प्रश्नकर्ता (प्र): आम लोगों में अध्यात्म की जो बातें चलती हैं वहाँ ‘अल्प' की भाषा उपयोग की जाती है, और आजकल जैसे कि नए आध्यात्मिक केंद्रों में मिनिमलिज़्म (न्यूनतमवाद), अल्प की भाषा का प्रयोग हो रहा है। तो आचार्य जी, अध्यात्म में इस 'अल्प' का अर्थ क्या है?
आचार्य प्रशांत (आचार्य): 'अल्प' से मतलब समझना: “जो चीज़ छोटी है उसमें सुख मुझे मिल ही नहीं रहा तो मैं लूँ क्यों छोटी चीज़?” इस दृष्टि से फिर अगर मिनिमलिज़्म आए तो ठीक है। “मैं उस चीज़ का न्यूनतम सेवन करूँगा जिसमें मुझे सुख नहीं मिलता," फिर तो ठीक है!
भई एक ऋषि भी एक तरह का मिनिमलिस्ट (न्यूनतमवादी) है; वो किन चीज़ों का मिनिमल , माने न्यूनतम सेवन करता है? जिन चीज़ों से उसे सुख नहीं मिलता है। और ये बात तो ठीक ही लग रही है न? जिस चीज़ से तुम्हें सुख नहीं मिलता, उसका क्या तुम भरपूर सेवन करना चाहते हो? तो ऋषि कह रहा है कि, “बहुत सारे कपड़े पहनने से मुझे सुख तो मिलता नहीं है, तो मैं कितने कपड़े पहनूँगा? मैं थोड़े-से ही पहनूँगा, उतने-से जितने से काम चल जाए।” ये असली मिनिमलिज़्म है; और देखो ये कितना सही और कितना तार्किक है।
“बहुत बड़े मकान से मुझे सुख तो मिलता नहीं, तो मैं अपनी एक छोटी-सी कुटी बनाऊँगा। छोटी कुटी क्यों बना रहा हूँ मैं? इसलिए कि छोटे में सुख है? नहीं, इसलिए क्योंकि बड़े में सुख नहीं है; पदार्थ मैं कितना भी सारा ले आऊँ, उसमें सुख नहीं है।“ तो इस दृष्टि से जब तुम देखते हो दुनिया को, तुम कहते हो कि, “मेरा चुनने का, निर्णय करने का एकमात्र पैमाना है मेरा अधिकतम, उच्चतम सुख”; उसी को आनंद कहते हैं; कि, “आनंद जिस वस्तु में मिल रहा होगा उस वस्तु को तो मैं अधिक-से-अधिक अपने पास ले आ लूँगा, जान लगा लूँगा उस चीज़ को अपने पास लाने में, आनंद मिल रहा है तो। और अगर एक बार मुझे समझ में आ गया कि इस चीज़ में या इस काम में या इस जगह में या इस व्यक्ति में आनंद नहीं है मेरे लिए, तो उसके बाद मैं मूर्ख नहीं हूँ कि तब भी उसको इकट्ठा करता चलूँ, उसका अधिक-से-अधिक अनुभव लेता चलूँ। फिर तो मैं उस व्यक्ति, वस्तु या विचार या जगह से अपना संबंध बिलकुल न्यूनतम कर दूँगा”; ये हुई बात।
“संसार की जितनी चीज़ें हैं इनसे मुझे सुख नहीं मिल रहा, और ये भी मुझे दिखाई दे रहा है कि संसार की जितनी चीज़ें हैं वो सब सीमित हैं; दोनों तरीके से: अपने आकार में भी सीमित हैं, और कितना मुझे वो सुख दे सकती हैं, कितनी सुखद हो सकती हैं, इस अर्थ में भी वो सीमित हैं। उनका आकार भी सीमित है और सुख देने की उनकी क्षमता भी; और मुझे चाहिए अनंत सुख।“ देखो ये बात बहुत निर्लज्ज होकर बोलनी पड़ती है।
