प्रश्नकर्ता: जीवन में सर्वश्रेष्ठ करने योग्य क्या है? हम यहाँ - पृथ्वी कहें, पृथ्वी-लोक कहें - हमारा यहाँ जीवन-काल सीमित समय तक है। क्या है सर्वश्रेष्ठ जो हमें करना चाहिए? और वास्तव में तो ये खेल ही क्या है, लाइफ़ (जीवन)? हम यहाँ हैं, कभी नहीं थे, फिर कभी नहीं होंगे।
आचार्य प्रशांत: आगे करने योग्य क्या है ये सवाल पूछने में आप ये माने बैठे हैं कि ‘आगे’ जैसा कुछ होता है। जब हम प्रश्न करें तो प्रश्न पूरा हो। प्रश्न का अर्थ ही यह होता है कि, "मुझे नहीं पता।" "मेरा प्रश्न ये है कि जीवन में सर्वश्रेष्ठ करने योग्य क्या है? मतलब मैं नहीं जानता जीवन क्या है।" ठीक? पर आप जानना ये चाहते हैं कि जीवन में सर्वश्रेष्ठ करने योग्य क्या है, “मैं आगे क्या करूँ?” आप जीवन किसको बोलते हैं? जैसा कि, आपने कहा कि, ये जीवन लोक है, मृत्य लोक है। हम यहाँ आए हैं फिर चले जाएँगे यानि कि आप जीवन को समय जानते हैं। ठीक? आप कह रहे हैं कि जीवन क्या है, मतलब आप नहीं जानते जीवन क्या है। आपने ये भी कहा कि जीवन समय है। मतलब आप ये भी नहीं जानते कि समय क्या है। यानी कि आप समय को नहीं जानते, जब आप समय को नहीं जानते तो आप ये क्यों पूछ रहे हैं कि आगे क्या करें? जिस चीज़ को आप जानते ही नहीं उस चीज़ पर इतना भरोसा क्यों कर रहे हैं कि क्या पता वो हो ही ना? या तो आप ये कहते कि, "जीवन क्या है ये मुझे भली-भाँती पता है अब मैं आगे क्या करूँगा ये मैं तय करूँ।" पर जीवन तो है समय, और जीवन का आपको कुछ पता नहीं, मतलब समय का आपको कुछ पता नहीं। जब समय का आपको कुछ पता नहीं तो आप भविष्य की बात क्यों कर रहे हैं? पर हम प्रश्न कभी ये मान कर पूछते ही नहीं हैं कि, "मुझे नहीं पता"।
प्र: नहीं, वास्तव में यही मान कर पूछा गया था।
आचार्य: पर देखिए कि जब आपने माना भी अपनी तरफ़ से कि आपको नहीं पता, तब भी आपका बहुत कुछ है गहराई से जिसको आप माने बैठे हैं कि आपको पता है ही। उदाहरण के लिए आपने ये मान ही रखा है कि समय वास्तविक है ही। उदाहरण के लिए आपने ये मान ही रखा है कि आप कहीं से आए हैं जो आपके आने से पहले भी था और आप कहीं से चले जाएँगे और आपके जाने के उपरांत भी कुछ रहेगा। कैसे पता आपको? जब मैं प्रश्न करूँ तो पूर्णतया खाली हो कर के क्यों न करूँ? अज्ञानता से इतनी समस्या क्यों है मुझे? मैं क्यों नहीं कह सकता कि, "मुझे बिलकुल नहीं पता कि मैं कहीं आया भी हूँ या नहीं"? मैं क्यों नहीं कह सकता कि, "मुझे बिलकुल नहीं पता कि मेरे आने से पहले यहाँ कुछ था भी कि नहीं"?
प्र: यही सत्य है। हो सकता है कि अज्ञानता के कारण नहीं पूछ पाया हूँ पर यही प्रश्न है।
आचार्य: और मुझे कैसे पता कि मेरे जाने के पश्चात् यहाँ कुछ रहेगा कि नहीं? मुझे कैसे पता कि कुछ है भी या नहीं? बढ़िया! तो यहीं से शुरुआत करते हैं। - 'कुछ है भी या नहीं?' जब आप कहते हैं ‘मैं’ या 'ये संसार', या 'यहाँ आना', या 'यहाँ से रवानगी', तो आप इतना तो मानते ही हैं कि कुछ है। ठीक? साथ चलिएगा मेरे। आप इतना तो मानते ही हैं कि कुछ है। आप क्या मानते हैं?
प्र: कुछ है।
आचार्य: कुछ है। और जो कुछ है वो आपको पता कैसे चलता है? आपको कैसे पता कि कुछ है? अपने मान रखा है न कुछ है। ‘क्या है’, इस विषय में आपकी उत्सुकता है। प्रश्न है। पर इतना तो आपने निःसंदेह धारण ही कर रखा है कि कुछ है। अब मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि आपको कैसे पता कि कुछ है?
प्र: देख कर, अनुभव से।
आचार्य: हाँ, देखना। अनुभव ने अभी पीछे देखा। और कैसे पता चला?
प्र: बताया गया।
आचार्य: सुना। और कैसे पता चला?
प्र: जो भी इन्द्रियाँ हैं।
आचार्य: पढ़ा। मतलब जो भी कुछ आप कहते हैं कि ‘है’, वो आप इसीलिए कह पाते हैं क्योंकि आपकी इन्द्रियाँ उसकी गवाही दे रही हैं। ठीक। आँखें, कान ,नाक ,स्मृति , अन्तःकरण, ये जो कुछ भी हैं, वो कह रही हैं कि ‘है’, तो अपने मान लिया कि?
