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गुलामी चुभ ही नहीं रही, तो आज़ादी लेकर क्या करोगे? || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्न: आचार्य जी, आपसे सीखा है कि जीवन में मौज और मुक्तता होनी चाहिए। बेखौफ़, निडर जीना चाहिए, न कि किसी बाहरी व्यवस्था में बंधकर। पर अगर मैं बाहरी व्यवस्थाओं का ख़याल नहीं करता तो आलसी हो जाता हूँ, और फिर तनाव आता है। और अगर मैं आपकी अत्यधिक मेहनती जीवनशैली की नकल करने की कोशिश करता हूँ, तो शरीर जवाब देने लगता है। कृपया समझाएँ कि ऐसा क्यों हो रहा है। क्या ये सबके साथ होता है?

आचार्य प्रशांत: ये जो दो हिस्से हैं तुम्हारी अपनी स्थिति के वर्णन के, वो दोनों ही हिस्से थोड़े गोलमोल हैं। कह रहे हो कि अगर बाहरी व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हो तो आलसी हो जाते हो, और फिर तनाव आता है। बाहरी व्यवस्था सिर्फ 'बाहरी' थोड़े ही है। अगर व्यवस्था की उपेक्षा करने के पीछे तुम्हारी नियत ये है कि तुम बंधना नहीं चाहते किसी ऐसी चीज़ में जो निजी नहीं है, जो तुम्हारी आत्मिक नहीं है, तो जो चीज़ आत्मिक नहीं है, वो सिर्फ़ बाहर की व्यवस्था में थोड़े ही बैठी है, वो भीतर भी तो प्रवेश कर गई है न। जिसको तुम 'भीतरी' बोलते हो, वो भी तो 'बाहरी' है।

तुम्हारी नियत ये है कहने की कि, "देखिए आचार्य जी, बेखौफ़, निडर जीना चाहिए, तो बाहर की जो व्यवस्था होती है मैं उसकी उपेक्षा, अवहेलना कर देता हूँ। बाहरी नियमों को तोड़ देता हूँ। पर जब मैं बाहरी नियमों को तोड़ देता हूँ तो आलसी हो जाता हूँ, तनाव आता है।" माने कुछ ऐसा-सा होता होगा कि बाहरी नियम है कि इतने बजे ये काम कर देना है, या इतने बजे इस जगह पहुँच जाना है, या दिनभर में इतना काम तो करना ही करना है, और तुम बाहरी नियमों को तोड़ने के नाम पर काम करना बंद कर देते होंगे, जहाँ पहुँचना है वहाँ से देर से पहुँचते होंगे। तो आलस आया, आलस पर चले, और फिर जब काम नहीं करा, देर से पहुँचे, तो फिर गाली खाई, सुनना पड़ा दूसरों से। तनाव आया फिर, चोट लगी। कुछ ऐसा होता होगा।

लेकिन, बाहर वाला जो तुम्हारा मालिक बन रहा है, तुमने उसकी तो उपेक्षा कर दी, और जो भीतर बैठा हुआ है आलस बनकर, वो भी तो मालिक ही बन रहा है तुम्हारा, उसकी उपेक्षा तो नहीं कर पाए न तुम। ये तो तुमने बड़ा भ्रम पाल रखा है कि जो बाहर से तुम पर शासन करे या आदेश चलाए, सिर्फ़ वही बाहरी है। अपनी आंतरिक व्यवस्था को तो तुमने बिल्कुल ही अपना मान लिया, तुमने कह दिया न 'आंतरिक' है। आंतरिक को 'आत्मिक' बना मारा तुमने, जबकि वो आंतरिक भर है, आत्मिक नहीं है।

अध्यात्म का एक बुनियादी सूत्र है: बाहरी और आंतरिक, दोनों में से आत्मिक कोई नहीं होता।

और जो बाहरी ही है, उससे ज़्यादा बाहरी और ज़्यादा ख़तरनाक वो होता है जो अंदरूनी लगता है।

