प्रश्नकर्ता: मनु उपनिषद से चौथे श्लोक का एक प्रश्न है, सेकंड पेज पर है, उसमें ये लिखा हुआ है कि ''थ्रू रीज़न, लिसनिंग एंड एक्सपीरिएंस वन कैन नो दाट वन इस सेल्फ ऑफ़ आल बीइंग्स'' (सेकंड पेज का फ़ोर्थ श्लोक)। तो इसमें कौन से रीज़न, लिसनिंग और एक्सपीरिएंस की बात की गई है?
आचार्य प्रशांत: जो तुम्हारे आम अनुभव होते हैं , उपनिषद कह रहा है युक्ति से, श्रुति से और स्वानुभूति से आप जान जाते हो कि आप वास्तव में आत्मा हो और आत्मा एक ही है। कई आत्मायें नहीं होती। आत्मा माने सत्य और कई विभिन्न सत्य नहीं होते। युक्ति, श्रुति, अनुभूति। युक्ति, श्रुति, अनुभूति। तीन उपाय बता रहा है उपनिषद। इन तीनों माध्यम से जान जाओगे कि वास्तविकता क्या है तुम्हारी, जगत की, जगत में जो सब दूसरे दिखते हैं उनकी।
युक्ति क्या है? प्रश्न करना, प्रमाण माँगना, तर्क करना, जिज्ञासा करना, अड़ जाना, आसानी से झूठ से संतुष्ट न हो जाना। ये युक्ति है। युक्ति माने तरीका। युक्ति का ही गहरा अर्थ है कुछ भी ऐसा जो तुम्हें सच से जोड़ सके। जो तुम्हें सत्य से युक्त कर सके, जो सत्य से तुम्हारा योग करा सके, जो सत्य से तुम्हें युक्त कर सके सो कहलाती है युक्ति। तो सच्चाई जानने की भरपूर कोशिश का ही नाम है युक्ति। कि जो भी तरीका बन पड़े सच जानने का उसका प्रयोग करो। यहाँ पर अनुवाद में कह दिया है रीज़निंग (तर्क) आदि। ठीक ही है। तर्क करो न, पूछो न, बात क्या है? कृष्ण-अर्जुन संवाद, अष्टावक्र-जनक संवाद ये और क्या हैं? पूछा ही जा रहा है न। हम पूछते भी तो नहीं।
कुछ इसलिए भी कि पूछना भी श्रम की बात है। जिससे पूछ रहे हो उसके साथ-साथ स्वयं तुम्हें भी मेहनत करनी पड़ती है पूछने में। कभी देखा है स्कूल की साधारण कक्षा में भी सवाल कौन पूछता है? सवाल कौन पूछ पाता है शिक्षक से? जो तैयारी कर के आया है। तो सवाल पूछना मेहनत का काम है न। इसलिए हम सवाल भी नहीं पूछ पाते, मेहनत कौन करे। जिसको पता ही नहीं है कि कक्षा में चल क्या रहा है वो सवाल पूछेगा क्या? वो क्या करता है? वो बैठा भी नहीं रहता, वो मुँह छुपा के बैठता है। वो स्वयं तो प्रश्न नहीं ही करता, उसको डर ये होता है कि कहीं उसको किसी चर्चा में शामिल न कर लिया जाये। पोल खुल जाएगी।
