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कहानी तीन हाथों वाले बन्दर की || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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वक्ता: सर, आपने जो कुछ भी बताया, जो कुछ भी हमने जाना, सीखा, उससे फायदा क्या हो गया? हासिल क्या हुआ? वाकई हासिल कुछ नहीं होगा, कुछ भी हासिल नहीं होगा। जो तुम्हारा शक है, वो बिल्कुल ठीक है, तुम्हें ठीक ही शक है कि कुछ हासिल नहीं होगा और वही होने जा रहा है कि इससे तुम्हें कुछ भी मिलेगा नहीं। पर सवाल ये है कि मिलने की ज़रूरत लगती कब है?

श्रोता : जब कमी हो।

वक्ता: जब कमी का आभास हो, तभी लगता है कि मिले और मिले। उसके बिना तो मिलने जैसी इच्छा उठती नहीं? अब मैं तुमसे एक सवाल पूँछता हूँ, एक बंदर है तीन हाथों वाला उसकी कहानी है, उसको सुनना और बताना कि मैं क्या कह रहा हूँ?

एक बंदर था, अच्छा-खासा पैदा हुआ, कोई दिक्कत नहीं, जैसे आम बंदर होते हैं, बंदर का बच्चा। लेकिन पैदा होते ही, वो इंसानों के हत्थे चढ़ गया, इंसान ने उसके गले में, जंजीर डाल करके उसको बाँध दिया और बचपन से उसने ये ही देखा कि मेरे गले में जंजीर पड़ी ही हुई है, जिस दिन से उसने आँखें खोली उसने जंजीर गले में पायी, बंधन पाया।

बंदर को एक क्षण भी नहीं मिला, जब वो उस जंजीर से मुक्त रहा हो, उसके दिल में ये बात बैठ गयी कि ये जो, बेड़ी है, ये मेरे शरीर का हिस्सा है। यहाँ तक बैठ गयी कि उसने ये धारणा बना ली कि मेरे तीन हाथ हैं। दो हाथ यहाँ है और एक हाथ गले से है और ये बात पक्की हो गयी उसको, बिल्कुल पक्की कि ये मेरा तीसरा हाथ ही है।

वो बंदर जहाँ भी जाता अपना तीसरा हाथ ले करके ही चलता। एक दिन ऐसा भी आया कि ऐसी स्थिति बनी कि वो उस बेड़ी से मुक्त हो सके, पर बंदर ने कहा न, मुक्त क्या होना है, ये तो मेरा तीसरा हाथ है, ये तो मेरा हिस्सा है, अभिन्न अंग, मुझसे अलग है नहीं ये, ये मेरे साथ ही रहेगा। ऐसे मौके उसकी जिंदगी में उसके सामने बार-बार आते रहे कि वो मुक्त हो सकता, पर वो उन सरे मौकों को छोड़ता चला गया, उसने खुद ही ये चुनाव किया कि मुझे तो बेड़ी रखनी ही है क्योंकि ये बेड़ी मैं हूँ, मेरे हिस्सा है। बंदर आगे चलके, बड़ा हो करके, टीचर बन गया, उसके पास छोटे-छोटे बच्चे आते पढ़ने के लिए, तुम्हारे जैसे छोटे-छोटे।

(सब हँसते हैं)

और बंदर उन्हें क्या पाठ पड़ता था? बंदर उन्हें देखता, तो उसे नाराज़गी भी होती और उसे हैरानी भी होती। बंदर कहता, “अरे! तुम्हारा एक हाथ कहाँ गया? तुम्हारे जीवन में कुछ कमी है, तुम्हें कुछ पाना है” और वो उनको बड़े शान से दिखता कि ये देखो मेरे पास ये तीसरा हाथ है और उस बंदर की, जो बड़ा बंदर था, समाज में उसकी खूब इज्ज़त हो गयी क्योंकि उसके पास कुछ खास था, कुछ अधिक था, जो कईयों के पास नहीं था।

लोगों को उससे ईर्षा भी होने लगी और उसने सबको बताया कि “देखो, मेरे पास कुछ ऐसा है, जो तुम्हारे पास नहीं है” और बंदर के बच्चे छोटे थे क्योंकि वो जान नहीं सकते थे, अबोध थे। जब उन्हें ये पाठ पढ़ाया गया कि तुम्हारे जिंदगी में कुछ कमी है और तुम्हें कुछ हासिल करना है। तो उन्होंने इस बात को बिलकुल मान लिया, गहराई से अपने भीतर गुज़र जाने दिया कि मुझमें कुछ कमी हैं और मुझे कुछ हासिल करना है।