समझना बात को। कोई बाहर से तुम पर शासन करे, हुकुम चलाए, आसान होता है पकड़ पाना कि—"मेरे साथ कुछ ग़लत हो रहा है," क्योंकि बहुत स्पष्ट है कि सामने कोई खड़ा हुआ है और वो तुम पर चढ़ बैठने की कोशिश कर रहा है। इंद्रियाॅं बाहर की ओर ही देखती हैं और मन बहुत समझदार होता नहीं, तो जहाँ मन ने देखा कि बाहर से कोई आकर तुम पर गुर्रा रहा है, तुम समझ जाते हो कि ग़लत हो रहा है मेरे साथ, ग़लत हो रहा है। इतना तो पशु भी समझ जाते हैं न? जानवर जैसे ही होते हैं हम बहुत मामलों में। लेकिन जो आंतरिक व्यवस्था बैठी हुई है, चाहे जो हमें बाहर से कंडीशनिंग (संस्कार) मिल गए हैं, वो हों, या फिर जो हमारी प्रकृतिगत, जन्मगत वृत्तियाॅं हैं, वो हों, इनको तो हम नाम दे देते हैं 'मैं' का। हम कह देते हैं - "ये तो जी हमारी अपनी है।"

नतीजा ये निकलता है कि जब मैं सिखाता हूँ कि गुलामी के विरुद्ध विद्रोह करो, तो लोग बड़ा आधा-अधूरा और आत्मघातक विद्रोह कर मारते हैं। वो क्या करते हैं कि जितना भी बाहरी अनुशासन होता है, वो उसको तोड़ने लग जाते हैं। क्यों? "आचार्य जी ने कहा है कि बेखौफ़, निर्भय जीना है, तो जितनी बाहरी व्यवस्था है उसको नहीं मानना है। और जो भीतरी व्यवस्था है, जो भीतरी अराजकता है, जो भीतरी आलस है, उसको तो जी मानना है, बिल्कुल मानना है। बिल्कुल मानना है क्योंकि, वो तो जी 'मैं' हूँ।"

ये जो भीतर वाला है न, जिसको 'मैं' बोलते हो, ये बाहरी से ज़्यादा बाहरी है। और इससे ज़्यादा घातक कोई नहीं है तुम्हारे लिए। इसीलिए बार-बार बोलता हूँ कि बाहर से तो बाद में बचना, पहले तुम ख़ुद से बचो, अपने-आप से बचो, जो तुम्हारे भीतर बैठा है, उससे बचो। वही दुश्मन है तुम्हारा; वही ज़हर है तुम्हारा। वो जो तुम्हारे भीतर बैठा है तुम्हारी 'बुद्धि' बनकर, जो तुम्हारे भीतर बैठा है 'मैं' बनकर, वो जो भीतर बैठा है तुम्हारा 'सलाहकार' और 'शुभचिंतक' बनकर, वो तुम्हारा सबसे बड़ा बैरी है।

पर हम उसको बैरी कहाँ मानते हैं। हम उसको कहते हैं, "ये तो मैं हूँ, ये तो मैं हूँ।" और ठीक उस तरीक़े से जैसे बाहर कोई हम पर गुर्राए तो हमारे लिए आसान होता है ये कह देना कि - "इसके तो मुझे खिलाफ विद्रोह करना है," उसी तरीक़े से बाहर से अगर हम पर हमारा शुभचिंतक भी गुर्राए, तो हम उसके ख़िलाफ़ भी विद्रोह कर ही देंगे, क्योंकि हम बाहर की ओर ही अनिवार्यतः देखने वाले पशु हैं। भीतर की ओर देखने वाली आँखें नहीं हैं हमारे पास। बाहर से कोई हमें प्यार कर दे, हमें लगता है, "ये तो मिल गया जीवनसाथी।" बाहर से कोई गुर्रा दे तो...!

हम बाहर ही देखते रह जाते हैं; वार हम पर पीछे से हो जाता है, वार हम पर अंदर से हो जाता है। पीछे से भी अगर आपके सीने में कोई खंजर घोपे, तो आप बच जाओगे न? पर अगर आपके सीने के अंदर से कोई आपके सीने में खंजर घोपे, तो कैसे बचोगे?

बताना ज़रा, ज़िंदगी में बड़े-से-बड़े ज़ख़्म किसने दिए हैं, उन्होंने जो तुम्हारे बाहर थे, या उन्होंने जो तुम्हारे दिल के भीतर ही बैठे थे? बड़े-से-बड़े ज़ख़्म तो तुम्हें वो ही दे पाते हैं जो सीधे दिल के अंदर बैठ जाते हैं, और वो दिल के अंदर से खंजर मारते हैं। उनसे बचोगे कैसे? आँखें तो बाहर देख रही हैं, और भीतर को देखने वाली आँख जीवन में कभी खुली ही नहीं, क्योंकि उसको खोलने में अभ्यास लगता है, उसको खोलने में ज़रा दम लगता है, अनुशासन लगता है। भीतर वाली आँख खोली नहीं, तो जितने हमारे दिलदार होते हैं, वही दिल पर वार करते हैं। फिर बताते हुए भी लजाते हो। कौन कर गया वार? वो जो दिल के भीतर था दिलदार। किसे बताओगे किसी को? ज़ख़्म ऐसा है कि दिखाया भी नहीं जाता।