उपनिषद प्रेरित कर रहा है। कह रहा है अपना गृहकार्य कर के लाओ। जितना तुम स्वयं कर सकते हो उतना कर के रखो ताकि सवाल पूछने के लायक बन सको। काबिलियत सिर्फ़ उत्तर देने के लिए ही नहीं चाहिए, सवाल पूछने के लिए भी बहुत काबिलियत चाहिए। आम आदमी इस स्तर पर भी नहीं होता कि कोई ढंग का सवाल पूछ सके। ये तो छोड़ ही दो कि वो ढंग का जवाब दे पायेगा, उसके पास उच्च कोटि के प्रश्न भी नहीं होते।
साधारणतया लोग एक दूसरे से यदि पूछ-ताछ भी कर रहे होते हैं तो किन विषयों पर और किस तल की, कभी ग़ौर किया है? कोई पूछ रहा होता है किसी से कि मुक्ति के साधन बताना? कोई पूछ रहा होता है किसी से कि भाई! ये आत्मा और ब्रह्म एक हो कैसे गए? कोई पूछ रहा होता है किसी से कि चेतना भौतिक है या पारलौकिक? ये छोड़ दो, कोई इतना भी पूछता है किसी से क्या कि ये सब जो दिख रहा है क्या ये वास्तव में वैसा ही है जैसा दिख रहा है या मामला कुछ और है? हम ये सवाल भी नहीं करते, हमारी रूचि दूसरे सवालों में रहती है।
कैसे सवालों में रहती है? ''गुड्डी की सगाई पर तुम क्या पहनने वाली हो, उसी के हिसाब से मैं भी कुछ खरीदूँ? आज खाने में मसाला कौन सा डाला है?'' ग़लत प्रश्न का नुकसान बस ये नहीं होता कि वो ग़लत है। ग़लत प्रश्न का बड़े से बड़ा नुकसान ये है कि वो सही प्रश्न को खा जाता है।
जिस आदमी की ज़िन्दगी में ग़लत विषय भरे हुए हैं, उस आदमी के मन में कभी सही उत्तर छोड़ दो, सही सवाल भी नहीं उठेगा और ये कितनी भयानक बात है न? एक तो भयावहता इसमें होती है कि के पास प्रश्न हैं और उसे उत्तर नहीं मिले। और उससे कहीं, कहीं ज़्यादा भयानक बात ये है न कि व्यक्ति के पास प्रश्न ही न हों। हम में से अधिकांश लोगों के पास प्रश्न ही नहीं हैं। कोई जिज्ञासा ही नहीं है जानने की। हम मृत से पड़ चुके हैं। पुराने हमारे ढ़र्रे चलते रहते हैं और हमें उनपर कोई संदेह ही नहीं उठता। बेवकूफ़ हम रोज़ बनते रहते हैं लेकिन शक़ हमें कभी नहीं होता कि कहीं कुछ गड़बड़ हैं , दाल में कुछ काला है। हमें लगता है कि जो चल रहा है सब ठीक ही ठाक है।
अंतर अवलोकन करना, विचार करना, प्रयोग करना, प्रश्न करना, ये बड़ी युक्तियाँ हैं। बुद्धि बल का पूरा-पूरा प्रयोग करिये। सत्य भले ही बुद्धि से आगे की बात हो झूठ तो बुद्धि से आगे की बात नहीं हैं न। बुद्धि सत्य तक भले न पहुँच सकती हो, झूठ का पर्दाफाश तो कर सकती है। पर आध्यात्मिक हलकों में ये बात भी खूब चलती है कि, ''नहीं साहब! ये तो अध्यात्म की बातें हैं, इनमें ज़्यादा अक्ल-बुद्धि नहीं लगाई जाती।'' तो क्या करना है? आध्यात्मिक आदमी की निर्बुद्धि कर देना है, बेअक्ल कर देना है? उसका दिमाग़ ही न चले?
