क्या अध्यात्म पैसों के खिलाफ है?

Acharya Prashant

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क्या अध्यात्म पैसों के खिलाफ है?
अध्यात्म पैसे का विरोधी नहीं है। अध्यात्म कहता है कि पैसा न अच्छा है, न बुरा; मुक्ति अच्छी है। मुक्ति के लिए जितना पैसा चाहिए, उतना अर्जित करो, पर अतिरिक्त धन बंधन बनता है। पैसा बोझ नहीं बनना चाहिए। दुर्भाग्य की बात ये है कि निर्धन धन की कमी का बोझ उठाता है—कि पैसा नहीं है, कम है। धनवान अधिक धन का बोझ उठाता है—कि इसे सुरक्षित रखना है। पैसे की कमी या अधिकता अगर बेचैनी लाए, तो दोनों ही गड़बड़ हैं। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सफल जीवन क्या है? एक इंसान का दुनिया में आने का उद्देश्य क्या है? जीवन की सफलता निर्धारित करने में पैसे का कितना महत्व है?

आचार्य प्रशांत: आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सफल जीवन क्या है? यह जानना है तो देखिये कि जीवन असफल कब हो जाता है। असफल जीवन वो है जो दुःख में बीत रहा है। दुःख आता है तमाम तरह की सीमाओं से और बंधनों से। तो आध्यात्मिक दृष्टि से सफल जीवन वो है जो अपने बंधन काट सके, जो दुःख के कारणों को मिटा सके।

और इसी बात से दूसरे प्रश्न का उत्तर भी मिल जाएगा। दूसरा प्रश्न कह रहा है, "जीवन में आने का उद्देश्य क्या है?" बच्चा पैदा ही होता है बंधनों के साथ, बच्चा पैदा ही होता है अनगिनत शारीरिक वृत्तियों के साथ। और जैसे-जैसे वो बड़ा होता जाता है, उस पर बंधन और कड़े होते जाते हैं। तो जीवन का उद्देश्य और जीवन की सफलता निहित है बंधनों को काटने में—भीतर के भी बंधनों को काटने में और बाहर के भी बंधनों को काटने में।

और यही बात हमें फिर ले जाती है तीसरे प्रश्न पर। तीसरा प्रश्न कह रहा है, "पैसे का कितना महत्व और आवश्यकता है?" जिस हद तक पैसा आपके बंधनों को काटने में सहायक हो, उपयोगी हो, पैसा अति आवश्यक है। और जब पैसा खुद एक बंधन बन जाए, तब पैसा अनावश्यक ही नहीं है घातक है।

जो आदमी बंधनों में हो वो अपने सारे संसाधनों का, अपनी सारी ताकत का इस्तेमाल करेगा अपने बंधन काटने के लिए। और एक व्यक्ति के पास क्या-क्या संसाधन होते हैं? समय एक संसाधन है, बुद्धि संसाधन है, ताकत संसाधन है, ज्ञान संसाधन है, और इसी तरह से पैसा भी संसाधन है। तो जो बेड़ियों में हो और गिरफ्त में हो, उसे अपने सारे संसाधनों का उपयोग करना ही पड़ेगा। वो कहेगा, "मेरे पास जो कुछ है, मैं उसका इस्तेमाल करूँगा आज़ादी के लिए, मुक्ति के लिए।"

मुक्ति के लिए अगर ज्ञान की ज़रूरत हो, तो तुम्हें ज्ञान चाहिए; मुक्ति के लिए अगर समय की ज़रूरत हो, तो तुम्हें समय चाहिए; मुक्ति के लिए अगर ताकत की, बल की ज़रूरत हो, तो तुम्हें बल अर्जित करना पड़ेगा; और मुक्ति के लिए अगर पैसे की ज़रूरत हो, तो तुम्हें पैसा भी चाहिए।

पैसा अध्यात्म में अनावश्यक नहीं होता, अध्यात्म पैसे का विरोधी नहीं होता। अध्यात्म कहता है कि पैसा न अच्छा है न बुरा है, मुक्ति अच्छी है। तो मुक्ति के लिए जितना पैसा चाहिए ज़रूर अर्जित करो, पर जितना पैसा मुक्ति के लिए चाहिए उससे एक रुपया भी ज़्यादा मत कमाना क्योंकि अगर तुमने उससे एक रुपया भी ज़्यादा कमाया, तो जो तुम अतिरिक्त कमा रहे हो वही तुम्हारा बंधन बन जाएगा।

