प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा सवाल ये था कि हम जब ख़ुद के साथ बेईमानी करते हैं, जब ख़ुद को धोखे में रखते हैं, जैसे हम ये जानते हैं कि जो छोटी-मोटी बीमारियाँ हैं, जो छोटी-मोटी परेशानियाँ हैं वो—अगर रोज़ हम योग करें या मेडिटेशन (ध्यान) या कुछ ऐसा तो—वो ठीक हो सकती हैं। और वो योग ही नहीं, चाहे वो बात पढ़ाई की हो, गुरु की हो, साधना की हो, कोई भी बात हो जिसे हमें निरंतर करना चाहिए। लेकिन दो-तीन दिन करने के बाद या तो मन नहीं होता या आलस आता है या हम भटक जाते हैं। वो निरंतरता नहीं बन पाती है, हम रुक जाते हैं।
आचार्य प्रशांत: बेईमानी को तोड़ने के लिए इस पल की ईमानदारी भी काफ़ी होती है। क्योंकि पीछे तो जो हो गया सो हो गया, पीछे बेईमानी भी कर दी थी तो उसको बदल या पलट तो पाओगे नहीं। बेईमानी का इलाज़ होता है कि अभी ईमानदार हो जाओ। यही न! पीछे की बेईमानी की बार-बार चर्चा करने से पीछे की बेईमानी मिट तो जाएगी नहीं।
बेईमानी अगर इतनी ही बुरी लगती है तो उसका एक ही इलाज़ है—अभी मत करो बेईमानी। पहले करी सो करी। बेईमानी बुरी लगती है तो अभी तो मत करो। और अगर इस प्रश्न में ही बेईमानी हो तो?
प्र: नहीं, जैसे मुझे योग करने की ज़रूरत है, मैं जानती भी हूँ कि इससे मेरा स्वास्थ्य ठीक रहेगा। जो चारों-पाँचों बीमारियाँ हैं उसमें से कम-से-कम दो तो ठीक हो ही जाएँगी, कंट्रोल (काबू पाना) हो जाएँगी *एट लिस्ट*। सबकुछ जानते हुए भी इस पर कंटीन्यूटी (निरंतरता) नहीं बन पाती है।
आचार्य: बेईमानी ये है कि जो सब कुछ जानते हो उसमें से मुझे आधा ही बता रहे हो। योग करने के क्या फ़ायदे हैं वो तो मुझे बता दिये कि आचार्य जी योग करने से ये फ़ायदे होते हैं और मुझे पता है कि ये फ़ायदे होते हैं तब भी मैं योग करती नहीं। योग न करने के जो फ़ायदे हैं वो तो मुझे बता ही नहीं रहे। वो भी तो बताओ कि बड़ा मज़ा आता है। वो कौन बताएगा?
इस पल बेइमानी चल रही है न। घातक क्या है? जो पीछे बेईमानी कर ली वो या वो बेईमानी जो शिविर में भी आकर गुरु के सामने भी बैठकर करे ही जा रहे हो?