आध्यात्मिक आदमी को हमने संतोषी बना दिया है, हमने ऐसी छवि खड़ी कर दी है कि आध्यात्मिक आदमी तो वो जो परम संतोषी होता है। नहीं, समझना पड़ेगा। एक तरफ तो हम ये भी कहते हैं, “संतोषं परमं सुखं," और दूसरी तरफ उपनिषद् ये भी कह रहे हैं, “यो वै भूमा तत् सुखं।" इन दोनों बातों को एकसाथ तुम कैसे जोड़कर देखोगे? एक जगह हमें कहा गया है कि संतोष ही परम सुख है और यहाँ पर हमसे ऋषि कह रहे हैं कि जो बड़ा है उसी में परमसुख है; इन दोनों बातों को कैसे जोड़कर देखोगे? इसका मतलब ये है कि जगत की जितनी चीज़ें हैं उनकी तरफ तो दृष्टि रखो संतोष की; किस तरह के संतोष की? “भैया बहुत हो गया।" क्यों बहुत हो गया? “तुमसे वैसे भी क्या मिल सकता है?" तो जगत की तरफ तो दृष्टि रहेगी संतोष की। और जगत जब भी कुछ हमारी तरफ लेकर आएगा तो हम कहेंगे, “संतोषं परमं सुखं; तुमसे नहीं लेंगे, क्योंकि तुमसे लेने में हमें समझ में आ चुका है कि कितना भी ले लो बाहर-बाहर से बड़ा-बड़ा, भीतर आकर के वो हो जाता है छोटा-छोटा।“ तो जब संसार की चीज़ों की बात आएगी तो हम कहेंगे, “संतोषं परमं सुखं," और जब चेतना की बात आएगी तो हम कहेंगे कि, “जो बड़ा है; यो वै भूमा तत् सुखं, जो बड़े से बड़ा है उसमें ही सुख मिलना है।“ ये दोनों चीज़ें एकसाथ हमें रखकर चलनी हैं।
आध्यात्मिक आदमी ज़बरदस्त रूप से महत्वाकांक्षी होता है, लेकिन किस आयाम में? आंतरिक आयाम में। संसारी आदमी भी महत्वाकांक्षी होता है, लेकिन किस आयाम में? बाहरी आयाम में। बात समझ रहे हो? दोनों का अंतर तुम ऐसे समझ लेना: सांसारिक आदमी कोशिश करेगा बाहरी आयाम में कुछ पाने की; पाने के लिए गति करनी पड़ती है, तो उसकी पूरी कोशिश ये हो जाएगी कि “मैं तेज-से-तेज भागूँ, अधिक-से-अधिक मेरी गति हो,” क्योंकि बाहर की दुनिया में कुछ पाना है तो तुम्हारे पास गति होनी चाहिए; बहुत बड़ा विस्तार है उसको तुम्हें इकट्ठा करना पड़ेगा, जीतना पड़ेगा। और आध्यात्मिक आदमी की महत्वाकांक्षा होती है अंदरूनी आयाम में। अंदरूनी आयाम में तुमको भागना नहीं होता, वहाँ स्थिर हो जाना पड़ता है; और स्थिर हो जाने में भी बड़ी मेहनत लगती है और बाहर भागने में भी बड़ी मेहनत लगती है।
भीतर से स्थिर हो जाने में भी मेहनत लगती है, वो भी एक महत्वाकांक्षा की बात है, कि अपनी गति अंदर बिलकुल शून्य कर दो; बहुत मेहनत का काम है ये, आध्यात्मिक आदमी का काम है, बहुत महत्वाकांक्षा माँगता है ये। और संसारी आदमी की सारी नज़र इस पर रहती है कि बाहर अपनी गति अधिक-से-अधिक बढ़ा दो। ये समझ लो जैसे अंतर हो गया पश्चिम की दृष्टि और भारत की दृष्टि में; पश्चिम ने अपनी सारी ऊर्जा लगा दी कि बाहर के जगत में कैसे गति बढ़ानी है, और भारत ने अपनी सारी ऊर्जा इसमें लगा दी कि अंदर के जगत में कैसे अपनी गति कम करनी है।
ठीक है? समझ रहे हो?
एक जगह जैसे कोशिश की जा रही है कि कितनी तेजी से भागना है, और एक जगह जैसे कोशिश की जा रही है कि बिलकुल शांत होकर खड़े कैसे हो जाना है। और पाया ये गया है कि बाहर जिन्होंने बहुत तेजी से भागने की कोशिश की, उनसे ज़्यादा सफल रहे आंतरिक तौर पर वो जिन्होंने शांत होकर शून्य गति के साथ खड़े हो जाने का प्रयास किया; काम दोनों महत्वाकांक्षा के हैं।
समझ रहे हो?