ये अंदर वाले से बचो।

मैं फ़िल्मी विद्रोह नहीं सिखाता, भाई। मैं तुमको रजनीकांत थोड़े ही बना रहा हूँ कि बाहर चले गए और जाकर के पचास-साठ लोगों को एक साथ अकेले ही पीट आए, और बोले, "ये देखो, मैं हूँ आध्यात्मिक आदमी, संसार से नहीं डरता। जगतजीत हूँ मैं!"

स्वयं को जीतना होता है, भीतर जाना होता है।

एक से एक सूरमा होते हैं। वो ऐसे भी होते हैं कि, "आचार्य जी, आपने ही तो सिखाया था न कि बाहर किसी की नहीं सुननी है, तो अब हम आपकी नहीं सुनते हैं। आपकी ही शिक्षाओं पर चल रहे हैं। आपने ही कहा था कि किसी बाहरी अनुशासन को स्वीकार मत करना। तो देखिए, सबसे पहले तो हम आपको अस्वीकार करते हैं।" तुम्हारे भीतर कौन बैठा है जो मुझे अस्वीकार कर रहा है? एक पल को उसके ख़िलाफ़ भी तुमने विद्रोह कर लिया होता। पर नहीं, ये सब ख़ूब होता है।

भीतर वाले दुश्मन से हम लड़ना नहीं चाहते, क्योंकि उसकी शक्ल बिल्कुल हमारी शक्ल जैसी है, उसका नाम हमारा ही नाम है, उसकी आँखें हमारी आँखें हैं, उसका शरीर हमारा शरीर है, उसके रिश्ते हमारे रिश्ते हैं। "अरे! वो तो बिल्कुल हमारे जैसा है—वो तो हम ही हैं।"

भीतर वाले से कैसे लड़ोगे? उसके लिए तो प्रकृति ने हमें तैयार ही नहीं किया है। उसके लिए तो कोई और हमें तैयार करता है। पता नहीं क्या नाम उसका!

आ रही है बात समझ में?

प्रश्नकर्ता आगे कह रहे हैं, "आचार्य जी, फिर मैं आपकी मेहनती जीवनशैली की नकल करने की कोशिश करता हूँ तो मेरा तो शरीर जवाब देने लगता है।" हैं भई? तुम अगर मेरी नकल कर रहे हो, तो इस बात की भी तो नकल करो न कि मैं किसी की नकल नहीं कर रहा हूँ। अगर तुम वही करना चाहते हो जो मैं कर रहा हूँ, तो तुम ये भी तो देखो न कि मैं वो नहीं कर रहा हूँ जो कोई और कर रहा है। मैं किसकी नकल कर रहा हूँ?

स्वागत है तुम्हारा, तुम मेरे जैसा हो जाना चाहते हो। तुम्हें कुछ सौंदर्य दिखाई दे रहा है, तुम्हें कुछ प्रेरक दिखाई दे रहा है, तुम्हें कुछ ऊॅंचा दिखाई दे रहा है, अच्छी बात है, स्वागत है। पर फिर ठीक से तो देखो कि तुम्हें जिसके जैसा होना है, वो क्या है, कौन है, कहाँ से अपनी ऊर्जा पाता है। मैं किसकी नकल उतार रहा हूँ? मेरे सामने कौन खड़ा है आदर्श बनकर? मैं तो जीवन को देख रहा हूँ। मेरी मेहनत इसलिए थोड़े ही आ रही है कि मैंने किसी और की मेहनत नापी हुई है और कह रहा हूँ, "ये उतनी मेहनत करता है तो उतनी ही फिर मैं भी करूॅंगा।" मैंने किसी और को थोड़े ही अपना मापदंड बना रखा है।

