जो अतीत में फँसे हुए हैं || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

Acharya Prashant

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जो अतीत में फँसे हुए हैं || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरा प्रश्न है कि हमारे सामने जब कोई परिस्थिति आती है तो हम उसके तथ्य को देखने के बजाय, उसे उसके अतीत से जोड़कर देखते हैं। इसका कारण क्या है? जैसे कि कभी हम कोई लड़ाई हार जाते हैं तो आगे की लड़ाइयों में संशय और डर बन जाता है, और अपनी पुरानी हार से अपनी हस्ती का प्रश्न खड़ा होता है।

आचार्य प्रशांत: देखो, अतीत के प्रसंग में वर्तमान को देखने से, हमारा अहंकार वर्तमान में निहित ख़तरे से बच जाता है। अतीत में आपने परिस्थिति को ग़लत तरीक़े से देखा था, उसी ग़लती का परिणाम आप हैं, वो ग़लती आप में समायी हुई है। वर्तमान को अगर आपने सही देख लिया तो ग़लती ठीक हो जाएगी, भूल-सुधार हो जाएगा। ग़लती कौन था? आप स्वयं, तो भूल-सुधार का अर्थ क्या होगा? आपको मिटना पड़ेगा।

अतीत में सुरक्षा है, क्योंकि आप स्वयं अतीत का ही निर्माण हैं। अगर आप अतीत, माने ‘प्रकृति’ का निर्माण न होते तो आपको अतीत से इतना आसक्त न होना पड़ता, इसलिए वर्तमान की अवहेलना करना आवश्यक हो जाता है। वर्तमान वो अकेला बिन्दु है जहाँ आप सत्य में प्रवेश कर सकते हैं। वर्तमान में ख़तरा है। किसके लिए? अहंकार के लिए। अहंकार कहाँ से आता है?

अहंकार आता है अतीत से, क्योंकि अहंकार को विषय चाहिए। विषय सब आपके अतीत में समाहित हैं, तो अतीत को बचाए रखना अहंकार के लिए बहुत ज़रूरी होता है; अतीत से सम्बन्धित रहना, अहंकार के लिए अति आवश्यक है।

अतीत की स्मृतियों को अच्छा बोलना, बुरा बोलना, उनमें डोलते रहना, ये बहुत ज़रूरी है, नहीं तो हम बचेंगे ही नहीं।

एक तरह से अध्यात्म में मुक्ति का अर्थ होता ही है — अतीत से मुक्ति।

हम बड़ा बेबसी का जीवन जीते हैं, अतीत में ग़लती करते हैं, और पूरे जीवन उस ग़लती को ढोते हैं। और जितना आप उस ग़लती को ढोते हो उतना वो ग़लती अतीत बनती जाती है और अतीत की ग़लती को बढ़ाती जाती है। जितना वो आपके अतीत को बढ़ाती जाती है, उतना ज़्यादा आपकी अतीत से जुड़ी पहचान गहराती जाती है।

कृष्णमूर्ति पूछा करते थे कि आवश्यक है सोचना कि मनुष्यता ने ग़लत मोड़ कहाँ पर ले लिया। व्हेन डिड ह्यूमानिटी टेक अ रॉंग टर्न? मैं कह रहा हूँ, जन्म के समय, जिस क्षण आपने जन्म लिया था, जिस क्षण आपमें प्रथम बार जीव-भाव उठा था‌‌‌। और उसके बाद आपने जो कुछ करा है वो बस उस ग़लती को गहराने की प्रक्रिया है। उस मूल भूल से अतीत का निर्माण होना शुरू होता है, क्योंकि आपने जन्म ले लिया, अब समय का चक्र शुरू हो गया न। जहाँ समय आया वहाँ अतीत आया तो जन्म लेने का अर्थ ही यही है कि अब अतीत शुरू हो जाएगा।

अतीत जितना बढ़ता जाएगा, आपकी ग़लती उतनी गहराती जाएगी। आपकी ग़लती जितनी गहराएगी, आप आगे उतनी गहरी ग़लती करोगे। जैसे कि आपको रचा ही न गया हो, मुक्ति के लिए। जैसे कि हम बुरी हालत में जन्म लेते हों और बदतर हालत की ओर फिसलते चले जाते हों। अतीत ही आपको विवश करता है अतीत से जुड़ने को, और अतीत ही आपको विवश करता है और ज़्यादा भयानक अतीत का निर्माण करने को। मुक्ति की क्या सम्भावना है अब?

