कैसे तोड़ें इस पागल मन को? || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

Acharya Prashant

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कैसे तोड़ें इस पागल मन को? || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

प्रश्नकर्ता: लगता है कि मन को कस के निचोड़ दूँ। लोहे की रॉड की तरह मोड़ दूँ कैसे भी। परन्तु कैसे मोडूँ इसे, इसे कैसे पटकूँ?

आचार्य प्रशांत: मन को तोड़ना है, मोड़ना है पर कैसे तोड़ना है? मन अपनेआप में कोई चीज़ तो है नहीं कि ये है (पास रखे कप को दिखाते हुए) इसके भीतर जो रखा है उसको मन कहते हैं। अब इसे तोड़ना है, तोड़ नहीं पा रहे।

मन का अपना कोई नाम-रूप नहीं होता होगा, लेकिन सारे नाम-रूप मन में ही तो होते हैं न। तो मन को तोड़ने का मतलब है मन की सामग्री से स्वयं को तोड़ देना। मन में जो भी सामग्री है, उसको स्वयं से तोड़ दो। ये हुआ मन का टूटना। मन कुछ नहीं है, उसमें जो सामग्री है उसके अतिरिक्त। मन को तोड़ना है तो उसकी सामग्री से अपनेआप को पृथक कर दो।

मोक्ष इति च नित्यानित्यवस्तुविचारादनित्यसंसारसुखदुःख विषयसमस्त क्षेत्र ममताबन्धक्षयो मोक्षः ॥ ॥२९॥

जब नित्य और अनित्य वस्तुओं के विषय में विचार करने से नश्वर संसार के सुख-दु:खात्मक सभी विषयों से ममतारूपी बन्धन हट जाएँ, विनष्ट हो जाएँ, उस (स्थिति) को मोक्ष कहते हैं। ~ निरालंब उपनिषद् (श्लोक 29)

सही केन्द्र से विचार का परिणाम भी बता दिया। हम विचार ही नहीं कर रहे हैं कि सुख मिलेगा कि दुख मिलेगा। हम विचार क्या कह रहे हैं? राम मिलेंगे कि नहीं मिलेंगे।

कितना सरल है न? कठिन लग रहा है? कुछ भी हो, निर्णय करना है। विचार ये मत करो कि सुख मिलेगा या दुख मिलेगा। विचार करो कि राम मिलेंगे या नहीं मिलेंगे।

तो वही बात यहाँ कही कि ऐसा जब विचार करोगे तो, “सुख-दुःखात्मक सभी विषयों से ममता रूपी बन्धन हट जाएँगे।” सुख-दुख का विचार ही नहीं कर रहे तो उसका मोल क्या रहा? कुछ नहीं। जो मेरा है वो बचेगा या नहीं बचेगा, ये विचार ही नहीं कर रहे, तो 'मम्' भाव कैसे बचेगा? ममतारूपी बन्धन गये।

‘मैं बचूँगा या नहीं बचूँगा? मेरा अच्छा होगा, मेरा बुरा होगा?’ नहीं, पूछ ही नहीं रहे। सवाल ही बस एक है — राम मिलेंगे, नहीं मिलेंगे? क्रोध आ रहा है किसी पर, ‘ये करके राम मिलेंगे या नहीं मिलेंगे?’ नींद आ रही है, ‘राम मिलेंगे या नहीं मिलेंगे?’ लालच आ रहा है, ‘राम मिलेंगे या नहीं मिलेंगे?’

जो बात तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण नहीं रह जाती, उससे तुम मुक्त हो जाते हो। ये मुक्ति का सूत्र है। और साथ-ही-साथ ये समझ लो कि जो कुछ भी तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण है, वही तुम्हारा बन्धन है।

हम लोग ऐसे हैं कि जहाँ महत्व देते हैं, वहीं ऊर्जा देते हैं। और हम अपने बन्धनों को ही महत्व देते हैं, इसीलिए हम अपने बन्धनों को स्वयं ही बचाए हुए हैं, पाले-पोसे हुए हैं। हम लोग ऐसे नहीं हैं कि अपने बन्धनों के अलावा किसी और चीज़ को समर्थन दे पायें, ऊर्जा दे पायें। हम कोशिश कर-करके प्रयास कर-करके अपने बन्धनों को कायम रखते हैं।

मैंने एक कविता लिखी थी "विजयादशमी के बैरियर का डंडा"। ऐसे ही अठारह-उन्नीस साल का रहा होऊँगा, सेकंड या थर्ड ईयर में था। तो विजयादशमी पर, दशहरे पर जलसा कह लो, एक समारोह सा हुआ करता था। तो उसमें भीड़ को दिशा देने के लिए, नियंत्रित करने के लिए लम्बे-लम्बे पुराने डंडे लगे हुए थे। वो बहुत पुराने हो गये थे, कभी बदले ही नहीं गये थे, उनमें कोई दम नहीं था।

एक बार तो मैंने अजूबा ही देख लिया। वो डंडा इसलिए है कि वो भीड़ को नियंत्रित करे। उनमें से बहुत सारे ऐसे थे, एक के नीचे एक लगे हुए थे, ताकि भीड़ का प्रवाह एक ही दिशा में बना रहे। वो लगे इसलिए थे कि वो भीड़ को नियंत्रित करे। उनमें से एक टूट गया। जब वो टूट गया तो भीड़ ने उसको संभाल लिया। वो शुभ ठंडा है न, टूटना नहीं चाहिए। तो भीड़ ने उसको संभाल लिया। लोग ही उस डंडे को अपना संभाले हुए हैं। हम ऐसे हैं कि हम अपने बन्धनों को स्वयं संभालते हैं। बन्धनों में कोई दम नहीं, बहुत पुराने हैं, एक झटके में टूटेंगे। हम कोशिश कर-करके उनको क़ायम रखते हैं।

समझ में आ रही है बात?

