कैसे लोगों की दोस्ती मेरे लिए अच्छी है? || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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कैसे लोगों की दोस्ती मेरे लिए अच्छी है? || आचार्य प्रशांत (2017)

आचार्य प्रशांत: हम सब ये चाहते हैं कि निर्दोष रहें। तो ऐसे में वो स्थिति हम सबको सुहाती है जिसमें हमें ये एहसास हो कि हम में कोई खोट नहीं, हम में कोई दोष नहीं, क्योंकि निर्दोषिता स्वभाव है न। ऐसा माहौल जो तुम्हें ये एहसास करा दे, थोड़ी ही देर को सही, भ्रम रूप में ही सही, कि तुम पूरे हो, तुम बढ़िया हो, तुम पूर्ण हो, परफेक्ट हो, तुम में कोई दोष नहीं, वो तुम्हें हमेशा अच्छा लगेगा।

लेकिन उसमें एक धोखा हो सकता है, धोखा क्या है? पूर्ण हो और अपनी पूर्णता में खेल रहे हो, नहा रहे हो, मस्त हो, वो एक बात है; और अपूर्ण हो, और पूर्णता का भ्रम पाले हुए हो, दूसरी बात है। अगर अपूर्ण हो, तब तो अच्छा यही है कि तुम्हारे सामने ये उद्घाटित कर दिया जाए कि अपूर्णता है। लेकिन जो कोई भी तुम्हें ये बताए कि तुम में अभी कोई अपूर्णता है, उसका दायित्व ये भी है कि तुम्हें ये भी बताए कि अपूर्णता झूठी है, तुम्हारा स्वभाव तो परफेक्शन (पूर्णता) ही है, सवभाव तो पूर्णता ही है। दोनों काम करने पड़ेंगे।

वो भी गलत है जो तुमसे कह दे कि “नहीं, नहीं, तुम में कोई दोष नहीं है”, और वो भी गलत है जो तुमसे कह दे कि, ”तुम में सिर्फ दोष ही दोष है।”

कबीर ने इसी बात को बड़े सीधे तरीके से कह दिया है; गुरु कुम्हार, शिष्य कुम्भ है। घड़ी-घड़ी काढ़े खोंट, अंदर हाथ सहार दे और बाहर मारे चोट।

दोनों काम एक साथ करने हैं, कौन से दो काम? “अंदर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।” जो कोई तुम्हें चोट ही ना मारे, वो भी तुम्हारे लिए भला नहीं, क्योंकि अगर चोट ही नहीं मार रहा तो तुम्हें लगेगा कि, "हम जैसे हैं बढ़िया हैं", फिर किसी तरीके का कोई बदलाव, कोई सुधार कभी होगा नहीं। और वो भी गड़बड़ है जो तुम्हें चोट तो मारे और अंदर से सहारा ना दे। तुम्हें तो कोई ऐसा चाहिए, जिसे चोट भी मारना आता हो और चोट मारने के बाद सहारा देने के लिए भी मौजूद रहे।

उनको अपना हितैषी मत मान लेना जो तुम्हें चोट ही नहीं मारते। जो तुम्हें चोट ही नहीं मारते वो तो तुमको मजबूर किए दे रहे हैं ग़मों में जीने के लिए। वो तो लगा लो कि तुम्हारी गलतफहमियों में मददगार हो रहे हैं। और जो तुम्हें सिर्फ चोट मार रहे हैं और सहारा देने नहीं आते, वो तो क्रूर हैं, असंवेदनशील है। उनका शायद फिर इरादा तुम्हारे सुधार का नहीं है, वो तो तुम्हें चोट दे देकर के मजे लेना चाहते हैं। करुणा इसमें है कि चोट मारी तो सहारा भी दिया। जो चोट ना मार रहा हो उसे कहना, “चोट मारिए” और जो चोट मार रहा हो उससे कहना कि “चोट मार रहे हो तो सहारा भी दीजिए।”

जब कोई ऐसा मिल जाए जो कभी तुमसे कोई कड़वी बात कहता ही ना हो तो उससे सतर्क हो जाना। उससे कहना कि, “साहब सच-सच बताया करिए हम जैसे हैं, आईना दिखाया करिए।” और जब कोई ऐसा मिल जाए जो हर समय कड़वा ही बोलता रहे तो उससे कहना, “कड़वा बोलते हैं आप भला करते हैं, ज़ख्म देते हैं आप भला करते हैं लेकिन फिर मरहम भी लगाइए। ज़ख्म देते हैं तो अब आपका ही फ़र्ज़ है मरहम लगाना भी, जिस हक़ से चोट दी थी अब उसी हक़ से मरहम भी लगाओ।”

और यही बात अपने लिए भी याद रखना। जब भी किसी को डाँटना तो बाद में उसे दुलारना भी, जब भी किसी को तोड़ना तो बाद में उसे सँवारना भी। तोड़ कर छोड़ दिया तो ये तो बड़ी क्रूरता कर दी और तोड़ा ही नहीं तो भी बड़ी क्रूरता कर दी। तोड़ना भी ज़रूरी है। प्रेम इसमें नहीं होता कि तोड़ना ही नहीं है। अगर प्रेम करते हो किसी को तो उसे तोड़ना ज़रूर लेकिन करुणा के साथ। तोड़ कर फिर जोड़ना भी।

प्र: लेकिन सर, इसका भी कोई निर्धारित समय होता है क्या? जैसे अगर कोई हिंसक मूड में है जब उधर से आ रहा है। आप साफ़ मन हो तो आपको साफ़-साफ़ पता चलेगा कि ये दिक्कत चल रहा है अभी, और मन करता है कि उसी समय बोलें।

