कलियुग कब और कैसे खत्म होगा? || (2021)

Acharya Prashant

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कलियुग कब और कैसे खत्म होगा? || (2021)

प्रश्नकर्ता: कलियुग खत्म कैसे होगा? और ये जो सब सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग बताए गए हैं; होते क्या है? कृपया थोड़ा प्रकाश डालिए।

आचार्य प्रशांत: बहुत अच्छे। (प्रश्नकर्ता से) मन की अवस्थाएँ हैं, समय ही मन है, मन ही समय है।

"काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय। जेती मन की कल्पना, काल कहावै सोय।।"

'जेती मन की कल्पना काल कहावै सोय', मन ही काल है।

"नाहं कालस्य, अहमेव कालम"- उपनिषद् कहते हैं।

तो जब समय मन है, काल, युग मन है, तो ये जितने हैं सतयुग, द्वापरयुग, त्रेता सब कहाँ हो गए ये? ये मन में हो गए। ये कोई तुमसे बाहर घटने वाली घटनाएँ नहीं हैं। वेदांत ये तुमको कुछ मूलभूत बातें हैं जो बताता है, बाहर कुछ नहीं घट रहा बेटा! बाहर कुछ नहीं घट रहा। समय का पूरा प्रवाह ही तुममें है। मन साफ़ है—सतयुग है। मन मलिन है—कलियुग है। ऐसा कुछ नहीं है कि ये कैलेंडर पर घटने वाली घटनाएँ हैं, कि फ़लाने इतने हज़ार या इतने करोड़ वर्ष बीत जाएँगे तो फ़िर सतयुग हटेगा फ़लाना युग आएगा फिर फ़लाना युग बीतेगा इतने करोड़ वर्ष बीत जाएँगे।

बड़ी बहस चलती है कि, "अभी कलियुग ख़त्म होने में भाई कितना समय बाकी है जल्दी बताओ?" अरे! छोटू तुम हँस रहे हो—लोगों के लिए बड़े गम्भीर विमर्श का मुद्दा है कि अभी कलियुग ख़त्म में समय कितना बाकी है। ऐसे-ऐसे बैठे हैं वो बता रहे हैं "एंएं… तुम सब तो पीछे रह गए हम तुमको बताते हैं असली बात—अभी कलियुग चल ही नहीं रहा अभी द्वापर चल रहा है!" तो मूढ़ो को पछाड़ने के लिए महामूढ़ो की कमी नहीं है; एक से बढ़कर एक बात बताते हैं।

इसीलिए काल चक्र बोलते हैं। जानते हो जो सारा चक्र है, चक्कर है ये कहाँ चलता है? ये सारा इंसान के खोपड़े में चलता है। कोई बाहर थोड़े ही चल रहा है! हम सोचते हैं कि जैसे जनवरी, फरवरी, मार्च, अप्रैल होता है कि एक बार बीत गया फिर अगले साल फिर आ जाएगा वैसे ही सतयुग, कलियुग होते हैं, कि अभी बीत गए थे पीछे वाले अभी फिर आने ही वाले हैं; नहीं! ऐसा नहीं है।

"मन के बहुतक रंग है, छिन-छिन बदले सोय"

मन में ही सारे परिवर्तन हो रहे हैं, काल का समस्त प्रवाह मन में है। जो मन की सब रंगों से ऊपर की अवस्था है उसको 'सत अवस्था' कहते हैं, और तुम जब वहाँ होते हो तो सतयुग होता है। मज़ेदार बात जानते हो क्या है? जब तुम सतयुग में होते हो तब समय तुमसे बिलकुल बाहर-बाहर घूम रहा होता है, तुम समय के केंद्र में होते हुए भी समय के सिर्फ़ साक्षी होते हो; वो सतयुग है। और तभी कुछ ऐसा होता है जो बहुत अच्छा, बहुत सुंदर, बहुत अनुकरणीय होता है, क्योंकि, तुम हटे हुए होते हो। तुम कहते हो, "ये जो चल रहा है समय का—माने प्रकृति का—माने मन का पूरा खेल वो चलता रहे हम देख रहे हैं।" आनंद-ही-आनंद होता है उस समय; इसीलिए सतयुग को सबसे ऊँचा युग माना गया। आनंद-ही-आनंद है उसमें। जो सतयुग का आनंद है वो वास्तव में 'आत्मस्थ' होने का या 'साक्षित्व' का आनंद है।