सब बताते हैं 'दुख बहुत है, दुख बहुत है।' मैं लोगों के दुख सुन-सुनकर पक गया। अपने सुख कोई बताने नहीं आता। सुख खा-पीकर पचा जाते हो; जैसे जलेबी। और जब भद्दी डकार आती है तो मेरे मुँह पर मार जाते हो।
सुख का तो मुझसे उल्लेख ही नहीं करते कि कितने मज़े मारे मैंने। जब उस सुख के फलस्वरूप दुख मिलता है तो गुरु जी को बताना है। गुरु जी दुख एब्जॉर्बर (सोखनेवाला) हैं। सुख तो पीठ पीछे चलता रहता है।
कोई ऐसा नहीं है जिसकी ज़िंदगी में सुख-दुख का पलड़ा बराबर न हो। जो आकर के कहे कि 'बड़ा दुख है, बड़ा दुख है,' जान लो कि उसने सुख भी बहुत मस्त भोगा है। द्वैत का नियम है, साथ चलते हैं दोनों।
आवश्यक नहीं हैं कि तुमने सुख भौतिक रूप से भोगा हो, सुख तुम काल्पनिक रूप से भी तो भोग सकते हो न। उदाहरण के लिए, आशा या सपने। सपने लेने में सुख मिलता है कि नहीं? हो सकता है कि तुम महागरीब हो, तुम्हारे पास एक रुपया ना हो, पर तुम बैठे-बैठे सपने ले रहे हो कि मेरे पास एक लाख है, पाँच करोड़ है। सुख तो मिल ही रहा है न? और तभी किसी ने आकर के तुम्हारी फटी जेब तुम्हारे सामने रख दी, अब दुख लगेगा।
तुम कहोगे, 'गुरु जी हमें सुख कहाँ मिला, हमारे जीवन में तो दुख ही दुख है।' ना-ना, सुख लिया है तुमने। कैसे लिया है सुख? सपने ले-लेकर, कल्पनाएँ कर-करके। और जितनी तुम कल्पनाएँ करोगे, उन कल्पनाओं के टूटने पर उतना ही दुख होगा।
सुख तो कभी बताती नहीं। गुरु जी करें तो क्या करें, असहाय हैं। जब तक पूरी कहानी नहीं बताओगे, कैसे मिलेगा समाधान? पूरी कहानी क्यों नहीं बताते? वो मन में थोड़ा सा चोर रहता है। पता होता है कि ये सुख फर्ज़ी है, ये खोल दिया गुरु जी के सामने तो मिट जाएगा। तो इसीलिए उस सुख को छुपाए रहते हो, बताते ही नहीं।
अब चुन लो—सुख का लालच ज़्यादा है या दुख की पीड़ा?
प्र: वही मैं जानना चाह रही थी कि आलस है, हावी है। मैंने चुना है। लेकिन त्यागा कैसे जाए?
आचार्य: अभी एक ट्वीट करी है दो-चार दिन पहले — "बदनीयती का तामसिक नाम आलस है।"
आलस कुछ होता ही नहीं। जब नीयत ख़राब होती है तो आदमी उसको शायरिक तौर पर एक नाम देता है, क्या? आलस। मैं आलसियों से पूछा करता हूँ, 'क्या तुम हर काम करने में आलसी हो?' ऐसा कोई मिला है जो पूर्णरूपेण आलसी हो?
तुम सबकुछ ही करने में आलसी हो जाओ, तो तुम अकर्ता हो गये। फिर तो निर्वाण हो गया। अब तो तुम वो हो गये जो कुछ भी करने में उत्सुक नहीं है—ये तो मुक्ति हो गई। पर हम ऐसे नहीं होते कि हमें कुछ भी करने में अब कोई रुचि नहीं रही। कुछ कामों को लेकर के हममें आलस आता है। ये आलस थोड़े ही है, ये तो नीयत का फरेब है। जो काम नहीं करने, उनके प्रति आलसी हो जाओ। और जो काम करने हैं उनके प्रति उत्सुक रहो, बड़े ऊर्जावान रहो कि ये काम तो करके दिखाएँगे।
आलस करने में आलस क्यों नहीं आता तुम्हें? कोई मिला है जिसको सोने में आलस आता हो? जो कहे, 'कौन सोये! कौन पड़ा रहे! उठ जाओ यार।'
हम ऐसे भी नहीं हैं कि हमें मेहनत से डर लगता हो। मेहनत हम ख़ूब कर जाते हैं। जहाँ वृत्तियों को रस आ रहा हो, जहाँ राग-रंग हो, वहाँ हम मेहनत पूरी कर जाते हैं। वहाँ हम आधी रात को दौड़ लगा देंगे; चीज़ बस ज़रा उत्तेजना की, मज़े की होनी चाहिए। फिर हमें डर भी नहीं सताता। डर भी हमें कुछ ख़ास उपयुक्त मौकों पर ही परेशान करता है।
