प्रश्नकर्ता: कोई एक्शन (कर्म) लेता हूँ तो कभी-कभी ऐसा होता है कि पता नहीं चलता है, कोई कारण है या फिर स्पोन्टेनियस (स्वतःस्फूर्त) हो जाता है वो एक्शन , और कभी-कभी मेरे मन में ही विकल्प चलता रहता है – यह करूँ कि वह करूँ। तब उस सिचुएशन (परिस्थिति) में कैसे राइट एक्शन चूज़ (सही कर्म का चुनाव) करूँ?
आचार्य प्रशांत: तुम यह मान ही रहे हो कि जहाँ स्पोन्टेनियस (स्वतःस्फूर्त) है वहाँ ठीक है। वह भी आवश्यक नहीं है न। स्पॉन्टेनिटी , त्वरा गारंटी नहीं होती सम्यक कर्म की।
दो लोग बहस कर रहे हों गर्मा-गर्म, देखो वो कैसे तुरत-फुरत एक-दूसरे को तर्क मार रहे होते हैं, स्पोन्टेनियस ही चल रहा होता है सब कुछ, तो क्या वो ठीक है?
तुम स्पॉन्टेनिटी का पैमाना समझते हो विचार की अनुपस्थिति को, कि अगर विचार अनुपस्थित है, तो जो हो रहा है वह शायद ठीक ही है। विचार की अनुपस्थिति राहत तो देती है, बेशक। सोचना नहीं पड़ रहा, झंझट छूटा, लेकिन विचार की अनुपस्थिति बहुत घातक भी हो सकती है। जिस काम को करने के तुम बहुत अभ्यस्त हो जाओ, भले ही वह काम कितना भी गड़बड़ क्यों न हो, उस काम को करते समय तुम्हें सोचना नहीं पडेगा।
तो जिसको तुम स्पॉन्टेनिटी कहते हो वह आवश्यक नहीं है कि तुम्हारे लिए अच्छी ही हो। बल्कि हमारे लिए सबसे ज़्यादा बड़े ख़तरे हमारी तथाकथित निर्विकल्पता में ही छुपे होते हैं। जहाँ हमें अभी विकल्प दिखाई दे रहे हैं, वहाँ अभी हमें सोचने पर मजबूर तो होना पड़ रहा है न।
जहाँ हमें विकल्प दिखाई ही नहीं देते, जहाँ हमें लगता है कि सही रास्ता एक ही है और हम उस रास्ते को जानते हैं, किसी दूसरे विकल्प की ज़रूरत ही नहीं, किसी दूसरे विकल्प को सोचना ही नहीं, वहाँ हमारे लिए ज़्यादा बड़े ख़तरे होते हैं। समझो बात को।
तुम प्रश्न लेकर के तभी आते हो जब तुम्हारे सामने चौराहा होता है, तब तुम प्रश्न करते हो – आचार्य जी, कौन-सी राह जाएँ? और तुम कहते हो बड़ी उलझी हुई हालत है, खड़े हैं और चार रास्ते हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है किधर को बढ़ें। यह हालत उलझी हुई हो सकती है पर फिर भी यह हालत बहुत बुरी नहीं है। क्यों? क्योंकि तुमने कम-से-कम कोई एक रास्ता पकड़ तो नहीं लिया न, तुमने किसी एक रास्ते को लेकर धारणा तो नहीं बना ली न कि यही ठीक है।
तो अभी हो सकता है कि तुम बच जाओ क्योंकि अभी तुम्हें संशय बाक़ी है। जहाँ संशय है वहाँ जिज्ञासा है, जहाँ जिज्ञासा है वहाँ खोज है, और जहाँ खोज है वहाँ सत्य है। जिसको चार राहें दिख रही हैं, वह उलझा हुआ है लेकिन उसका उलझना शुभ है। जिसको एक ही राह दिख रही है और वह उस पर स्पॉन्टेनियसली बढ़ता चला जा रहा है, उसके लिए ख़तरा ज़्यादा बड़ा है। क्योंकि आवश्यक नहीं है कि तुम जिस राह पर चल रहे हो, वह ठीक ही राह हो।
बल्कि मैं तो कह रहा हूँ कि जिस राह पर तुम बिना सोचे-विचारे चले जा रहे हो, जिस राह को लेकर तुमने इतना विश्वास बना लिया है कि यह तो ठीक ही है, अब कोई विचार की ज़रूरत नहीं, वह राह निन्यानवे प्रतिशत संभावना है कि तुम्हारे लिए ग़लत ही होगी। जो काम तुम स्पॉन्टेनियसली करे जा रहे हो, उससे बचो।
जिस काम में तुमको चुनाव और विकल्प और चौराहे दिख रहे हैं, वहाँ तो कोई विवेकपूर्ण निर्णय लिया जा सकता है। पर निर्णय वहाँ कैसे लोगे जहाँ कोई मामला-मुक़दमा ही नहीं? और तुम मेरे सामने तब तो आ जाते हो जब चौराहे पर खड़े होते हो, पर तब तुम मेरे सामने कभी आते ही नहीं जब तुम्हें लगता है कि जीवन की राह साफ़ है, स्पष्ट है, ज्ञात है।
अभी मेरी एक सज्जन से बात हुई, वह बोलें – "आचार्य जी, पिछले एक-दो महीने से मन बड़ा ख़राब चल रहा है।"
मैंने कहा, "एक-दो महीने से ख़राब चल रहा है, पहले कैसा चल रहा था?"