मैं अधूरी पैदा हुई हूँ। मेरे साथ नाइंसाफ़ी हुई है, दुनियाँ गलत जगह है, कुछ खोट है मुझमें, कुछ बहुत गहरी कमी है और बंदर ने पूरी व्यवस्था कायम कर ली। एक पूरा पाठ्यक्रम विकसित कर लिया, एक पूरा ढांचा तैयार कर लिया, जिसमे वो बच्चे जहाँ भी जाते, वो फँस ही जाते, बंदर बड़ा होता जा रहा था, अब वो टीचर से आगे बढ़कर के एक विश्वविद्यालय का मालिक हो गया, एक विश्वविद्यालय उसने खोल ली। जो चुनिंदा उसके पास बच्चे रहे हैं दस हज़ार आ रहे हैं, चालीस हज़ार आ रहे हैं, अब हर बच्चे को लगातार ये ही पाठ पढ़ाया जा रहा था कि तुझमे कुछ कमी है, तुझे कुछ हासिल करना ज़रूरी है और ये बच्चे जो उसके यहाँ से निकल रहे थे, जो उसकी विश्वविद्यालय की पैदाइश थे, ये आगे चल करके इसी संदेश को और बच्चों तक पहुँचा रहे थे।

ये आगे चल करके, इसी बात को और ज्यादा फैला रहे थे, इनमे से कुछ बंदर-बंदरियों की आपस में शादी भी हो गयी थी और बताने की ज़रूरत नहीं, उनके जो बच्चा हुआ, उनको जन्म से ही क्या संदेश देना शुरू किया? जैसे ही वो पैदा होता या तो वो अपना सर पीटते कि अरे! जेनेटिक डिफेक्ट , फिर डॉक्टर का गाला पकड़ते कि ये क्या किया तूने? और अगर वो थोड़े प्रगतिवादी होते, सकारात्मक सोच वाले, तो कहते कोई बात नहीं, बच्चा गलत पैदा हो गया, हम ठीक कर देंगे। वो तीसरा हाथ खरीद करके लाते और उसके लगा देते और हम सब जानते ही है कि वो तीसरा हाथ क्या होता है? क्या होता?

श्रोतागण: जंजीर।

वक्ता: वो बंदर पढ़ता रहा, पढ़ता रहा और समय के चक्र में चलते-चलते इंसान बन गया, हम सब जानते हैं, बंदर ही इंसान बना है। जो छोटे-छोटे बच्चे थे, वो बड़े हो गए। उनके बच्चे हुए, उनके बच्चे हुए, उनके बच्चे हुए, फिर उनके बच्चे हुए।

(सब हँसतें हैं)

और इन बच्चों में ये हीन भावना, ये बहुत गहराई से बैठा हुआ है कि हममे कोई कमी है, कोई बहुत आत्यंतिक कमी है, केंद्रीय कमी है। भाई! ये हाथ ही नहीं हैं, ये बड़े साधारण से हाथ हैं, जो हमें दे दिये गए है, वो जो असली वाला हाथ, जिसके होने से जिंदगी भरपूर होती है, वो हाथ हमारे पास है नहीं, ये हाथ थोड़ा नीच है, वो हाथ थोड़ा ऊपर होता है। ये दोनों हाथ तो अगल-बगल हैं, बाजु हैं। वो हाथ तो बिलकुल गले पर होता है, हमारे जीवन में वो हाथ है नहीं।

जिन बच्चों के भीतर ये हीन भावना बैठ गयी कि मुझमें कुछ कमी है, उन्होंने बहुत-बहुत तरीके निकाले उस कमी को पूरा करने के लिए। उनमे से कुछ तरीके ऐसे थे कि कुछ ने ब्यूटी पार्लर जाना शुरू कर दिया, कुछ ने अपनी तमाम तरीके की प्लास्टिक सर्जरी करा ली है। हममे कुछ कमी है।

कुछ ने कोचिंग सेंटर्स जाना शुरू कर दिया, कुछ जो कुछ और होना चाहते थे, बी.टेक की पढाई करनी शुरू कर दी, (सब हँसतें हैं) और कुछ। मूल में, गहराई में, सब बहुत दुखी हैं, उनमे से कोई भी ख़ुशी से अपनी सर्जरी नहीं करा रहा, सबके मन में ये गहरा क्लेश है कि मैं खोटा हूँ और अगर मैंने अपनी सर्जरी नहीं कराई, अगर मैंने ज़िंदगी में कुछ हासिल करके नहीं दिखाया, तो कोई न मुझे इज्ज़त देगा, न प्यार देगा।