कई दफ़े देखा है मैंने किसी को कुछ समझाओ तो वो कहेगा कि ये बातें तर्क की नहीं होतीं। अरे भाई! हर बात तर्क की होती है। तर्क से आगे सिर्फ़ पूर्ण सत्य होता है, बाकि सबकुछ तर्क के दायरे में ही होता है। तर्क से मुँह मत चुराइए। परम सत्य के अतिरिक्त जो कुछ है सब तर्क के क्षेत्र में है तो तर्क करिये, बात करिये। ये मत कह दीजिये कि ये बातें तो देखिये श्रद्धा की हैं। सत्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है जिसकी चर्चा नहीं की जा सकती। और हम सत्य की चर्चा तो करना भी नहीं चाह रहे हैं। हम किसकी चर्चा करना चाह रहे हैं? हम झूठ की चर्चा करना चाह रहे हैं।
तो एक से एक अन्धविश्वास प्रचलित हैं। पर उनको मानने वालों को जब आप चनौती दें तो वो कह देते हैं, ''नहीं! ये बात ज्ञान की, बुद्धि की, तर्क की, विज्ञान की नहीं है। ये बात तो श्रद्धा की है। हम इसपर कोई चर्चा नहीं करेंगे, हम इसपर कोई तर्क नहीं करेंगे।'' जब कोई ऐसा कुछ कहे तो समझ लीजिये कि वो व्यक्ति अपने झूठ को बचाना चाह रहा है क्योंकि तर्क काट देता है झूठ को।
तर्क भी कई प्रकार के होते हैं। एक तर्क होता है जो झूठ की रक्षा के लिए ही उपयोग में लाया जाता है, उसे वितंडा कहते हैं। क्या कहते हैं उसे? वितंडा। तो अन्धविश्वास की रक्षा के लिए जब ये तर्क दिया जाये कि साहब। ये बात तर्क से परे है, ये भी तो एक तर्क ही हुआ न। जब कोई कहे कि ये बात हमारी श्रद्धा की है, इस पर हम तर्क नहीं करते, तो ये भी एक तर्क ही है न। ऐसे तर्क को क्या बोलते हैं, वितंडा।
सम्यक तर्क का उपयोग करिये। बार-बार इसीलिए मैं विज्ञान की बात करता हूँ। मैं कहता हूँ इस धरती पर, इस ब्रह्माण्ड में, भौतिक जगत में जो कुछ है, उसको को तो विज्ञान की कसौटी पर ही कसो। कान से कबूतर मत निकालो। हवा में फूल मत खिलाओ। इंसान ने बहुत दुर्दशा झेली है अन्धविश्वासी होकर। न अन्धविश्वास में रहो न समाज में और अन्धविश्वास फैलाओ। भौतिक जगत में जो कुछ भी है उसको जानने का एक ही साधन है, विज्ञान। अध्यात्म पराभौतिक की बात है।
अध्यात्म उसकी बात है, जिसको विज्ञान सम्बोधित ही नहीं करता। तो अध्यात्म विज्ञान के खिलाफ कैसे हो सकता है? विज्ञान बात किसकी करता है? सिर्फ़ पदार्थ की। और अध्यात्म बात करता है पदार्थ के दृष्टा की, पदार्थ के अनुभोक्ता की। विज्ञान उसकी बात ही नहीं करता।
एक पेण्डुलम है। उसकी कुछ लम्बाई है और वो गति कर रहा है। आप उसको देख रहे हैं। विज्ञान बस बात करेगा कि पेण्डुलम की लम्बाई में, पेण्डुलम की फ्रीक्वेंसी में, धरती के गुरुत्वाकर्षण में रिश्ता क्या है। वो ये बिलकुल नहीं कहेगा कि जो पेण्डुलम को देख रहा है वो कौन है। कभी कहता है विज्ञान? बल्कि विज्ञान कहता है फर्क नहीं पड़ता, आप देखें कि आप देखें, बच्चा देखे कि बड़ा देखे, हिन्दू देखे कि मुसलमान देखे, आस्तिक देखे कि नास्तिक देखे, पेण्डुलम का टाइम पीरियड तो टू पाई रूट एल बाई जी ही होगा।
ठीक है न?