आचार्य: मन जो कर रहा है कि उसी समय बोले वो क्या इसलिए कर रहा है क्योंकि सामने वाले से बहुत प्यार है, सामने वाले की बढ़ोतरी चाहते हो इसलिए उसको तुरंत आईना दिखा देना चाहते हो? जब कोई आ रहा है तुम्हारे सामने और तुम्हारा मन कर रहा है उसे कटु-वचन बोलने का तो क्या इसलिए कर रहा है कि उससे प्रेम है? अगर इसलिए कर रहा है तो निसंदेह जितना भी कड़वा बोलना है, बोल दो।

लेकिन आमतौर पर जब हम किसी को कड़वा बोलना चाह रहे होते हैं, जब मन बिलकुल लालायित हो रहा होता है किसी पर वार करने को, तो इसीलिए नहीं लालायित हो रहा होता है कि उसे सामने वाले की बेहतरी चाहिए, मन इसीलिए लालायित हो रहा होता है क्योंकि उसे अपनी भड़ास निकालनी है, उसे अपनी हिंसा का प्रदर्शन करना है। वो इतना भरा बैठा है कि उसे अपना गुबार निकलना है, फट पड़ना है।

प्र: बहुत कम होता है, लेकिन पहला वाला भी होता है।

आचार्य: जब पहले वाला ही शुभ है फिर पीछे मत हटना। देखो, शरीर पर चाकू लुटेरा भी चलाता है और एक सर्जन भी, अगर सर्जन ये कह दे कि, “चाकू चलाना तो हिंसा है”, कभी उपचार नहीं हो पाएगा। तो जब ज़रूरत पड़े तो जिससे प्यार करते हो तो चाकू ज़रूर चलाना पर सर्जन की तरह चलाना।

इसी बात में एक बात और समझ लो अच्छे से। हम कहते ये हैं कि जो सीखना चाहे उसको कीमत अदा करनी चाहिए, यही कहते हैं न? लेकिन जिसे सीखने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है वो तो अभी भ्रम में ही जी रहा होगा न। रौशनी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत किसे है? जो अंधेरे में जी रहा हो। सीखने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत किसको है? जो भ्रम में जी रहा है। जो भ्रम में जी रहा होगा क्या वो कभी ये कहेगा कि, "कीमत देने को तैयार हूँ"? वो तो यही कहेगा न कि, “मुझे कोई कीमत नहीं देनी, मैं तो मस्त हूँ।” कोई भ्रम में जी रहा है तो उसे यही भ्रम है कि, "मैं मस्त हूँ, मैं ठीक हूँ, मैं जैसा हूँ, बढ़िया हूँ।"

तो ये सुनने में बात ठीक लगती है कि जिसे सीखना हो वो कीमत अदा करे। वास्तव में जिसे सीखना चाहिए वो कीमत अदा करने को तैयार नहीं होता क्योंकि वो कहता है कि, “मुझे कोई बीमारी ही नहीं तो मैं कीमत क्या अदा करूँ?” वो कहता है, “मुझे कुछ चाहिए ही नहीं तो में कीमत क्या अदा करूँ?”

तुम उसके पास जाओ, तुम उससे कहो कि, “मैं तुम्हे बोध दूँगा”, तुम उससे कहो कि, “मैं तुम्हे मुक्ति दूँगा ,तुम कीमत अदा करो”, तो वो क्या जवाब देगा? वो कहेगा कि “बोध? दो कौड़ी की चीज़ मुझे चाहिए ही नहीं, मैं कीमत अदा नहीं करता” या फिर “बोध, वो तो हमारे पास कब से है!”

जिसको भी तुम सिखाना चाहोगे, ऐसा कम ही होगा कि वो कीमत अदा करने को तैयार हो। कीमत जानते हो हमेशा किसको अदा करनी पड़ती है? जो सिखाना चाहता है। शिष्य को नहीं कीमत अदा करनी पड़ती, गुरु को करनी पड़ती है।

तो अगर वास्तव में प्यार करते हो किसी से तो तुम कीमत अदा करने को तैयार रहना। उसे सिखाने की कीमत तुम अदा करोगे और उसमे तुम अपने पाँव पीछे मत खींचना, ये मत कहना, “भाई, सिखा तुझे रहा हूँ बेहतरी तेरी हो रही है, कीमत मैं क्यों अदा करूँ?” कीमत तुम ही अदा करो क्योंकि कीमत उन्हें ही अदा करनी होती है जो ज़िम्मेदार होते हैं, जो जानते हैं। जो बेचारा अभी समझ ही नहीं पा रहा वो ये भी समझ नहीं पाएगा कि उसे कीमत अदा करनी चाहिए, वो कुछ नहीं समझेगा। तो इस चक्कर में मत पड़ना कि, “अन्याय हो रहा है कि मैं ही सिखाऊँ और मैं ही रोऊँ और कीमत अदा करूँ!” ऐसा ही होता है। जो जनता है उसी पर ज़िम्मेदारी आती है, जो निभा सकता है उसी पर ज़िम्मेदारी आती है।

प्र: सर ये जो गैप (अन्तर) आ जाता है कि आप कुछ बता रहे हैं, कोई सुन रहा है तो ये जो समझ का गैप आ जाता है वो मैं चाहता नहीं हूँ कि मैं ऐसा महसूस करूँ कि गैप है या ऐसा कुछ है लेकिन ये आता है।

आचार्य: ईमानदार रहो। तुम जितना कम ऊर्जा दे सको अपने विचारों को और भ्रमों को उतनी कम उर्जा दो, बाकी सब धीरे-धीरे अपने आप होगा। जिस गैप की तुम बात कर रहे हो वो थोड़ा बहुत हमेशा रहेगा, बस तुम जान-बूझकर उसको बढ़ाना मत।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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