मुझे तो पता भी नहीं है कि मैं कितनी मेहनत कर रहा हूँ। तुमने लिख दिया है कि, "आचार्य जी, आपकी अत्यधिक मेहनती जीवनशैली की नकल उतारने की कोशिश करता हूँ।" तुम सुना रहे हो ये ख़बर तो सुन ली, नहीं तो अपने पास कहाँ पर समय है कि नापें कि कितनी मेहनत कर रहे हैं और कितनी नहीं कर रहे हैं। हाँ, शरीर जब चरमराने लगता है तो पता चल जाता है कि सोने का समय आ गया। पेट जब कुलबुलाने लग जाता है तो समझ आ जाता है खाने का समय आ गया। और सोते-सोते यकायक ख़याल आ जाता है कि बहुत काम बाकी है, तो उठ जाते हैं। जैसे ही हमें ख़याल आता है कि बहुत काम बाकी है, हमारा ब्रह्म मुहूर्त आ जाता है। ब्रह्म का ही काम करते हैं, ब्रह्म ने ही याद दिला दिया कि उठो काम करना है, वही तो ब्रह्म मुहूर्त है, और क्या? घड़ी देखकर थोड़े ही आएगा ब्रह्म मुहूर्त।

जब ब्रह्म जीवन में उतरा, वही ब्रह्म का मुहूर्त।

तो हम तो ऐसे चलते हैं। तुम हमें देख-देखकर चल रहे हो! ये ऐसी ही बात है कि दो रस्सियाॅं पैरेलल (समानांतर) बंधी हुई हों, और दो रस्सियों पर दो लोग हैं जो चल रहे हैं। एक खुद को देखकर चल रहा है और दूसरा दूसरे को देखकर चल रहा है। जो ख़ुद को देखकर चल रहा है, वो तो रस्सी पर चलकर पार भी हो जाएगा; जो दूसरे को देखकर चल रहा है, वो कहाँ से पार पाएगा?

मुझसे अगर कुछ सीखना चाहते हो, तो यही सीखो कि जीवन में बड़े विवेक से और बड़ी निष्कामना से सही लक्ष्य बनाना है, और फिर उसमें आकंठ डूब जाना है। मेहनत अपने-आप हो जाती है, गिननी नहीं पड़ती।

ठीक वैसे ही जैसे बैडमिंटन खेलो तो स्कोर गिनते हो, कैलोरी तो नहीं न? कैलोरी अपने-आप घट जाती है। इधर स्कोर बढ़ रहा है, उधर कैलोरी घट रही है। मुझे ये बड़ा पसंद है। पर जिम में बड़ी गड़बड़ होती है, वो सीधे कैलोरी दिखाते हैं। वो चीज़ मुझे रूचती ही नहीं। कैलोरी गिनना, इसमें क्या मज़ा है? बैडमिंटन बेहतर है; उसमें कुछ और गिन रहे हो, और पीछे-पीछे जो होना है वो चुपचाप हो रहा है। वैसा ही जीवन होना चाहिए।

तुम वो करो जो आवश्यक है, उससे तुम्हारा जो लाभ होना है वो पीछे-पीछे चुपचाप हो जाएगा; तुम्हें वो लाभ गिनना नहीं पड़ेगा। मेहनत अपने-आप हो जाएगी।

जिम में तुम जाते हो ये लक्ष्य बनाकर कि मेहनत करनी है। बैडमिंटन कोर्ट पर ये लक्ष्य बनाकर नहीं जाते न कि मेहनत करनी है, अपने-आप हो जाती है मेहनत। सावधानी से सुनना, सिर्फ़ उदाहरण है। इस उदाहरण को बहुत दूर तक खींचोगे तो फिर कह दोगे कि, "नहीं, ये... वो..." इधर-उधर की बातें। जिधर को इशारा कर रहा हूँ, बस उतना समझो।

जब तुम्हारे सामने 'वो' मौजूद होता है जिसको तुमने अपने विवेक का पूरा इस्तेमाल करके जान लिया कि आवश्यक है, अब तुम्हें मेहनत करनी नहीं पड़ेगी, अब तुम्हारी अपनी व्यवस्था मजबूर हो जाएगी मेहनत करने के लिए।

तुम अगर चाहोगे भी कि नहीं करूॅं मेहनत, तो भी तुम्हें बाध्य होकर करनी ही पड़ेगी। अब इसमें तुम्हारे पास चुनाव नहीं रहा, निर्विकल्प हो गए तुम। सच दिख गया, नकारोगे कैसे उसको?