तो विज्ञान सिर्फ़ किसकी बात करता है? पेण्डुलम की। अध्यात्म किसकी बात करता है? अध्यात्म उसकी बात करता है जो पेण्डुलम को देख रहा है। उसका मन कैसा है? जो देख रहा है क्या वो मोह से ग्रस्त होकर देख रहा है, भयभीत होकर देख रहा है, कामातुर होकर देख रहा है, डर कर देख रहा है, चिंतित होकर देख रहा है, उम्मीद के साथ देख रहा है, धारणाओं-मान्यताओं के साथ देख रहा है? बात समझ में आ रही है? अध्यात्म कभी नहीं कहेगा कि मन्त्र मारेंगे तो पेण्डुलम की गति की दिशा पलट जाएगी। या कि अमावस की रात को पेण्डुलम की फ्रेक्वेंसी बदल जाती है।
तर्क करो। पूछो। कोई कुछ कर के दिखा रहा हो तो विज्ञान न उसका समर्थन करता है न विरोध करता है। विज्ञान बस ये कहता है कि आप जो घटना दिखा रहे हो अगर वो वास्तव में हो रही है तो फिर वो निरपेक्ष होनी चाहिए। न वो प्रोयोगकर्ता पर आश्रित होनी चाहिए न इधर-उधर की किसी और स्थिति पर।
आप कुछ कर के दिखा रहे हैं, मान लीजिये आप कह रहे हैं मेरे पास एक जादुई छड़ी है। इस जादुई छड़ी को जब मैं सेब की ओर दिखाता हूँ तो सेब का रंग बदल जाता है।
विज्ञान बिलकुल इंकार नहीं करेगा इस बात से। विज्ञान कहेगा फ़िर वो छड़ी किसी के भी हाथ में हो सेब का रंग बदला चाहिए न क्योंकि बात छड़ी और सेब के बीच की है, ठीक? आप कह रहे हैं छड़ी दिखाने से सेब का रंग बदल जाता है तो बात किस के बीच की है? सेब और छड़ी के बीच की है। फ़िर आप ये तो नहीं कह रहे हैं न कि ‘’मैं’’ जब छड़ी दिखाऊँगा तब बदलेगा। तो लाइए साहब, छड़ी हमें दीजिये, हम दिखा के देखें, बदल रहा है क्या। और इतना ही नहीं, मशीन भी छड़ी दिखाए तब भी बदलना चाहिए न। तो देख लेते हैं कि क्या मशीन भी अगर छड़ी दिखाए तो क्या बदल रहा है?
और अगर ये दिख जाता है कि नहीं, मशीन जब छड़ी दिखाती है तब तो नहीं बदलता। हाँ, इंसान जब छड़ी दिखाता है तो बदल जाता है तो ये इंसान की करतूत है। इसमें छड़ी का और सेब का कुछ लेना-देना नहीं है। ये तो इंसान की चालाकी है, ये तो इंसान कुछ घपला कर रहा है। बात समझ में आ रही है?
विज्ञान व्यक्तिनिर्पेक्ष होता है। वो पेण्डुलम भर को देखता है। पेण्डुलम को दिखनेवाले को नहीं देखता। वो प्रयोग को देखता है, प्रयोगकर्ता को नहीं देखता। वो कहता है प्रयोग अगर सच्चा है तो प्रयोगकर्ता कोई भी हो, निष्कर्ष वही आना चाहिए। गेंद आप ऊपर उछालें और आप ऊपर उछालें और आप ऊपर उछालें, अगर सबने एक गति से ऊपर उछाली है तो वो गेंद एक साथ ही नीचे आएगी। ऐसा नहीं हो सकता कि आप बहुत बड़े आस्तिक हैं और भक्त हैं और आप महा पापी हैं तो आपकी गेंद जल्दी नीचे आ जाएगी और इनकी गेंद देर में नीचे आएगी।
समझ में आ रही है बात?
तर्क करना सीखो। तर्कशक्ति कोई छोटी बात नहीं है। तर्कहीन श्रद्धा, अन्धविश्वास हो जाती है। अन्धविश्वास ही नहीं हो जाती, वो खोखली होती है उसमें दम भी नहीं होता। जब चुनौती सामने आएगी तो वैसे ही टूट जाएगी। श्रद्धा तब है जब तुम जितने तर्क कर सकते थे तुमने कर लिए, सब प्रयोग करके देख लिए, ईमानदारी से, और उसके बाद अब तुम्हारे पास कोई विरोध बचा ही नहीं। इस अविरोध स्थिति को श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा, जिसने अभी आज़माया ही नहीं, श्रद्धा नहीं अन्धविश्वास है।