जो अंदर से शांत हुए बिना बाहर दौड़े, उन्होंने बाहर जो हासिल भी किया वो उनके बहुत काम नहीं आया, यद्यपि उन्होंने बाहर बहुत कुछ हासिल किया; बाहर वो हासिल करेंगे ही क्योंकि उनकी महत्वाकांक्षा ही किस आयाम की है? बाहरी। भई जब बाहरी जगत में तुम अपनी उर्जा लगाओगे, कोशिशें लगाओगे, प्रयोग करोगे, विज्ञान करोगे तो बाहर तुम्हारी उपलब्धियाँ भी होंगी। और एक दूसरा मन होता है जिसकी सारी उपलब्धि अंदर होती है, क्योंकि वो अंदर शांत होने की कोशिश कर रहा है, वो कह रहा है, “स्थिर होना है, बिलकुल शून्य होकर खड़े हो जाना है, एकदम संतुलन के साथ।“ तो उसकी सारी उपलब्धियाँ भी कहाँ होती हैं? अंदर के जगत की होती हैं।
अब अंदर-बाहर की बात में एक बात तो हम भूल ही गए: हम बाहर हैं कि हम अंदर हैं? हम तो अंदर ही हैं न? अब बाहर तुम बहुत उपलब्धियाँ हासिल कर लो तो भी तुमने वो किसके लिए हासिल करी हैं? अंदर वाले के लिए; हम तो अंदर हैं, अंदर वाले के लिए ही तो करी हैं। और अंदर वाला अगर अभी अशांत ही है तो बाहर की उपलब्धियाँ काम नहीं आईं। इसीलिए जो आदमी शांत होने की दिशा में अपनी महत्वाकांक्षा बढ़ाता है वो वास्तव में ज़्यादा बड़ी उपलब्धि पाता है उससे, जो संसार में कुछ अर्जित करना चाहता है, कुछ बड़ा पाना चाहता है; क्योंकि तुम संसार में भी जो पाना चाहते हो, पाना तो अपने अंदरूनी ‘आत्म' के लिए ही चाहते हो न? वो अंदर वाला अगर बेचैन ही है, तो तुमने बाहर जो कुछ पाया उसका लाभ क्या होगा? और अगर तुमने अपनी सारी नज़र ही इस पर रखी कि मैं बाहर क्या पा रहा हूँ, तो अंदर वाले के लिए तो तुम कुछ कर ही नहीं पाए न? उर्जा तुमने अपनी सारी किस पर लगा दी? बाहर की दुनिया पर। तो अंदर वाला तो परेशान ही रह गया; तो तुम हार गए, क्योंकि बाहर भी तुम अर्जित कर रहे थे अंदर वाले के लिए, अंदर वाला परेशान ही रह गया तो तुम हार गए।
ऋषि ने कहा कि, “बाहर जो कुछ हासिल किया जा रहा है जब अंदर वाले के लिए ही किया जा रहा है तो मैं उसको ही क्यों न सीधे-सीधे शांत कर दूँ?” तो उसने अपनी सारी महत्वाकांक्षा और बड़ी रखी, वो बोले, “इसको (अंदर वाले को) शांत करना है, सीधे जैकपोट मारना है।“ एकदम जो बीचों-बीच होता है न? बुल्स आइ मारना है। कह रहे हैं, “इतना लंबा चक्कर लेकर के कौन आए, कि बाहर पहले कुछ उपलब्धियाँ करो ताकि उन उपलब्धियों से आंतरिक शांति मिले। अरे! जब आंतरिक शांति ही चाहिए तो सीधे ही अंदर शांत हुए जाते हैं न?”
समझ में आ रही है बात?
ये लेकिन तुम तब ही करोगे जब तुम्हें अंदर की शांति से बहुत-बहुत प्यार हो, तुम्हें इतना प्यार हो कि तुम किसी चीज़ की मध्यस्थता लेने को तैयार न हो।
जब तुम्हें किसी से प्रेम होता है तो तुम क्या चाहते हो कि तुम्हारे और उसके बीच में कोई तीसरा भी रहे, कोई मध्यस्थ भी रहे? लेकिन जब प्यार कम होता है तो तीसरा भी चल जाता है; तब ऐसा भी हो सकता है कि तुम गए हो मिलने के लिए, *डेट * पर, और एक तीसरे को भी साथ लेकर चले गए। ये तुम तीसरे को भी साथ लेकर चले गए, तो मामला अभी बहुत गर्म है नहीं।
पश्चिम ने तीसरे को बीच में लाना स्वीकार कर दिया, किस तीसरे को? संसार को। पश्चिम ने कहा, “मेरे और शांति के बीच में तीसरा, माने संसार मुझे स्वीकार है।" कैसे? “मैं संसार के माध्यम से शांति पाना चाहता हूँ।" ऋषि ने कहा, “नहीं! शांति से बहुत, बहुत प्रेम है; बीच में कोई माध्यम नहीं चाहिए, कोई तीसरा नहीं चाहिए, मध्य में कोई नहीं चाहिए, मध्य में, माने बीच में माध्यम, नहीं चाहिए; तो सीधे शांति पानी है।“ ये बड़ी बात है। यहाँ तुम देख रहे हो, यहाँ कोई विनम्रता नहीं है, यहाँ अभी समर्पण की भी बात नहीं हो रही है, यहाँ तुम्हें दिखाई दे रही है नग्न महत्वाकांक्षा।