तो देखो कि तुम्हारे जीवन का यथार्थ क्या है। देखो कि क्या हो सकते हो और क्या हुए पड़े हो। देखो कहाँ बंधे हुए हो। पूछो अपने-आप से कि अगर तमाम तरह के स्वनिर्धारित, स्वप्रमाणित बंधन न हों, तो क्या वैसे ही जीना चाहोगे जैसे आज जी रहे हो? चौंक जाओगे, हतप्रभ हो जाओगे बिल्कुल जब तुम्हें पता चलेगा कि अगर तुमने अपने ऊपर जो तमाम बंधन लगा रखे हैं वो न हों, तो तुम एक-प्रतिशत भी वैसा न जियो जैसा अभी जी रहे हो। फिर तुम्हें दया आएगी अपने ऊपर, तुम कहोगे कि, "कितने कष्ट में जी रहा हूँ मैं। जीवन का एक-एक पल मेरा बिल्कुल वैसा नहीं है जैसा होता, यदि मैं मुक्त होता। एक-एक पल में पीड़ा है, एक-एक पल में दासता है। ग़ुलामी की साँस लेकर जीना मौत से बदतर है।" उसके बाद मेहनत अपने-आप कर लोगे, जब कहोगे कि, "बुरे-से-बुरा क्या है, सब छिन जाएगा, शरीर भी, मौत आ जाएगी? मौत से बदतर हो जो हो सकता है, वो तो फिलहाल ही हो रहा है, तो फिर तो मैं दूसरा ही विकल्प चुनूँगा, भले ही उस विकल्प में मौत मिलती हो। मेरी जो अभी हालत है उससे तो मौत भली!”

और याद रखो, आध्यात्म की ओर बढ़ नहीं सकते जब तक तुममें अपनी वर्तमान हालत के ख़िलाफ़ इतना ज़बरदस्त आक्रोश न आ जाए। जो लोग अपने हालात से संतुष्ट हैं और खुश हैं, अध्यात्म नहीं है उनके लिए, एकदम नहीं है। भीतर एक गहरी विकलता होनी चाहिए—बड़ी ज़बरदस्त बेचैनी, छटपटाहट होनी चाहिए जो सोने न दे, जीने न दे, जो तुमको उतावला करके रखे, जो तुम्हें एक गहरे आंतरिक तनाव में रखे—तब आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत भी होती है।

और जब मैं ये कहता हूँ, तो यही सुनकर लोग सबसे पहले मुझसे कटते हैं, दूर भागते हैं। कहते हैं, "ये लो! हमें तो आज तक बताया गया था कि अध्यात्म का मतलब होता है शांति, और सुकून, और चैन। 'हरि ओम! बच्चा, आँखें बंद करो और कल्पना करो कि पूर्णमासी का चाँद है, और शांत, शांत, शांत हो जाओ' - हमें तो ये बताया गया था। और हम वही सब विशेष अनुभव पाने के लिए अध्यात्म में आते हैं कि थोड़ा दो-चार पल के लिए हमें भी लगे कि हम पर चांदनी की ज्योत्सना बरस रही है। और आ हा हा हा! शांत सरोवर है जिसमें चंद्रकला प्रतिबिंबित हो रही है। पाँच मिनट के लिए ही सही, शांति तो मिल गई। हम पाँच मिनट की शांति के लिए अध्यात्म चाहते हैं। और आचार्य जी आपके पास आते हैं तो आप कहते हो कि अध्यात्म के लिए सर्वप्रथम तुम्हारे भीतर बेचैनी होनी चाहिए, तड़प होनी चाहिए, छटपटाहट होनी चाहिए। हम तो वैसे ही बेचैन हैं, आप और चाहते हो बेचैन हो जाएँ?"

हाँ, मैं चाहता हूँ तुम और बेचैन हो जाओ। तुम धुधुआ रहे हो, तुम सिसक रहे हो; मैं चाहता हूँ तुम खुलकर रोओ। हमारे कबीर साहब बोल गए हैं—जब पहली बार मैंने ये पढ़ा था दोहा उनका तो बिल्कुल थम गया था मन एकदम। बोलते हैं कि जो ओदी लकड़ी होती है, ओदी लकड़ी समझते हो? गीली।

ओदी बिरहीन लाकड़ी, सिसके औ धुधवाये।

छुट पड़े या विरह से, जो सगरी जली जाये॥

~ गुरु कबीर

एकदम मैं थम गया था। गीली लकड़ी की तरह है हमारा जीवन, सिसक-सिसक कर धुआँ देता है, थोड़ा-थोड़ा जल रहा है। और इसीलिए बहुत लंबा हम चल लेते हैं इस हालत में। आगे कहते हैं कि - "ये हालत ख़त्म हो जाए।” जिस हालत में हो तुम गीली लकड़ी की तरह, उस हालत से तो कहीं बेहतर है कि तुम पूरे ही जल जाओ।