युक्ति के बाद कह रहे हैं "श्रुति।" सुनो। किसको सुनो? उसको सुनो जो सुनने लायक है। जैसे कि एक तर्क होता है जो सच को जानने के लिए किया जाता है, उसको हम कह देते हैं तर्क और एक तर्क होता है जो सच को छुपाने के लिए किया जाता है। उसको हम कह देते हैं वितंडा। उसी तरीके से सुनने में भी विवेक रखना होता है। एक सुनना होता है इसलिए कि सच जान जाऊँ और एक सुनना होता है इसलिए कि जो मेरा आंतरिक झूठ है वो बचा रहे।
आमतौर पर हम सुनते ही वही सब कुछ हैं जो सुनना चाहते हैं। उसको हम कहते कि मैं तो अपने पसंद की ही चीज़ सुनूँगा न। और पसंद हमें आता ही वही है जो हमारे झूठ को, हमारे ढर्रों को, हमारे भीतरी ढ़ांचे को, हमारे जीवन की यथास्तिथि को बरकरार रखे। उसके अतिरिक्त अगर कुछ और आ जाता है हमारे पास तो हम कह देते हैं, ''मैं सुनना नहीं चाहता, लेट्स चेंज द टॉपिक।'' झूठे आदमी की पहचान ये होगी कि वो बहुत बार-बार ये बोलेगा कि मैं सुनना नहीं चाहता। मैं इस मुद्दे की चर्चा नहीं करना चाहता। ये झूठे आदमी की पहचान होती है।
सच्चा आदमी किसी भी बात पर घबराएगा नहीं। वो ऊब ज़रूर सकता है , वो ये ज़रूर कह सकता है कि इस बात में रखा क्या है जो इतनी बात कर रहे हो। लो जो बात है बताये देते हैं, स्पष्ट है, प्रकट है, ज़ाहिर हो गयी, अब छोड़ो न। कोई ऐसी बात करें जिसमें सार है पर वो किसी मुद्दे की उपेक्षा नहीं करेगा। घबरा के नहीं भागेगा। श्रुति का अर्थ है साफ़ नीयत के साथ सुनना। भारत में सत वचन सुनने को ही श्रुति कहा गया। सारा वैदिक साहित्य कहलाता ही श्रुति है।
तो श्रुति माने ये नहीं कि पड़ोसी के साथ व्यर्थ चर्चा कर रहे हो, बकवास, गॉसिप उसको नहीं कहेंगे कि आत्मा को जानने का तरीका उपनिषद ने बताया था श्रवण, तो हम क्या कर रहे हैं? इधर-उधर की बकवास सुन रहे हैं, श्रवण ही तो है। उपनिषद ने कहा था ये सब सुनने से आत्मा की प्राप्ति हो जाएगी। आमतौर पे हम जो कुछ सुनते हैं वो हमारे लिए आत्मघाती होता है। क्यों? क्योंकि हम सुनते ही वही हैं जो हमारे झूठ को बचाये रखे। झूठ के लिए बहुत आवशयक है कि सच का शब्द उस तक न पहुंचे। पहुँच गया तो झूठ हिल जाता है। कमज़ोर होता है न।
अँधेरा रोशिनी से घबराता है, झूठ सच से घबराता है। सच? सच को झूठ नज़र ही नहीं आता है तो घबराएगा क्या? और झूठ हर समय ख़बरदार रहता है कि आसपास कहीं सच तो नहीं है। और ज़रा सी उसको महक आ गयी सच की, सर पे पाओं रख के भागता है। कहता है, ''नहीं, नहीं। ये बात नहीं करेंगे, कोई और बात करो। ये बात हमें पसंद ही नहीं है।''
तो मैं तो तरीका दिया करता हूँ, झूठ को पकड़ने का। मैं कहता हूँ अगर बहुत लोगों के साथ हो और जानना चाहते हो इनमें सच्चा कौन झूठा कौन, सच की बात शुरु कर दो। जितने झूठे होंगे, पलक झपकते गायब हो जायेंगे। तुम्हारी ज़िन्दगी में झूठे लोग कितने हैं ये जानने का नुस्खा बताये देता हूँ। वो बात मत करो जो वो करना चाहते हैं क्योंकि वो तो झूठी बात ही करना चाहते हैं, तुम नया मुद्दा छेड़ो। वो तुम्हारे पास आयें तुम सच बात करना शुरु कर दो। तुम देखोगे वो तुम्हें ज़्यादा झेलेंगे नहीं, वो भागेंगे बिल्कुल। झूठ के लिए सच एक ख़तरा होता है। सच के लिए झूठ बस एक मज़ाक।
