जिसके दर्शन हो जाएँ वो कृष्ण नहीं || महाभारत पर (2018)

Acharya Prashant

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जिसके दर्शन हो जाएँ वो कृष्ण नहीं || महाभारत पर (2018)

प्रश्नकर्ता: परिवार में, नौकरी में, आदतों में, हर जगह मैं अर्जुन की तरह अपने-आपको दुविधाग्रस्त पाता हूँ। सत्य कई बार दिख भी रहा होता है, पर किसी मूर्खतावश उस पर चलने का साहस नहीं कर पाता। मेरी अपने भीतर बैठे कृष्ण तक पहुँच नहीं है, और आपकी कही युक्तियों पर चलने का साहस नहीं करता। अपने जीवन-युद्ध के बीचों-बीच कृष्ण की मौजूदगी के दर्शन कैसे हों, मतलब इन फूटी आँखों का इलाज कैसे हो?

आचार्य प्रशांत: अरे! छोड़ो। इतनी विनम्रता अच्छी नहीं है। क्या-क्या बोल रहे हो? “अर्जुन की तरह अपने-आपको दुविधाग्रस्त पाता हूँ, मूर्खतावश सत्य पर नहीं चलता। मेरी फूटी आँखों का इलाज कैसे हो?”

जो सत्य की ख़िलाफ़त कर लेता हो, उसमें बड़ा आत्मविश्वास होगा। यह विनम्रता झूठी है। तुम यूँ ही झूठ-मूठ अभी मुझे कह रहे हो कि आँखें फूटी हैं, और साहस कम है, डर लगता है और आदतों का ग़ुलाम हूँ। ऐसा कुछ भी नहीं है। बहुत बड़ी तोप है सत्य, उसका तुम मुक़ाबला कर रहे हो लगातार, वह भी सफलतापूर्वक, तो सोचो कि तुम ख़ुद कितनी बड़ी तोप हो, कम-से-कम अपनी नज़र में।

जो सत्य के ख़िलाफ़ खड़ा हो, सोचो कि वह अपने-आपको क्या समझता होगा! वो तो सूरमाओं का सूरमा है। तुम किसके ख़िलाफ़ खड़े हो लिए? सच के ख़िलाफ़! अरे साहब, तुम्हारी नज़र में तुम शहंशाहों के शहंशाह हो।

तो इसलिए कह रहा हूँ कि यह विनय बनावटी है। बीच में तुमने लिख दिया, "सत्य कई बार दिख भी रहा होता है, लेकिन किसी मूर्खतावश उस पर चलने का साहस नहीं कर पाता।" सत्य ऐसा थोड़े ही है कि कभी दिखा और कभी छुपा। और जिसको दिख जाता है, वह उसका ग़ुलाम बन जाता है। ऐसा थोड़े ही होगा कि दिख गया, पर हमने उपेक्षा कर दी।

सच सामने नहीं आता, सच भीतर से उठता है और कब्ज़ा कर लेता है। उसके बाद यह नहीं कह सकते तुम कि, "मुझे दिखता तो है, पर मैं उस पर चलता नहीं हूँ।" अगर चल नहीं रहे हो तो इसका मतलब दिखता नहीं है।

दिखता क्यों नहीं है? क्योंकि नज़र सत्य पर नहीं है, नज़र अपने ऊपर है। और अपने ऊपर नज़र ऐसे नहीं है कि ईमानदारी-पूर्वक अपना अवलोकन करना चाहते हो; अपने ऊपर नज़र ऐसे है जैसे कोई किसी आदर्श पर नज़र रखता है, कि जैसे कोई परमात्मा पर नज़र रखता है। अपनी नज़रों में हम ही सबसे बड़े हैं; हमारे लिए कोई ऊँचा नहीं। हर चीज़ हम नाप-तोल करके देखते हैं, सुनते हैं, मानते हैं। तुम यह भी अगर कहते हो कि तुम किसी की बात सुन रहे हो या मान रहे हो, तो ग़ौर करना कि तुम मानने का भी निर्णय करते हो।