यही मेरी शिक्षा है, सलाह है: तुम पूरे ही जल जाओ।

क्या गीली लकड़ी की तरह धुआँ दिए ही जा रहे हो, दिए ही जा रहे हो? क्या छुप-छुपकर आँसूँ बहाते हो? क्या भीतर-भीतर रोते हो? आँखें तो अब पथरा गईं  हैं, उनमें तो अब नमी भी नहीं आती। भीतर-ही-भीतर आँसूँ बहाते हो, इस से अच्छा ये है कि तुम टूट जाओ, ढह जाओ, खुल कर रो लो, चिल्ला कर रो लो, आर्तनाद करो।

पर नहीं, प्रसन्नता का, संतुष्टि का, झूठा नकाब पहन कर घूमते रहते हो। अध्यात्म की ओर भी आ जाते हो झूठी शांति और झूठी मुस्कान टपकाते हुए।

बहुत विचित्र लगेगी मेरी बात लोगों को, लेकिन फिर कह रहा हूँ साफ़-साफ़: अशांति की अभिस्वीकृति, एकनॉलेजमेंट, चाहिए; बेचैनी चाहिए, आकुलता चाहिए। वो नहीं चाहिए जो चैन से आठ-आठ, दस-दस घंटे टाँग फैलाकर सोते हैं। छी! बल्कि थू! तुम्हें नींद आ कैसे जाती है? तुम कह कैसे देते हो कि बीमार हूँ? तुम मर क्यों नहीं जाते?

जब तक तुम नहीं निश्चित करोगे, नहीं संकल्प करोगे कि जीवन में कुछ है जो मरने से बदतर है, और इसीलिए जीवन में कुछ होना चाहिए जो मरने से बेहतर हो, तब तक तुम्हारा पूरा जीवन मृत्युधर्मा ही रहेगा। ये झूठा जीवन है! ये मौत है! हम नहीं जी रहे, हम मरे हुए हैं, लाशें चल रही हैं। आती-जाती साँसें हमें भ्रम में रखे हुए हैं कि हम जीवित हैं। जीता बस वो है जिसके पास कुछ ऐसा है जिसके ख़ातिर मरा जा सकता हो। जो मरने के लिए ठीक इसी पल तैयार नहीं, उसका जीवन, मैं कह रहा हूँ, मौत से बदतर है।

और इसका अर्थ ये नहीं है कि तुम अपनी जान को ले जाकर कुएँ में डाल दो, कि जाकर के व्यर्थ ही कहीं गोलियाॅं चला दो और गोलियाॅं खा लो। पहली शर्त है कि तुम पहचानो कि तुम फँसे कहाँ हो, बँधे कहाँ हो, और फिर कहो कि—"यहाँ जहाँ फँसा हूँ, बँधा हूँ, इससे मुक्ति ही वो लक्ष्य है जिसके लिए प्राण भी त्यागे जा सकते हैं।" मात्र उस लक्ष्य के लिए त्यागे सकते हैं प्राण, अन्यथा प्राण इतने सस्ते नहीं कि कहीं भी जाकर फेंक आए। और जीने का कोई कायदा नहीं, और जीने में कोई खूबसूरती नहीं; जीवन में खूबसूरती का सिर्फ़ यही तरीक़ा है।

मौत तुम्हें डरा-डराकर मारे रहती है। मौत तुम्हें डराती है कि मर जाओगे, और इसलिए तुम मरा हुआ ही जीवन जिए जाते हो। जीता वो है जो मौत से कहता है, "मर जाऊॅॅंगा क्या? तेरे खौ़फ़ में अगर जी रहा हूँ तो मैं मरा हुआ हूँ। तो पहली चीज़ तो ये है कि तेरा खौ़फ़ नहीं चाहिए।" मौत कहेगी, "खौ़फ़ तो मेरा रहेगा क्योंकि तू जीव है, शरीर लेकर आया है। जो शरीर लेकर आया है वो मौत से डरेगा।" और तब तुम कहते हो, "तेरा खौ़फ़ है, तेरा खौ़फ़ बड़ी चीज़ है! लेकिन एक बात बताऊॅं मौत, मेरे पास तेरे खौ़फ़ से भी ज़्यादा बड़ी एक चीज़ है। ऐसा नहीं कि मुझ पर तेरा खौ़फ़ असर नहीं करता, लेकिन मेरे पास कुछ और भी है जिसके सामने मुझे न मौत याद रहती है, न खौ़फ़ याद रहता है। भूल ही जाता हूँ।"

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