ज्ञान, और ज्ञान के प्रति निष्ठा का संकल्प — यही दो उपाय हैं, डूबते को तिनके का सहारा हैं। जानना कि ये अतीत वस्तु क्या है, और फिर संकल्प लेना कि इसके सारे आकर्षण और मोह के बावजूद पूरी चेष्टा करूँगा इससे असम्बद्ध होने की, यही सहारा है। नहीं तो व्यवस्था पूरी कर दी गयी है, सब कुछ रच दिया गया है, कि आपके जीवन में कभी कुछ नया आये ही नहीं। नया माने जो मौलिक है, वास्तविक है। अतीत बस अपनेआप को दोहराता रहे, आपको बद से बदतर स्थितियों में डालता रहे।

शेक्सपियर की ट्रेजेडीस से मेरा परिचय लगभग ग्यारह-बारह साल की उम्र से हो गया था। कुछ घर में मौजूद थीं, और बाक़ी स्कूल के पाठ्यक्रम में थीं। चार्ल्स और मेरी लैम्ब की “सिक्सटीन टेल्स फ्रॉम शेक्सपियर”, सातवीं कक्षा में हमें लगती थीं, और उसके बाद फिर मैंने और पढ़ा, स्वतंत्र रूप से भी पढ़ा और स्कूली पाठ्यक्रम में भी था, बारहवीं कक्षा तक।

और उसमें ये सवाल मुझे हमेशा आता था, कि रुक क्यों नहीं जाता ये व्यक्ति यहीं पर, बदल क्यों नहीं जाता, क्योंकि उसमें दिखाई पड़ता था कि बहुत अच्छा इंसान है — हैमलेट है — लेकिन वो अपने पतन की ओर जा रहा है, और वो जो पूरा नाटक ही है, वो बस कहानी है उस अच्छे, सुन्दर, प्यारे व्यक्ति के विध्वंस की, क्योंकि वो अपने अतीत को छोड़ ही नहीं पा रहा है।

उस व्यक्ति में वो सब कुछ है जो सम्मान का पात्र है लेकिन उनमें बस एक जैसे यही कमी है, कि वो अपने अतीत को भुला नहीं सकते। कुछ है उनके अतीत में, जो उनको नाश की तरफ़ ढकेल रहा है, और उनका नाश हो जाता है। “ओथेलो”, “मैकबेथ”, “मिड समर्स नाईट ड्रीम”, “जूलियस सीज़र”, यहाँ तक कि “मर्चेंट ऑफ़ वेनिस” में भी, एंटोनियो — (दर्शकगण को सम्बोधित करते हैं) अगर एंटोनियो नहीं है तो याद दिला दीजिएगा, बचपन में पढ़ा था, बहुत समय हो गया — वो शायलाक द ज्यू (शायलाक, एक यहूदी) के चपेट में आ जाता है। कैसे आता है?

वो कहता है कि बचपन में मैं खेलते-खेलते तीर चलाता था, और वो तीर जाकर के कहीं झाड़ी-वाड़ी में गिर जाता था, खो जाता था। बच्चे का खिलौना है, उसने तीर चलाया और वो जाकर कहीं झाड़ी में गिर गया, खो गया। तो वो अपनी ओर से बड़ी होशियारी बताता है — एंटोनियो ही नाम है शायद, इटैलियन पूरी सेटिंग (व्यवस्था) है, इस प्ले (नाटक) की, (दर्शकगण को सम्बोधित करते हैं) आप लोग देखकर बता सकते हैं, (दर्शकगण में से कोई पुष्टि करते हैं कि नाम एंटोनियो ही है) एंटोनियो ही है — तो वो अपनी ओर से चालाकी बताता है, बोलता है, ‘अब मैंने जहाँ पैसा लगाया है वहाँ मेरा पैसा डूब गया, तो जैसे बचपन में मैं जिस दिशा में तीर मारता था, मैं दोबारा उधर को ही फिर तीर मारता था, और इस बार मैं उस तीर का पीछा करते-करते जाता था तो मुझे एक नहीं, दो तीर मिल जाते थे। उसी तरीक़े से, मैंने जहाँ पैसा डुबोया है मैं फिर से वहीं पैसा लगाऊॅंगा, और जितना डूबा है वो भी मैं वापस वसूल लूॅंगा।’ और ये करते ही वो शायलाक के चंगुल में आ जाता है।

