काम क्रोध माध मद- इन सबसे भी बड़ी एक समस्या

Acharya Prashant

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काम क्रोध माध मद- इन सबसे भी बड़ी एक समस्या

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।

भावार्थ: जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों को तो वश में करता है, किंतु मन से इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है, ऐसा मूर्ख जीव मिथ्याचारी कहलाता है।

(श्रीमद्भागवत गीता अध्याय ३, श्लोक ६)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या मानसिक विकारों और वृत्तियों से मुक्त हुए बिना कर्मेंद्रियों को वश में किया जा सकता है? अगर मैं मन से कामी और क्रोधी हूँ तो देर-सवेर ये बात कर्म में भी परिलक्षित हो जाएगी न? यहाँ मिथ्याचारी का उल्लेख है- वो जो बाहरी कर्म तो न करे पर मन ही मन वो सब करता रहे, जैसी उसकी वृत्ति है। कृपया समझाएँ कि मन और शरीर में एकत्व कैसे लाएँ? कैसे वो स्थिति आए कि जैसे हों वैसा ही कर्म करें, कोई विरोध न हो मन और कर्म के बीच।

आचार्य प्रशांत: कोई विरोध होता ही नहीं है, तो होगा कैसे? ये प्रश्न इस मान्यता पर आधारित है कि मन और कर्म के बीच विरोध हो सकता है। हो ही नहीं सकता! मान्यता रखी जा रही है कि- शरीर एक दिशा में जा सकता है और मन दूसरी दिशा में जा सकता है। नहीं जा सकते! समझिएगा बात को। उदाहरण के लिए आप कहेंगे कि देखिए कोई ऐसा हो सकता है न? जो शारीरिक तल पर क्रोध या काम न दर्शा रहा हो लेकिन मन से बड़ा कामी और क्रोधी हो जैसा कि इस प्रश्न में भी पूछा गया है, तो विरोध हो गया न? मन से वो कैसा है? कामी और क्रोधी और शरीर से वो क्रोध और काम का प्रदर्शन नहीं कर रहा है तो इस तरह की बुनियाद पर ये सवाल भेजा गया है और कहा गया है कि आचार्य जी ऐसा होता है न कि बाहर-बाहर अर्थात शारीरिक तौर पर कोई हो सकता है जो न दर्शा रहा हो काम को और क्रोध को लेकिन भीतर-भीतर माने मानसिक तौर पर वो कामी भी हो और क्रोधी भी हो तो ये स्थिति सामने रखकर पूछा गया है कि कैसे करें कि इस तरह का विरोधाभास न हो और मैं क्या कह रहा हूँ? ऐसा विरोधाभास होता ही नहीं है भाई!

समझना आपने कहा ये मन है, ये शरीर है, आपने कहा मन में काम है, क्रोध है और शरीर काम और क्रोध दर्शा नहीं रहा है। आपने पूरी बात थोड़े-ही बता दी। पूरी बात क्या है? अब मैं बताता हूँ। पूरी बात ये है कि मन में काम-क्रोध ही नहीं है। मन में काम है, क्रोध है और मक्कारी भी है। मक्कारी क्या कहती है? मक्कारी कहती है कि "काम-क्रोध रखो लेकिन शरीर के तल पर मत दर्शाओ।" तो शरीर वही तो कर रहा है जो मन ने करने को कहा है- मन में तीन चीजें हैं काम, क्रोध, मक्कारी। वो जो तीसरी चीज थी वो आप छुपा गए थे। मक्कारी क्या बोलती है? कि काम-क्रोध को मन में रखो, शरीर के तल पर न दर्शाओ, औरों को पता चल जाएगा, दुनिया में बदनाम हो जाओगे। तो शरीर क्या कर रहा है? काम-क्रोध नहीं दिखा रहा है, तो ये शरीर क्या मन के खिलाफ जा रहा है? नहीं वो मन के खिलाफ नहीं जा रहा, वो मन के साथ ही जा रहा है। मन की किस चीज के साथ जा रहा है? वो मक्कारी के साथ जा रहा है। ये हुई एक बात और अब थोड़ा और आगे की समझिए।

