जो भरम उसे भरम, जो परम उसे परम || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2017)

Acharya Prashant

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जो भरम उसे भरम, जो परम उसे परम || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2017)

जो भरम उसे भरम , जो परम उसे परम

छोटी सी बात , छोटा सा मरम

~ आचार्य प्रशांत

वक्ता: भगवद्गीता का है, चौथे अध्याय का ग्यारवाँ श्लोक:

‘’जो मुझे जिस रूप में भजता है, मैं भी उसे उस ही रूप में भजता हूँ।’’

इसका अर्थ ये हुआ कि

जीवन में जो तुम्हें मिल रहा है , वो ठीक वैसा ही है जैसी तुम्हारी पात्रता है।

जीवन अगर तुम्हें लगता है कि कहीं तुम्हारा असम्मान कर रहा है, तो निश्चित रूप से कहीं न कहीं तुमने सत्य का असम्मान करा है। जिसे सत्य दिखाई देता है, उसे सत्य मिलेगा और जिसे लगता है कि भरम है, उसे भरम ही मिलेगा। जैसे अभी हो रहा होगा – जिसे सत्य दिख रहा है, उसे सत्य मिलेगा; जिसे भरम दिख रहा है उसे भरम मिलेगा। उसी को लेकर अंग्रेजी में छोटा सा बोला है कि: वाट यू गेट, इज़ वाट यू आर या वाट यू आर इज़ वाट यू गेट।

जो तुम्हारी जीवन के विषय में धारणा है, जीवन ठीक उसी रूप में तुम्हारे सामने आएगा। जीवन बदलना चाहते हो, तो धारणाएँ बदल दो, और अगर जीवन के पार जाना चाहते हो तो धारणाओं के पार चले जाओ। आप सत्य को भी अगर भ्रम ही माने रहोगे, तो जीवन भी पूरे तरीके से भ्रमयुक्त होकर ही मिलेगा। और अगर भ्रम में भी यदि सत्य को देखोगे, तो सत्य ही सत्य चमकेगा। ये तुम पर है। कृष्ण कहते हैं कि, ‘’मैं तुम पर कोई विवशता लादता ही नहीं। तुम पूरे तरीके से मुक्त हो, बस मैं तुमसे ये कह रहा हूँ कि बाज़ी तुम्हारे हाथ में है।’’

तुम कृष्ण को हाँ बोलो , कृष्ण तुम्हें हाँ बोल देंगे।

तुम कृष्ण को न बोलो, कृष्ण तुम्हें न बोल देंगे। जो मुझे ‘’जो मुझे किस रूप में भजता है, मैं भी उसे उस ही रूप में भजता हूँ। तुम मुझे हाँ बोलो, मैं भी तुम्हें हाँ बोल दूँगा।’’ मालिक तुम हो। मालिक ने मालकियत तुम्हें सौंप दी है। तो अगर तुम पाते हो कि तुम्हारे जीवन में कृष्णत्व का अभाव है, तो समझ लेना कि तुमने पहले ही कृष्ण को न बोली होगी। ‘जो परम, उसे परम’ – जिसने परम को हाँ बोल दिया, उसे परम न मिले ऐसा हो नहीं सकता और तुम्हें अगर नहीं मिल रहा, तो किसी और को दोष मत देना, तुमने ही न बोल रखा है। ये अब तुम खोजो कि तुमने कैसे न बोला, किसी और को दोष मत देना। तुम्हीं न बोले जा रहे हो, इसिलिए तुम्हें मिलता नहीं।

कृष्णत्व का मतलब समझते हो? कृष्णत्व का मतलब वो सब कुछ, जो प्यारा है। कृष्ण माने जो प्यारा है, जो खींचता है अपनी ओर, जो मोहित करता है। क्या प्यारा है? प्यार प्यारा है, शांति प्यारी है, खूबसूरती प्यारी है। ये सब न हो अगर जीवन में, अगर खूबसूरती न हो, लावण्य न हो, प्रेम न हो, मीठापन न हो, उड़ान न हो, संतुष्टि न हो, तो समझ लेना कि तुमने ही दरवाज़े बंद किए हैं। तुमने न बंद किए होते, तो फिर तो ‘जो परम उसे परम’।

जो अपनेआप को छोटा मान रहा है, उसे ही बस जीवन में वो मिलेगा, जो छोटा है। अब क्यूँ शिकायत करते हो कि जीवन में कभी कुछ महत और हसीन मिला नहीं? तुमने ही अपनेआप को छोटा बनाया था। तुमने ही अपनेआप को छोटा बनाया था, तुमने ही दरवाज़े बंद करे हैं, तो अब देखो कि तुम किन-किन तरीकों से न बोल रहे हो। खुद न बोलते हो, खुद दरवाज़ा नहीं खोलते, इल्ज़ाम उस पर लगाते हो कि आता नहीं। वो खटखटाए जाए, तुम खोलो नहीं, इल्ज़ाम फिर भी उस पर है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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