बात नीयत की है। नीयत साफ़ रखो, बेटा। एक लक्ष्य रखो ना। पचास लक्ष्य रखोगे तो नहीं चलेंगे। घरवालों को भी संतुष्ट रखना है, दुनिया के प्रति भी जवाबदारी है, सच्चाई और मुक्ति को भी पाना है—ऐसे नहीं चलता।
एक चीज़ माँगो तो मिल जाएगी, पचास चीज़ माँगोगे—एक भी नहीं मिलेगी।
और मैं आप लोगों को कुछ बात है जो स्पष्ट करना चाहता हूँ। तीन-चार दिन का आपका शिविर हुआ, इतने से अगर सत्य और मुक्ति मिल सकते, तो बड़े सस्ते होते। अगर मुझे कोई आकर के बताये कि कोई भी तीन-चार दिन का कार्यक्रम करके उसको आज़ादी मिल गई है, मोक्ष मिल गया है, तो मैं लानत भेजूँगा उसकी आज़ादी पर।
चार दिन के किसी आयोजित कार्यक्रम से, किसी क्रिया-प्रक्रिया से जो चीज़ मिल जाए उसकी क्या हैसियत? ये जो आपको अनुभव हुआ, ये अधिक-से-अधिक एक झिर्री से रोशनी की कुछ किरणें आपको दिला सकता है। जैसे शताब्दियों से किसी बंद, अंधेरी, सीलन भरी, दुर्गंधयुक्त गुफ़ा में क़ैद हों आप। और कोई आकर के कोई पत्थर सरका दे। थोड़ी सी ताज़ी हवा अंदर आ जाए; प्रकाश की कुछ किरणें। मुक्ति तो नहीं मिल गई, कैद तो अभी भी गुफ़ा में हो। हाँ, बाहर की कुछ सुगंध आ गई। भीतर का माहौल कुछ बदला। ये आपको ललचाया जा रहा है। शिविर अधिक-से-अधिक आपको ललचा सकता है। वो आपको प्रेरणा से भर सकता है कि बाहर का माहौल कितना खुशनुमा है। रोशनी की दो-चार किरणें अगर इतनी अच्छी लग रही हैं तो रोशनी में जीना कितना प्यारा होगा। उसके आगे का काम अभी बहुत बाक़ी है। तीन-चार दिन में कुछ बहुत हो नहीं जाना है। कोई ये उम्मीद न रखे।
जनम भर का कूड़ा, चार दिन में कैसे साफ़ हो जाना है, भाई! उसका मतलब ये भी नहीं है कि आप एक की जगह दस शिविर कर लोगे तो मुक्ति मिल जाएगी। दस शिविर से भी नहीं होना है, ज़िंदगी बदलनी चाहिए। जिस चीज़ की झलक मिली है उसे जीवन में स्थायी बनाना होगा।
आप में से बहुत लोग कहते हैं, यहाँ भी बहुतों ने कहा कि 'आचार्य जी, आपको सुनते हैं, बड़ी शांति मिलती है।' कुछ ने तो यहाँ तक कहा कि 'आचार्य जी, सिर्फ़ आपको ही सुनकर शांति मिलती है।' मुझी को सुनकर शांति मिलती है तो मेरे पास ठहर क्यों नहीं जाते? बिलकुल सीधा-सादा मासूम सवाल है न? अगर शांति ज़िंदगी में बड़ी चीज़ है, सबसे बड़ी चीज़ है, अच्छा छोड़ो, बहुत बड़ी चीज़ है, तो वो क्या तीन-चार दिन के लिए ही चाहिए? जो लोग दस-दस शिविर भी कर चुके हैं उन्हें भी कुछ विशेष मिल नहीं जाना है। हर शिविर आमंत्रण होता है। वाक़ई जिन्हें परिवर्तन चाहिए, उस आमंत्रण को स्वीकार करते हैं, लपक लेते हैं। धन्यभाग मानते हैं अपना। नहीं तो बीस बार मेरे पास आओ, बीस बार मुझसे दूर जाओ, ये पेंडुलम (लोलक) वाला खेल किसी के काम नहीं आता। लटकते ही रह जाओगे। टाइम पीरियड (आवर्त काल) इक्वल्स टू टू पाई रूट एल बाई जी — यही चलता रहेगा।
अभी आप लोग एक बड़े व्हाट्सएप ग्रुप पर शामिल कर लिए जाएँगे—ऐसे चल रहे हैं छ:-सात, बल्कि और दर्जनों ग्रुप सबने अपने-अपने भी बनाये हुए हैं। सब पर डेढ़-डेढ़ सौ, दो-दो सौ लोग बैठे हुए हैं। उनमें से बहुत सारे तो पेशेवर व्हाटसैपर हो गए हैं, उनको लगता है ऐसे ही मुक्ति मिलती है। वो दिनभर उस पर कुछ-न-कुछ डालते रहते हैं। नहीं होगा।
वो मासूम सवाल याद रहे — कि चीज़ अगर इतनी सीधी है तो हम चाल टेढ़ी क्यों चल रहे हैं?
