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कब कोई गुरु बनने के लायक होता है?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। जैसे एक साधक होता है, तो वो शिक्षक कब जा कर बन जाता है?

मैं फेसबुक, इंस्टाग्राम और दूसरी जगहों पर भी देखता रहता हूँ। जैसे ओशो संन्यास ही है; तो एक समय के बाद वो ज्ञान बाँटना शुरू कर देते हैं। तो ज्ञान किसे देना चाहिए, और कब जा कर कोई एक गुरु बनने के लायक होता है?

आचार्य प्रशांत: नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। प्रेम की और ज़िम्मेदारी की बात होती है। तुम्हें कोई चीज़ नज़र आ रही है कि ठीक नहीं है तो उस बारे में कुछ बोलोगे। तुम्हें किसी से प्रेम है और तुम देख रहे हो गड्ढे की तरफ जा रहा है तो उससे कुछ बोलोगे। इसमें तुम ये थोड़े ही कहोगे कि, "मैं अभी गुरु हूँ कि नहीं हूँ?" कोई सर्टिफिकेशन (प्रमाणीकरण) थोड़े ही है गुरु, बड़े ज़िम्मेदारी की बात है न। तो सब गुरु हैं।

गुरु होने के लिए ये दो बातें चाहिए; अपने कर्तव्य का बोध, और प्रेम में जो बेबसी आ जाती कि ये तो करना पड़ेगा ही। ये आदमी बर्बाद होने जा रहा है, कुछ कदम तो हमें उठाना ही पड़ेगा। बस ये ही दो बाते हैं।

और ये दोनों न हों और तुम ज्ञान बघार रहे हो, तो चप्पल खाने वाला काम है फिर। सामने वाले से तुम्हें प्रेम भी नहीं है, बोल उससे इसलिए रहे हो ताकि उस पर दबंगई झाड़ सको, उसको प्रभावित कर सको, उसको वशीभूत कर सको। और दूसरी बात, कि ज़िम्मेदारी नहीं समझते हो बल्कि अवसर देख रहे हो; कर्त्तव्य बोध नहीं है, अवसरवादिता है। तो फिर तो बेकार ही है जो भी तुम सलाह दे रहे हो, ज्ञान बता रहे हो।

गुरु होना कोई विलासिता, कोई लग्ज़री नहीं होती, मजबूरी होती है। अभी ज़िम्मेदारी कह रहा था न, उसी के लिए दूसरा शब्द है — मजबूरी। गुरु होना मजबूरी होती है।

बारिश आई कल रात बहुत ज़ोर से। ऊपर खड़ा था, और दिख रहा है कि अमरूद का पेड़ है, अभी छोटा है लेकिन उसमें अमरूद लग रहे हैं। उसकी वजह से उसकी डालें झुक रही हैं काफी ज़्यादा। तीन-चार डालें हैं, उन सब पर कई-कई अमरूद हैं छोटे और वो झुक रही हैं। और बहुत तेज़ हवा आ रही थी। स्पष्ट हो रहा था कि झेल नहीं पाएगा। सम्भावना इसमें पूरी है कि ये बड़ा वृक्ष भी बनेगा, और सम्भावना इसमें पूरी है कि छोटे फल बड़े फल भी हो जाएँगे। लेकिन अगर अभी इसको नहीं बचाया तो ये अभी ही टूट जाएगा। तो फिर राघव भाग करके गया, और भी कोई साथ में होगा। ये गए, उसकी डालियाँ बाँधी। यह है गुरु होना, कि तुम्हें दिखाई दे रहा कि सामने जो है उसमें सम्भावना पूरी है लेकिन फिलहाल की स्थिति में उसको बचाया नहीं तो वो ख़त्म हो जाएगा।

तो गुरु होना, मैंने इसीलिए कहा, कि बेबसी का काम होता है, मजबूरी होती है। आपको कुछ करना पड़ेगा। फिर वहाँ पर जो शब्द आता है उसे कहते हैं प्रेम, है न?

अब इसमें फिर आप ये थोड़े ही देखोगे कि "मैं कितना कुशल हूँ, मैं पूरे तरीके से विशेषज्ञ हूँ अमरूदों को बाँधने में या नहीं? किसी विदेशी यूनिवर्सिटी से मैंने अमरूद में रस्सी बाँधने में डिप्लोमा लिया है कि नहीं लिया है?" ये सब देखोगे क्या?