इसी तलाश में सारे बंदर लगे गए हैं, एक दिन एक भूला भटका आदमी किसी और देश से उन बंदरों की दुनियाँ में आया, उसने बंदरों को बुलाया। (सब हँसतें हैं) साथ में कुछ बंदरियां भी आ गयीं। उसने बंदरों से कहा कि बच्चों अच्छे-खासे हो, खूबसूरत हो, प्यारे हो, पूरे हो, खेलो कुदो मस्त रहो। दिक्कत क्या है, रो क्यों रहे हो? किस बात पे इतना परेशान रहते हो?

कुछ बंदरों ने कहा पागल है, कुछ दूसरों ने कहा बात तो ठीक कर रहा है, पर अव्यावहारिक है, ये बातें असली दुनियाँ में चलती नहीं हैं, असली दुनियाँ में तो असली बात ये ही है कि हमें लिख करके दिखाना पड़ेगा कि हमने हासिल क्या-क्या किया? और कुछ थे जो पहले से हासिल करे बैठे थे, क्या? हाँथ, वही जो गले में बंधता है पट्टे से।

कुछ जो हासिल करे बैठे थे, उन्होंने कहा देख, तू दूसरी दुनियाँ से आया है, तू जनता नहीं, हासिल करना जरूरी भी है, हमने हासिल किया भी है, ये रहा प्रमाण, ये देख ये हमने हासिल किया है। तो तेरी बात झूँठी है, तूने दुनियाँ देखी नहीं। तू व्यर्थ बहका रहा है, हमें, जा जहाँ से आया है वहाँ वापस चला जा। और कुछ बंदर तो नाराज़ भी हो गए, वो घर गए, उन्होंने ठीक-ठीक पता करा बताओ, एक आदमी आया जो हमसे कह रहा कि हममे कोई कमी नहीं, कोई खोट नहीं, हासिल करने की कोई जरूरत नहीं, जैसे हो, बहुत सुन्दर हो, बड़े प्यारे हो। उन्हें कहा गया, वो खतरनाक है, उसकी सुन मत लेना। सुनना नहीं, बहका रहा है, *ब्रेनवॉश*।

अगले दिन वो बंदर आये और उस यात्री का मुँह नोच लिया, एक बंदरिया कंधे पे चढ़के बैठ गयीं और बाल नोंच रहो है और धमकी दे रही है कि उल्टे पाओ वापस चला जा जहाँ से आया है। (सब हँसतें हैं) ये बात हमें पढ़ना, हम अच्छे से जानते हैं कि जब तक बेड़ियाँ हासिल नहीं करी, तब तक जीवन व्यर्थ है। हम अच्छे-से जानतें हैं, हमने पुश्तों से ये ही देखा है।

उसने कहा, “अरे! देखो, एक कहानी है, कंट्री ऑफ़ ब्लाइंड , उसमे भी पुश्तों से कुछ हो रहा था, पुश्तों से कुछ हो रहा है, इसका मतलब ये नहीं है कि ठीक है, आँखे खोलो।” उसने कहा, तू हमारे पुश्तों पे सवाल उठाता है? तू होता कौन है? और हमारी सारी व्यवस्था हमें ये ही सीखा रही है, समाज से ये ही सुन रहे हैं, मीडिया से ये ही सुन रहे हैं, घर में ये ही सुन रहे हैं, कॉलेज से ये ही सुन रहे हैं, तू ही अकेला होशियार है? हज़ार आवाज़ें हैं, हमारे इर्द-गिर्द, जो एक ही बात बता रही हैं कि तुममे खोट है, तुम छोटे हो, तुम छुद्र हो, तुम हीन हो। हमें लगातार-लगातार ये ही बता जाया रहा है, हम छोटे तो हैं ही। तुक्ष हैं, क्षुद्र हैं, उन हज़ार आवज़ों के सामने तू अकेला खड़ा हो जायेगा? हम क्यों सुने तेरी बात?”