और जब मैं पूछूँगा न कि सबकुछ इतना भला लगा तो लौटकर क्यों जा रहे हो, तब तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे बंधन कितने गहरे हैं। तब तुम्हें पता चलेगा कि तुम रुकना चाहो भी तो रुक नहीं सकते हो, क्योंकि उधर की दुनिया में तुमने बड़े स्वार्थ और बड़े बंधन खड़े कर रखे हैं। ये तो छोड़ दो कि यहाँ रुक जाओ, अभी बोल दूँ कि ये सत्र ज़रा लंबा चलेगा, हमेशा की तरह तीन-चार घण्टे, तो पसीने-पसीने हो जाओगे, थर-थर काँपोगे। 'आचार्य जी, घर पहुँचना है, घरवालों को जवाब देना है, हाय! मेरा क्या होगा?' अरे! मैं कह रहा हूँ रुक, मैं बात कर रहा हूँ अभी, समस्याएँ सुलझा रहा हूँ। उठ-उठकर भागोगे यहाँ से।
तुम्हारा ये सत्र मैंने बड़ा मुश्किल से आयोजित किया है। बार-बार मुझे वहाँ से संदेश आ रहे थे कि लोग कह रहे हैं—'हम तर गये, हमें और बात करनी नहीं है। हमारा हो गया। हमें जाने दो।' किसी की बस है, किसी की ट्रेन है, किसी की बीवी बुला रही है, किसी के घर से फ़ोन आ रहे हैं।
कह रहे हैं, 'अरे! महासागर में डुबकी मार ली है और नहीं चाहिए।' मैंने कहा, भागने मत देना किसी को, बिलकुल घेर लो। बोले आधे तो भाग चुके हैं। कोई रात में निकल गया, कोई दीवार फाँद कर निकला, ताला खुलने का इंतज़ार नहीं किया। बोले आधे भाग चुके हैं बाक़ी आधे भागने के फेर में हैं। और फिर बताते हैं कि 'हमें चाहिए मुक्ति।' तुम्हें मुक्ति चाहिए? तुम अभी से उधर के हो चुके हो, जब मेरे सामने बैठे हो तब भी।
सबको बता दिया गया है न आज आठ बजे तक चलेगा? ठीक है। (स्वयंसेवक से पूछते हैं)
एक बार विचार भी करके देखो कि अगर ये चल गया आठ बजे तक तो तुम्हारा क्या होगा? फिर तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हें किस चीज़ से आज़ाद होने की ज़रूरत है।
बंधनों का तब तक पता ही नहीं चलता जब तक आज़ादी की कोशिश ना करो। जो आज़ादी की कोशिश नहीं कर रहा उसको यही लगता रहेगा कि उसे कोई बंधन नहीं है।
अच्छ मान लो मेरे हाथ-पाँव सब बंधे हुए हों। यहाँ ऐसे बंधा हुआ है हाथ और ऐसे ही नीचे बंधा हुआ है पाँव। मैं बातचीत तो तुमसे मज़े में करता रहूँगा न। मुझे पता ही नहीं लगेगा मेरे हाथ-पाँव बंधे हैं। मुझे पता कब लगेगा? जब मैं उठने की कोशिश करूँगा, जब मैं हिलने की, हटने की, चलने की कोशिश करूँगा, दौड़ने की कोशिश करूँगा। जो दौड़ने की और चलने की कोशिश ही नहीं कर रहा, उसे कभी पता ही नहीं चलेगा वो बंधा हुआ है।
