं बोलना चाहता हूं उसे बोलना जाना चाहिए। वह चीज इतनी जरूरी है कि सब तक पहुंचनी चाहिए। मैं इसलिए मंच पर खड़ा होऊंगा पक्ष में या प्रतिपक्ष में क्योंकि जो मुझे बोलना है वह कीमती है। और अगर आपको पता है कि आपको जो बोलना है वो कीमती है तो फिर उससे आपकी रुचि घट कैसे जाएगी? रुचि तो तभी घटती है जब इसलिए बोलने गए थे कि किसी को यह बैठे हुए हैं ऑडियंस में इनको इंप्रेस कर दूंगा। अब देखा कि कोई इंप्रेस तो होता नहीं तो बोले कुछ और ट्राई करते हैं। यहां तो बात जम नहीं रही है। बात समझ में आ रही है?
काम जब समझदारी से, गहराई से और प्यार से चुनते हो तो फिर यह नहीं होता कि हर 6 महीने में लगे कि यार जी उब गया। किसी और दिशा में भागते हैं। काम कोई छोटी चीज नहीं होती है। वो आपकी जिंदगी का पहला रिश्ता होता है। आप उसके साथ सबसे ज्यादा समय बिताते हो। वो ऐसी चीज है जो आप कर रहे हो। आपका दिमाग कर रहा है। आपकी बुद्धि कर रही है। आपके हाथपांव कर रहे हैं। भीतर से बाहर से आप उस चीज के साथ हो। बहुत निजी बहुत करीबी, बहुत इंटिमेट चीज होती है वर्क। उसके साथ हम कह रहे हैं रिश्ता समझदारी का और प्यार का होना चाहिए। सारे ही रिश्ते समझदारी और प्यार के होने चाहिए। नहीं तो कोई भी रिश्ता बनाओगे 6 महीने में यही लगेगा कि यार लेट्स मूव ऑन। और वो मूविंग ऑन से कुछ होगा नहीं क्योंकि मूव ऑन करके अब जिससे रिश्ता बनाओगे उसके साथ भी बस ऐसे ही पहुंच गए थे टहलते टहलते कि कुछ और नहीं है तो चलो इसी के साथ हो लेते हैं।
प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी मेरा नाम कृष्णम वर्मा है। मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी में सेकंड ईयर का स्टूडेंट हूं। मेरा आपसे सवाल है कि मेरा इंटरेस्ट हमेशा से स्पिरिचुअलिटी में रहा है। पर जब भी मैं स्पिरिचुअलिटी में ज्यादा इंडल्ज हो जाता हूं तो मेरा ध्यान स्टडी से थोड़ा घट जाता है और मैं थोड़ा एंबिशन हो जाता हूं। तो मैं जानना चाहता हूं कि क्या मैं सही चाह रहा हूं।
आचार्य प्रशांत: नहीं कुछ नहीं गलत चाह रहे हो सब। जो भी पढ़ रहे हो उसको गहराई से समझना ही अध्यात्म है। तुम फिर आइदर ऑर में आ गए। या तो यह या तो वो, अथवा अथवा। तुम मुझे देख रहे हो अभी या इस कमरे में जो रोशनी है उसको देख रहे हो? किसको देख रहे हो? पर मुझे क्या देख पाओगे अगर रोशनी नहीं होगी। अध्यात्म रोशनी है। उसको कभी नहीं देखा जाता। वो अपने आप में कोई फील्ड नहीं होती। होता है। पर उसकी मौजूदगी में जो कुछ देख रहे होते हैं वो साफ दिखाई देता है। कोई यहां बैठ के यह नहीं कहेगा कि वह रोशनी को देखने आया है। पर रोशनी ना हो तो कुछ नहीं दिखाई देगा। अध्यात्म वो चीज है। आइदर ऑर थोड़ी होगा कि नहीं रोशनी को नहीं वक्ता को देखना है या वक्ता को देखना है तो रोशनी को नहीं देखना है। ऐसे ही समझ लो कि अध्यात्म बुनियाद की तरह होता है। फाउंडेशन की तरह नीव। तो इमारत में कमरे अलग-अलग हो सकते हैं। लेकिन सब कमरे एक ही नींव पर खड़े होते हैं। वो दिखाई नहीं देती भले ही जमीन के नीचे। जड़ की तरह होता है। अलग-अलग पत्तियां हो सकती हैं। पर उनकी जड़ साझी होती है। आइदर ऑर की बात नहीं है। तुम कुछ भी करोगे, कोई भी पत्ती हो, कोई भी फूल हो, उसके लिए क्या आवश्यक है? जड़। इमारत का कोई भी कमरा हो उसके लिए क्या जरूरी है? नीव। और यहां पर कुछ भी आपको देखना हो उसके लिए क्या जरूरी है? रोशनी। ये है स्पिरिचुअलिटी।