अब ये अलग बात है कि हम सब मध्यमवर्गीय संसारी लोग हैं, हमारे लिए नग्न महत्वाकांक्षा कोई बहुत सम्माननीय बात नहीं होती। जब आप किसी को बोलते हो कि भाई! इस आदमी में तो नंगी महत्वाकांक्षा है, तो ये बात आप करीब-करीब अपमान की दृष्टि से बोलते हो, है न? हम तो अधिक-से-अधिक माँगते भी हैं जब ज़्यादा, तो क्या बोल देंगे, कि “लिव लाइफ किंग साइज़ (राजाओं जैसा जीवन जीयो)" बस इतना ही, या बहुत हमने अगर पात्रता दिखाई, बड़ी गर्मी दिखाई तो बोलेंगे, “मेक इट लार्ज (जीवन में कुछ बड़ा करो)"। वो तुम्हारा मेक इट लार्ज भी कुल कितना बड़ा होता है, कितना बड़ा होता है भाई? टब * तो पूरा उठाकर पी नहीं जाते। जिसको तुम बोलते भी हो * टब , वेटर (बायरा) को बुलाकर बोलते हो न, कि, “एक टब ले आ दो,” या, “एक टैंक ले आ दो,” वो भी कुल कितना बड़ा होता है? ये जितना बड़ा है (अपने ब्लैक टी के कप की ओर इशारा करते हुए) उसका दूना हो जाएगा, तीन गुना हो जाएगा, इससे ज़्यादा तो नहीं होता।
ऋषि वो हैं जो अस्तित्व से ही कह रहे हैं, “मेक इट लार्ज , बड़ा चाहिए!” कैसा चाहिए? बड़ा चाहिए! “छोटा छोटों के लिए, हम ब्रह्म हैं, हमें बड़े-से-बड़ा। छोटा अगर हमने माँग लिया तो हम छोटे हो जाएँगे, हमें बड़े-से-बड़ा दो। और बड़े की पहचान ये, कि उसमें आनंद मिलेगा; आनंद नहीं मिल रहा तो बिलकुल छोटा कर दो, एकदम ही छोटा कर दो; जैसे कि क्या? जैसे कि हमारी आवश्यकताएँ। आवश्यकताएँ पूरी करने में कोई आनंद है? तो आवश्यकताएँ कितनी रखेंगे? छोटी-से-छोटी, और जहाँ आनंद है वो कितना रखेंगे? वो बड़े-से-बड़ा। कोई है ऐसा जिसे आवश्यकताएँ पूरी करने में ही आनंद मिल गया हो? तो आवश्यकताएँ पूरी करने में कौन समय लगाए, कौन ऊर्जा लगाए? इन आवश्यकताओं को ही घटा-घटा कर छोटे-से-छोटा कर दो।“ “महीने का ख़र्चा अगर पचास में चलता था, घटा-घटा कर उसको बीस कर देंगे, दस कर देंगे, क्योंकि पचास में भी पूरा क्या कर रहे थे? वो ज़रूरतें, दिनभर की; कपड़ा खरीद लिया, टूथपेस्ट (मंजन) खरीद लिया, गाड़ी में नया पहिया डलवा दिया; पहले इनको कम करो, क्योंकि पुराना पहिया था तब भी हम ऐसे ही थे, बे-रौनक, और नया पहिया डलवा लाए तो भी हम तो बे-रौनक ही रहे, तो ये गाड़ी वाला मामला ही बिलकुल न्यूनतम रखो।“
इन दोनों बातों को साथ लेकर चलना होता है: एक आयाम है जिसमें बहुत संतोष चाहिए और एक आयाम है जिसमें ज्वलंत महत्वाकांक्षा चाहिए; दोनों आयाम आपके जीवन में होने चाहिए। बात समझ रहे हो? और होंगे तो दोनों एक साथ होंगे, नहीं तो कोई नहीं होगा। समझ में आ रही है बात? और अगर कभी कोई तुम्हें मिले जिसने एक आयाम में तुम पाओ कि संतोष साध लिया है, उस आदमी को देखते ही मुस्कुरा देना बाहर से, और प्रणाम कर लेना भीतर से, क्योंकि अगर उसने जगत के आयाम में संतोष साध लिया है तो इसका मतलब भीतर-ही-भीतर वो महान रूप से महत्वाकांक्षी है; उसी महत्वाकांक्षा को फिर तपश्चर्या भी बोलते हैं।
जो बाहर छोटे में संतोष कर रहा है वो भीतर महत् की साधना कर रहा है; बाहर जो जितने छोटे में संतोष कर रहा होगा, समझ लो भीतर वो उतनी बड़ी चीज़ की साधना कर रहा होगा। और बाहर जो जितना ज़्यादा-से-ज़्यादा कमाना चाहता है, भोगने के लिए, इस ज़रूरत के लिए, उस ज़रूरत के लिए, घर-गाड़ी-मकान वगैरह के लिए, समझ लो भीतर उसने उतने कम का लक्ष्य रखा है; वो बाहर-बाहर इकट्ठा कर रहा है और भीतर बिलकुल गरीब, भिख़ारी हुआ बैठा है, और उसके पास कोई ऊँचा लक्ष्य तक नहीं है।
समझ में आ रही है बात?