उसने कहा, “मेरी बात इसलिए सुनों क्योंकि तुम वही हो, जो मैं तुमसे कह रहा हूँ, पूर्ण, ठीक-ठाक, शांत।

तुम्हें पागल बनने की कोई ज़रूरत नहीं, तुम्हें दौड़ लगाने कि कोई ज़रूरत नहीं, तुम्हें किसी को कुछ भी सिद्ध करके दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं। किसी को भी इसलिए नहीं पैदा किया गया है कि वो यहाँ आये और किसी दौड़ का, किसी रेस का हिस्सा बनें। दुनियाँ में जो कुछ भी है, अपने-आप में पूरा है।

पेड़ हैं, जानवर हैं, घास है, नदियाँ हैं, पहाड़ हैं, पत्थर हैं, ये सब कष्ट से बिलबिलाते नहीं देखे जाते क्योंकि ये जो हैं वही हैं। पेड़ को नदी नहीं बनना है, घास को बरगद की ऊँचाई नहीं हासिल करनी है। गेंदे को गुलाब का रंग नहीं हासिल करना है, तुम्हें क्यों कुछ हासिल करना है? तुम्हें किसने ये जहर दे दिया कि हासिल किये बिना तुम, छोटे रह जाओगे, अस्तित्व में जो जैसा है, वैसा ही होने में मग्न है और खुश है क्योंकि वो अपने जैसा है, अपने स्वभाव में जी रहा है, तुम्हारे भीतर किस ने ये बैचेनी भर दी कि तुम्हें कुछ और होना है, कि जब तक कुछ खास आया नहीं ज़िंदगी में,तब तक हम अधूरे हैं। किसी आदमी की तलाश है, व्यक्ति के तलाश है, चीज़ की तलाश है, पैसे की तलाश है, पदवी की तलाश है, नौकरी की तलाश है, प्रतिष्ठा की तलाश है, लगातार तलाश, ये तलाश किसने भर दी तुम्हारी ज़िंदगी में?”

वो आदमी ये बात बोलता रहा, बंदरों को न सुननी थी, न सुना, हाँ, कुछ पागल से बंदर थे, जो उस बंदरों के समाज में वैसे भी त्यक्त थे, उनको बंदरों का समाज पसंद नहीं करता था, वो चोरी छुपे उस आदमी के पास आने लगे। सबके सामने आने की हिम्मत नहीं पड़ती थी, तो जब कोई नहीं देख रहा होता था, तो धीरे से आते थे, कहते थे, “जो कह रहे हो, ठीक है वो? वाकई ठीक है?”

वो उनसे कहता था, “तुम जानते हो ठीक है, मुझसे पूँछने की जरूरत नहीं, तुम्हारा दिल गवाह है कि मैं जो कह रहा हूँ, वो ठीक है। मुझसे क्यों पूँछ रहे हो?” बोलते, “हमें सदा से ये ही लगा था, लगता था, कि चारों और हमारे जो परोपगॅंडा है, ये झूँठा है, हमें मिथ्या प्रचार में फसाया जा रहा है। लेकिन हिम्मत नहीं होती थी, क्योंकि जब भी बोला, तो हमें ही पागल कह दिया गया” और बंदरों के पास बड़े पागल खाने हैं।वो छप-छुप के आते थे, छुप-छुप के आते रहेंगे, बाकि मस्त, वो अपनी जंजीर की तलाश कर रहे हैं और उन्हें जो भी मिलता हैं, उनसे एक ही सवाल करते हैं, “जंजीर दे दो न? बाँध लो हमें, हमें मुक्ति पसंद नहीं, हमें बाँध के रखो। हमें जितने पट्टे पहना करके रखोगे, हमें उतनी ही पुष्टि मिलेगी।”

एक बार, बुद्ध के पास एक आदमी आया, उसने पूँछा कि राज्य था आपके पास, बीवी थी, सुंदर बच्चा था, घर था, द्वार था, महल था, पैसा था, सेनाएं थी, प्रतिष्ठा थी। ये सब छोड़ करके जंगल में फिर रहे हो, मिला क्या तुमको? क्या मिल गया? वो सब छोड़ आये हो, जंगल में फिर रहे हो, विक्षिप्त नहीं हो तो क्या हो?और जवान आदमी हो, खूबसूरत हो, तुम्हारी जगह इन जंगलों में नहीं, नंगे पाओं फिर रहे हो, राजकुमार हो करके। बुद्ध ने कहा, “मिला तो कुछ नहीं मुझे वो सब छोड़ करके, हाँ, कुछ बातों से मुक्त जरूर हो गया हूँ। कुछ ऐसा जरूर है कि कुछ मेरे पास था, अब नहीं है।” उस आदमी ने कहा, क्या? बुद्ध ने कहा, पहले तनाव था, अब नहीं है। मिला मुझे कुछ नहीं, कुछ छूट जरूर गया है। क्या छूट गया है? तनाव छूट गया है। उस आदमी ने कहा ‘और’?, बेचैनी छूट गयीं है, उस आदमी ने कहा , ‘और?’ अशांति छूट गयीं है, ‘और?’ घिर्णा छूट गयीं है, ‘और?’ डर छूट गया है।

