प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। सर, ज़िंदगी में कुछ चीज़ों का मलाल तो रह जाता है जो नहीं मिलती है। हर चीज़ नहीं मिलती है। तो ये उठा-पटक क्यों? मतलब जैसी चल रही है वैसी चलने देते है। उसमें क्या दिक्क़त है? ये सही भी है, ऐसा भी कर सकते है।
आचार्य प्रशांत: मुझे थोड़े ही दिक्क़त है। आपको दिक्क़त है। तो बताइए क्यों है दिक्क़त, क्यों है मलाल?
प्र: मलाल तो मतलब, हर चीज़ मिलती नहीं है तो मलाल रह ही जाता है। तो फिर ज़रूरी नहीं है कि हर चीज़ पा ही लिया जाए। किसी-न-किसी चीज़ का मलाल तो रह ही जाता है।
आचार्य: हर चीज़ क्या पाने लायक़ होती है? जो चीज़ पाने लायक़ हो और न मिले, मैं कह रहा हूँ बेशक उसका क्षोभ होना चाहिए, भीतर उसकी तड़प होनी चाहिए। लेकिन जो चीज़ें आपको नहीं मिलीं, क्या सचमुच वो पाने लायक़ थीं भी?
प्र: तो फिर ये उठा-पटक होती है न, आचार्य जी, कि मलाल रह जाता है कि..
आचार्य: वो मलाल इसीलिए रह जाता है क्योंकि जो चीज़ सचमुच पाने लायक़ है वो आपको अभी मिली नहीं है। जब वो मिल जाएगी तो ये सब जो छोटी-छोटी चीज़ें हैं जो आपने पायी नहीं वो आपको मज़ाक की बात लगेंगी फिर; मज़ाक की बात।
अच्छा, उदहारण देता हूँ आपको एक। आप रात में उठे हैं। आप दिनभर थककर के आये थे और आप शाम को ही सो गये। आप सात बजे सो गये क्योंकि आज दिनभर आपने बहुत मेहनत करी थी। सात बजे नींद आ गई। घर आये सात बजे, सो गये। आपकी नींद खुली साढ़े दस बजे और अब आपको लग रही है भूख। दिनभर मेहनत करी थी, सो गये थे, अब लग रही है भूख। ठीक? और अब आप बाहर निकलते हैं सड़क पर और आपको पता है कि इस वक़्त तक तो जितने होटल, रेस्टोरेंट (भोजनालय) हैं सब बंद हो जाते हैं। तो आप कहते हैं वो बस-अड्डे पर एक छोटा-सा फटेहाल ढाबा है वो खुला होगा, वो रात में थोड़ा देर तक खुलता है। आप उसकी ओर भागते हैं। ठीक है? और आप वहाँ पहुँचते हैं तब तक ग्यारह-साढ़े ग्यारह बज जाता है। और आप पाते हैं वो भी बंद हो गया। आप कहते हैं ये भी नहीं मिला ज़िंदगी में। दिनभर मेहनत करी और ये भी नहीं मिला ज़िंदगी में। ये भी नहीं मिला ज़िंदगी में। कैसी हालत रहेगी? मलाल रहेगा न तगड़ा।
प्र: जी।
आचार्य: दिनभर मेहनत करी थी और अब खाने को भी नहीं मिल रहा। बड़ा अफ़सोस है। भीतर बड़ी हीनता, बड़ा क्षोभ है। यही दशा है न अभी?
प्र: यही दशा है, आचार्य जी।
आचार्य: वहाँ से आप चुपचाप अपने घर लौटने लगते हैं, सिर झुकाये, उदास, खिन्न। और आप पाते हैं कि एक बहुत अच्छा रेस्टोरेंट अभी खुला हुआ है। आपको यकीन नहीं होता। आप उसमें प्रवेश करते हैं। पहली बात तो वहाँ खाना बहुत अच्छा है, जो उस बंद बस-अड्डे वाले ढाबे में कभी मिलता नहीं, बहुत अच्छा खाना है। और वहीं पर आपको बैठा हुआ कोई पुराना दोस्त मिल जाता है अपना। वो बोलता है, 'अभी-अभी मैं बस से उतरा हूँ, इस शहर में आया था, मुझे तो पता भी नहीं तुम इसी शहर में रहते हो।' अब आपको मलाल बचेगा क्या?
प्र: नहीं, नहीं बचेगा।
आचार्य: उस ढाबे में आपको कुछ नहीं मिला, ये भला हुआ कि बुरा हुआ?
प्र: भला हुआ।
आचार्य: अगर वो ढाबा खुला होता तो क्या होता?
प्र: बुरा होता।
आचार्य: क्यों बुरा होता?
प्र: क्योंकि जो चाह रहे थे वो नहीं मिल रहा था।
आचार्य: वो बुरा इसलिए होता क्योंकि वहाँ आपको कोई छोटी-मोटी चीज़ मिल जाती। उस छोटे-से ढाबे का घटिया खाना आपको मिल जाता। भई, अब दिन ख़त्म हो रहा, बचा-कूचा उसके पास खाना था, वही वो आपको परोस देता, आप मजबूरी में खा भी लेते। है न?