बोलें, "उसके पहले छह महीने बहुत अच्छा चल रहा था, बहुत-बहुत अच्छा चल रहा था।"
मैंने कहा, "अच्छा।"
बोलें, “और यह ख़राब मन कुछ ठीक नहीं हो रहा, आप भी बे-असर जा रहे हैं।”
मैंने कहा, “कैसे?”
बोलें, “पिछले दो महीने से कुछ नहीं तो कम-से-कम पचास वीडियो देख लिए हैं, और यह किताब पढ़ ली है, और यह ग्रंथ पढ़ लिया है, कुछ हो नहीं रहा है।”
मैंने कहा, “अच्छा। यह दो महीने से ही यह सब है?”
बोलें, “हाँ, उससे पहले छः महीने तो सब बहुत अच्छा था”
मैंने कहा, “तब क्या था?”
बोलें, “छः महीने से तो सब कुछ इतना अच्छा था, इतना अच्छा था कि मैंने आपका एक भी वीडियो देखा ही नहीं, कोई ज़रुरत ही नहीं थी।”
(श्रोतागण हँसते हैं)
यहाँ पर चोट खाते हैं हम, यहाँ मरते हैं। जब हमें पक्का भरोसा होता है कि हम जो कर रहे हैं वो?
श्रोतागण: सही है।
आचार्य: सही ही है। हम स्पॉन्टेनियसली करेक्ट हैं, करेंगे क्या विचार करके, करेंगे क्या विवेक करके, करेंगे क्या गुरु से पूछ करके, हमें तो पता ही है कि यह तो ठीक ही है। हम वह बातें पूछेंगे न जिन बातों में हमें संशय-संदेह होगा। अभी तो जो बातें हैं उनका हमें पक्का पता है, वो अंदर की बातें हैं, अंदर की बातें तो हमें पता ही हैं।
बाहर-बाहर की जो बातें होंगी वो पूछ लेंगे, कि गुरुजी द्वैत की बात के बारे में बताइए। अंदर की बात थोड़े ही कोई ज़ाहिर करता है, अंदर की बात तो स्पॉन्टेनियस होती है। ‘लव एट फर्स्ट साइट’ (पहली नज़र में प्यार), वो थोड़े ही पूछने जाएँगे गुरुजी से।
वहीं मर रहे हो जहाँ तुम्हें पक्का भरोसा है कि मर नहीं रहे हो, वहीं ग़लत हो जहाँ तुम्हें पक्का भरोसा है कि सही हो। और यह पक्का भरोसा ही तुम्हारी नक़ली स्पॉन्टेनिटी है। क्योंकि भाई विचार तो समय लेता है न, जहाँ तुम्हें पक्का भरोसा है वहाँ तो स्पॉन्टेनियसली आगे बढ़ जाओगे, समय ही नहीं लगाओगे।
थम कर के जीवन के उन्हीं सब हिस्सों पर बड़ी तीक्ष्ण नज़र डालो जिनको तुम मानते हो कि वो तो संशय से परे हैं। जिस भी जगह को तुमने निसंदेह माना है, उसी जगह पर संदेह खड़ा करना ज़रूरी है, क्योंकि वहीं पर दुश्मन छुपा है तुम्हारा। जहाँ तुम्हें शक हो ही रहा है, वहाँ बच जाओगे। जहाँ तुम्हें शक ही नहीं, वहीं मारे जाओगे, वहीं मारे जा रहे हो।
एकमात्र जो निसंदेह है उसका नाम है सत्य। सत्य ही निसंदेह है, सत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं निसंदेह। और इतना तो विनम्र हो कर मानोगे न कि सत्य का कुछ पता नहीं तुमको। जब सत्य का तुम्हें कुछ पता नहीं, तो तुमने जीवन में कुछ चीज़ों को निसंदेहता कैसे प्रदान कर दी? कुछ चीज़ों पर तुमने यह ठप्पा कैसे लगा दिया कि यह तो बेशक हैं, बियॉन्ड डाउट (संदेह से परे) हैं, प्रश्नातीत हैं? कैसे कर दिया?
