जो दिख रहा है, जो देख रहा है, और जो मुक्त है || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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जो दिख रहा है, जो देख रहा है, और जो मुक्त है || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

क्षर प्रधानममृताक्षर हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः। तस्थाभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावाद्भूयश्वान्ते विश्वमायानिवृत्तिः॥

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक १०)

अनुवाद: प्रकृति नाशवान् है, उसका भोक्ता जीवात्मा अविनाशी है, एक ही परमात्मा इसे अपने नियन्त्रण में रखता है। उस परमात्मा का ध्यान करने से, चिन्तन करने से, उसके तत्त्व की भावना करने से अन्त में विश्वरूप माया से निवृत्ति होती है और आगे उसी परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति होती है।

आचार्य प्रशांत: प्रकृति की उपाधि, प्रकृति का यथार्थ याद रखना है, अपने भीतर जो अहं-वृत्ति है उसका चरित्र याद रखना है। और इन दोनों को जो याद रख लेगा, उसका मन इन दोनों से उचटकर के सत्य को याद करने लग जाएगा।

जिसको ये तीनों याद हैं, वो मुक्त हो गया, श्लोक कहता है, “विश्वरूपी माया से उसकी निवृत्ति हो गई।“ इन्हीं तीनों को जानना होता है। किन तीनों को? वो जो दिख रहा है, वो जो देख रहा है, और वो जो इस दिखने-देखने के खेल से आगे कहीं मुक्त बैठा है।

या ऐसे कह लो - वो जो दिख रहा है, वो जो देख रहा है और वो मुक्ति, जिसमें आप दिखने के और देखने के खेल से, बंदिश से परे हो जाते हो। "ना मुझे दिखने में रुचि है, ना मुझे देखने में रुचि है"; ये तीन याद रखने हैं।

ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः क्षीणैः क्लेशेैर्जन्ममृत्युप्रहाणिः। तस्याभिध्यानात्तृतीयम देहभेदे विश्वैश्वर्यं केवल आप्तकामः।।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक ११)

अनुवाद: उस परमात्मा को जान लेने पर सम्पूर्ण बंधनों (विकारों) से मुक्ति मिलती है तथा सम्पूर्ण क्लेश क्षीण होकर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। उस परमात्म-तत्त्व का निरंतर ध्यान करने से शरीर त्यागने के बाद तृतीय लोक के सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के भोग से पूर्ण कामना की प्राप्ति हो जाती है, और फिर अंत में कैवल्य पद की प्राप्ति हो जाती है।

आचार्य: “परमात्मा को जान लेने पर सब बंधनों (विकारों) से मुक्ति मिलती है।“ वास्तव में अज्ञान के अलावा और कोई बंधन होता भी नहीं है। अज्ञान से यहाँ पर आशय है - झूठा ज्ञान, मिथ्या ज्ञान।

ज्ञान अर्जित करना पड़ता है, और अज्ञान के बीज हम लेकर पैदा होते हैं; दोनों में अंतर ये है, समझना। दूसरे शब्दों में, यथार्थ ज्ञान अर्जित करना पड़ता है, यथार्थ ज्ञान पाने की साधना करनी होती है, और झूठा ज्ञान यूँ ही मुफ़्त मिला होता है, वो हम गर्भ से निःशुल्क लेकर के पैदा होते हैं।

एक बच्चा भी छोटा पैदा होता है तो इस भावना के साथ कि, “मैं शरीर हूँ।” उसको ये ज्ञान है कि, “मैं शरीर हूँ", उसको ये ज्ञान है कि इस शरीर की सुरक्षा के लिए अगर किसी का थोड़ा अपहित भी करना पड़े तो कोई बात नहीं; तो ये जो मिथ्या ज्ञान है, यही जीव का जन्म है, यही जीव का बंधन है।

फिर “सम्पूर्ण क्लेश क्षीण होकर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाती है।“ जन्म-मृत्यु का चक्र उसी के लिए होगा न, जो इस ज्ञान में फँसा हुआ है कि, “मैं वो जो जन्मा”? यही मिथ्या ज्ञान है, “मैं वो जो जन्मा”, जो इससे मुक्त हो गया वो मृत्यु से भी मुक्त हो गया, क्योंकि जब जन्मे नहीं तो मरोगे कैसे?

“परमात्म-तत्त्व का निरंतर ध्यान करने से शरीर त्यागने के बाद तृतीय लोक के सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के भोग से पूर्ण कामना की प्राप्ति हो जाती है, और फिर अंत में कैवल्य पद की प्राप्ति हो जाती है।" ये उन पंक्तियों में से है जिनका अर्थ तत्काल ही इस रूप में किया जा सकता है कि शरीर त्यागने के बाद कोई जीवात्मा होता है जो अन्य किसी लोक पहुँचता है, और अगर उसने पुण्य-कर्म करे हैं तो वहाँ उसे कई तरह के आनंदप्रद भोगों की प्राप्ति होती है। नहीं, इसका लेकिन ये अर्थ नहीं है। जीवात्मा एक वृत्ति है, जीवात्मा कोई वस्तु या इकाई नहीं है; अच्छे से समझिएगा। जीवात्मा कोई इकाई नहीं है जो शरीर को त्याग करके निकलेगी और इधर कहीं आकाश में भ्रमण करेगी, और फिर जाकर के किसी और गर्भ में, किसी और शरीर में प्रविष्ट हो जाएगी।