इसमें लेकिन एक धोखा हो सकता है, उसमें मत पड़ जाना। ये तो बिलकुल सही है कि जो बाहर संतोष में है वो भीतर ज़बरदस्त रूप से महत्वाकांक्षी होगा, लेकिन बाहर संतोष में होना और बाहर के जगत में हारा हुआ होना ये दो अलग-अलग बातें हैं। बाहर संतोष में होने का मतलब होता है कि, “मैं जीत सकता हूँ, मैं जीत रहा नहीं,” ये संतोष है, “मैं पा सकता हूँ, मैं पाना चाहता नहीं। मैं कह ही दूँ कि मुझे चाहिए तो मिल भी जाएगा, पर मैं क्यों कहूँ? कहना मूर्खता होगी, इसलिए नहीं कहता,” ये एक बात होती है। और दूसरी बात ये होती है कि पाना तो हम खूब चाहते हैं बाहर की दुनिया में, पर पाने के लिए, बाहर की दुनिया में पाने के लिए भी कुछ अनुशासन लगता है, कुछ श्रम लगता है; बाहर की दुनिया में पाने के लिए भी जो मेहनत चाहिए, जो अनुशासन चाहिए, हमारे पास वो है ही नहीं। तो बाहर हम दौड़ते तो हैं, ऐसा नहीं है कि हम दौड़ नहीं रहे, लेकिन दौड़ में हम बिलकुल फिसड्डी, सबसे पीछे हैं, और जब हम दौड़ में सबसे फिसड्डी हो जाते हैं तो हम क्या बोलते हैं? “हमारा नाम है संतोषीमल, हम तो संतोष करते हैं।" नहीं, तुम संतोष नहीं कर रहे, तुमसे तो बाहर की दौड़ में भी दौड़ा नहीं जा रहा है, तुम अंदर की दौड़ क्या जीतोगे?
तो ये दो बातों में अंतर करना बहुत-बहुत ज़रूरी है, नहीं तो मैंने जो कहा है वो सब बिलकुल अवैध हो जाएगा। मैंने कहा, “बाहर जिसको संतोष में देखो, समझ लेना कि भीतर वो किसी बहुत बड़ी चीज़ का तपस्वी है,” ये कहा न? लेकिन इसमें ये सावधानी रखनी है कि संतोष पलायन नहीं होता, संतोष पराजय भी नहीं होता; पराजित आदमी और संतोषी आदमी दो अलग-अलग चीज़ें हैं।
पराजित आदमी समझते हो? पराजित आदमी कौन है? पराजित आदमी वो है जो सबके साथ होड़ में था, दौड़ में था, लेकिन रह गया पीछे। उसको मौका मिले तो वो अभी भी सबसे आगे निकलना चाहता है, उस बेचारे को मौका ही नहीं मिल रहा। जान तो वो पूरी लगा रहा है पर अभी मौका नहीं पा रहा, मौका मिले तो वो भी उसी रेस (दौड़) में सबसे आगे निकल जाना चाहता है। और संतोषी आदमी कौन है? जो उस दौड़ से बाहर खड़ा हुआ है; वो दौड़ते हुए को देख रहा है, बीच-बीच में मुस्कुरा रहा है, और फिर कभी-कभी तो देखता भी नहीं। वो कहता है, “कौन इनको देखे? सब मूर्ख!” इन दोनों में अंतर ज़रूरी है समझना। ठीक है?
अपने-आपको भी नापते चलना: कौन हूँ मैं, संतोषी, या पराजित?