जो चाहोगे बन जाओगे || नीम लड्डू

Acharya Prashant

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जो चाहोगे बन जाओगे || नीम लड्डू

यह जो सड़क पर आदमी चलता है न, जिसको तुम ' कॉमन मैन ' (आम आदमी) बोलते हो, उसकी शक्ल ध्यान से देखो; वो तुम हो। और अगर वैसा ही हो जाना है तो फिर कोई बात नहीं। बिलकुल तयशुदा कहानी है, उसमें कोई बड़े उतार-चढ़ाव नहीं हैं। उस कहानी में क्या-क्या आता है बता देता हूँ। उस कहानी में आता है थोड़ी बहुत पढ़ाई, सात फेरे, मेटरनिटी वार्ड , पैसे-रुपए के पीछे चिक-चिक, चिक-चिक, कर्ज लेकर के मकान खरीदना। तीस दिन काम करो, किसलिए? कि एक दिन तनख्वाह मिल जाए। और जब मन बिलकुल उदास हो जाए तो जाकर किसी शॉपिंग मॉल में बैठ जाना ताकि लगे कि जीवन में कुछ है। यह है! खाँका खींच दिया, चाहिए तो बोलो।

“कितना एक्साइटिंग (रोमांचक) है! हम इसी के लिए तो यह सब कुछ कर रहे हैं, हमारा सुनहरा भविष्य।“

फिर से एक चुनौती दे रहा हूँ – क्या ज़िंदगी इसके अलावा भी कुछ हो सकती है?

और इस चुनौती के साथ एक आश्वासन भी दे रहा हूँ – हाँ! हो सकती है।

तुम्हें जगना पड़ेगा, तुम्हें चेतना पड़ेगा, तुम्हें इस कहानी को बदलना पड़ेगा।

है दम?

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