स्पिरिचुअलिटी अपने आप में अलग कोई फील्ड थोड़ी होता है कि यहां इस ऑडिटोरियम में तो स्पीकर है और उस ऑडिटोरियम में रोशनी है। सो यू हैव टू चूज़ आइदर द स्पीकर और द लाइट। कैसा लगेगा ये सुन के? पागलपन की बात है ना? रिश्ता हमेशा किसका है? एंड का है। ‘और’ आइदर ऑर नहीं, और कौन सा वाला और? हिंदी वाला ‘और,’ अंग्रेजी वाला ऑर नहीं चलेगा। आप कुछ भी कर रहे हो आपको आध्यात्मिक होना पड़ेगा अगर उस क्षेत्र में आपको सफल होना है तो। खिलाड़ी को होना पड़ेगा। राजनेता को होना पड़ेगा, अभिनेता को होना पड़ेगा, गणितज्ञ को होना पड़ेगा। तुम बताओ जीवन का कोई क्षेत्र जहां तुम बेहतर हो सकते हो बिना आध्यात्मिक हुए। तुम अच्छे इंसान ही नहीं बन सकते बिना आध्यात्मिक हुए। तुम कुछ भी अच्छे क्या बनोगे बिना आध्यात्मिक हुए।
ना अच्छे वैज्ञानिक बन पाओगे, ना नर्तक बन पाओगे, ना शिक्षक बन पाओगे, ना छात्र बन पाओगे। कुछ नहीं बन पाओगे। अच्छे इंसान ही नहीं बन सकते तो और अच्छा क्या बनोगे? आप कुछ भी पढ़ रहे हो। आप क्या पढ़ते हो?
प्रश्नकर्ता: सर, मैं कैट की प्रिपरेशन कर रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: नहीं वो तो कर रहे हो। और उसके अलावा?
प्रश्नकर्ता: मैथ्स
आचार्य प्रशांत: मैथ्स, तो कैट और मैथ्स। अभी इनके कैट कॉमन एडमिशन टेस्ट तो यह मैनेजमेंट की दिशा जाना चाहते हैं। मैनेजमेंट चीज क्या है यह अपने आप से पूछना अध्यात्म है। मेरा मैनेजमेंट से रिश्ता क्या है, यह अपने आप से पूछना अध्यात्म है। अध्यात्म यह नहीं है कि अभी तो मैं कैट का पेपर सॉल्व कर रहा था। उसको बंद करके वहां जाकर बोलूंगा हरि ओम। यह नहीं होता है अध्यात्म। मैं मैनेजमेंट में जाना चाहता हूं। यह क्या फील्ड है? प्रबंधन माने क्या? किस चीज को मैनेज करूंगा? और जहां मैनेज करने जाऊंगा वहां क्या चल रहा है? अच्छा क्या चल रहा है? अच्छा कोई ऐसी एक्टिविटी चल रही है जिससे प्रॉफिट जनरेट होता है। उसी का नाम बिजनेस है।
ठीक है। सारे बिनेसेस होते ही हैं प्रॉफिट जनरेट करने के लिए। ठीक है। मैं मैनेजर बनूंगा वहां पे। अच्छा। तो मैं उस बिजनेस की मदद करूंगा और ज्यादा प्रॉफिट कमाने में। ठीक है। अच्छा वो प्रॉफिट किसको मिलेगा? मुझे तो सैलरी मिल जाएगी। जो प्रॉफिट है बहुत सारा वो कहां जाएगा? मुझे तो बस सैलरी मिलनी है। बाकी कहां जाएगा? अच्छा अच्छा अच्छा स्टेक होल्डर्स होते हैं। अच्छा तो उनके पास जाता है। अच्छा तो माने मैं जब कहूंगा कि मैं किसी कंपनी में काम कर रहा हूं तो वास्तव में उस कंपनी के जो स्टेक होल्डर्स हैं माने जो जो शेयर होल्डर्स हैं टू बी मोर प्रिसाइज़ मैं उनके लिए काम कर रहा हूं।