तो

मन की मक्कारी, शरीर के तल पर इस तौर पर प्रदर्शित होती है

कि आप काम और क्रोध सामाजिक तौर पर, प्रकट तौर पर प्रदर्शित नहीं करते। ये आप मन के खिलाफ नहीं गए हैं, ये आप मन के साथ ही चल रहे हैं। ये आप मन की मक्कारी के साथ चल रहे हैं। लेकिन काम-क्रोध मन में तो है हीं, तो शारीरिक तौर पर वो प्रकट होते ही हैं। कब होते हैं प्रकट? वो तब होते हैं प्रकट जब आपके ऊपर सामाजिक पहरे नहीं होते। सामाजिक, नैतिक किसी भी तरह के। जब खुला मौका मिल जाता है, मैदान साफ है, तब वासना क्या प्रकट नहीं होती? सपनों में कहाँ से चली आती है वासना? और भूलिएगा नहीं कामवासना सिर्फ यही नहीं होती है कि किसी का शरीर चाहिए।

आप जाकर के पूछेंगे सिगमंड फ्रायड से तो वो आपको बताएँगे कि कामवासना हज़ार तरीकों से प्रकट होती है जीवन में। आप किस रंग की टोपी पहन रहे हैं अपने सर पर? ये भी हो सकता है आपकी कामवासना की ही अभिव्यक्ति हो। आपके चश्मे के फ्रेम में आपने कौन-सा रंग चुना है और शीशे का कौन सा आकार चुना है? ये बिल्कुल भीतर की कामवासना की अभिव्यक्ति हो सकती है। आप किसी से बात करते समय, कौन-से शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं? आपको क्या लगता है इसका आपकी कामवासना से कोई लेना-देना नहीं? भाई कामवासना भीतर की बड़ी प्रबल ताकत है। वो आपके सब तरह के व्यवहार पर प्रभाव डालती है बल्कि कहिएगा कि संचालित करती है। तो ऐसा थोड़े-ही है कि मन में काम है तो तन में दिखाई नहीं देगा। वो बिल्कुल दिखाई देता है बस आपको इतनी अभी दृष्टि नहीं है, आप इतनी बारीकी से अभी देख नहीं पाते हैं कि जब वो दिखाई दे रहा हो तो आपको पता चल जाए कि वो दिखाई दे रहा है। आप सोचते हैं कोई और चीज है। आपको लगता है कि ये तो यूँ ही किसी और कारक से आया हुआ व्यवहार है। वो किसी और कारक से आया हुआ व्यवहार नहीं है। वो दमित कामवासना ही है जो दूसरा रूप लेकर सामने आ रही है। तो लो यहाँ पर भी तन और मन एक हो गये न कि नहीं हो गये? तन ने दर्शा तो दिया ही कामवासना को, भले ही वासना के तौर पर नहीं, किसी और तौर पर दिखा दिया।

यही बात क्रोध पर भी लागू होती है। क्रोध को हो सकता है कि आप उन लोगों के सामने न दर्शाएँ, जहाँ पर किसी तरह की बदनामी का, रुसवाई का, कुछ खतरा हो लेकिन जहाँ कोई खतरा नहीं होगा वहाँ पर वही क्रोध भड़भड़ा कर सामने आ जाएगा, बिल्कुल एकदम फट पड़ेगा और अगर वहाँ भी नहीं फट रहा तो क्रोध किन्हीं और रूपों में अपनी उर्जा को अभिव्यक्त करेगा। तो इस तरह के भ्रम और गलतफहमी में बिल्कुल न रहें कि मन में जो कुछ है वो कभी भी सिर्फ मन में रह सकता है। मन और तन बिल्कुल एक होते हैं। जो मन में है, वो तन में न हो ये संभव नहीं है और अगर कुछ है जो आपके तन में अभिव्यक्त हो रहा है। तन माने बाहरी व्यवहार में, शारीरिक क्रियाओं में, बोलचाल में, रिश्तेदारी में, उठने-बैठने में, खाने-पीने में, जो कुछ भी शारीरिक क्रियाएँ हो सकती हैं जिनको आप कर्म बोलते हैं आमतौर से, जो कुछ भी व्यवहार में दिखाई दे रहा है, वो यूँ ही नहीं आ गया, वो मन में कहीं न कहीं छुपा बैठा था।

