जो दिल में बैठ कर दिल तोड़ते हैं || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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जो दिल में बैठ कर दिल तोड़ते हैं || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: कोई बाहर से तुम पर शासन करे, हुकुम चलाये, आसान होता है पकड़ पाना कि मेरे साथ कुछ ग़लत हो रहा है क्योंकि बहुत स्पष्ट है कि सामने कोई खड़ा हुआ है और वो तुम पर चढ़ बैठने की कोशिश कर रहा है। इंद्रियाँ बाहर की ओर ही देखती हैं और मन बहुत समझदार होता नहीं, तो जहाँ मन ने देखा कि बाहर से कोई आकर तुम पर गुर्रा रहा है, तुम समझ जाते हो कि ग़लत हो रहा है मेरे साथ, ग़लत हो रहा है। इतना तो पशु भी समझ जाते हैं न?

जानवर जैसे ही होते हैं हम बहुत मामलों में। लेकिन जो आंतरिक व्यवस्था बैठी हुई है, चाहे वो जो हमें बाहर से कंडिशनिंग , संस्कार, मिल गये हैं, वो हों, या फिर जो हमारी प्रकृतिगत, जन्मगत वृत्तियाँ हैं, वो हों, इनको तो हम नाम दे देते हैं 'मैं' का। हम कह देते हैं, ‘ये तो जी हमारी अपनी हैं।’

नतीजा ये निकलता है कि जब मैं सिखाता हूँ कि गुलामी के विरुद्ध विद्रोह करो तो लोग बड़ा आधा-अधूरा और आत्मघातक विद्रोह कर मारते हैं। वो क्या करते हैं कि जितना भी बाहरी अनुशासन होता है, वो उसको तोड़ने लग जाते हैं।

क्यों?

‘आचार्य जी ने कहा है कि बेख़ौफ़, निर्भय जीना है, तो जितनी बाहरी व्यवस्था है उसको नहीं मानना है। और जो भीतरी व्यवस्था है, जो भीतरी अराजकता है, जो भीतरी आलस है, उसको तो जी मानना है, बिल्कुल मानना है। बिल्कुल मानना है क्योंकि वो तो जी मैं हूँ।’

ये जो भीतर वाला है न जिसको 'मैं' बोलते हो, ये बाहरी से ज़्यादा बाहरी है। और इससे ज़्यादा घातक कोई नहीं है तुम्हारे लिए। इसीलिए बार-बार बोलता हूँ कि बाहर से तो बाद में बचना, पहले तुम ख़ुद से बचो, अपनेआप से बचो। जो तुम्हारे भीतर बैठा है, उससे बचो। वही दुश्मन है तुम्हारा। वही ज़हर है तुम्हारा। वो जो तुम्हारे भीतर बैठा है तुम्हारी बुद्धि बनकर, जो तुम्हारे भीतर बैठा है 'मैं' बनकर, वो जो भीतर बैठा है तुम्हारा सलाहकार और शुभचिंतक बनकर, वो तुम्हारा सबसे बड़ा बैरी है।

पर हम उसको बैरी कहाँ मानते हैं, हम उसको कहते हैं, ‘ये तो मैं हूँ, ये तो मैं हूँ।’ और ठीक उस तरीक़े से जैसे बाहर कोई हम पर गुर्राये तो हमारे लिए आसान होता है ये कह देना कि इसके तो मुझे ख़िलाफ़ विद्रोह करना है, उसी तरीक़े से बाहर से अगर हम पर हमारा शुभचिंतक भी गुर्राये तो हम उसके ख़िलाफ़ भी विद्रोह कर ही देंगे क्योंकि हम बाहर की ओर ही अनिवार्यतः देखने वाले पशु हैं। भीतर की ओर देखने वाली आँखें नहीं हैं हमारे पास। बाहर से कोई हमें प्यार कर दे, हमें लगता है ये तो मिल गया जीवनसाथी। बाहर से कोई गुर्रा दे तो...

हम बाहर ही देखते रह जाते हैं, वार हम पर पीछे से हो जाता है, वार हम पर अन्दर से हो जाता है। पीछे से भी अगर आपके सीने में कोई खंजर घोपे तो आप बच जाओगे न? पर अगर आपके सीने के अन्दर से कोई आपके सीने में खंजर घोपे, तो कैसे बचोगे? बताना ज़रा, ज़िन्दगी में बड़े-से-बड़े ज़ख़्म किसने दिये हैं — उन्होंने जो तुम्हारे बाहर थे या उन्होंने जो तुम्हारे दिल के भीतर ही बैठे थे?

बड़े-से-बड़े ज़ख़्म तो तुम्हें वो ही दे पाते हैं जो सीधे दिल के अन्दर बैठ जाते हैं, और वो दिल के अन्दर से खंजर मारते हैं। उनसे बचोगे कैसे? आँखें तो बाहर देख रही हैं और भीतर को देखने वाली आँख जीवन में कभी खुली ही नहीं, क्योंकि उसको खोलने में अभ्यास लगता है, उसको खोलने में ज़रा दम लगता है, अनुशासन लगता है। भीतर वाली आँख खोली नहीं, तो जितने हमारे दिलदार होते हैं वही दिल पर वार करते हैं। फिर बताते हुए भी लजाते हो — कौन कर गया वार, वो जो दिल के भीतर था दिलदार (व्यंग्य करते हुए)। कैसे बताओगे किसी को! ज़ख़्म ऐसा है कि दिखाया भी नहीं जाता।

ये अन्दर वाले से बचो!

मैं फ़िल्मी विद्रोह नहीं सिखाता, भाई। मैं तुमको रजनीकांत थोड़े ही बना रहा हूँ कि बाहर चले गये और जाकर के पचास-साठ लोगों को एकसाथ अकेले ही पीट आये और बोले, ‘ये देखो, मैं हूँ आध्यात्मिक आदमी, संसार से नहीं डरता। जगतजीत हूँ मैं!’ स्वयं को जीतना होता है, भीतर जाना होता है।

एक से एक सूरमा होते हैं। वो ऐसे भी होते हैं कि आचार्य जी, आपने ही तो सिखाया था न कि बाहर किसी की नहीं सुननी है। तो अब हम आपकी नहीं सुनते हैं। आपकी ही शिक्षाओं पर चल रहे हैं। आपने ही कहा था कि किसी बाहरी अनुशासन को स्वीकार मत करना। तो देखिए, सबसे पहले तो हम आपको अस्वीकार करते हैं।’ तुम्हारे भीतर कौन बैठा है जो मुझे अस्वीकार कर रहा है? एक पल को उसके ख़िलाफ़ भी तुमने विद्रोह कर लिया होता। पर नहीं, ये सब ख़ूब होता है।

भीतर वाले दुश्मन से हम लड़ना नहीं चाहते क्योंकि उसकी शक्ल बिल्कुल हमारी शक्ल जैसी है, उसका नाम हमारा ही नाम है, उसकी आँखें हमारी आँखें हैं, उसका शरीर हमारा शरीर है, उसके रिश्ते हमारे रिश्ते हैं। अरे! वो तो बिल्कुल हमारे जैसा है। वो तो हम ही हैं। भीतर वाले से कैसे लड़ोगे? उसके लिए तो प्रकृति ने हमें तैयार ही नहीं किया है। उसके लिए तो कोई और हमें तैयार करता है। पता नहीं क्या नाम है उसका!

आ रही है बात समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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