प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जो कंपनियाँ बहुत बड़े तल पर, अंतर्राष्ट्रीय तल पर फैल चुकी हैं, लेकिन गलत काम कर रही हैं, जैसे, चिकन के विज्ञापन दे देकर लुभा रही हैं लोगों को। और चूँकि लोग ऐसे हैं कि विज्ञापन देखकर जाते हैं। अब अगर इतनी बड़ी कंपनियों से मुझे पंगा लेना है तो मुझे भी उस तल की बड़ी कंपनी बना के ही उनको ठीक करना पड़ेगा?
आचार्य प्रशांत: बड़े कैसे बनेंगे आप? उन्हीं लोगों को सामान बेचकर। कौन से लोग? जो चिकन खाना पसंद करते हैं। तो अगर आप को बड़ा होना है तो आप भी उनको क्या खिलाकर बड़ा बनेंगे? चिकन। बड़ी कंपनी लोगों को गुमराह करके बड़ी नहीं बनी है। आप कहना चाहते हो कि बड़ी कंपनी शोषक है, लोगों का शोषण कर रही है। मैं इस बात को दूसरी तरह से भी रख सकता हूँ। मैं कह सकता हूँ बड़ी कंपनी मजबूर है, वो चिकन बेच रही है तो उसका धंधा चल रहा है। वो कल को कहे मैं चिकन नहीं बेचूँगी, तो यही लोग, यही ग्राहक, यही जनता, क्या करेगी? कंपनी बंद करा देगी। करा देगी कि नहीं? तो कंपनी भी क्या करे, बोलो? कंपनी चैतन्य थोड़े ही है! ये जो उलझी हुई चेतना है, वो किसकी है? मनुष्य की है, लोगों की है, जनता की है। कंपनी को क्यों आप दोष देते हैं? खलनायक ही बना दिया कि बेचारे सीधे-साधे लोग, उनको विज्ञापन दिखा दिखाकर बिगाड़ दिया — ऐसा थोड़े ही है! पूर्ति-माँग का खेल चलता है, भई! लोगों को खाना है क्योंकि लोगों का दिमाग ख़राब है। एक कंपनी देना बंद करेगी तो वो दूसरी कंपनी के पास पहुँच जाएँगे।
ये बात बिलकुल ठीक है कि विज्ञापन दे देकर के जो आपकी कुत्सित वृत्तियाँ होती हैं, उनको हवा दी जाती है, उनको बढ़ावा दिया जाता है, पर हवा ही दी जाती है, वृत्ति आपकी है। जैसा समाज होता है, जैसे लोग होते हैं, वैसे ही उन लोगों के नेता होते हैं, वैसे ही उस समाज के व्यापारी होते हैं। वैसे ही वहाँ की कंपनियाँ होती हैं, संस्थाएँ होती हैं। लोगों को ठीक करिए न! लोगों को ठीक करिए।
अभी कोई आया मेरे पास, बोला, जीवन में उद्देश्य चाहिए। मैंने कहा कि माँस वगैरह का प्रभाव बहुत प्रबल फैला हुआ है, देखो अगर तुम एक वीगन रेस्टोरेंट शुरू कर सकते हो तो। उसको बेंगलोर भेजा कि जाओ, वहाँ एक स्वयमसेवी है उस सर्कल में जहाँ वीगन एक्टीविज़्म है। कई रेस्टोरेंट हैं, जानता है। आया था बेंगलोर शिविर में, पता नहीं उसको सही सूचना मिली, गलत मिली, जो भी था, लेकिन उसने आकर बताया कि जितने वीगन आउटलेट्स हैं, उसमें से 80 प्रतिशत घाटे में चल रहे हैं। लो, दे तो दिया लोगों को विकल्प! जब लोगों का मन ही अभी सड़ा हुआ है तो तुम उनके सामने विकल्प रख भी दोगे, उसे स्वीकारेंगे नहीं। मन ठीक करना पड़ेगा न!
वीगन एक्टीविज़्म से काम नहीं चलेगा। बार-बार मैं इसीलिए बोलता हूँ, तुम्हें जो चाहिए, वो एक सामाजिक–आध्यात्मिक क्रांति है। उसके बिना वीगन एक्टीविज़्म हो, स्वच्छ ऊर्जा हो, कुछ हो — उसका कोई अर्थ ही नहीं, बेकार की बात!
हर पदार्थ का अंतिम उपभोक्ता कौन है? व्यक्ति। व्यक्ति को नहीं बदलोगे तो अर्थव्यवस्था में जो भी उत्पादन हो रहा है वो बदलेगा क्या?
अर्थव्यवस्था में जो भी उत्पादन होता हो, उसका अंतिम उपभोक्ता कौन है? व्यक्ति है न। व्यक्ति निर्णय कर रहा है कि उसको वो सब चीज़ें चाहिए, इसीलिए उस अर्थव्यवस्था में उन सब चीज़ों का उत्पादन हो रहा है। व्यक्ति नहीं बदलेगा जब तक, अर्थव्यवस्था में जो भी उत्पादन हो रहा है वो तो चलता ही रहेगा। व्यक्ति को बदलो! व्यक्ति बदल जाएगा, सब बदल जाएगा — सरकारें बदल जाएँगी, कंपनियाँ बदल जाएँगी, पूरी अर्थव्यवस्था बदल जाएगी। व्यक्ति ने ही तो खड़ी करी हैं, व्यक्ति बदल गया, सब बदलेगा।
व्यक्ति को नहीं बदलके अगर ऊपर-ऊपर से तुम बदलाव लाने की कोशिश करोगे, तो झूठ बोलोगे और उसके घातक परिणाम होंगे।
ऐसे समझो, आध्यात्मिक जो हो गया, काफ़ी संभावना है कि वो अपनेआप शाकाहारी हो जाए, दूध वगैरह भी छोड़ दे, पर आध्यात्मिक अभी नहीं हुआ है व्यक्ति, और तुम कोशिश करो कि उसको कहो कि दूध छोड़ दे, ये कर दे, तो वो भले ही कसम भी खा ले कि मैं दूध छोड़ दूँगा, वो दो महीने बाद अपनी कसम तोड़ देगा। मूल पहले आता है न, फिर फूल आता है।
ये वीगनिज़्म भी अध्यात्म के मूल का फूल है।
अगर अध्यात्म नहीं है तो वीगनिज़्म बहुत आगे तक जाएगा ही नहीं। अपने आस-पास ही मैंने कितने वीगन देखे हैं, वो मेरी देखा- देखी ही कुछ दिनों को बन गए, उसके बाद एक दिन पता चला, मुँह पनीर में डाल रखा है।
जिसके दिल में करुणा आ गई, अहिंसा आ गई, उसे समय नहीं लगेगा माँस छोड़ने में, दूध छोड़ने में, पर जिसके दिल में अभी अहिंसा, करुणा आए नहीं हैं, उसको सिर्फ तुम नैतिकता के नाते, या सामाजिक सरोकार, सामाजिक क्रांति के नाते वीगन बनाओगे तो वीगनिज़्म आगे बढ़ेगा ही नहीं बहुत।