बोलिए?
प्र: है।
आचार्य: है। आँख पर बड़ा भरोसा है हमें अब ये कैसे पता कि आँख है? ये दीवार है, (दीवार की ओर इशारा करते हुए) इसकी गवाही किसने दी? आँख ने। आँख है, इसकी गवाही कौन देगा? मैं जिस पर इतना भरोसा कर रहा हूँ क्या वो भरोसेमंद है? इतना भरोसा मैंने उस पर किया कैसे? मुझे कैसे पता आँख है? तुमने अपनी आँख देखी है कभी? देखी है? देखी तो है ही आँख से आँख देखी और उस पर भरोसा कर लिया, ये तो गड़बड़ हो गयी। तुमने अपना मन सोचा है कभी? सोचा तो है ही, कहते हो कि, "देखो न मेरा मन ऐसा कह रहा है, वैसा कह रहा है", ऐसे कहते हो कि जैसे तुमने अपने मन को देखा हो। कि, "अभी न चाट का मन कर रहा है!" मन को भी यदि तुमने जाना, विचारा, तो कैसे विचारा?
श्रोतागण: मन से।
आचार्य: मन से ही। कैसे पता वो है? तुम्हारे पास क्या उपकरण है जानने का? क्यों इतना भरोसा?
प्र: एक चेतना है जो सब माध्यमों में से हमें बताती है।
आचार्य: क्या है वो चेतना?
प्र: *दैट इज़ स्टडी*।
आचार्य: क्या है? कैसे पता वो चेतना है?
प्र: सर, यदि हम कोई भाषा नहीं सीखे होते तो यानी विचार भी आता नहीं। मतलब देखते हैं ये भी बोल नहीं पाते।
आचार्य: हाँ। बोल नहीं पाते।
प्र: भरोसा इसलिए है कि शायद ये डर है कि अगर ये सब चीज़ें नही होंगी तो हमारा अस्तित्व कहाँ है?
आचार्य: सबसे पहले तो ये देखना ज़रूरी है कि जिसको आप असली ही मानते हो वो मात्र आपके मन का खेल है। आपका संसार की वास्तविकता में जो गहरा यकीन है वो हिलना ज़रूरी है। क्योंकि संसार में गहरा यकीन आपको पूर्णतया पदार्थ-वादी बना देता है। संसार में पदार्थ के अलावा कुछ होता नहीं। पर हम बात ऐसे करते हैं कि ये जो सब कुछ है, ये सत्य है।
सत्य, वो जिसको किसी माध्यम की ज़रूरत न पड़े। सत्य, वो जिसके होने पर किसी भी तरह से कोई संदेह न किया जा सके। सत्य, वो जिसका होना समय पर, स्थान पर, परिस्थिति पर, निर्भर ना करता हो। और आप जो कुछ भी देखते हैं, सुनते हैं, समझते हैं, वो पूर्णतया आपकी इन्द्रियों पर, परिस्थिति पर, मन पर निर्भर करता है।
जीवन का उद्देश्य कहा आपने, जिसको हम जीवन कहते हैं उसी को यदि जान लें। तो ये कोई छोटा उद्देश्य नहीं है, बहुत बड़ा उद्देश्य है ये। मैं जीवन कह किसको रहा हूँ? हम बड़ी ठसक के साथ दावा करते हैं न, "ज़िन्दगी, मेरी ज़िन्दगी, ऐसी ज़िन्दगी, वैसी ज़िन्दगी", मैं कह किसको रहा हूँ ज़िन्दगी? जैसे–जैसे आपके सामने ये स्पष्ट होता जाता है कि आप किसको ज़िन्दगी कह रहे हैं, ज़िन्दगी बदलती जाती है। जैसे-जैसे आप संसार के होने में बैठते जाते हैं, उसको खोलते जाते हैं, वैसे-वैसे आपके लिए संसार उद्घाटित होता जाता है, बदलता जाता है। आपका मन बदलता जाता है। जब मन बदलता जाता है तो जो आपने सवाल पूछा, जो मूल प्रश्न था कि 'आगे क्या करें?' ये प्रश्न भी बदल जाता है। समय में आपकी आस्था संसार में आपकी आस्था है। जब संसार में आपकी आस्था हिलती है तो समय में आपकी कोई विशेष आस्था नहीं रह जाती। मैं भविष्य के प्रति इतना उत्सुक इसीलिए रहता हूँ क्योंकि संसार में मेरी बहुत रुचि है। ये नीयम याद रख लीजियेगा - जिसकी संसार से आसक्ति ख़त्म हो गई, उसकी समय से रुचि भी ख़त्म हो जाती है। यदि आप किसी को पाएँ जो भविष्य के प्रति बड़ा उत्सुक रहता है, जो अभी आशा में जीता है या जिसको अभी कल को लेकर डर है तो उसके बारे में ये भी आप तुरंत ही जान लीजिये कि उसको अभी संसार पर बड़ा विश्वास, और संसार से बड़ा मोह है।
जिसका संसार छूटता है उसका भविष्य भी तुरंत छूट जाता है। तो आप कल के बारे में कोई सवाल पूछ रहे हैं और मैंने उसका जवाब दिया कि अभी आपके चारों ओर जो संसार प्रतीत होता है ज़रा उसको ग़ौर से देखें। उसके आते-जाते रंगों को देखें, उसकी मन पर निर्भरता को देखें, मन की उस पर निर्भरता को देखें। जैसे-जैसे ये बातें खुलेंगी, हो सकता है आपका प्रश्न ही विलुप्त हो जाए।