सच्चे आदमी के सामने झूठी बात करोगे, वो ऊब सकता है या खिलखिलाके हँस देगा। झूठ एक चुटकुला ही तो है। झूठ एक चुटकुला ही तो है। ''हाथी का चींटी से ब्याह हो गया।'' हँस दिये न? झूठ क्या है, एक चुटकुला। सच्चे आदमी के सामने झूठी बात करोगे वो हँस पड़ेगा और बार-बार बोलेगे ''हाथी का चींटी से ब्याह हो गया, 'हाथी का चींटी से ब्याह हो गया'' तो ऊब जाएगा। वो कहेगा हटाओ न। एक-दो बार तक चुटकुला था, ज़्यादा बात कर रहे हो तो ऊब है। लेकिन झूठे आदमी के सामने सच्ची बात कर दी तो तुम ने उसकी गर्दन पकड़ ली है। उसका दम घुटने लगेगा और भागेगा बिल्कुल।
श्रुति माने वो वचन सुनना जो तुम्हारे झूठ को काटता हो और सच के पास ले जाता हो।
हर बात सुन लेने को श्रुति नहीं कहते। हर बात सुन लेने को श्रवण नहीं कहते। श्रवण तो उपाय है समाधि की तरफ जाने का।
श्रवण, मनन, निदिध्यासन फ़िर सीधे समाधि। श्रवण तो पहला चरण है, समाधि की दिशा में। लेकिन विवेक होना चाहिए। जैसे तर्क में विवेक होना चाहिए कि मैं तर्क कर क्यों रहा हूँ, सच जानने के लिए या सच से भागने के लिए? वैसे ही सुनते समय भी विवेक होना चाहिए कि मैं सुन क्या रहा हूँ। जो मैं सुन रहा हूँ, इससे मेरा अँधेरा छँटेगा या और बढ़ेगा। बहुत ध्यान रखो कुछ भी देखते वक़्त और सुनते वक़्त, पकड़ते वक़्त, जानते वक़्त कि इसका मेरा ऊपर प्रभाव क्या होने वाला है।
फ़िर कहा अनुभूति। स्वानुभूति। अनुभव तो हमें लगातार हो ही रहे हैं न। तो अगर अनुभव मात्र से आत्मा की प्राप्ति हो जाती तो सभी को हो जाती। जीवन के प्रत्येक पल में अनुभव तो हो ही रहा है और उपनिषद कह रहा है स्वानुभूति आत्मा को पाने का एक तरीका है। तो इस तरह से तो जिसकी जितनी उम्र बढ़ती जा रही है, वो समाधि के उतने ही निकट भी आ रहा होगा क्योंकि प्रतिपल जीवन में हम कर ही क्या रहे हैं? अनुभव। नहीं, तो इसका मतलब उपनिषद किसी विशिष्ट तरह की अनुभूति की बात कर रहा है।
हर अनुभूति सत्य के मार्ग में साधन नहीं बनती। अनुभोक्ता में सत्यता होनी चाहिए। अगर अनुभोक्ता में सत्यता है, सत्य जानने की लगन है, इरादा, नीयत, मंशा साफ़ है तो अनुभव बहुत कुछ सिखा जायेंगे। और सीखने का मतलब होता है, झूठ से बाहर आना। और अगर अनुभोक्ता में सच जानने की लगन ही नहीं है तो अनुभव उसे और ज़्यादा उसके ही झूठ की दीवार में कैद कर जायेंगे। ज़्यादातर लोगों के लिए अनुभव लाभदायक नहीं, अतिघातक होते हैं। जो जितना अनुभवी होता जाता है, वो आमतौर पे उतना सच से दूर होता जाता है। यही कारण है कि एक जवान आदमी को कुछ सिखा पाना आसान है, प्रौढ़ को सिखा पाना बहुत मुश्किल हो जाता है क्योंकि उसके पास अनुभव आ गया है।
तो आप ये न सोचें कदापि कि अनुभवी होते जायेंगे तो सच की सीख मिलती ही जाएगी निश्चितरूप से, ऐसा नहीं है। उम्र, अनुभव, अधिकांशतः आपको सच से दूर कर देते हैं। जो जितनी पकी उम्र का हो समझ लो उसके लिए अब उतना मुश्किल हो जायेगा निरे, कोरे, नंगे सच को सुनना, आमतौर पर, उपवाद हर जगह होते हैं पर आमतौर पर।
तो किस अनुभूति की बात कर रहा है उपनिषद? उपनिषद कह रहा है ये जो अनुभव हो रहे हैं इनके पीछे के अनुभोक्ता को देखते चलो। इसीलिए उपनिषद अनुभूति मात्र नहीं कह रहा है, कह रहा है, स्वानुभूति। अनुभवों के पीछे जो ''स्व'' बैठा हुआ है उसको भी देखो, उसी का नाम अहम् है, वही तो अनुभोक्ता है। अहम् ही सब अनुभवों का अनुभोक्ता है। देखो कि कौन से अनुभव हैं जिनके पीछे व्याकुल हो? देखो कि घटना घटती है पर तुम्हें अनुभव के रूप में कैसी प्रतीत होती है? अगर देखें वस्तुतः तो बाहर जो कुछ हो रहा है वो घटना मात्र है। अनुभव आंतरिक है। तो अनुभव किस पर निर्भर करता है? अनुभव करने वाले पर, है न?