उड़ने की कोशिश करो तो पता चलेगा न कि पिंजड़े में हो। जो उड़ने की कोशिश ही नहीं कर रहा उसके लिए कौनसा पिंजड़ा! आज आठ बजने से पहले-पहले पिंजड़ा बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा; एक-एक सलाख गिन लेना। और तरीक़ा क्या है भाई? वो सलाख किसी दूसरे का ज़ुल्म नहीं है तुम्हारे ऊपर, तुम्हारे अपने स्वार्थ हैं; मानते क्यों नहीं? तुम्हारे अपने न्यस्त स्वार्थ हैं। दूसरों पर आश्रित हो, दूसरों से कुछ चाहिए — कुछ सुविधा, कुछ सुकून, कुछ देह का सुख, कुछ मन का आराम, कुछ सामाजिक स्वीकृति, कुछ मिल रहा है दुनिया से और जो मिल रहा है उसको कीमती समझते हो।
अब जा ही रहे हो तो बता देता हूँ — हज़ारों लोग इन शिविरों में हिस्सा ले चुके हैं। लाभ कितनों को हुआ है? मुट्ठीभर को। मज़े की बात ये है कि वो जो मुट्ठीभर हैं जिन्हें लाभ हुआ है उनमें से अधिकांश अब यहीं हैं। पता नहीं कैसा लगेगा सुनने में, लेकिन यहाँ आये बिना, यहाँ रहे बिना, यहाँ का हो जाए बिना लाभ होगा भी नहीं। हाँ, यहाँ के हो जाओ उसके बाद तुमको रवाना कर दिया जाए कि अब जाओ, दुनिया में रोशनी बाँटो, तो अलग बात है। पर पहले तो यहाँ का ही होना पड़ेगा, बसना पड़ेगा।
तभी तो हमारे कायदे बड़े अजीब हैं। जो यहाँ तीन दिन को आता है, उससे कहते हैं चलो मोटी दक्षिणा दो। और जो यहाँ बसने ही आ जाता है उससे हम कहते हैं, आओ तुम, तुमसे कुछ नहीं चाहिए, तुम असली आदमी हो। तीन दिन वाले आदमी से तो दंड वसूलते हैं, तीन ही दिन को क्यों आये हो, तीन ही दिन को आये हो तो चलो ये रहा दानपात्र, भरो इसको। और जो सदा के लिए आ जाए उससे कुछ नहीं चाहिए। उससे तो कहते हैं, आओ, जो हम कर रहे हैं वो तुम भी करो, जो हम खा रहे हैं वो तुम भी खाओ। और अपने ख़र्चे के लिए कुछ हमसे ले लो, तुमसे कुछ नहीं चाहिए।
ये बात कितनी अजीब है। तीन दिन वालों, बेचारों की तो क़िस्मत ही ख़राब है। एक तरफ़ मैं कह रहा हूँ उन्हें लाभ होने की संभावना भी कम है और दूसरी ओर ये भी कह रहा हूँ कि उनसे हम दंड भी वसूलते हैं। अब आप कहेंगे 'ये बात चौथे दिन क्यों बताई, पहले ही दिन बता देते शुरू-शुरू में।' क्यों बताऊँ?
खेल अगर ईमानदारी का चल रहा होता, तुम्हारी ओर से ईमानदारी होती तो मेरी ओर से भी होती। जब खेल ही यही चल रहा है कि तुम मुझे बुद्धू बनाओ, मैं तुम्हें बुद्धू बनाऊँ तो मैं पीछे क्यों रहूँ? तुमने सब बुद्धू बनाने वाले सवाल पूछ डाले, मैंने सब बुद्धू बनाने वाले उत्तर दे दिये। जिन्होंने असली सवाल पूछे उन्हें मिल गये असली उत्तर। जो असली लोग थे उन्हें बिना सवाल पूछे ही मिल गये असली उत्तर। बाक़ी तुम इधर-उधर की बातें करते रहो; क्या पाओगे?