प्र: जी।
आचार्य: और आप कहते, 'चलो जो चाहा था वो मिल गया क्योंकि मैंने तो ये ढाबा ही चाहा था, मैंने तो ये ढाबा ही चाहा था। इस से ऊपर की मेरी कोई चाह थी ही नहीं। मैंने यही चाहा था और मुझे मिल भी गया।' उसने आपको ऐसे ही सब दिनभर का पोछन, जूठन परोस दिया, अपने खा भी लिया। और ये मलाल लिए आप घूम रहे है। ये मलाल, ये दुर्भाग्य का भाव तत्काल बदल जाता है, सौभाग्य के अनुग्रह में, जब आप पाते हैं कि वो अभी बड़ा वाला रेस्टोरेंट तो खुला हुआ है। वहाँ खाना तो मिला ही मिला बढ़िया, बहुत बढ़िया खाना मिला। साथ-ही-साथ बहुत पुराना एक मित्र भी मिल गया। लेकिन वो आपको तभी मिलेगा जब तलाशोगे। अगर मलाल लेकर बैठे रह गये, तो बस यही भाव रहेगा कि हाय! हम कितने अभागी हैं।
ज़िंदगी में जो पाने लायक़ चीज़ है जिसको वो मिल जाए, वो अब कभी शिक़ायत कर सकता है क्या, किसी भी चीज़ की? उसके पास तो बस अनुग्रह बचता है, ग्रेटिट्यूड (अनुग्रह), मिल गया।
हम ऐसे लोग हैं जो पहली बात व्यर्थ की चीज़ों को चाहते हैं। फिर वो व्यर्थ की चीज़ें मिलती भी नहीं हैं। पहले तो व्यर्थ की चीज़ चाही, बहुत छोटी सी कोई, क्षुद्र। और फिर वो छोटी सी चीज़ भी नहीं मिली। तो हम कहते है, 'अरे, अरे अरे! क्या तो मेरा दुर्भाग्य है।' वो चीज़ मिल भी जाती तो कुछ नहीं मिलता। मलाल उस छोटी चीज़ को पाने से दूर नहीं होता। वो दूर होता है जो असली, बड़ी चीज़ है उसको पाने से। और बड़ी चीज़ की पहचान यही होती है — उसको पा लो तो ये छोटी-छोटी चीज़ें दिमाग़ से ग़ायब हो जाती हैं। इनका अफ़सोस ख़त्म हो जाता है।
छोटी चीज़ों का जो अफ़सोस मना रहा हो, जान लेना कि उसकी समस्या ये नहीं है कि उसको छोटी चीज़ नहीं मिली। उसकी समस्या ये है कि उसको आज तक कोई इतनी बड़ी चीज़ नहीं मिली कि सब छोटी चीज़ें वो भुला पाये। और छोटी चीज़ें इतनी हैं कि एक पर रोना चाहोगे तो सौ मिलेंगी रोने के लिए। तुम एक छोटी चीज़ का मातम करना चाहते हो न। सौ छोटी चीज़ें मिलेंगी कि 'हम पर भी रोओ, हम पर भी रोओ, हमारा भी मातम मनाओ।' छोटी चीज़ों का तो ऐसा है।
और बड़ी चीज़ एक ही होती है। और वो एक बड़ी चीज़ मिल गयी — "एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय।"
एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय। रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥
~ रहीम दास
वो एक बड़ी चीज़ है उसको साध लो, तो ये सब छोटी-छोटी चीज़ें दिमाग़ से एकदम ग़ायब हो जाती हैं।
अपने साथ बैठिए और पूछिए — किस दिशा में बढ़ना आवश्यक है? पैदा हुआ हूँ, तो क्या कुछ ऐसा हो सकता है कि इतना महत्वपूर्ण और इतना सुन्दर, इतना आवश्यक कि उसकी ओर बिलकुल प्रण-प्राण से बढ़ा जा सके? कि जिसके आगे भूख-प्यास आदमी सब भूल जाए। कि जिसकी सेवा में इंसान अपना दिल ही निकाल कर रख दे। कुछ ऐसा हो सकता है?
हो सकता है कोई आख़िरी उत्तर ना मिले जब ये सवाल आप पूछें। पर कोई आपको अभी अंतरिम, तात्कालिक उत्तर तो मिलेगा न। आप भी ये तो कहते होगे कि जीवन में ये दस लक्ष्य हैं मेरे; कहते हो न? आज आपसे पूछा जाए – भई आप जीवन में क्या-क्या चीज़ें हैं जो चाहते हो? तो आप दस चीज़ों की सूची बता दोगे। उन दस में जो सबसे महत्वपूर्ण अभी दिख रहा हो, कम-से-कम उसको पूरी तरह समर्पित हो जाइए। उन दस में फ़िलहाल जो सबसे आवश्यक लग रहा हो, उसको ही अभी पूरी तरह समर्पित हो जाइए। और उसको जब पूरी तरह समर्पित हो जाता है इंसान, तो छोटी-छोटी चीज़ें मानस पटल से विलुप्त होने लगती हैं, याद आनी बंद हो जाती हैं। कभी हुआ नहीं है ऐसा कि इतने डूबे हुए हो किसी काम में कि याद ही नहीं रहा कि आज तो खाना खाया ही नहीं। हुआ होगा न ऐसा?