और फिर शायलाक उससे शर्त लिखवा लेता है कि अगर नहीं लौटा पाये बेटा, तो तुम अपना माँस दोगे मुझको। हाँ, अंत में फिर उसको एक अच्छा समापन देने के लिए, वो कह देते हैं कि माँस की बात हुई थी, ख़ून की बात नहीं हुई थी। तो अगर ख़ून बहा इसका तो शायलाक तेरा ख़ून निकाल लेंगे। मैं समझता हूँ, मक्कारी है ये कहना कि माँस की बात हुई थी। आज के किसी न्यायालय में अगर ये मुकदमा जाता तो शायलाक ही जीतता, क्योंकि बिना ख़ून के क्या माँस। माँस में तो ख़ून निहित होता ही है, खै़र वो अलग बात है।

तो ये चीज़ कि मैंने अतीत में एक काम करा है, मैं आज भी उसी से मिलता-जुलता काम करूँगा। मैंने अतीत में एक काम करा है, मैं आज भी वही करूँगा। मैं आज जो करूँगा, उसका निर्धारण इससे होगा कि उससे पहले क्या किया करता था। यही ट्रेजडी (त्रासदी) है। शेक्सपियर की पूरी ट्रेजडी (त्रासदी) ही यही है कि आप भूल ही नहीं सकते कि पहले क्या हुआ था।

और फिर आप जो एपिक्स (महाकाव्य) हैं, अगर आप उनको देखें, भारतीय हों, ग्रीक हों। तो वहाँ भी आप यही बात पाऍंगे। कर्ण जैसा ट्रेजिक (दुखद) चरित्र आपको नहीं मिलेगा। उसकी समस्या क्या है? ‘मेरा अतीत। मेरी पहचान कहाँ से आएगी? मुझे मेरे बाप का नाम बताओ।’ भीष्म भूल ही नहीं पा रहे हैं कि उन्होंने शपथ ली है, वो शपथ भले ही उनको दुर्योधन के साथ खड़ा कर दे रही है, वो कह रहे हैं, ‘हस्तिनापुर के लिए शपथ ली है।’ हस्तिनापुर के लिए ली है या दुर्योधन के लिए ली है? अंतर नहीं समझ पा रहे। हस्तिनापुर के सिंहासन पर बन्दर बैठा होगा, तुम उसके लिए भी समर्पित हो जाओगे?

कृष्ण को छोड़कर कोई पात्र ऐसा नहीं है जो अपने अतीत का बंधक न हो। दुर्योधन भूल नहीं पाया कि द्रौपदी ने कटाक्ष किया था — ‘अंधे का बेटा अंधा’ — भूला ही नहीं गया दुर्योधन से। तो उसे जब मौका मिला तो उसने कहा, 'चीरहरण करो।’ फिर भीम भूल ही नहीं पाये कि दु:शासन आगे बढ़कर के साड़ी खींच रहा था। उन्होंने कहा, ‘मैं इसकी छाती फाड़ूँगा और इसकी छाती के ख़ून से द्रौपदी के बाल धोऊॅंगा।’

जैसे हम कुछ हों ही न, सिवाय उन पहचानों के, जो हमें प्रकृति ने, समाज ने, अनुभव ने, अतीत ने दिये हैं। जैसे हमारे पास आज़ादी ही न हो अभी की सच्चाई जानकर के, सीधे-साधे सरल होकर के, उसको समर्पित हो जाना, स्वीकार कर लेना। पीछे जो हुआ होगा, सो हुआ होगा; जो सच्चाई है वो तो अब जान गए न तो अब वही है। पीछे का जो कुछ है उससे क्या लेना-देना? जैसे हमारे पास विकल्प ही न हो, हम ऐसे जीते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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