इसका अर्थ है - शरीर के प्रति आसक्ति की भावना का त्याग। जब कहा जा रहा है कि, “जीवात्मा शरीर त्यागने के बाद आनंद का बड़ा भोग करता है।“ क्या कहा जा रहा है? “जीवात्मा शरीर त्यागने के बाद आनंद का भोग करता है।“ तो उसका अर्थ ये नहीं है कि मृत्यु हो गई, जीवात्मा शरीर से निकला और फिर कहीं और लोक में पहुँचा और वहाँ जाकर के उसने विभिन्न आनंदप्रद विषयों का भोग किया। नहीं, इसका अर्थ है - शरीर भाव त्यागने के बाद जीवात्मा की स्थिति सुख-दुःख से परे, आनंद की हो जाती है।

शरीर त्यागने का अर्थ हुआ शरीर से तादात्म्य त्यागना। शरीर से तादात्म्य त्यागने के बाद जीवात्मा सुख-दुःख को भी त्याग देता है न, क्योंकि जब तक शरीर था तभी तक सुख-दुःख से भी आसक्ति थी। जैसे ही ये भाव गया कि, “मैं शरीर हूँ”, वैसे ही आपके लिए सुख-दुःख भी छोटी बातें हो गए, हानि-लाभ भी छोटी बातें हो गईं, क्योंकि सब हानि, सब लाभ शरीर के लिए ही होते हैं; शरीर में स्थूल शरीर भी, सूक्ष्म शरीर भी, जिसको मन कहते हो वो भी सूक्ष्म शरीर ही है। तो एक बार शरीर भाव को त्यागा, वैसे ही फिर हानि-लाभ भी आपके लिए महत्वहीन हो गया। अब आपका क्या कोई नुकसान कर लेगा, या कोई आपको क्या दे देगा? और ये जो स्थिति होती है इसको कहते हैं 'आनंद'।

तो जीवात्मा किसी और लोक में जाकर के आनंद का सेवन नहीं कर रहा है, जीवात्मा बस जिस दुःख से बद्ध था उसने उस दुःख का त्याग कर दिया है; माने शरीर का त्याग कर दिया है और अब मज़े में है, आनंद में है।

“और फिर अंत में कैवल्य पद की प्राप्ति हो जाती है।“ कैवल्य का अर्थ ही है कि आपको किसी से जुड़ने की ज़रूरत नहीं है; यही कैवल्य अवस्था है - आप अपने होने में, आप अपने एकांत में ही आनंदित हैं, कहीं सम्बंधित होने की कोई आपकी अनिवार्य ज़रूरत, आवश्यकता अब रही नहीं। जिसने शरीर से अपने-आपको जोड़कर देखना छोड़ दिया, वो अपने-आपमें ही संतुष्ट हो गया; ये कैवल्य अवस्था है।

एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किंचित। भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्व प्रोक्त त्रिविधं ब्रह्ममेतत्।।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्र्लोक १२)

अनुवाद: अपने भीतर अधिष्ठित इस परमात्म-तत्त्व को जानना ही चाहिए, क्योंकि इससे श्रेष्ठ जानने योग्य तत्त्व दूसरा कुछ भी नहीं है। भोक्ता (जीवात्मा), भोग्य (जड़ प्रकृति) और परमात्मा, इन तीनों को जो मनुष्य जान लेता है वो सब-कुछ जान लेता है; इन तीनों भेदों में वर्णित ये तत्त्व वस्तुतः एक ही ब्रह्म के रूप हैं।

आचार्य: “अपने भीतर अधिष्ठित इस परमात्म-तत्त्व को जानना ही चाहिए, क्योंकि इससे श्रेष्ठ जानने योग्य दूसरा कुछ नहीं है। भोक्ता, माने जीवात्मा, भोग्य, माने जड़ प्रकृति और परमात्मा, इन तीनों को जो जान लेता है वो सब कुछ जान लेता है; इन तीनों भेदों में वर्णित ये तत्त्व वास्तव में एक ही ब्रह्म के रूप हैं।“

और कुछ जानने लायक नहीं है अगर तुमने जानने वाले को नहीं जाना; न सिर्फ़ और कुछ जानने लायक नहीं है, बल्कि तुम प्रयास करके भी कुछ जान नहीं पाओगे अगर तुमको नहीं पता कि जान कौन रहा है। तो ये दोनों जब भी जाने जाएँगे, एक-साथ ही जाने जाएँगे; ज्ञेयता और ज्ञात वस्तु। इनको तुम जब भी जानोगे, एक-साथ ही जानोगे; इनको अलग-अलग कोई जान ही नहीं सकता, क्योंकि ये दोनों एक-दूसरे से बिलकुल गुत्थमगुत्था हैं, अन्तर्सम्बन्धित हैं। या तो एक का पता होगा तो कुछ नहीं पता होगा, या अगर कुछ पता होगा तो दोनों का पता होगा। और जिसको इन दोनों का पता हो गया वो इन दोनों से ही मुक्त हो गया, माने उसे तीसरे का भी पता हो गया; उस तीसरे का ही नाम मुक्ति है। तो मुक्ति के लिए एक बड़ा स्पष्ट रास्ता मिल गया है।

जानने की कोशिश तो हमारी देखो जीवन भर रहती ही है, बस हमारी जानने की कोशिश आधी होती है। ये अधूरी कोशिश कहती है, “बाहर जो कुछ है उसको जान लो।” अध्यात्म कहता है, “नहीं, एक को जानोगे तो एक को भी नहीं जान पाओगे, और दो को जानोगे तो तीन को जान जाओगे।”

एक को जानोगे तो एक को भी नहीं जान पाए, और दो को जानोगे—दो माने किसको-किसको? वो जो दिख रहा है, और वो जो देख रहा है - इन दोनों को अगर जान लिया तो दो को तो जाना ही, साथ में तीसरे को भी जान लिया। उस तीसरे का नाम है, इन दोनों से मुक्ति।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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