सत्य ही होता है जो प्रश्नों के अतीत होता है। बाक़ी तो हर चीज़ प्रश्नों के दायरे में आनी चाहिए न? तुमने कैसे उन पर सवाल करना छोड़ दिया? तुमने कैसे मान लिया कि यह तो होता ही है, ऐसा तो होता ही है न?
‘यह तो होता ही है न!’ नहीं, कुछ भी होता ही है नहीं। वह तुमने मान रखा है कि होता ही है, अन्यथा कुछ भी नहीं।
जब इंसान की हस्ती ही संदेह के पार की नहीं है, तो और कुछ कैसे संदेह के पार का हो जाएगा? जिन्हें जिज्ञासा करनी होती है, प्रश्न करने होते हैं, वो तो प्रश्नों की मार से अपनेआप को भी नहीं बचाते, वो कहते हैं ‘अपने ऊपर भी प्रश्न करूँगा; मैं हूँ भी या नहीं हूँ।‘ वो यह भी नहीं पूछते कि मैं सही हूँ कि ग़लत हूँ, क्योंकि सही और ग़लत भी पूछने में तुमने एक बात तो निसंदेह मान ही ली, क्या? मैं?
श्रोतागण: हूँ।
आचार्य: मैं हूँ। वो यह भी नहीं पूछते कि मैं सही हूँ कि ग़लत हूँ। वो कहते हैं, "मैं हूँ भी? एम आइ? "
और प्रश्न जब भी उठेगा तो वह तुम्हारी झूठी स्पॉन्टेनिटी को बाधित करेगा। और तुम्हें बड़ी परेशानी होगी, क्योंकि पहले सबकुछ आसानी से, सरलता से, स्मूदली (बिना घर्षण के) हुआ जाता था। सोचना ही नहीं पड़ता था; सुबह उठे, चाय बनाई, नाश्ता बनाया, बच्चों को स्कूल भेजा, टीवी देखा, स्पॉन्टेनियस लाइफ।
लेकिन जब संदेह उठते हैं, सवाल उठते हैं, तो अपने ऊपर क़दम-क़दम पर शक होता है, और बड़ी कोफ़्त होती है कि क्यों हमने सवाल उठने दिये। अब तो कुछ भी करा नहीं जाता, बात-बात पर यही सोचना पड़ता है कि असली है कि नक़ली? है भी कि नहीं है? कर क्या रहा हूँ? कहाँ जा रहा हूँ?
लेकिन जो लोग इस दुविधा, इस अड़चन, इस परेशानी से गुज़रने को तैयार होते हैं, उन्हें फिर फल मिलता है असली स्पॉन्टेनिटी का। तो अधिकांश लोग जीते हैं नक़ली स्पॉन्टेनिटी में। उससे उठकर आना पड़ता है प्रश्न और संदेह के क्षेत्र में, और प्रश्नों और संदेहों को जो ईमानदारी से पूछ गया और जी गया उसको फिर सुफल मिलता है। क्या फल मिलता है उसको? कि उसके बाद वो प्रवेश कर जाता है वास्तविक त्वरा में, वास्तविक निर्विकल्पता में, अब उसको असली स्पॉन्टेनिटी मिली है। समझ में आ रही है बात?