प्र: हुआ है।
आचार्य: बस वही। वही ज़िंदगी है। वही तो ज़िंदगी का अमृत है। उसी चीज़ के लिए ही तो हम पैदा होते हैं। कुछ इतना बड़ा मिल जाए कि सारी छोटी चीज़ें याद ही ना आयें। लेकिन वो जो बड़ा होता है वो आहुति माँगता है, कुर्बानी माँगता है। वो कहता है, 'अपना सब कुछ मुझे ही न्यौछावर कर दो और मैं तुम्हें बदले में वरदान ये दूँगा कि तुम्हारे मन को शांत और निश्चिन्त कर दूँगा। तुम अपना सब कुछ मुझे सौंप दो, तो तुम्हारी चिंताएँ भी फिर मेरी हो जाएँगी। अब कोई चिंता नहीं बचेगी तुम्हारे पास।' फिर कौन-सा मलाल? ऐसा नहीं कि एक सही जीवन जीने वाले को चोट नहीं मिली होती है या असफलताएँ नहीं मिली होती हैं या उससे बहुत कुछ छिना नहीं होता है। ये सब उसके साथ भी होता है। जैसे हर आम आदमी को बहुत तरह की असफलताएँ मिली होती हैं, धोखें मिले होते हैं, चोट मिली होती है। होता है न हर आम आदमी के साथ?
प्र: हाँ, होता है।
आचार्य: हाँ, तो जो सही और सच्चा आदमी होता है उसको भी ये सब मिला होता है। आम आदमी की ही तरह उसको भी मिला होता है। अंतर बस ये होता है कि जो सही ज़िंदगी जी रहा है उसके पास फ़ुर्सत नहीं होती है अपने घाव गिनने की, उसके पास फ़ुर्सत नहीं होती है कि बैठकर धोखों पर रोये। वो कहता है हुआ था धोखा, कोई बात नहीं, हम जिस चीज़ में डूबे है उसमें बड़ी मौज है। बिलकुल ऐसा हुआ है कि पाँच लोग चोट दे गये, दस जगह असफलता मिल गयी, ये सब हुआ है हमारे साथ भी। लेकिन फ़ुर्सत किसको है! फ़ुर्सत किसको है! ये सब होता रहता है हम अपना काम करते रहते हैं। कुछ-कुछ बात जम रही है? पूरी तरह नहीं समझ में आ रही होगी। थोड़ी बहुत आ रही है?
प्र: थोड़ा-थोड़ा आ रहा है।
आचार्य: इस बात को कई बार सुनिएगा। और इससे सम्बन्धित भी जो मैंने और बातें कही हैं उनको भी कोशिश करिएगा पढ़ने की या सुनने की। ठीक है?
ये मलाल, अफ़सोस, शिकायत — ये सब ज़िंदगी से चले जाएँगे, चेहेरे से बिलकुल पुछ जाएँगे, रौनक आ जाएगी चहेरे पर। जैसे अभी थोड़ी-थोड़ी आ रही है। आ रही है कि नहीं आ रही है?
प्र: आ रही है, आचार्य जी।
आचार्य: हाँ, पूरी ही आ जाएगी। ठीक है? दीनता का भाव ज़िंदगी से हटा दो बिलकुल; कमज़ोरी, दीनता। ये तो रखो ही नहीं कि मेरे साथ बुरा हो गया। बुरे से बुरा भी हो जाए, हाथ कट जाए एक, पाँव कट जाए एक, तो भी ये मत कहो कि मैं बेचारा हूँ, लाचार हूँ। कुछ नहीं। अपनी गरिमा, अपनी मौज, वो सबसे बड़ी चीज़ है। परिस्थितियाँ तो किसी के साथ कुछ भी कर सकती हैं, चोट दे सकती हैं, धोखा दे सकती हैं, लूट सकती हैं, बर्बाद कर सकती हैं, मौत भी दे सकती हैं। परिस्थितियों का क्या भरोसा, वहाँ तो कुछ भी हो सकता है। लेकिन फिर भी हम रोएँगे नहीं बहुत, क्योंकि रोने की फ़ुर्सत किसको है! और अगर रो भी रहे हैं तो रोते-रोते भी जो काम है हमारा वो करते रहेंगे। वो काम इतना प्यारा है! ठीक है? चलो।
प्र: नमस्ते, आचार्य जी।