तुम मुझसे कह रहे हो कि, "मैं आपकी कही युक्तियों पर चलने का साहस नहीं कर पाता।" तो निर्णय ही तो करते हो कि नहीं चलना है। कभी-कभार इन युक्तियों का अनुसरण भी कर लेते होगे, वह भी तुम्हारा निर्णय होता होगा।

जब तुमने यह भी कहा कि, "मैं आचार्य जी की बात मान रहा हूँ", तब भी तुमने मेरी बात नहीं मानी, अपनी ही बात मानी। तुमने माना कि मेरी बात में कुछ दम है, तो तुमने मेरी बात को स्वीकार किया।

मेरी बात सीधे कौन-से तुम्हारे हृदय तक पहुँच रही है! वह तराज़ू से होकर गुज़रती है, वह नापने वाले फ़ीते से होकर गुज़रती है, वह तुम्हारी परीक्षण-प्रयोगशाला से होकर गुज़रती है; पहले तुम जाँचते हो कि बात में दम कितना है। कुछ बातें दमदार लगती हैं, कुछ बातें बेकार लगती हैं, जो बेकार लगता है, उसको त्याग देते हो, जो दमदार लगता है, उसको भीतर लाते हो।

जो भीतर आता है, उस पर कभी-कभार चल लेते हो। और जब नहीं चल पाते तो कहते हो, “अरे! बात तो अच्छी थी, पर हम उस पर चले नहीं।” क्या ख़ाक चलोगे? बात पर तो तुम वैसे भी चल नहीं रहे थे, चल तो तुम अपनी ही राह पर रहे थे।

यह सब जो तुम कहानियाँ सुना रहे हो, ये बहुत पुरानी हैं। इन कहानियों के चंगुल से बचो। जिस किसी ने ज़िंदगी से सच्चाई को दूर रखा है, उसने कुछ ऐसे ही बहाने बनाए हैं – “समझ में तो आता है पर चल नहीं पाता”, "बात दिखती तो है, पर मुझमें साहस नहीं है।" कोई कहता है, "अभी मेरी तैयारी पूरी नहीं है।" अरे, यह तुम किसको बेवकूफ़ बना रहे हो? स्वयं द्वारा स्वयं को ही छल रहे हो। मत करो ऐसा।

कह रहे हो, “अपने जीवन-युद्ध के बीचो-बीच कृष्ण की मौजूदगी के दर्शन कैसे हों? इन फूटी आँखों का क्या इलाज हो?”

कृष्ण के दर्शन की अभीप्सा मत बताओ, बहुत बड़ी बात है और असंभव भी। कृष्ण का कोई दर्शन नहीं होता। कृष्ण का दर्शन अगर अहंकार ने कर लिया तो वह और फूलकर कुप्पा हो जाएगा, कहेगा, “जानते हो मैं कौन हूँ? जो अभी-अभी कृष्ण का दर्शन करके आया है। वो गली में चौथी दुकान पर बैठे चाय पी रहे थे, मैं कर आया दर्शन। बच्चू ने कोशिश तो बहुत की कि मुँह छुपा ले, पर हम भी रुस्तम हैं, कर ही आए दर्शन। और देखो सबूत के लिए फोटो भी खींच लाए हैं। ये देखो। हाँ, वह जो चौथा बैठा है न, चाय सुड़क रहा है और मुँह छुपाने की कोशिश कर रहा है, वही है कृष्ण।"

कृष्ण के दर्शन नहीं किए जाते, कृष्ण का उपकार हो, कृष्ण का वरदान हो तो माया के दर्शन होते हैं। माया का तो दर्शन कर लो पहले। माया का दर्शन किया है? जब तक झूठ को झूठ नहीं जानोगे, क्या तुम सच की बात करते हो!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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