ऐसे समझ लो कि बिलकुल जो निचले तल का आदमी है, वह स्लीप वॉकर है, नींद में चलने वाला आदमी, उसे कोई संदेह-संशय होता है क्या? वह तो अपना नींद में चला जा रहा है। तो अधिकांश लोग जीवन ऐसे ही जी रहे हैं, उन्हें कुछ पता नहीं है, वो बस चले जा रहे हैं। क्या करते हैं? ‘सुबह उठता हूँ, योगा करता हूँ, थोड़ा टीवी देखता हूँ, नाश्ता करता हूँ, नहाता हूँ, कपड़े पहनता हूँ, दफ़्तर जाता हूँ, वापस आता हूँ, बाहर घूमता हूँ, टीवी देखता हूँ, खाना खाता हूँ, सो जाता हूँ।’ डरावना! ड-रा-व-ना!
कितनी स्पॉन्टेनिटी है, कहीं रुक करके कुछ प्रश्न ही नहीं करना पड़ता, पूछना ही नहीं पड़ता कि यह चल क्या रहा है। क्यों? कैसे? किसके लिए? किसको क्या मिल रहा है इससे? ये स्लीप वॉकर हैं, स्पोन्टेनियस।
इससे ऊपर की दशा है तथाकथित अर्धजागृत आदमी की, उसको उलझन है, उसको परेशानी है, वो ऐसे (विचार की मुद्रा में) देख रहा है और पूछ रहा है; ‘टू बी ओर नॉट टू बी’। वो देखी है न बच्चे की फोटो; मोटा सा बच्चा लगा देते है पेंटिंग में, और वो क्या पूछ रहा होता है? ‘टू बी ओर नॉट टू बी?’ तो ऐसे लोग भी बहुत कम होते हैं जिनको यह प्रश्न उठता है कि ‘अस्ती कि नास्ती’, ‘अस्मि कि न-अस्मि’।
कम होते हैं ऐसे लोग, लेकिन यह जो मुट्ठी भर लोग होते हैं जिन्हें जीवन के मूलभूत प्रश्न उठने लगते हैं, जिन्हें स्वयं को लेकर के जिज्ञासाएँ सताने लगती हैं, इन्हीं में से फिर कुछ लोग अंततः प्रवेश करते हैं निर्विकल्पता में। पर निर्विकल्पता में, स्पॉन्टेनिटी में, त्वरा में तुम प्रवेश कर पाओ, इसके लिए पहले यह ज़रूरी है कि तुम्हें विकल्प दिखाई तो दें।
आम आदमी को तो कोई विकल्प ही नहीं दिखाई देता, उससे पूछो, ‘ज़िंदगी माने क्या?’ वो कहेगा, ‘स्कूल-कॉलेज-युनिवर्सिटी’, कोई विकल्प नहीं। शादी, कोई विकल्प नहीं। बच्चे, कोई विकल्प नहीं। मकान, कोई विकल्प नहीं। गाड़ी, कोई विकल्प नहीं। सास-ससुर, कोई विकल्प नहीं। बहस-बाज़ी, कोई विकल्प नहीं। उसकी ज़िंदगी में विकल्प कहाँ है?
अधिकांश लोगों को कोई विकल्प दिखाई नहीं देता, वो कहते हैं कि जैसा हम जी रहे हैं वैसे ही जीना पड़ेगा, विकल्प कहाँ है? इसीलिए तो जब उनसे कहता हूँ कि ऐसे क्यों चल रहा है सब, तो कहते हैं, “और क्या करें?”
मैं पूछता हूँ, “तुझे कोई और रास्ता, कोई विकल्प नहीं दिखाई देता?”
कहते हैं, “है ही नहीं।” नहीं, कैसे नहीं है, तुझे दिखाई नहीं देता।
यह यहाँ बैठी हैं श्वेता, इन्होंने बाल मुंडा लिए, बाक़ी इतनी स्त्रियाँ बैठी हैं उनको यह विकल्प दिखाई भी दिया कभी? मैं नहीं कह रहा हूँ बाल मुंडा लो, मैं सिर्फ़ पूछ रहा हूँ कि यह विकल्प भी कभी दिखाई दिया कि ऐसा भी किया जा सकता है?