पैसा बोझ नहीं बनना चाहिए। दिमाग पर बोझ हो, तो पैसे का उपयोग उस बोझ को हटाने के लिए होना चाहिए। दुर्भाग्य की बात ये है कि जो निर्धन होता है उसे बोझ मिलता है कि धन नहीं है, धन कम है, और जो धनवान हो जाता है उसपर बोझ चढ़ जाता है कि धन ज़्यादा है, इसकी रक्षा करनी है, इसको और बढ़ाना है, ये उसको देना है कि उसको देना है। ये दोनों ही स्थितियाँ गड़बड़ हैं। पैसे की कमी अगर बेचैनी का कारण बन जाए, तो ये भी गड़बड़ है, और पैसे की बहुलता अगर बेचैनी का कारण बन जाए, तो ये और गड़बड़ बात है।

और ज़्यादा गड़बड़ बात क्यों है? क्योंकि न सिर्फ पैसा बोझ बन गया है, बल्कि इस बोझ को तुमने श्रम कर-करके कमाया है। कितनी बड़ी बेवकूफ़ी हो गयी न? निर्धन के पास तो कमी है। कम-से-कम वो कमी उसने मेहनत करके अर्जित नहीं करी। धनवान के पास जो एबंडेंसी (आधिक्य) है, उसको तो उसने अर्जित किया है, जैसे कोई अपनी बीमारी मेहनत कर-करके कमाए, जैसे कोई पैसे देकर अपने लिए मुसीबत खरीद कर लाए। तो धन का कम होना एक समस्या है, पर व्यर्थ धन ज़्यादा अर्जित कर लेना उससे भी ज़्यादा बड़ी समस्या है। और कितना धन कमाना उचित है, कितना धन कमाना सम्यक है? जितना धन तुम्हारी मुक्ति में सहायक बने।

मुक्ति का कोई बहुत ऊँचा लक्ष्य हो तुम्हारे पास, और उस लक्ष्य की पूर्ति के लिए करोड़ों, अरबों लगते हों, तो कमाओ पाँच-सौ करोड़, पाँच-हज़ार करोड़। कोई इल्ज़ाम नहीं लगा सकता तुमपर कि तुम लालची हो। बहुत बड़ा विश्वविद्यालय स्थापित करना है और चाहिए उसके लिए धन, तो वो धन इकठ्ठा करो, अर्जित करो। कमा सकते हो तो कमाओ, दान माँग सकते हो तो दान माँगो। और बिलकुल मन में ये कुंठा न आए कि ये तो लालच का काम हो गया, हम इतना पैसा क्यों इकठ्ठा कर रहे हैं? उतने पैसे की ज़रूरत है इसलिए इकठ्ठा कर रहे हैं। बिलकुल ठीक कर रहे हो, यही धर्म है।

जीवन में ऐसे अवसर हो सकते हैं जब पैसा कमाना और पैसा खूब कमाना धर्म हो सकता है। और जीवन में ऐसे भी बहुत अवसर होते हैं, दृष्टांत होते हैं जब पैसा कमाना महा-अधर्म होता है। तो पैसा न अच्छा है न बुरा है, निर्भर इसपर करता है कि आपका मन पैसे का उपयोग क्या करने जा रहा है।

मन में पैसा घूमे ना। मनी (धन) रहे, मनी-माइंडेडनेस (हमेशा धन के बारे में सोचना) न रहे। बस, ठीक है फिर। और आखिरी बात फिर इस पर दोहराए दे रहा हूँ, पैसा कम होगा तो भी मन में घूमेगा और पैसा ज़्यादा हो गया तो भी मन में घूमेगा। और जो कुछ मन में घूम रहा है वही आपका सिरदर्द बन गया। सिरदर्द के साथ कौन जीना चाहता है?

प्र: जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ क्या है?