बुद्ध ने उससे पूँछा, “तू क्यों इतना डरा रहता है और ईमानदारी से बता, लगातार खौफ में जीता है कि नहीं जीता है? मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूँ,कि मेरे साथ चलेगा तो मिलेगा तो कुछ नहीं, कुछ हासिल नहीं होगा लेकिन वो सब कुछ जो तुझे मिला हुआ है, तेरे भीतर बैठा हुआ है, उससे तू मुक्त हो जायेगा। डर से, तनाव से, विक्षेप से, अशांति से, बेचैनी से मुक्त हो जायेगा। अब बता, अगर कुछ पाने का लालच हो, तो मेरे साथ मत चल, क्योंकि देने के लिए कुछ है नहीं और न तुझे कुछ लेने की जरूरत है क्योंकि तू जैसा है, बहुत सुन्दर है। हाँ, जो तूने अपने ऊपर लाद रखा है, जो तेरा बंधन है, जो तेरा पागलपन है, वो छूट जरूर जायेगा, मेरे साथ आ करके। मैं तुझे यहाँ कुछ देने नहीं आया हूँ, मैं तुझसे यहाँ कुछ लेने आया हूँ, तेरा कुछ छुड़ाने के लिए आया हूँ। मैं तेरा पागलपन दूर करने आया हूँ, मुझे तुझे कुछ देना नहीं है। तुझे दिया क्या जा सकता है, तू अपने-आप में संपूर्ण है। तुझे क्या दूँगा मैं?” कोई किसी को क्या दे सकता है? हाँ, जो अधिक मिला है, वो छुड़ाया जरूर जा सकता है, बीमारी ही अधिक मिलती है, स्वस्थ्य अपना होता है।

क्या देना है तुम्हें, तुझे चाहिए क्या? लेकिन अधिक बहुत कुछ लादे फिर रहे हो। ये जो अपरिपक़्वता है, ये तुमने लाद रखी है, ये तो हर समय का, फालतू का तनाव है, खिंचाव है, वो तुमने लाद रखा है, ये जो भविष्य की चिंता है, ये तुमने लगातार लाद रखी है। ये जो कुछ खो जाने का डर है, ये जो संबंधों की पीड़ा है, ये तुमने लाद रखी है, इससे मुक्ति जरूर मिल सकती है, अगर सुनो मेरी बात तो।

मैं तुम्हें कुछ नया नहीं दे पाऊँगा, हाँ, जो तुम्हारे पास है, दोहरा रहा हूँ,उसको हटा सकता हूँ, तुम्हारी बीमारियों को हटा सकता हूँ। स्वास्थ्य नहीं दे सकता, स्वास्थ्य तुम्हारा अपना है और पूरा है। मात्र कल्पना ही करके देख लो कि कैसा होगा वो दिन, जब तुम्हें कहीं पहुँचने की जल्दी, कुछ पा लेने की ख्वाइश हो ही न। ऐसा लगे, जैसे जितनी ख्वाहिशें थी, वो सब पूरी हो ही गयी हैं, इतनी पूरी हुई हैं कि अब कोई ख्वाहिश बची नहीं। कैसा होगा वो दिन? और अगर उसकी कल्पना ही इतनी मधुर है, तो वो दिन कैसा होगा? जिसकी सिर्फ कल्पना ही इतना संतोष देती है तो दिन कैसा होगा? लेकिन वो दिन दौड़ भाग करके नहीं आएगा, वो दिन चेष्टाएँ करके नहीं आएगा।

वो दिन थम करके आएगा, वो दिन ज्ञान में आँख खोल करके आएगा, समझ करके आएगा। लगातार परेशान रहे हो, लगातार भागते रहे हो, पहुँचे कहीं नहीं, भागते खूब रहे हो। लगातार भागते रहे हो, एक बार तो, इस बात में आ करके तो देखो कि बिना भागे भी जिया जा सकता है और बहुत खूबसूरत तरीके से जिया जा सकता है। बंदर याद है न, तीन हाथों वाला? कहाँ है वो? घूम रहा है। अब हमें दिखाई नहीं देता, अब वो मुख्यालय में बैठता है। छुप करके, उसके एजेंट घूम रहे होते हैं, चारो तरफ।

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