और जो कलियुग का दुःख है, और जो कलियुग का पाप है वो वास्तव में भोग की लिप्सा है, वो लिप्त हो जाने की पीड़ा है। कलियुग का क्या मतलब है? कि जो कुछ चल रहा है हम उसी में जाकर घुस जाएँगे, जो दिखाई दिया हम उसी से जा कर चिपक जाएँगे। बाज़ार में एक बढ़िया चीज़ दिखाई दी, अब वो महीनों तक घूम रही है कैसे खरीद लें। किसी की तरक्की दिखाई दी वो महीनों तक घूम रही है; भीतर जलन मची हुई है। कामुकता हद दर्जे तक दिमाग पर चढ़ी हुई है—ये कलियुग है। लिप्त होना है, चिपक जाना है, मुँह दे देना है—ये कलियुग है।

सतयुग का क्या मतलब है? परे, परे! परे! सबसे सुंदर शब्द है 'परे'। एक सुंदर, स्वच्छ प्रेमपूर्ण दूरी—ये सतयुग है। और इन दोनों के बीच की समझ लो दो इंटरमीडिएट (मध्यवर्ती) अवस्थाएँ; उनको कह लो द्वापर और त्रेता। लेकिन जो खेल है वो घूम फ़िर कर के लिप्सा और अनासक्ति का ही है।

अब से कभी ये मत पूछ लेना कि, "सतयुग चल रहा है?" कोई आषाढ़ है, सावन है क्या है कि चल रहा है, ये ऐसी-ऐसी बात है अभी बारिश चल रही है बाहर। बाहर नहीं होता वो भीतर होता है। इसी क्षण सतयुग आ सकता है तुम्हारे लिए—मन शुद्ध कर लो तो! जिसका मन जब तक शुद्ध है उसके लिए सतयुग चल रहा है। जिस क्षण तुम्हारा मन कलुषित है कलियुग आ गया तुम्हारा।

प्र२: क्या उपनिषदों को स्कूल में पढ़ाया जाना चाहिए? बेकार टीचर (अध्यापक) अगर ग़लत पढ़ा दे तो?

आचार्य: अरे! स्कूल तो भरे हुए हैं बेकार टीचरों से, उन्होंने तुम्हें गणित भी ग़लत पढ़ाई है, उन्होंने भूगोल भी ग़लत पढ़ाया है, इतिहास भी ग़लत पढ़ाया है, तो पढ़ोगे नहीं क्या? अधिकांश शिक्षक हम सबको जो मिले वो ना तो बहुत पूर्ण थे, ना परिपक्व थे—जानते हो न? है ही शिक्षा व्यवस्था ऐसी। कुछ लोग जो सौभाग्यशाली होते हैं उनको बहुत अच्छे शिक्षक मिल जाते हैं; 'कुछ', लेकिन, अधिकांशतः तो शिक्षक एकदम मध्यम, दोयम दर्जे के ही होते हैं। तो शिक्षा बंद कर दें क्या! बोलो?

इस फेर में मत रहो कि, "जब एकदम परफेक्ट (उत्तम), पूर्ण कोई शिक्षक मिल जाएगा तभी उपनिषदों की ओर बढ़ेंगे।" जहाँ हो, जैसे हो शुरुआत करो। नहीं समझ में आएगा अपने-आप भीतर से असंतोष उठेगा, असंतोष उठेगा तो ख़ुद ही बेहतर शिक्षक को तलाश़ोगे; गुरु ऐसे ही तो मिलता है। भीतर की एक बैचैनी होती है, तुम ठोकरें खाना शुरू कर देते हो, तुम तलाशना शुरू कर देते हो। और एक दिन वो मिल जाता है जो तुम्हें वास्तव में उपनिषद् पढ़ा सकता है, लेकिन, वो तुम्हें मिलेगा ही नहीं अगर तुमने अपनी बैचेन यात्रा की शुरुआत ही नहीं की। "तो एक अंधी शुरुआत करो, ठोकरें खाते हुए शुरुआत करो; पर शुरुआत तो करो।" शुरुआत ही नहीं करोगे तो कौन तुम्हें मिलेगा।

प्र३: छात्र जीवन में कौन-सा उपनिषद् पढ़ें?

आचार्य: काहे भई! उपनिषदों ने कब से ये विभाजन कर दिया कि ये छात्रों के लिए इनके लिए इनके लिए है? छात्र हो तो कितने सोलह, अट्ठारह साल के तो होओगे न? सब उपनिषद् खुल गए तुम्हारे लिए; सब को पढ़ो। तुमसे शायद कम ही उम्र का रहा होऊँगा, दर्जनों तो मैंने ही पढ़ लिए थे। ये नहीं कि मैं बहुत समझ गया था, नहीं! मैं कोई विशेष प्रतिभा नहीं हूँ; उत्सुकता थी इसलिए पढ़ लिए थे। मैं पढ़ सकता हूँ तो तुम भी पढ़ सकते हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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