वक्ता: हमारी शिक्षा हमको क्या बताती है? हमारा विज्ञान हमको क्या बताता है? वो बताता है कि पत्ती को जानना है, तो पत्ती को क्या करो?
श्रोता १: उसका विच्छेदन करो।
वक्ता: पत्ती को पहले तोड़ना पड़ेगा, और उपकरणों का प्रयोग करो, और ये करो और वो करो। वो ये थोड़ी कहता है कि पत्ती के साथ दोस्ती करो, पत्ती के प्रेम में हो जाओ, ‘पत्ती’ ही हो जाओ। ये थोड़ी कहा जाता है।
श्रोता २: जिज्ञासु मन बहुत अच्छा माना जाता है।
वक्ता: जिज्ञासा, क्यूरिऑसिटी अपनेआप में ठीक है, पर जिज्ञासा को यदि उचित उपकरण मान लिया गया, यदि ये मान लिया गया कि जिज्ञासा से ही उत्तर मिल जाएगा, तो बात गड़बड़ हो जाती है।
श्रोता ३: जिज्ञासा से तो प्रश्न उठते हैं।
वक्ता: प्रश्न उठ सकता है।
श्रोता ४: पर जिज्ञासा ग्रहणशीलता भी तो है क्योंकि जो जिज्ञासु नहीं है, उसके सामने तुम कुछ बोल रहे हो, तो…?
वक्ता: देखिये, जिज्ञासा में और समाधान की इच्छा में अंतर है।समाधान की ही जो इच्छा होती है, उसको ‘मुमुक्षा’ कहा गया है। जो जिज्ञासु होता है, उसको ये भ्रम होता है कि उसको कष्ट प्रश्न दे रहा है। वो प्रश्न का निवारण करना चाहता है। जो मुमुक्षु है, वो सवाल तो पूछता है, पर इतनी स्पष्टता उसको है कि, “मुझे पीड़ा ये सवाल नहीं दे रहा, मुझे पीड़ा इस सवाल के पीछे जो मन है, वो दे रहा है।” तो वो सवाल का निवारण कम चाहता है, मन का निवारण ज़्यादा चाहता है।
इसीलिए जिज्ञासा के तल पर रह कर आप वही करोगे, जो होता है, कि पत्ती को जानना है, तो ‘पत्ती’ को जानना है, अपने को बचाए रखना है। “मैं वही रहूँगा जो मैं हूँ, और ऐसा होते हुए, ऐसा रहते हुए ही, मैं पत्ती को भी जान लूँगा” – ये जिज्ञासा है। मुमुक्षु भी पूछ सकता है, “पत्ती क्या है?” वो भी पूछ सकता है। पर जब वो ये पूछेगा, प्रश्न हो सकता है दोनों का एक हो, जिज्ञासु का मुमुक्षु का प्रश्न एक ही हो, “पत्ती क्या है?” पर दोनों के तरीके बहुत अलग-अलग होंगे, साधन बहुत अलग-अलग होंगे।
जिज्ञासु क्या कहेगा? “मैं, मैं हूँ, मुझे पत्ती के बारे में जानना है।” और मुमुक्षु कहेगा? “मैं-मैं रहते हुए पत्ती को जान नहीं सकता। पत्ती संसार है, संसार मन है, पत्ती को जानना है तो वो दूरी मिटानी पड़ेगी जिसमें ‘मैं’ भाव बैठता है।” ‘मैं’ भाव पनपता ही है दूरी में, तो कहेगा, “मैं, ‘मैं’ रहते हुए पत्ती को नहीं जान सकता, दूरी मिटानी पड़ेगी, पत्ती के पास जाना पड़ेगा, काँटों को भी स्वीकार करना पड़ेगा, पत्ती के साथ काटें भी हैं। वहाँ भी प्रेम होगा, तब पत्ती का कुछ पता चलेगा।”
तो दोनों की दृष्टि में ये गहरा अंतर है। एक लगातार-लगातार अपने को बचाने की कोशिश में है, और दूसरा एक मूलभूत बात समझ गया है कि – “जैसा मैं हूँ, ऐसा रहते हुए कुछ जाना नहीं जा सकता, सिर्फ प्रक्षेपित किया जा सकता है। कुछ जाना नहीं जा सकता।” इसका अर्थ ये नहीं है कि – “मैं बदल के भी कुछ जान सकता हूँ।” इसका मतलब ये है – “मैं जब तक कुछ भी हूँ, तब तक जानना सम्भव नहीं है। तो इसलिए एक होना पड़ेगा।” दोनों के साधनों में, तरीको में, पूरे दृष्टिकोण में बड़ा अंतर है।
बात स्पष्ट हो पा रही है? ये बहुत काम आएगा आपके, अगर आप ध्यान से सुना करें कि आपके जो छात्र हैं, वो आपसे पूछते क्या हैं, बहुत ध्यान से सुनें। और ध्यान से जब सुनें, तो देखें कि – कहाँ से वो प्रश्न निकल रहा है? किस पीड़ा से निकल रहा है? आपको समझना पड़ेगा, आपको उसके मन में झाँकना पड़ेगा। और किसी के मन में झाँकने के लिए सर्वप्रथम आपका शांत होना बहुत ज़रुरी है। तब समाधान उठता है, अन्यथा नहीं। अन्यथा आप छोटे-मोटे उत्तर देते रहोगे।
वो आया है आपके पास और पूछ रहा है, “अच्छा, आप मुझे बताईये कि एम्.टेक करना हो तो कैसे तैयारी करें?” आपने बता दिया। थोड़ी देर में फिर आता है, कहता है, “ऍम.बी.ए?” वो भी बता दिया। “अच्छा, और इधर-उधर नौकरियों के लिए कैसे करें?” वो भी आपने बता दिया। “अच्छा कुछ ना करना हो तो कैसे करें?” वो भी आपने बता दिया। ये मूर्ख ही शिक्षक होगा जो उत्तर दिए ही जा रहा है।
यदि पात्रता है आप में गुरु होने की, तो आप पकड़ लोगे उसको, और कहोगे, “इधर आ, तुझे कुछ भी पता है जीवन का? मैं तेरे किसी सवाल का जवाब नहीं दूँगा। तेरे मन में इतनी गाँठें हैं, इतनी उलझनें हैं। तुझे अपनी दिशा का कुछ पता नहीं। तू ये क्या बार-बार पूछ रहा है कि इधर जाऊँ, या उधर जाऊँ। शराबी जैसी तो तेरी हालत है, पहले तो तेरी हालत ठीक करनी ज़रुरी है।तेरे इन सवालों में क्या रखा है? तू कुछ जानता नहीं अपनेआप को, ना जीवन को, ना जीवन की गति को, इसीलिए इतने सवाल पूछ रहा है। कोई स्पष्टता नहीं है तुझे। आ पहले उसके बारे में बात करेंगे, इधर-उधर की बातें नहीं।”
~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।