आचार्य: जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ जीवन ही है। हमें ज़िन्दगी में चीज़ों की कीमत याद रहती है, और चीज़ों को कीमत देते-देते हम ज़िंदगी को कीमत देना भूल जाते हैं। देखो न क्या पूछ रहे हो, इंपोर्टेंट थिंग इन लाइफ़ (ज़िन्दगी में कौन-सी चीज़ बड़ी महत्वपूर्ण है)? अरे, हर चीज़ ज़िन्दगी 'में' है न? ज़िन्दगी है, तो चीज़ें हैं, और ज़िन्दगी ही नहीं, तो कौन-सी चीज़ कीमती है बाबा? लेकिन चीज़ें इतनी कीमती हो जाती हैं कि ज़िन्दगी पर ध्यान ही नहीं जाता कि ज़िन्दगी कैसी बीत रही है। और जब मैं कह रहा हूँ ज़िन्दगी, तो मेरा मतलब साँस लेने और चलने-फिरने और यांत्रिक जीवन से नहीं है। ज़िन्दगी, ज़िन्दगी तब है जब उसमे आनंद हो, जब उसमें मुक्ति हो, उड़ान हो, सरलता हो। जिस ज़िन्दगी में सिरदर्द हो, उलझन हो, संदेह हो, वो ज़िन्दगी तो मृत्यु समान है।

तो सर्वाधिक कीमती क्या है? कोई चीज़ नहीं। प्रफुल्लित, आनंदित, मुक्त जीवन सबसे कीमती है। आनंद की दिशा में अगर किसी वस्तु से सहायता मिलती हो तो वो वस्तु ज़रूर लेकर आओ, और आनंद की दिशा में अगर किसी वस्तु से अवरोध पड़ता हो तो उस वस्तु को उठाकर फेंक दो। मूल बात वस्तु है ही नहीं, मूल बात जीवन है। और जीवन का अर्थ खाना-पीना, सोना-जगना, साँस लेना नहीं है; जीवन का अर्थ है जीवन को आनंद में, उड़ान में, खुल करके अनुभव कर पाना।

प्र: ध्यान क्या है, और ध्यान की स्थिति कैसे पाई जाती है?

आचार्य: ध्यान से हम सभी परिचित हैं। वो कोई बहुत दूर की अनूठी बात नहीं है। कंसंट्रेशन (एकाग्रता) तो जानते हैं न आप? तो जब आप किसी छोटी चीज़ को लक्ष्य बना लेते हैं, तो ये कहलाती है एकाग्रता। चित्त अब दस जगह नहीं भाग रहा, 'एकाग्र' हो गया है। अग्र माने अगला हिस्सा, जैसे तीर का अगला हिस्सा होता है न, वन-प्वाइंटेडनेस (एक अग्रता)।

आमतौर पर मन पचास जगहों पर बँटा रहता है, इधर-उधर भागता रहता है। पर जब कोई चीज़ आपको भा जाती है, तो पचास बातें सोचना छोड़कर आप एक लक्ष्य का वरण कर लेते हो, है न? कोई चीज़ भा जाए तब भी, और किसी चीज़ से बहुत डर जाओ तब भी। सामने कुछ ऐसा रखा हो जो आपको बहुत प्रिय है तो भी एकाग्र हो जाओगे, और सामने अचानक शेर खड़ा हो जाए तो भी एकाग्र हो जाओगे। लेकिन दोनों ही स्थितियों में एकाग्रता है किसी सांसारिक वस्तु के लिए। संसार में जो भी वस्तुएँ हैं सब सीमित हैं, छोटी हैं।

छोटे को जब लक्ष्य बनाओगे तो वो कहलाती है एकाग्रता, और अनंत को जब लक्ष्य बना लेते हो तो वो कहलाता है ध्यान। जब किसी छोटी चीज़ के प्रति एकाग्र हो जाते हो, तो उसे कहते हैं एकाग्रता। एकाग्रता बहुत काम नहीं आती क्योंकि छोटी चीज़ को ध्येय बनाया भी तो जो मिलेगा वो भी छोटा ही होगा, और छोटा पाकर जी किसका भरता है? छोटा-छोटा तो मिलता ही रहता है, हम बेचैन रहे आते हैं। इसलिए फिर ध्यान आवश्यक है। ध्यान का अर्थ है अनंत को ध्येय बना लेना।

छोटा नहीं चाहिए, छोटा बहुत पा लिया, खूब आज़मा लिया, खूब अनुभव कर लिया, उससे मन भरता नहीं। तब आदमी ध्यान में उतरता है। आदमी कहता है कि अब कुछ चाहिए जो बहुत बड़ा हो, अति विराट हो, अहंकार की सीमा से आगे का हो, असीम हो। ऐसा जब परम लक्ष्य बनाते हो, ऐसे जब ध्येय का वरण करते हो, तो तुम्हारी अवस्था को कहते हैं ध्यान।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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