नित्य-अनित्य के विचार से, सुख-दुखात्मक विषयों से मुक्ति है, ममता मिटती है क्योंकि ‘मम’ क्या है, मेरा क्या है, ये बात वरीयता में नहीं रह जाती, महत्वपूर्ण नहीं रह जाती। महत्वपूर्ण ये रह जाता है कि सच क्या है। मम क्या है, नहीं, सच क्या है।

आप लोग भजन गाते थे, याद है कबीर साहब उसमें कहते थे, "ममता मिटी, उठी अब समता"? तो मम अब महत्वपूर्ण नहीं है, सम महत्वपूर्ण है। मम को भाव ही नहीं दे रहे तो महत्वपूर्ण कैसे रह जाएगा? भाव किसको दे रहे हैं? वही पूछ रहे हैं — राम किधर हैं, राम किधर हैं? यही मोक्ष है।

तो ये तो मोक्ष का बड़ा सीधा-सरल रास्ता मिल गया न। सही सवाल पूछना ही मोक्ष दे देता है। पूछते चलो बस मुक्ति किधर है, राम किधर हैं, मोक्ष मिल जाएगा।

तो बन्धन क्या है फिर? ग़लत प्रश्नों में उलझे रहना ही बन्धन है। सवाल हम सबके पास होते हैं, बड़े फूहड़ सवाल होते हैं। हम मन्दिर के सामने भी कैसे खड़े होकर पूछते हैं, ‘वो किसने बनवाया? क्या लागत आयी थी? भीतर शौचालय है कि नहीं? पहले यहाँ एक नत्थू हलवाई की दुकान हुआ करती थी, मस्त पेड़े देता था वो, वो नज़र नहीं आ रहा?’

सवाल ग़लत है, इसलिए बन्धन है। सही सवाल पूछो, ऋषि कह रहे हैं, ‘मोक्ष दूर नहीं।’ प्रश्न सही रखो जीवन में बस।

मन चंचल हैं, इधर-उधर भटकता है। जब भी वो कुछ जानना चाहे और वो हमेशा कुछ-न-कुछ जानना चाहता ही हैं, कुछ लपकना चाहता है। आँखें इधर-उधर देख रही हैं। वो भी कुछ जानना चाहती हैं। तो पूछा करो, ‘क्या सवाल है तेरे पास? बन्दर जैसी उत्सुकता है या साधक जैसी जिज्ञासा है?’ पशु समान चंचलता है या मनुष्य समान मुमुक्षा है?

मन को इधर-उधर जाना तो है ही, कभी ये पाना है, कभी वो पूछना है। बस पूछो कि तेरा पूछना वैसा है जैसे एक बन्दर पूछता है, ‘इधर केला है या नहीं?’ या तेरा पूछना ऐसा है जैसे एक मनुष्य को पूछना चाहिए — इधर मुमुक्षा है या नहीं? मोक्ष है या नहीं?

अपने प्रश्नों को सही कर लो।

और बात और आगे बढ़ाओगे तो ये भी जान जाओगे कि किसी भी मनुष्य का, स्वयं का भी आंकलन कैसे करना है। बहुत आसान है, उसके प्रश्नों को देख लो, वो तुमसे क्या सवाल करता है। तुम्हें किसी का फ़ोन आता है और वो पहला सवाल ये पूछता है — खाना खाया कि नहीं? जान लो कि ये कौन है। जान लो ये कौन है क्योंकि तुमको जानने का इससे शायद ही कोई बेहतर तरीक़ा हो।

तुम्हारे प्रश्न देख लिये जाएँ, तुम्हारी उत्सुकता देख ली जाए, तुम्हारे सरोकार देख लिये जाएँ। तुम्हारे प्रयोजन किस बात से है।

तुम्हें कोई फ़ोन करता है और पहली चीज़ पूछता है, ‘और, मिल कब रहा है?’ बन्दर कॉलिंग। मनोरंजन के लिए ठीक है, उसके आगे नहीं।

इसीलिए जो तुम्हें तबाह करना चाहते हैं वो तुम्हारे मन में ग़लत प्रश्न आरोपित करते हैं। जो प्रश्न तुम्हारे पास हैं भी नहीं, वो प्रश्न तुम्हारे दिमाग में घुसेड़े जाते हैं।

कहीं कुछ साधारण सी दुर्घटना हो जाए, टीवी पर वो आकर के चिल्लाएगा एक बदतहज़ीब आदमी, ‘क्या ये दुर्घटना अंतर्राष्ट्रीय साज़िश है?’ अब आपने ख़ुद स्वयं कभी नहीं सोचा कि ऐसा भी कुछ है या नहीं है, क्या है। साईकल जाकर के ठेले से टकरा गयी थी, तीन केले दबकर मर गये थे। और वो टीवी पर आकर चिल्ला रहा है, ‘क्या ये अंतर्राष्ट्रीय साज़िश है?’

उसने आपके मन में एक सवाल डाल दिया न! ‘क्या ये अंतर्राष्ट्रीय साज़िश है?’ ऐसे लोगों से बचना जो तुम्हारे मन में एकदम व्यर्थ और मूर्खतापूर्ण प्रश्न डाल देते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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