तो इस तरह की दलील भी फिर कभी मत दिया करिये कि कोई कर्म आप से अचानक, अनायास, धोखे से, अकस्मात, हो गया है। धोखे से और अचानक कुछ नहीं हो जाता। अगर आपसे कुछ हो गया है तो वो मन में मौजूद था और फ्रायड से पूछेंगे तो वो ये तक कहेंगे कि कर्म छोड़िए, आप कोई बातचीत कर रहे हैं और आपकी ज़बान फिसल गयी। आपकी जबान फिसल गयी। आप कह कुछ रहे थे, शब्द कुछ और निकल गया अक्सर ऐसा होता है न? तो बहुत संभावना है कि ये जो आप ने ज़बान से फिसलने से कोई बात बोल दी, उसका ताल्लुक आपके भीतर दबी हुई कामवासना से हो। उसको कहते हैं फिर *फ्रायडियन स्लिप*। बोल कुछ रहे थे, बोल कुछ और गये।

तन और मन साथ चलेंगे ही चलेंगे। इसीलिए तो श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि जो ऊपर-ऊपर से इंद्रियों को वश में करता है और मन ही मन चिंतन में लगा रहता है और विचार ये करता है, अपने आपको इस खुशफहमी में रखता है कि किसी को पता थोड़े-ही चल रहा है, वो मूर्ख मिथ्याचारी कहलाता है। क्या कहलाता है? मिथ्याचारी! मिथ्याचारी किसकी नजरों में कहलाता है? जिन को समझ में ही नहीं आयेगा कि ये धोखाधड़ी कर रहा है, वो क्या बोलेंगे उसे मिथ्याचारी? पर मिथ्याचारी वो उसे जरूर बोल देंगे, जो जानते हैं कि ये दोहरा खेल खेलने की कोशिश कर रहा है और वो दोहरा खेल खेला नहीं जा सकता। तन और मन अलग-अलग नहीं हैं।

जो लोग शरीर से शुरुआत करके देखना चाहते हैं, वो ऐसे कहते हैं- "देखो! जिसको आप मन कहते हो, वो बहुत हद तक मस्तिष्क पर आश्रित रहता है, तो मन शरीर का ही सूक्ष्म रूप है।" जो लोग शरीर से शुरुआत करते हैं- वो कहते हैं शरीर है और फिर शरीर के ही सूक्ष्म रूप का नाम- मन है। और फिर दूसरे लोग होते हैं जो मन से शुरुआत करते हैं- वो कहते हैं "ये मन है, यही मन जब अतिसूक्ष्म होता है तो अहमवृत्ति मात्र के रूप में होता है। इसका कोई रूप-रंग आकार नहीं होता, वृत्ति भर होती है। न कोई वजन होता है, न रूप-रंग, आकार, जगह कुछ नहीं, बस वो एक वृत्ति मात्र है। फिर जब वही मन थोड़ा और स्थूल होने लग जाता है तो विचार बनने लग जाता है। फिर वही जब और स्थूल होने लग जाता है तो भावनाएँ बनने लग जाता है। फिर वही जब और स्थूल होने लग जाता है तो फिर शब्द की और दृश्य जगत की, इन सब की रचना होने लग जाती है। और अपने स्थूलतम रूप में- मन ही पूरा ब्रह्मांड बन जाता है और आदमी की देह बन जाता है।