तुम कहोगे कि, "मेरे पास ज्ञान और अनुभव भले न हों, लेकिन जज़्बा है न जज़्बा। ये नीयत है कि किसी को बचाना है, तो मैं जितना कर सकता हूँ उतना तो करूँगा", ये गुरुता है। "भले ही मुझे ठीक से रस्सी बाँधनी नहीं आती, लेकिन जितना कर सकता हूँ करूँ। अब मैं किसी विशेषज्ञ को ढूँढने जाऊँगा उतनी देर में तो काम तमाम हो जाएगा; हवाएँ तेज़ हैं।"

तो गुरु होने के लिए ज्ञान और ये सब तो चलो ठीक है, सबसे पहले क्या चाहिए? नीयत, इरादा, प्रेम। और बिना प्रेम के ही ज्ञान झाड़ रहे हो तो ये बड़े पाप का काम है। ये फिर तुम सामने वाले को उठाने का नहीं दबाने का काम रहे हो, कि दस लोग इकठ्ठा कर लिए हैं उनको ज्ञान झाड़ रहे हो, झाड़ रहे हो ताकि वो बेचारे और दब जाएँ, गिर जाएँ और तुम्हें कहना शुरू कर दें, "आप महान हैं। आप महान हैं!"

ठीक है, जो आगे बैठे हैं कुर्सी पर वो महान है। तुम क्या हो? या उन्होंने ये सारा कार्यक्रम इसीलिए करा है कि खुद महान बन जाएँ, और सामने हैं वो और ज़्यादा दब जाएँ?

तो पहली शर्त ज्ञान भी नहीं है, पहली शर्त क्या है? — प्रेम। और प्रेम बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी होती है कि वो एक विवशता बन जाती है, एक बेबसी बन जाती। आपको कुछ करना पड़ता है।

बेटा डूब रहा है और बाप को तैरना नहीं आता, तो वो इंतज़ार थोड़े ही करेगा कि कोई बढ़िया तैराक आए तब कुछ किया जाएगा? तो गुरु की ऐसी बेबसी होती है। अपने अनुभव से बता रहा हूँ, कई बार तो पता भी नहीं होता कि क्या करें पर ये पता होता है कि कुछ करा नहीं तो ये तो गया। तो फिर आप कुछ करते हो, जो बन पड़ता है करते हो। जो करते हो वो आधा-तीया होता है, पूर्ण नहीं होता, दोषयुक्त भी होता है। पर आपको करना पड़ेगा न? नहीं तो वो तो गया, सामने डूब गया।

अभी जब नई किताबें वगैरह छप रही हैं, तो मैं इनको बोला करता हूँ। मैं कहता हूँ, दो-हज़ार-पंद्रह-सोलह के बाद लेख रखो उसमें, पहले के मत रखो। क्योंकि सार्वजनिक जीवन में आने के बाद, और इधर-उधर के शहरों में घूमने के बाद, विदेशों में घूम आने के बाद जो मुझे अनुभव हुए हैं, वो दो-हज़ार-पंद्रह के बाद के लेखों में ज़्यादा स्पष्ट हैं। हालाँकि ज़्यादा शुद्ध बात मैंने पहले करी है। तुम अगर दो-हज़ार-बारह-तेरह का कोई लेख या वीडियो देखोगे तो उसमें जो बात है वो ज़्यादा शास्त्रीय है, ज़्यादा शुद्ध है। लेकिन ज़्यादा उपयोगी वही बात है जो दो-हज़ार-अठारह-उन्नीस में हुई होगी।

पहले भी कर रहा था, जितना समझ में आता था कर रहा था। क्योंकि मजबूरी है न, कुछ तो करना ही पड़ेगा। जो चल रहा है उसको वैसे नहीं छोड़ सकते। बीमार को उसके हाल पर नहीं छोड़ सकते। तो भले ही तुम जो उसकी मदद करने जा रहे हो तुमको पता है कि वो मदद काफी नहीं होगी, या वो मदद उलटी भी पड़ सकती है, लेकिन फिर भी तुम कुछ तो करोगे न अपनी ओर से? जिस किसी को दूसरे की मदद करने का भाव उठे, वो ये प्रश्न अपने आप से ज़रूर पूछे ले — "मदद मैं उसकी कर रहा हूँ या मूल्य मैं अपना बढ़ाना चाहता हूँ?" ये बहुत ज़रूरी सवाल है। "मेरी रूचि वाकई दूसरे की मदद करने में है या अपना ओहदा ऊँचा करने में है?"

अगर दूसरे की मदद करने में रूचि है, आगे बढ़ो। इसी को गुरुता कहते हैं। नहीं तो आगे मत बढ़ो।

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