अच्छा तो मतलब मैं जितना भी वैल्यू एडिशन कर रहा हूं वो सब किसी इंसान की जेब में जाएगा। अच्छा। तो वो क्या करेगा उस पैसे का? वो क्या करता है उस पैसे का? क्योंकि अगर मैं उसको ₹10 का वैल्यू एडिशन दूंगा तो सैलरी तो मुझे ₹1 ही देगा। बाकी तो सब मुनाफा है जो उसकी जेब में जाएगा। वो करेगा क्या उस पैसे का? क्या करने वाला है? और साथ में हमें यह भी पता चला है कि जो टॉप 1% रिच लोग हैं पृथ्वी के वही जिम्मेदार हैं क्लाइमेट चेंज के ज्यादा से ज्यादा। तो मैं फिर करने क्या जा रहा हूं? मैं ये करने क्या जा रहा हूं? और मैं अपने आप को साथ ही साथ क्या बोलता हूं? मैं अच्छा आदमी हूं। मैं आध्यात्मिक आदमी हूं और मैं क्लाइमेट एक्टिविस्ट भी हूं। मैं क्लाइमेट एक्टिविस्ट भी हूं। जिनके पास मैं इतना पैसा दे रहा हूं। वो उस पैसे का क्या करने वाले हैं? उसे उस क्या करेंगे? वो चैरिटेबल एक्टिविटी करेंगे? स्कूल कॉलेज अस्पताल बनाएंगे? Instagram में आचार्य प्रशांत के ऐड देंगे? क्या करेंगे? करने क्या वाले हैं?
प्रश्नकर्ता: ज्यादा से ज्यादा कार्बन इमिशन।
आचार्य प्रशांत: ज्यादा से ज्यादा कार्बन एमिशन। तो तुम कैट काहे के लिए लिख रहे हो? ये अध्यात्म है। नहीं तो यह सवाल कभी सामने नहीं आएगा। तुम वहां बैठ जाओ। कोई मंत्र फूंकना शुरू कर दो। उससे क्या होगा? जिंदगी के जो असली सवाल हैं उनका सामना तुम करना नहीं चाहते। किताब बंद करके कोने में जाकर कह रहे हो मैं ध्यान लगा रहा हूं। ये ध्यान किस काम का है? जो कर रहे हो, जो जिंदगी सामने है, जो जमीन तुम्हारे पांव के नीचे है, उस पर ध्यान लगाओ ना। तो, यह तो हो गया मैनेजमेंट का क्षेत्र जिसके बारे में सवाल पूछने बहुत जरूरी हैं। और फिर पूछो कि मैं ऐसा हूं क्या कि वहां पर जाकर यह करूंगा और आनंदित रहूंगा। मैं ऐसा हूं क्या? मेरा क्या रिश्ता है इस क्षेत्र से? इस क्षेत्र को जान लिया। अब खुद को भी तो जानना जरूरी है ना। फिर पूछो अच्छा अब मैं खुद को जान रहा हूं। इसको जान रहा हूं। हमारी कितनी पटेगी भाई? हमारी कितनी पटेगी? कैन वी गो टुगेदर? यह अध्यात्म है।
उपनिषद कहते हैं दो क्षेत्र होते हैं अध्यात्म के। दो शाखाएं। एक इसको जानना, एक इसको जानना, एक संसार को जानना और एक अहंकार को जानना। जो इन दोनों को जान रहा है उपनिषद कहते हैं ये है असली चैंपियन। यह मस्त जिएगा। ये इसी जिंदगी में बिल्कुल बादशाह की तरह जिएगा इसे कोई नहीं बांध सकता। उसको बोलते हैं जीवन मुक्त। क्या-क्या जानना है? दुनिया को जानना और खुद को जानना और इन दोनों का रिश्ता जानना है। बस यही अध्यात्म है। तो इसमें यह कभी नहीं कहना चाहिए कि मैं अब ज्यादा स्पिरिचुअल हो रहा हूं तो मुझे दूसरी चीज के लिए टाइम नहीं मिलता। वो जिस भी दूसरी चीज की बात कर रहे हो उसको गहराई से जानना ही। तुम जिस भी क्षेत्र में हो उसको गहराई से जान लो। यही अध्यात्म है। अध्यात्म कोई अलग क्षेत्र नहीं है।