जो मन से शुरुआत करते हैं वो कहते हैं जब तक अतिसूक्ष्म है तो उसको कह दो- मन और जब स्थूल हो जाए तो कहलाएगा- तन। तो मन और तन को जानने वालों ने कभी अलग-अलग नहीं कहा। ये तो हमारी, आम आदमी की होशियारी है कि हम इस मुगालते में रहे आते हैं कि अंदर कुछ और रहेगा, बाहर कुछ और रहेगा। हम मुखौटे बाजी मैं सफल हो जाएँगे। मुखौटे बाजी कभी सफल नहीं हो सकती। अब आप समझे? कि क्यों इस तरह की बड़ी कहानियाँ प्रचलित हैं- कि फलाने थे, वो व्यक्ति को देखकर के उसके मन का हाल बता देते थे, या फलाने थे जो किसी की आँखों में आँखें डाल के उसके विचार पढ़ लेते थे। सुनी है न इस तरह की कहानियाँ? ये कहानियाँ कहाँ से आ रही हैं? मैं नहीं कह रहा कि इन कहानियों में कोई सच्चाई है। ये अधिकांशतः सब झूठी बातें ही होती है। सच्चाई नहीं है इनमें, इस तरह की सच्चाई नहीं है इनमें कि हो सकता है कि कोई तथ्यात्मकता न हो। जिन लोगों के लिए ये बातें बोली गई हैं, हो सकता है उन लोगों को लेकर के ये बातें बिल्कुल भी सच न हों। लेकिन फिर भी इन कहानियों में एक आधारभूत सीख जरूर है- इन कहानियों में सच्चाई हो न हो, हमारे लिए सीख जरूर है। सीख क्या है? कि अगर सामने वाला, देखने वाला, शांत है, वो अपनी ही उलझनों में नहीं फंसा हुआ है तो वो आपको और आपकी आँखों को देख कर के, आपका मन पढ़ लेगा।

आम आदमी दूसरे को देख कर के आमतौर पर कुछ पढ़ नहीं पाता, उसके बारे में ज्यादा जान नहीं पता। क्यों नहीं जान पाता? क्योंकि वो अपनी ही उलझनों में फंसा रहता है। आप अगर अपनी ही उलझन में फंसे हो, तो हो सकता है आपको ये भी न पता चले कि सामने वाला, अपने आँखों में आँसू भरे हुए हो। हो सकता है कि नहीं? आपको दिखाई ही न दे, आप अपने में ही बौराए हुये हो। लेकिन जो अपने से मुक्त हो गया, वो जब देखता है किसी को, तो सब पढ़ लेता है। कम से कम सिद्धांतः ऐसा संभव है। सिद्धांतः ऐसा संभव है। इसका संभव होना ही ये बताता है कि तन और मन, एक है। मन का सारा हाल तन में पढ़ा जा सकता है। तन, मन का ही विस्तार है। मन जैसा होता है तन को वैसा होते देर नहीं लगती। इसका अर्थ ये नहीं है कि मन आपका वृहद हो जाएगा तो आपकी हाथों की लंबाई बढ़ जाएगी। उस रूप में मत ले लीजिएगा। लेकिन फिर भी, काया में ही जैसे कुछ अलग होने लगता है।

यही वजह है कि भारत में ये प्रथा रही है कि जब ज्ञानी जनों और मुक्त जनों की मूर्तियाँ या प्रतिमाएँ बनाई गयीं तो उनमें कुछ विशिष्ट शारीरिक लक्षण भी दिखा दिये गएँ। इसका मतलब ये नहीं है कि वो जो विशिष्ट शारीरिक लक्षण दिखाए जा रहे हैं, वो वास्तव में उन लोगों की देह में मौजूद थे। अब उदाहरण के लिए देवी-देवताओं के बहुत सारे हाथ वगैरह दिखा दिये जाते हैं। किसी के आठ हाथ, किसी के सोलह हाथ, इसका ये नहीं मतलब है कि उस व्यक्ति के सही में आठ हाथ थे कि सोलह हाथ थे। वो इतने हाथों का दिखाया जाना वास्तव में मन की बहु कलात्मकता की ओर संकेत करता है कि इनका मन है ऐसा था कि वो शस्त्र भी समझता था, शंख भी समझता था, वेद भी समझता था, तलवार भी समझता था, तो चार हाथ दिखा दिये। इसी तरीके सिर के पीछे एक आभामंडल दिखा दिया जाता है, इसका मतलब ये नहीं है कि उनके सिर से किसी प्रकार का कुछ विकिरण निकलता था, कुछ रोशनी निकलती थी, ये सब। न! इसका मतलब इतना ही है कि मन प्रकाशित था और मन जब प्रकाशित होता है, तब अगर देखने वाले की आँख हो देखने जैसी तो मन का प्रकाश वो चेहरे पर भी देख लेता है। हर कोई नहीं देख पाएगा। ऐसा नहीं है कि मन प्रकाशित होगा तो मुँह पर ट्यूबलाइट जलने लगेगी या कि आप बिल्कुल ऐसे अंधेरे में निकलेंगे तो वहाँ पर रोशनी हो जाएगी और लोग आपको आगे-आगे लेकर चलेंगे कि भाई! आज अंधेरा बहुत है तो इनको आगे ले कर के चलो। वो सब नहीं होगा। तो ये जो आभामंडल दिखाया जाता है चेहरे पर, वो सांकेतिक है।