अभी यहाँ छत से मान लीजिये एक प्लास्टर का टुकड़ा गिरे, नीचे। तो घटना तो एक ही है, यहाँ जितने लोग बैठे हैं सभी के लिए एक ही घटना घटी, साझी। पर अनुभव सबको अलग-अलग होगा। हो सकता है कोई उस घटना की उपेक्षा कर जाये, कोई डर जाये, कोई हँसने लगे, कोई उस घटना की प्रतिक्रिया स्वरुप बढ़कर के ज़मीन की सफ़ाई शुरू कर दे। अनुभव सबको अलग-अलग हो रहा है न? किसी के लिए ये एक हास्य की बात हो सकती और किसी के लिए खतरे की बात हो सकती है। किसी को हास्य अनुभव हुआ, किसी को भय अनुभव हुआ। तो अनुभव किस पर निर्भर करता है? अनुभोक्ता। अनुभोक्ता कौन है? अहम्।
तो अनुभव की जड़ में अगर जाओगे तो अहम् को पा जाओगे। तो जिसने अहम् को पा लिया वो अहम से मुक्त हो गया। वास्तव में आत्मा तो पाई ही नहीं जाती कभी। अहम् से मुक्ति ही, आत्मा की प्राप्ति है। आत्मा की प्राप्ति जैसा कुछ नहीं होता, अहम् से मुक्ति ही चाहिए। आत्मा खोई कब थी भाई कि तुम उसको प्राप्त करोगे? वो तो अजात है, अमर है। और जो अजात है और अमर है, वो बीच में क्या खो भी सकता है? अहंकार को पकड़ना होता है। कैसे पकड़ोगे अहंकार को? अपने सब अनुभवों के प्रति सत्यनिष्ठा रखकर।
जो कुछ हो रहा है उसको ग़ौर से देखा करो। ‘’दरवाज़े पर घंटी बजती है, मैं चौंक क्यों जाता हूँ? पैसे-रूपए की बात आते ही मन में ये कैसी तरंग उठती है? जब पेट भूखा होता है, खाली होता है तो मैं बाकी सब बातें भूलकर के भोजन का ही विचार क्यों करने लग जाता हूँ?’’ जितना तुम अपने अनुभवों की जड़ में जाओगे उतना ज़्यादा तुम्हें किसके बारे में पता चलेगा? अहम् के बारे में। और मैं कह रहा हूँ कि अहम् के बारे में जानना ही अहम् से छुटकारा है। और क्या चाहिए।
तो ये तीन तरीके, युक्ति, श्रुति, स्वानुभूति। युक्ति माने प्रश्न करना, तर्क करना, संदेह करना, जिज्ञासा करना। श्रुति माने सही शब्द को कान में पड़ने देना। सही शब्द कौन सा? जो ग्रंथों से आता हो, जो सत्संगति से आता हो, वो सही शब्द है। उसे कान में पड़ने देना। और स्वानुभूति, अपनी चौबीस घण्टे की दिनचर्या के प्रति सजग रहना। अपने अनुभवों के प्रति होशमंद रहना।
ठीक है? स्पष्ट?