‘यह थोड़े ही होता है, अरे, हम भारत की लज्जाशील स्त्रियाँ हैं, सिर थोड़े ही घुटाएँगी।’ यह विकल्प कभी ख़याल भी आया कि गर्मी बहुत है भाई, सिर पर इतने बाल काहे को रख कर चल रहे हैं। स्त्री बाद में हैं, इंसान पहले हैं, इतने सारे बाल रखने की ज़रूरत क्या है? नहीं दिखाई दिया न? तो जितनी स्त्रियाँ हैं सब बाल लंबे करे बैठी हैं, यह विकल्प ही नहीं दिखाई दे रहा है। इसी तरह जितने पुरुष हैं सब बाल कटाए बैठे हैं, यह विकल्प (अपने बाल दिखाकर) ही नहीं दिखाई दे रहा है।
(सब श्रोतागण हँसते हैं)
मेरी शिष्या तो अगर कोई हैं तो श्वेता हैं, पर बड़े उल्टे तरीक़े से हैं, पर हैं असली। उन्होंने कहा, ‘आचार्य जी अगर वो कर सकते हैं जो स्त्रियाँ करती हैं, तो मैं वो कर सकती हूँ जो?’
श्रोतागण: पुरुष करते हैं।
आचार्य: पुरुष करते हैं। इन्होंने कुछ सीखा। और किसने क्या सीखा? विकल्प तो दिखा इनको।
बात असली है, सिर्फ़ मज़ाक की नहीं है, समझो। तुम जैसे जी रहे हो तुम्हें उसके अलावा और कोई रास्ता ही दिखाई ही नहीं देता, चलोगे तो तब जब पहले दिखाई देगा, ख़याल में आयेगा।
"तीस साल के हो गये, अभी तक बच्चा क्यों नहीं हुआ?”
क्यों?
"तो होना चाहिए न।"
नहीं, क्यों होना चाहिए? "नहीं, होना चाहिए न, होता है।"
नहीं, अपनेआप नहीं होता है, करते हो तो होता है। क्यों करते हो?
"नहीं, करना होता है।"
किसने बताया?
"देखिए, अब परेशान मत करिए।"
(श्रोतागण हँसते हैं)
किसने बताया उसकी बात कल हुई थी, क्या नाम था उसका? ओरांगुटान , उसने बताया।
विकल्प कहाँ है?
निर्विकल्पता बड़ी सुहाती है, बार-बार पूछोगे स्पॉन्टेनिटी चाहिए, स्पॉन्टेनिटी चाहिए। निर्विकल्पता, बेटा, उनकी झोली में गिरा हुआ फल है जो पहले विकल्प पैदा करते हैं। जिनमें विकल्प ही सोच पाने का दम नहीं, उन्हें निर्विकल्पता क्या मिलेगी! जो थॉटफुल (विचारशील) नहीं हो पा रहे हैं, उन्हें फ्रीडम फ्रॉम थॉट (विचारों से मुक्ति) क्या मिलेगी! विचार पहले आना चाहिए न, फिर निर्विचार मिलेगा। अधिकांश लोग विचार भी कहाँ कर रहे हैं, पूछ भी कहाँ रहे हैं?
और मैं निवेदन करता हूँ कि मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि जब विकल्प दिखाई दें तो उल्टे-पुल्टे किसी भी विकल्प को चुन लो। उसको कहते हैं ‘बीईंग डिफरेंट फॉर द हेक ऑफ इट’ (सिर्फ़ अलग दिखने के लिए अलग होना)। वैसे भी बहुत चलते हैं, बम्बई का वीकेंड है, सडकों पर बहुत ऐसे घूम रहे हैं और घूम रही हैं ‘डिफरेंट, फॉर द हेक ऑफ इट’।
वो करने को नहीं कह रहा हूँ कि अलग होना है न, आचार्य जी ने यही बोला था कि जैसे सब हैं वैसे नहीं रहना, अलग होना है। अब अलग होना है तो अलग होने के लिए कुछ भी बे-सिर-पैर का कर डाला। ना!
न रूढ़ि पर चलना है, न रूढ़ि के विरोध पर चलना है; सत्य पर चलना है, विवेक पर चलना है। रूढ़ि का विरोध आवश्यक नहीं है कि विवेक की निशानी हो। रूढ़ी कहती है बहुत सारे कपड़े पहन लो, रूढ़ी का विरोध करोगे तो कहोगे हम कपड़े बिलकुल ही त्याग देंगे, यह दोनों ही मूर्खताएँ हैं। कुछ बात जम रही है?