आम आदमी को कुछ नहीं दिखाई देता। आदमी के सामने आप चाहे राम को ले आएँ, कृष्ण को ले आएँ, किसी को ले आएँ उसे कोई दिव्यता, कोई आभा नहीं दिखाई देने वाली। लेकिन एक जानकार, समझदार आदमी के सामने से अगर कोई गुजरेगा- कोई ऋषि, कोई अष्टावक्र, बुद्ध तो वो पकड़ लेगा। वो कहेगा ये आदमी खास है। ज्ञानी की खासियत को पकड़ने के लिए पहले पकड़ने वाले को खास होना चाहिए। उसकी आँखों में वो प्रकाश होना चाहिए कि वो ज्ञानी का प्रकाश देख सके। आपकी आँखों में अगर प्रकाश होगा तो फिर वो दिखाई दे जाता है।

तो जो नासमझ है उसके लिए दुनिया में भेद ही भेद हैं, इसी को द्वैत कहते हैं। उसको हमेशा ये लगता है कि यहाँ ऐसा, यहाँ ऐसा है। जो समझदार हो जाता है उसको धीरे-धीरे करके सारे भेद हटने लगते हैं, उसे एकत्व दिखाई देता है। कहता है "मामला एक है, ऊपर-ऊपर से चीजें छिन्न-भिन्न लग रही थीं, नीचे-नीचे जुड़ी हुई हैं सब।"

फिर पूछा है प्रश्नकर्ता ने कि आचार्य जी, ये एकत्व लाएँ कैसे? तन मन में मेरा अलग रहता है। वो एकत्व ऐसे ही आ जायेगा जब समझ लो कि- तन, मन अलग हो नहीं सकता। जैसे ही तुम्हारी ये धारणा बिखरेगी कि तन और मन अलग रह सकते हैं, वैसे ही तुम्हारी कथनी, करनी अपने आप एक हो जाएगी। भाई! विचार में और कर्म में आप अपनी चालाकी में भेद तभी करते हो न जब आपको लगता है कि विचार और कर्म में भेद करना संभव है। एक बार आप समझ गये कि संभव है ही नहीं तो आप भेद करोगे भी नहीं। ये जान जाओ कि नहीं छुपेगा! आप ये सोचो कि विचार मेरे भले ही घटिया हैं, पर मेरा मुखौटा तो बड़ा पाक साफ है न? तो मैं बचा रह जाऊँगा। आप बचे नहीं रह जाओगे। आप कहो मैंने बाहर-बाहर थोड़े ही कुछ किया है, मैं तो मन में हिंसा रखता हूँ। मन में मैं सोचता रहता हूँ- ये फलाना, इसकी मैं टांग तोड़ दूँ, इसका कुछ अनिष्ट हो जाए, ये मर ही क्यों नहीं जाता और बाहर-बाहर वो जब भी मिलता है तो मुस्कुरा कर कहता हूँ "जी, कैसे हैं आप? आप दो सौ साल जियें, आइये गले लग जाइये" और आप सोचते हैं देखा! मैंने क्या चालाकी करी? "अंदर ही अंदर तो मैं इसका जानी दुश्मन हूँ, मैं चाहता हूँ ये कल मर जाए पर ऊपर-ऊपर मैंने इसको ये जता रखा है कि मैं इसका बड़ा शुभेच्छु हूँ" और हम बड़े खुश होते हैं कि हमने इसको बेवकूफ बना दिया। नहीं बेवकूफ बना दिया। आप जो कुछ कर रहे हैं वो आपको भारी पड़ेगा। कोई और नहीं, आप ही बेवकूफ बन रहे हैं। ये बात जिसको समझ में आ गयी, उसके बाद उसके विचार, उसके वक्तव्य और उसके व्यवहार में भेद समाप्त हो जाता है। फिर वो जो सोचता है, वही बोलता है और जो बोलता है वही करता है। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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